समस्त सृष्टि की जिज्ञासा-जनित अनुभूतियों की तथ्यपरक और आदर्शोन्मुख – यथार्थ की अभिव्यक्ति जनसंचार की अनिर्वायता है। समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय गतिविधियों एवं विचारधाराओं को प्रतिबिम्बित और अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान मीडिया के आधार भूमि हैं। किसी भी समाज या देश की लोक-चेतना, राजनीति उत्थान-पतन, सामाजिक पुनर्जागरण, साहित्यिक-सांस्कृतिक अभ्युत्थान के इतिहास को निर्धारित करने में पत्रकारिता का अप्रतिम योगदान होता है। इतिहासकार प्रतिबद्धता पर तो प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं किन्तु समकालीन और तद्युगीन पत्र-पत्रिकाओं के आधार पर रचित इतिहास शायद ही सत्य से दूर हों। संचार माध्यमों के विकास ने विश्व-परिवार की अवधारणा को मूर्तमान कर दिया है। इस क्षेत्र में प्रतिदिन नए-नए आयाम प्रादुर्भूत हो रहे हैं।
जिज्ञासा की चित्त-वृत्ति से प्रेरित होकर मनुष्य जो कुछ जानना चाहता है उसे समाचार या सूचना की संज्ञा दी जाती है। समाचार को जानने के कई माध्यमों के बीच भी अखबार महत्त्वपूर्ण माध्यम है। इसकी पैनी धार के कारण ही अकबर इलाहाबादी ने कहा है –

‘‘खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो, अखबार निकालो।।’’
– अकबर इलाहाबादी

‘‘साहित्य समाज का दर्पण है तो पत्र-पत्रिकाएँ उन साहित्य का सार।’’ मानव-जीवन की संपूर्ण झाँकी को पत्रकारिता अपने ह्नदय में समेटे रहती है। पं. कमलापति त्रिपाठी के अनुसार -‘‘साधक के लिए सधना का, त्यागी के लिए उत्सर्ग का, तपस्वी के लिए कपट, सहन तथा अनाषक्ति का, योद्धा के लिए संघर्ष और रण का, कवि के लिए अनुभूति की अभिव्यक्ति का, कलाकार के लिए संस्कृति के गूढ़ और रहस्यमय चित्रों के चिंतन करने का, आलोचक के लिए जीवन की स्थल और सूक्ष्म धारा के विवेचन का, साहित्य के लिए लौकिक और अलौकिक यथार्थ और भावुक जगत् को प्रकाश में लाने में मीडिया के अलावा कोई और समर्थ नहीं है। ज्ञान और विज्ञान, दर्शन और साहित्य, कला और कारीगरी, राजनीति और अर्थनीति, समाजशास्त्र और इतिहास, संघर्ष और क्रांति, उत्थान और पतन निर्माण और विनाश, प्रगति और दुर्गति के छोटे प्रभावों को प्रतिबिम्बित करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कोई नहीं है।’’  कहा जा सकता है कि मीडिया एक सेवक की भाँति जनता-समाज और राष्ट्र की सेवा करती है, जन-सामान्य को दिशा-दृष्टि प्रदान करती है – ‘‘छोटा परिवार सुखी परिवार’……..’’, ‘‘दो बूँद जिन्दगी के………’’, ‘‘चलो स्कूल चलें हम…..’’, ‘‘इंग्लिष इज फ़न………’’। मीडिया जहाँ प्रषंसा करती है – ‘‘इरादों में हो दुगनी चमक तो………….’’ , हर तीसरे सेकेंड हम नई कहानी सुनाते हैं – एक समझदारी भरा फैसला…………’’ वहीं अन्याय, दमन प्रतिशोध आदि की खुलकर निंदा भी करती है – ‘अगर आप वोट नहीं दे रहे हो तो आप सो रहे हो……. , ‘दुर्घटना के समय आप पड़ोसी की मदद नहीं करते तो अगली बारी आपकी ………। ‘सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी…..।

