मानव जीवन संघर्ष से परिपूर्ण है I जीवन के संघर्ष के कारण व्यक्ति उदासीन होकर कभी एक स्थान से दूसरे स्थान या परिस्थितियों में भटकने लगता है तो कभी इसी से आधार ग्रहण करके आदर्श मार्ग का अनुसरण करता है I जीवन की यही विविधता उसके सुखद भविष्य की नीव बनती है I वस्तुतः मानव जीवन में आदर्श भाव के साथ साथ मानव संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना गया है जो कि आदर्श और संघर्ष के मध्य की अभिव्यक्ति ही है I संस्कृति मानव की ऐसी विशिष्टता है जो उसे मानवेतर प्राणियों से पृथक् करती है। संस्कृति मानवीय संस्कारों का ही दूसरा रूप है जिसका लक्ष्य व्यक्तित्व के विकास द्वारा मानव मात्र का कल्याण और समाज तथा विश्व से उसका सामंजस्य स्थापित करना था।  समाज विविध सूत्रों द्वारा मनुष्य को ये संस्कार देता है। मनुष्य इन संस्कारों से प्रेरित हो अपनी मान्यताओं का निर्माण करता है। मनुष्य द्वारा निर्मित ये आत्मिक एवं सार्वभौमिक मूल्य मानव-समाज की पाशविकता को दूर कर मानवीयता की स्थापना करते हैं। इस प्रकार ‘संस्कृति’ अपनी मूलभूत प्रकृति एवं स्वरूप के आधार पर संस्कार, धर्म, दर्शन, पौराणिकता, जीवन-मूल्य, नैतिकता आदि शब्दों के निकट पहुँच जाती है। इसके फलस्वरूप शंकाओं का जन्म होता है। अतः ‘संस्कृति’ शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए उपर्युक्त शब्दों के संदर्भ में ‘संस्कृति’ शब्द की व्याख्या अपेक्षित है।

संस्कृति मानव-मात्र की अमूल्य थाती है जिसका निर्माण संस्कारों के माध्यम से होता है। वस्तुतः भावार्थ की दृष्टि से ‘संस्कार’ शब्द ‘संस्कृति’ के निकट है जिससे दोनों शब्दों को एक-दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। डॉ॰ हरवंशलाल शर्मा इस संदर्भ में कहते हैं कि ”संस्कार और संस्कृति में कोई भेद नहीं है। जिस प्रकार संस्कार शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के साधन हैं उसी प्रकार संस्कृति भी शरीर और मन की शुद्धि के द्वारा मनुष्य को अध्यात्म में प्रतिष्ठित करती है।”1  वहीं दूसरी ओर डॉ॰ मुंशीराम शर्मा संस्कृति और संस्कार को एक-दूसरे के निकट मानते हैं। उनके विचारानुसार ‘अर्थ की दृष्टि से एक साध्य है, दूसरा साधन। एक जीवन की ओर इंगित करता है और दूसरा विधि विधानों की ओर। संस्कारों का उद्देश्य है – संस्कृत जीवन का निर्माण। संस्कृत जीवन का अर्थ है उन्नत, उदात्त, दिव्य जीवन, मानवता का परिष्करण, देवी-अतिमानव विभूतियों का आधान, परम उज्ज्वल से उज्ज्वल ज्योति स्वरूप शक्ति का मानव काया में अवतरण।”2  मूलतः ‘संस्कार’ की अवधारणा संशोधन एवं परिमार्जन प्रक्रिया से संबंधित है जबकि ‘संस्कृति’ संशोधन के साथ-साथ उदात्त एवं दिव्य भावों की भी प्रदातृ है। अतः स्पष्ट होता है कि संस्कृति संस्कार के माध्यम से अभिव्यक्त अवश्य होती है किंतु उसकी सत्ता एवं अस्तित्व संस्कार से पृथक् है।