आज सूचना-समाचार विस्फोट ने सदी की शक्ल बदल दी है और मीडिया के इस क्रांतिकारी विकास ने उस दुनिया का पता बता दिया है, जिसमें हजारों-लाखों मनुष्य हमारी धरती के ऊपर अपनी दुनिया में लगातार मौजूद हैं। अब मीडिया के माध्यम से भौतिक और वैचारिक संपदा के नियमन का तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका है। इस विश्वयुद्ध में मीडिया और मशीन इतने कारगर हथियार का रूप ले चुके हैं कि जीवन मूल्यों का स्वरूप ही बदल गया है। देश में वैचारिक हाहाकार मचा हुआ है। हर व्यक्ति वैचारिक और सांस्कृतिक आक्रमण से त्रस्त हो चुका है और चीख रहा है कि हमारी सभ्यता के लिए भयावह खतरा पैदा हो गया है। लोग समझते हैं कि इस वैचारिक महायुद्ध में मीडिया और मशीन ही शामिल है परंतु वे भूल जाते हैं, कि इलेक्ट्रानिक क्रांति की केंद्रीय शक्ति मनुष्य और उसके जीवन मूल्य हैं। भारत देश कभी किसी युग में विश्व परिवार का, मानवीय संबंधों के सुखद संसार का सपना देखा था मनीषियों ने ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ के सूत्र का प्रवर्तन किया था आज बोलबाला है – ‘कर लो दुनिया मुटठी में……’। मीडिया ने ‘कॉरपोरेट कल्चर’ को ‘युग का सच ’ बना दिया हे। जिसने विश्व परिवार के सपने को विष्व बाजार की हकीकत में बदल दिया है। दिखावा है, छलावा और लुभावनी बातें भी हैं – जैसे ‘‘सात दिनों में आप भी खिली-खिली नजर आएं……, ‘साफ त्वचा सिर्फ तीन दिनों में…..’, ‘रिंकल फ्री त्वचा पाएं सिर्फ 99 रुपए में ……..’ आदि में मिठास तो बहुत है पर कंटकों की चुभन में लिपटी हुई। इंसानी रिश्तों का संसार दुकानदार और खरीददार के गलियारे तक सिमट कर रह गया है।

मानवीय जीवन की महत्त्वपूर्ण और अनिवार्यता के कितने ही विशेषण क्यों न जोड़े जाएं, लेकिन कॉरपोरेट संस्कृति के चलन से सर्वथा एक नया ही परिदृष्य उभरकर सामने आया है। इसमें जीवन का एक हिस्सा ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन ही बाजार और व्यापार नजर आने लगा है। कॉरपोरेट संस्कृति ने मानवीय संबंधों पर अपनी दूषित छाया डाली है – ‘जब मिल बैठे तीन यार मैं, आप और हमारा ……………’, ‘‘ठंडा मतलब कोकाकोला………..’’, ‘भाई -बहन की प्रगाड़ता – एशियन पेंट से……’’ – उसका सच है ‘‘डाकू खड़ग सिंह की सफलता !……’ मीडिया कॉरपोरेट जगत् को सहयोग करते हुए प्रत्येक उत्पाद से जुड़े विज्ञापन में संबंधों की संवेदना का हरण कर रहा है। आज के दौर में रिश्तों की भी ‘ब्रांड-वैल्यु’ हो गई है। वह प्यार, प्यार ही क्या, जिसमें किसी विषेष ब्रांड का उपहार शामिल न हो। पति-पत्नी, भाई-बहन, पिता-पुत्र, माता-पुत्री के बीच संबंध अनायास ही किसी न किसी विशेष ब्रांड, विशेष कंपनी अथवा किसी खास उत्पाद से जुड़ गए हैं।

यहाँ मैं अमरीकी अर्थशास्त्री और मीडिया विशेषज्ञ मैकलूहान की बात को मंजूर नहीं करती कि ‘मीडिया इज द मैसिज !’ क्योंकि यह बात अब जाहिर हो चुकी है कि मीडिया और मशीन माध्यम और उपकरण हैं और संदेश (मैसिज) का नियंता मनुष्य ही है और रहेगा। हमें जिनकी संस्कृति अप-संस्कृति लगती है, उन्हें हमारी संस्कृति मूल्यहीन और मरणशील लगती है।

भारतीय जीवन मूल्यों पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बहुत ही व्यापक पड़ा है उसके आधार में मीडिया का प्रचार और प्रसार है लेकिन आज भी अपनी विविधता भरी विपुल देशज साहित्यिक और लोक संस्कृति अक्षुण्य है ! क्योंकि वह विलास केंद्रीत नहीं, वह सामान्य मनुष्य की आंतरिक अनुगूँज और उसके भीतर मौजूद सौंदर्यकामी मनुष्य की वह कुदरती संस्कृति है, जिसने 5000 वर्षों से भारतीय मनुष्य को जीवंत और जीवित कर रखा हें वो नहीं जो मध्यवर्ग की तथाकथित (ओढ़ी हुई) कुलीन संस्कृति जो परिवर्तनीय है।

मैं आप सब का ध्यान निम्न बिंदुओं पर आकृष्ट करना चाहती हूँ –

  •  विचारषून्यता बढ़ी है। अपसंस्कृति का जन्म हुआ है। विचारशून्यता पैदा करने के इस दौर के पीछे सत्ता की वह राजनीति भी है जो अपनी जनता के जाग्रत विचारों और उसके प्रतिवाद से खुद को सुरक्षित रखना चाहती है। उनके घोषणा-पत्रों में भारतीय मनुष्यों की चिंता नहीं है जो आज भी गरीबी की रेखा के नीचे रहने और जीने के लिए बाध्य है।
  •  जनसंचार के माध्यम द्वारा ‘सेक्स’ का प्रदर्षन करने से जहाँ एक ओर मन के किसी कोने में छिपा हुआ पषुत्व जाग उठता है वहाँ दूसरी ओर समाज अपनी मर्यादा भी लांघने लगता है धन अर्जित करने की प्रक्रिया को जो लोग सर्वोपरि मानते हैं उन्हें न तो अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का ध्यान है और न ही इसका कि अपने देश को सबल बनाने के लिए उसके नागरिकों को सम्मानजनक स्थिति में रख कर उनका मनोबल बढ़ाना भी उनकी जिम्मेदारी है।
  • अपसंस्कृति का जो प्रचार-प्रसार हो रहा है उसका मंत्र ही है – स्पर्धा से जनित ईर्ष्या को बढ़ावा देकर मूल्यहीनता और विचारशून्यता का उत्पादन। भारतीय मनुष्य को उसके इंसानी सवालों और चिंताओं से विलग करके उसे एक ‘प्रोडक्ट’ में बदल देने का है। इस संस्कृति में दया और करुणा जैसे मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि उसे सिर्फ स्पर्धा और ईर्ष्या जैसे मूल्यों की ही जरूरत है।
  • मीडिया की यह भूमिका मानव-समाज के बदलते रुख की परिचायक हो सकती है, परंतु संपूर्ण मनुष्य जाति और पर्यावरण का हित-साधक कतई नहीं। इसलिए ‘मीडिया का यह खेल खतरनाक’ हो सकता है।
  • मीडिया हमें दो तरह से संपन्न बना रहा है – एक तो वह हमें हमारे कुलीन वर्ग में व्याप्त स्पर्धा, ईर्ष्या और अवैध संबंधों के रंगारंग दृष्य दिखा रहा है, दूसरे वह पौराणिक कार्यक्रमों के जरिए हमारी भक्ति-भावना को जगाकर हमें प्रश्न पूछने से वंचित करने की भूमिका तैयार कर रहा है। क्योंकि पौराणिक कथाओं को भक्तिभाव से देखा जाता है, और उसे समर्पण और श्रद्धा से अंगीकार किया जाता है, बताया जाता है कि इसमें तर्क और असहमति के लिए कोई स्थान है ही नहीं ! यहाँ केवल पराशक्ति के सामने समर्पण है। यहाँ उत्तर ही – उत्तर है, यहाँ शंका, संशय और प्रश्न नहीं।
  • दूसरी तरफ व्यक्तिगत पसंद और खुली आजादी के मूल्यों को तरजीह देती हुई मीडिया की यह उपभोक्तावादी संस्कृति हमें विचारहीनता के बाजार में ले जा रही है और वहाँ दिमाग का नहीं सिर्फ जेब का इस्तेमाल होता है।
  • उपभोक्तावादी बाजार में ‘बिकना’ और ‘बेच सकना’ ही मीडिया का महामंत्र बन जाता है और स्पर्धा की शक्ति से ही इस उपभोक्तावादी संस्कृति को सींचा जाता हैं। केवल वस्तुएँ ही नहीं, बल्कि शब्दों में गुँथे विचार ओैर भाव भी ‘सरकाय लेव खटिया जाड़ा लगे…., ‘बीड़ी जलैले जिगर से पिया….. भी इस दायरे में हैं। अब प्रत्येक अवस्था के लिए और प्रत्येक संबंधों के लिए ‘कार्ड’ है ! किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है, सब कुछ स्वभावतः ही लिखा और छपा है। टी. वी. के अनगिनत चैनल, एफ.एम. रेडियो, इंटरनेट की अलग-अलग वेबसाइटें, मोबाइल कंपनियाँ आज इसका आसान जरिया बन चुकी हैं।
    ऽ मीडिया के रूप में दूरदर्षन का लक्ष्य ‘सामाजिक परिवर्तन’ लाने वाला माध्यम तय किया गया था कि यह देष में सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों के लिए जमीन तैयार करेगा – एक अशिक्षित देष में सब तरह की चेतनामूलक षिक्षा की आधारशिला बनेगा। व्याख्या का यह कठिन काम शुरू हुआ सामाजिक परिवर्तन की मानसिकता और विकास की भूमिका तैयार करके नए-नए उद्योग-धंधे उर्वरक कारखाने, नहरें, बिजली, बाँधों और सिंचाई के कार्यक्रम षुरू हुए। लेकिन उसके बाद की ‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा…………