संस्कृति संस्कारों को प्रदान करती हुई धर्म प्रधान जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। अतः ‘धर्म’ संस्कृति का ऐसा मूलभूत तत्त्व है जिसके विधान द्वारा मानव कल्याण-पथ पर अग्रसर होता है। इसी संदर्भ में अनेक विद्वान धर्म और संस्कृति को अभिन्न मान एक ही तत्त्व के दो नाम घोषित करते हैं। यह सत्य है कि धर्म संस्कृति को उदात्तता प्रदान कर मनुष्य में निहित सदाचारी, दयालु, त्यागी, सहनशील, साहसी आदि गुणों का विकास करता है जिससे मनुष्य सुसंस्कृत बनता है। किंतु फिर भी संस्कृति और धर्म में अपार विविधताएँ देखी जा सकती हैं। वैशेषिक सूत्र के अनुसार धर्म ऐसा मूलभूत तत्त्व है जिसके माध्यम से मनुष्य का आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है।3 धर्म मानव-समाज की ऐसी मूलभूत विशिष्टता है जिसमें मात्र शास्त्रसम्मत बातों का ही अनुमोदन किया जाता है। जबकि संस्कृति मानव-समाज की ऐसी विशिष्टता है जो यदा-कदा शास्त्रविरुद्ध लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओें को भी आत्मसात् करती है। अतः संस्कृति का सार धार्मिक जीवन होने के बाद भी दोनों में व्यापक असमानता है।

संस्कृति सृष्टि की अक्षय निधि है जिससे मूल्यों का संरक्षण एवं प्रसार होता है। इन मूल्यों के माध्यम से नैतिक जीवन का आदर्श प्रस्तुत होता है। ‘नैतिक’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नीति’ से मानी गई है जिस पर विचार करते हुए कहा गया है कि ‘मानव-समाज को श्लाघनीय एवं सुव्यवस्थित पथ पर अग्रसर करने तथा उसके प्रत्येक व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सम्यक् एवं सुगमता से उपलब्धि कराने हेतु विधि अथवा निषेधात्मक, वैयक्तिक एवं सामाजिक नियमों का विधान जो देश, काल एवं पात्र को लक्ष्य में रखकर बनाया जाता है, वही नीति है।”4  नीति से संबद्ध विवेक के माध्यम से नैतिकता का भाव उदित होता है। नैतिकता ही जीवन-मूल्यों के संयोग से मानव-जीवन की जटिलता में समृद्धि एवं विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। नैतिक पूर्ण जीवन-मूल्य ही जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर जीवन में उत्कर्ष के विधायक बनते हैं। संस्कृति ऐसी ही आदर्श मान्यताओं तथा जीवन-मूल्यों की समन्वित राशि है। अतः संस्कृति को नैतिकता अथवा जीवन-मूल्यों से संबद्ध कर व्याख्यायित किया जाता है। वस्तुतः संस्कृति नैतिकता को ग्रहण अवश्य करती है किंतु साथ ही उसमें संस्करण की भावना भी विद्यमान रहती है। इसी परिप्रेक्ष्य में संस्कृति जीवन-मूल्यों के निकट होने के बाद भी दोनों में पर्याप्त विविधता दृष्टिगत होने लगती है। संस्कृति ऐसी संस्कार युक्त भावा है जो नैतिकता अथवा जीवन-मूल्यों का आश्रय लेकर मनुष्य को यथार्थ से ऊपर उठाकर आदर्श की ओर अग्रसर करती है। इसी कारण संस्कृति और नैतिकता में समानता होने के बाद भी विविधता के दर्शन किए जा सकते हैं।

संस्कृति का वास्तविक स्वरूप पुराणों के संस्पर्श से निर्मित हुआ है। संस्कृति और पौराणिकता के इन्हीं घनिष्ठ संबंधों के कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। ‘पुराण’ का सामान्य अर्थ है – पुराना। वस्तुतः पुराण अति महत्त्वपूर्ण वाङ्मय है जिसमें सृष्टि के आदिकाल से लेकर मनुष्य की समस्त परंपराएँ तथा वंशावलियाँ अलौकिक एवं दिव्य घटनाओं से मंडित होकर चित्रित हुई हैं। ‘पुराण ही भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है – वह आधारपीठ है जिस पर आधुनिक भारतीय समाज अपने नियमन को प्रतिष्ठित करता है।”5  पुराणों के ही माध्यम से प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक, सदाचार एवं नीति का बोध, योग तथा दर्शन का ज्ञान उपलब्ध होता है। पुराणों में चित्रित इन सांस्कृतिक दृष्टिकोणों एवं नैतिक मानों के माध्यम से लोक-जीवन को स्थिरता तथा स्थायित्व प्राप्त होती है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि पौराणिकता एवं संस्कृति में घनिष्ठ संबंध है। वस्तुतः संस्कृति पौराणिकता के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है तथा पौराणिकता मानव के आचार-विचार का परिष्कार करती हुई संस्कृति को गौरव प्रदान करती है। मूल रूप से धर्म के समान ही पौराणिकता का आधार शास्त्र ही हैं। अतः पौराणिकता एवं संस्कृति में अन्योन्याश्रित संबंध होने के बाद भी दोनों में पर्याप्त अंतर विद्यमान है।