मीडिया का अब यह दायित्व है कि तथाकथित मध्यवर्ग की संस्कृति में आती हुई जड़ता और विचारशून्यता में हस्तक्षेप करे और देष के सही और जरूरी सवालों को उठाए, लेकिन यह तभी हो सकता है जब इस हस्तक्षेप के लिए मीडिया को बाध्य किया जाए, और यह तब तक संभव नहीं जब तक मीडिया सत्ता के शिकंजे में रहेगी।

सदियों की सभ्यता और संस्कृति का वह सफर जो इस देश में भयानक विषमताओं को जन्म देकर भी सही दिशा की ओर जाने के लिए प्रतिबद्ध और तत्पर हुआ था, उन मानवीय संबंधों में न तो पवित्र प्यार की गहराई बची है और न संवेदना की मिठास – बस, केवल उपहारों एवं बनावटी बातों का दिखावा ‘‘वॉट एन आइडिया सर जी ! लेकिन अब वह सफर स्विष और हवाला की ओर मुड़ गए हैं !
जो संबंधों के संवेदना शिल्प को समझते हैं, उन्हें इसका ज्ञान भी है, इन्हें हम पाँच बिन्दुओं में कह सकते हैं – 1. आकर्षण, 2. परिचय,3. अनुबंध, 4. संबंध, 5. संस्कार। प्रत्येक संबंध की शुरूआत किसी न किसी पारस्परिक विशेषता के आकर्षण से होती है। इनमें परिचय की प्रगाणता तो होती है, लेकिन कतिपय दूरियाँ एवं मर्यादाएँ को बनाए रखती हैं। बाद में संवेदना की सघनता में ये मर्यादाएँ विलीन हो जाती हैं वैचारिक मिलन के दायरे भावनात्मक परिपक्वता का रूप ले लेते हैं। यहीं से सार्थक संबंधों का सृजन होता है। इस अवस्था में पहुँचने पर संबंध संस्कार बनते है। भारत की संस्कृति एवं परंपरा का यह सच है। लेकिन मीडिया प्रचारित संस्कृति ने इसमें बड़ा उलट-फेर कर दिया है। मन पसंद है तो ‘आई लव यू’ नही तो तनिक सी चूक होने पर ‘आई हेट यू’ कहने में देर नहीं लगती। (अखंड ज्योति पत्रिका पृ. 12) इंसानी रिष्तों में हो चुके उलट-फेर को अनुभव करके एक शायर ने कहा है –

‘रूह के लिए नहीं, बाजार के लिए षेर लिखे जाते हैं !’

माना कि खेतिहर संस्कृति से औद्योगिक संस्कृति में बदलता हुआ समाज अपने कलारूपों और मनोरंजन के साधनों को बदलने की माँग करता है, क्योंकि उसके सुख-दुःख के सवाल बदल गए हैं अब उसे चिड़ियों की चहचहाहट या मुर्गे की बाँग नहीं जगाती, उसे बाँग रूपी मोबाइल अलार्म से निकला टोन एवं उसके शाहर का शोर या फक्टरी का सायरन जगाता है। और कहते हैं ‘‘अब हर दिन की शुरूआत तय है भास्कर के साथ………’’ इन बदलती सच्चाइयों के साथ ही अनजाने में ही जीवन के मूल्य भी बदलते हैं जो अपने बदलते समाज को सार्थक और निरर्थक – दोनों ही तरह की राहत देते हैं। (मीडिया और भाषा संस्कृति, कमलेश्वर, पृ. 34 )

भाषा, साहित्य और प्रदेष की विशिष्टता जो सांस्कृतिक मूल्य पैदा करती है, वे मूल्य आरोपित नहीं होते, वे सहज और नितांत नैसर्गिक होते है। परंतु यह विरोध और उग्र वाचालता, आंदोलन और अपने इतिहास को बनाने या उसे ही सर्वोपरि माने जाने वाले तत्त्व अपनी उस सहज और नैसर्गिक रूप से विकसित होती संस्कृति के वाहक है। इन्होंने सांस्कृतिक विकास को भी सांस्कृतिक आरोपण के द्वारा कलुषित और गंदला कर दिया है। (मीडिया और भाषा संस्कृति, कमलेष्वर, पृ. 56) विपुल संभावनाओं से परिपूर्ण जनसंचार के क्षेत्र में नई क्रांति के बाद भी पर्याप्त मौलिक अनुशीलन का अभाव है।