‘संस्कृति’ शब्द के संदर्भ में ‘दर्शन’ शब्द की भी चर्चा की जाती है। ‘दर्शन’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है – ‘दृश्येत अनेन इति दर्शनम्’6  – अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। ‘दर्शन’ शब्द में निहित दर्शन का भाव मनुष्य जीवन एवं जगत् के सत्यभूत तात्त्विक स्वरूप का निरीक्षण एवं परीक्षण के संदर्भ में आया है। इस प्रकार ‘दर्शन’ जीवन की व्याख्या कर आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक पदार्थों का विश्लेषण करता है। “संस्कृति भी मनुष्य के जीवन के अर्थ के प्रति विशद्, सचेतना, विश्व की समस्याओं का व्यवस्थित एवं सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से विशद सर्वेक्षण और उत्तम वस्तुओं के विवेक संगत चयन को स्वयं में समाहित भी करती है और उन्हें क्रियान्वित भी करती है।7  संस्कृति का उद्देश्य मनुष्य के आचार और विचार का परिमार्जन करते हुए उसे पशुता से मनुष्यता की ओर अग्रसर करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति दर्शन के समान जीवन की व्याख्या करती है तथा परिष्करण कर्म में प्रवृत्त रहती है। किंतु संस्कृति की व्यापक संकल्पना दर्शन की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए विविध कलाओं को भी स्पर्श करती है। अतः कहा जा सकता है कि दर्शन संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है, वहीं दर्शन संस्कृति का आविभाज्य अंतरवर्ती तत्त्व है जो कि आदर्श जीवन का प्रदाता है।

संस्कृति मानव-जीवन के आंतरिक पक्ष से संबंधित है। संस्कृति का बाह्य समाज में अभिव्यक्त रूप सभ्यता कहलाता है। इसी कारण संस्कृति का अन्यतम एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व सभ्यता माना गया। यद्यपि संस्कृति और सभ्यता मानव-विकास के दो पृथक् तत्त्व हैं तथापि दोनों परस्पर संबद्ध हैं। दोनों अवधारणाओं में आत्मा और शरीर का-सा संबंध है, जिसके विषय में विद्वानों में प्रायः मतभेद देखने को मिलता है। वस्तुतः सभ्यता का संबंध उस नगरीय जीवन से है जो सुख समृद्धि में विश्वास रखती है। अतः इस संदर्भ में डॉ॰ देवराज अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि, “सभ्यता से तात्पर्य उन सब कला-कौशल के मंत्र और तरीकों से है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी मूल क्षुधाओं तथा आवश्यकताओं को सरलतापूर्वक पूर्ण कर सकता है। …. सभ्यता मानव क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाली उन वस्तुओं का नाम है जो मनुष्य की सुरक्षा और स्वतंत्रता का कारण होती है।”8  सभ्यता को अंग्रेज़ी में ‘Civilization’ कहते हैं तथा इस शब्द पर विचार करते हुए डॉ॰ प्रसन्नी कुमार आचार्य ‘सभ्यता’ को मानवीय शिष्टाचार एवं सामाजिक व्यवहार का रूप मानते हैं।”9  वहीं दूसरी ओर संस्कृति का संबंध मानव के अंतःकरण से मानकर उसकी व्याख्या की गई है। डॉ॰ डी॰ एस॰ मजूमदार के अनुसार संस्कृति के अंतर्गत मनुष्य के रीति-नीति, लोक-विश्वास, आदर्श, कलाएँ तथा मानव द्वारा उपलब्ध समस्त कौशलों एवं योग्यताओं को लिया जा सकता है।”10  इस प्रकार स्पष्ट होता है कि व्याकरणिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से संस्कृति एवं सभ्यता में अपार अंतर है। इन दोनों का विश्लेषण करते हुए बाबू गुलाबराय कहते हैं कि -“संस्कृति के बाह्य पक्ष को ही सभ्यता कहते हैं। सभ्यता मूल अर्थ में तो व्यवहार की साधुता की द्योतक होती है परंतु अर्थ विस्तार से यह शब्द रहन-सहन की उच्चता तथा सुखमय जीवन व्यतीत करने के साधनों, जैसे कला-कौशल, स्थापत्य, ज्ञान-विज्ञान और उन्नति पर लागू होता है ….संस्कृति की आत्मा के बिना शव की भाँति निष्प्राण रहता है।11  इसी संदर्भ में डॉ॰ मुंशीराम शर्मा अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि “संस्कृति और सभ्यता दो भिन्न-भिन्न स्थितियों के द्योतक हैं। एक को आत्मा तो दूसरी को शरीर कहा जा सकता है। संस्कृति आंतरिक नैर्मल्य है तो सभ्यता बाह्य प्रसाधन। एक में शांति है तो दूसरी में चमक-दमक। … सभ्यता निश्चित रूप से भौतिक एवं बाह्य आकर्षण मात्र है। संस्कृति आत्मा का शृंगार करती है, हृदय को उदात्त बनाती है तथा मन को विमल विचारों से सुशोभित करती है।”12  इसके अतिरिक्त रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति को सभ्यता से अभिन्न स्वीकार कर मानते हैं कि “यह सभ्यता के भीतर इसी प्रकार व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगंध।”13  इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संस्कृति और सभ्यता में अंगागी भाव ही नहीं है बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं। आदर्श जीवन की प्राप्ति के लिए जहाँ एक ओर आंतरिक सौंदर्य-चेतना से परिपूर्ण, आत्मिक एवं मानसिक गुण युक्त संस्कृति की आवश्यकता है वहीं इस संस्कृति का बाहरी एवं भौतिक रूप युक्त सभ्यता की भी महत्ता है। संस्कृति सभ्यता से विकास-तत्त्व ग्रहण कर सार्वभौमिक रूप धारण करती है। अतः शिष्टाचार एवं बाह्य रूप संस्कृति समाज की मार्गदर्शिका बन मनुष्य का संपूर्ण विकास करती है।

      संस्कृति संस्कार का समन्वित रूप है जो जीवन-मूल्य, आदर्श, परंपरा, बाह्य सभ्यता, धर्म, दर्शन आदि तत्त्वों को समाहित कर मानव-जीवन को सुंदर एवं मंगलमय बनाने का प्रयास करती है। वस्तुतः संस्कृति, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, संस्कार एवं सभ्यता से पृथक् अस्तित्व स्थापित कर व्यापक एवं आंतरिक विचारों को उद्घाटित करती है। संस्कृति से संबंधित निश्चित मत प्रस्तुत करने से पूर्व संस्कृति संबंधी भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतन को जानना आवश्यक है। इन्हीं के संदर्भ में संस्कृति के मूल रूप को व्‍याख्यायित किया जा सकता है। सभी विद्वानों चाहे वे भारतीय हो या पाश्चात्य सभी ने संस्कृति को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है I अतः इस परिप्रेक्ष्य में विविध विचारों की प्रस्तुति के संदर्भ में संस्कृति को समझा जा सकता है I

भारतीय चिंतन में संस्कृति को मानवीय आंतरिक गुण मान उसके विविध तत्त्वों का विश्लेषण किया गया है। वास्तव में किसी भी राष्ट्र की संस्कृति ही उसे गौरवान्वित कर उसकी पृथक् पहचान बनाती है। संस्कृति के कारण ही इतिहास एवं परंपरा के तत्त्व सुदृढ़ हो पाते हैं जिनके परिणामस्वरूप किसी राष्ट्र का अस्तित्व बना रहता है। साथ ही संस्कृति सूक्ष्म एवं बौद्धिक क्रिया-व्यापार द्वारा मन के समस्त राग-द्वेषों का संस्कार कर जीवन को मानसिक एवं आध्यात्मिक शांति देती है। अतः भारतीय मनीषियों ने संस्कृति की विविधता रेखांकित करते हुए विविध मंतव्य प्रस्तुत किए। इस संदर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृति का संबंध श्रेष्ठ साधनों से स्थापित कर कहते हैं कि – “मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति है। … अपनी चरम सत्यानुभूति को प्रकट करते समय कबीरदास ने कहा था – ‘ऐसा लो नहीं तैसा लो, मैं कहि विधि कही अनूठा लो।’ मनुष्य की सामान्य संस्कृति भी बहुत कुछ ऐसी ही अनूठी है। मनुष्य ने उसे अभी तक संपूर्ण रूप से पाया नहीं है, पर उसे पाने के लिए व्यग्र भाव से उद्योग कर रहा है।”14  वहीं डॉ॰ सत्यकेतु विद्यालंकार संस्कृति को साधना के स्थान पर बौद्धिक क्रिया-व्यापार मान कहते हैं कि, “मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है, उसी को संस्कृति कहते हैं।”15  इसके अतिरिक्त श्री इंद्रविद्या वाचस्पति संस्कृति को अध्यात्म, समाज एवं मन का समन्वित रूप मानते हैं। उनके शब्दों में, ‘किसी देश की आध्यात्मिक, सामाजिक और मानसिक विभूति को उस देश की संस्कृति कहते हैं।”16