बाजारवाद की जकड़न में फंसे प्रिंट मीडिया के संसार ने आज ऐसे संपादकों का अकाल पैदा कर दिया हे जो बाबूराम विष्णुपराड़कर की तरह पत्रकारिता को उच्च प्रोद्योगिकी के नए स्वरों के अनुकूल नए षब्द दे सके, द्विवेदी की तरह उपभोक्ता संस्कृति के विकृत और भ्रष्ट हो चुकी भाषा के परिमार्जन का बीड़ा उठा सके अखबारों में लिखे जाने वाले अग्रलेख, संपादकीय टिप्पणियां पत्रों की नीतियों और आदर्शों का आइना हुआ करती थीं, परंतु आज वह भाषा की अराजकता का दस्तावेज बन रही हैं। (राजभाषा पत्रिका, पृ. 33 संस्करण जुलाई-सितंबर 2007 )

आज मीडिया की जिम्मेदारी यह है कि वह अपने देश की बहु-धर्मवादी संस्कृति का संतुलन और प्रक्षेपण इस तरह से करे, ताकि संस्कृति अपसंस्कृति में न बदलने पाए। यह दायित्त्व बहुत नाजुक और महत्त्वपूर्ण है और जब मीडिया इस दायित्त्व को नहीं निभा पाता, तभी भयानक हादसे होते हैं। लेकिन क्या कोई सभ्यता अपनी साँस की कमी को झेलते हुए जीवित रह सकती है ? सभ्यताएँ तभी उजड़ती हैं, जब सांस्कृतिक अवमूल्यन शुरू होता है क्योंकि किसी भी सभ्यता को जीने के लिए अपनी लोक-संस्कृति की साँस भरनी पड़ती है, भर कर रोकनी पड़ती है और रोक कर साधनी पड़ती हैं।

आज संस्कृति और विशेष रूप से ग्रामीण और लोक-संस्कृति के साथ जो अनाचार और अत्याचार अब शुरू हुआ है, उसके पीछे प्रचार और दुष्प्रचारवादी माध्यमों का भी बहुत हाथ है। ‘चली गई संबंधों की मिठास, विश्व बन गया बाजार!

कुल मिलाकर नतीजा यही निकलता है कि मीडिया और मशीन दोषी नहीं हैं – दोषी है उसके पीछे बैठा और इसे संचालित करने वाला मनुष्य। हमारा मीडिया सरकारी तंत्र का गुलाम है। सरकारी तंत्र मषीन के पीछे बैठे प्रोफेशनल को अपने फैसलों और आदेशों से संचालित करता है। और इस तरह हमारा मीडिया, सरकार चलाने वालों की राजनीतिक अप-संस्कृति का सीधा शिकार होता है।

विदेशी अपसंस्कृति के हमले पर चीखने-चिल्लाने की जगह हमें उससे पहले अपनी अपसंस्कृति का सामना करना है। मेरे विचार से इसके रोक थाम के लिए सर्वप्रथम सरकारी नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए पौधों को तैयार करने वाले खाद-पानी पर दृष्टिपात की आवश्यकता है न कि बढ़ी शाखाओं पर। साथ ही मीडिया को जीवंत रखने के लिए – प्रतिभा को नियोजित करना चाहिए। जिनमें पत्रकारिता के पवित्र उदेश्यों में आस्था हो, जो इसके सामाजिक दायित्व से सुपरिचित हों, जिनको इस सत्य का ज्ञान हो कि पत्रकारिता का मकसद समाज में नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति एवं सामाजिक क्रांति की अलख जगाना है – उन्हें ही दायित्व सौंपे। मैं आह्वान करती हूँ उनका जिनके कंधे पर भारत का भविष्य टिका है – आप में दम है जरूरत है सिर्फ इच्छा शक्ति की !

सहायक ग्रंथ –
1. मीडिया, भाषा और संस्कृति : कमलेश्वर, 2004।
2. पत्रकारिता : विविध विधाएँ, डॉ. राजकुमार 2005।
3. राजभाषा भारती, पत्रिका : अंक जुलाई-सितंबर।
4. अन्य पत्रिकाएँ।

 

डॉ. आशा रानी
हिंदी एवं भाषाविज्ञान विभाग
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय
जबलपुर

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