संस्कृति मानव की ऐसी विशिष्टता है जो उसे मानवेतर प्राणियों से पृथक् कर समाज से जोड़ती है। समाज में ही संस्कृति का जन्म होता है और उसके मापदंड स्थिर होने के पश्चात् आदर्श जीवन का सिद्धांत जन्म लेता है। अतः संस्कृति को दैनिक सामाजिक जीवन का आदर्श स्वरूप मान डॉ॰ हरवंशलाल शर्मा कहते हैं कि, “किसी विशिष्ट समाज द्वारा दीर्घ सामाजिक अनुभवों के आधार पर साधु आचरण के जो मापदण्ड स्थिर कर दिये जाते हैं, वे सब सूक्ष्म भावनात्मक रूप से परिणम होकर समाज के दैनिक जीवन में अनायास ही व्यवहृत होने लगता है – तो संस्कृति का नाम पाते हैं।”17  वहीं दूसरी ओर प्रभुदयाल मीतल संस्कृति में समाज के साथ-साथ पारलौकिक तत्त्व की भी सत्ता स्वीकार करते हैं, “मानव-जीवन के समस्त संस्कार जो लौकिक और पारलौकिक उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करते हुए उसके सर्वांगीण जीवन का निर्माण करते हैं, उसकी संस्कृति कहे जाते हैं। संस्कृति किसी भी देश, जाति या समाज की आत्मा होती है। उसमें उक्त देश, जाति या समाज के चिंतन-मनन, आचार-विचार, रहन-सहन, बोली-भाषा, वेश-भूषा, शिक्षा, कला-कौशल आदि सभी बातों का समावेश होता है।”18  इसी परिप्रेक्ष्य में वाचस्पति गैरोला का मानना है कि – “जिनसे मानवता का संस्कार हो, ऐसी शिक्षा-दीक्षा, ऐसा रहन-सहन और ऐसी परंपराएँ ही संस्कृति के उद्भावक हैं। संस्कृति एक सामाजिक विरासत है और वह संचय से विकसित होती है।”19

संस्कृति जीवन-जीने की प्रणाली है। यह प्रणाली संपूर्ण समूह में समाहित रहती है। इस प्रणाली का आधार मनुष्य-जीवन के आधारभूत मूल्य हैं। इसी कारण डॉ॰ राधाकृष्णन ने संस्कृति को विवेक बुद्धि एवं जीवन को भली प्रकार जान लेने का नाम कहा है।20 वहीं दूसरी ओर श्यामाचरण दुबे का मानना है कि “सीखे हुए व्यवहार-प्रकारों की उस समग्रता को जो किसी समूह को वैशिष्ट्य प्रदान करती है उसे संस्कृति की संज्ञा दी जा सकती है।”21  इसी संदर्भ में डॉ॰ बलदेव मिश्र संस्कृति को मानव-जीवन के विचारों को परिमार्जित रूप मानकर कहते हैं कि, “संस्कृति है मानव-जीवन के विचार, उच्चार, आचार का संशुद्धिकरण अथवा परिमार्जन। वह है मानव-जीवन की सजी संवरी हुई अंतःस्थिति। वह है मानव-समाज की परिमार्जित मति, रुचि और प्रवृत्ति के पुंज का नाम।”22  मूलतः संस्कृति जीवन जीने की प्रणाली प्रदान कर मानव का नैतिक एवं भीतरी विकास करती है जिससे कि मानव में सद्व्यवहार की मनोवृत्ति का जन्म होता है।

संस्कृति मानव-जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति है जो मनुष्य को पशुता के भाव से पृथक् कर मनुष्यता की ओर अग्रसर करती है। दूसरे शब्दों में संस्कृति पशुता के स्तर से मानवीय स्तर तक ले जाने की प्रक्रिया है। इस परिप्रेक्ष्य में मदनगोपाल गुप्ता का मानना है कि, “मानव-जीवन की संपूर्ण गतिविधियों का संचालन अंतःवृत्तियों की जिस सृष्टि द्वारा होता है तथा जिसे अपनाने से वह सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने की दिशा की ओर अग्रसर होता है, उसे संस्कृति कहते हैं।23 वहीं ‘हिंदी साहित्य कोश’ संस्कृति की व्याख्या कर स्पष्ट करता है कि – “संस्कृति का अर्थ चिंतन तथा कलात्मक सर्जन की वे क्रियाएँ समझना चाहिए जो मानव-जीवन तथा व्यक्तित्व के लिए उपयोगी न होते हुए भी उसे समृद्ध करने वाली है, इस दृष्टि से हम विभिन्न शास्त्रों, दर्शन आदि में होने वाले चिंतन, साहित्य, चित्रांकन आदि कलाओं एवं परहित साधन आदि नैतिक आदर्शों तथा व्यापारों को संस्कृति की संज्ञा देंगे।”24  इसके अतिरिक्त वासुदेव शरण अग्रवाल संस्कृति को जीवन जीने का ढंग मानकर कहते हैं कि – “संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार है। हमारे जीवन का ढंग हमारी संस्कृति है।”25  इसी संबंध में अपने विचार रखते हुए सुमित्रानंदन पंत संस्कृति को मानवीय पदार्थ घोषित कर कहते हैं कि – “संस्कृति को मानवीय पदार्थ मानता हूँ जिसमें हमारे जीवन के सूक्ष्म-स्थूल दोनों धरातलों के सत्यों का समावेश तथा हमारे ऊर्ध्व चेतना-शिखर का प्रकाश और समदिक् जीवन की मानसिक उपत्यकाओं की छायाएँ गुम्फित है। उसके भीतर अध्यात्म, धर्म, नीति से लेकर सामाजिक रूढ़ि रीति तथा व्यवहारों का सौंदर्य भी एक अंतर सामंजस्य ग्रहण कर लेता है।”26  इस प्रकार भारतीय चिंतनधारा संस्कृति की व्यापकता को समेटते हुए उसके विविध पक्षों पर विचार करती है। भारतीय चिंतनधारा के मतानुसार संस्कृति आंतरिक तत्त्व है जो समाज के माध्यम से प्राप्त की जाती है। संस्कृति के माध्यम से ही मनुष्य का बौद्धिक, मानसिक एवं कलात्मक विकास संभव हो पाता है।

भारतीय विद्वानों के समान पाश्चात्य चिंतनधारा में भी ‘संस्कृति’ की व्यापकता पर विशद विचार किया गया। पाश्चात्य चिंतकों के अनुसार संस्कृति का संबंध मानवता से है तथा मनुष्य के अस्तित्व में मानवता का ही भाव निहित है। अतः संस्कृति ही मनुष्य के व्यक्तित्व एवं अस्तित्व को स्थापित करती है। इस संदर्भ में बेकन अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि “सर्वश्रेष्ठ ढंग से समझने के लिए इसे मानवता का वह प्रयत्न कहा जा सकता है, जिसमें वह अपने आंतरिक अस्तित्व को प्रभावपूर्ण ढंग से स्थापित करती रही है।”27  वहीं मैथ्यु ऑर्नलड मनुष्य की पूर्णता के सभी प्रयत्नों के सम्मिश्रित रूप को संस्कृति मानते हैं। उनके विचारानुसार “संस्कृति पूर्णता का अध्ययन है जिससे हमें वास्तविक मानवीय पूर्णता को उसके पूर्ण रूप में देखने में मदद करती है। इसके साथ ही हमारी मानवता के सभी क्षेत्रों को विकसित करती है और एक सामान्य पूर्णता के रूप में हमारे समाज के सभी अंगों का विकास करती है।”28

संस्कृति का निर्माण समाज द्वारा होता है तथा समाज संस्कृति से नियोजित होकर बड़ी संख्या में लोगों का मार्गदर्शन करता है। अतः फिलिपि बैगबॉय लिखते हैं कि, “Culture is reqularities in the behaviour, internal and external of the member of society”29 अर्थात् संस्कृति समाज के सदस्यों की आंतरिक और बाह्य व्यवहार की नियमितताओं को कहते हैं। वहीं दूसरी ओर वे अन्य स्थल पर स्वयं कहते हैं कि – “We might say that culture is the ways in which large number of people do thing.”30 अर्थात् संस्कृति कार्य करने की वे प्रणालियाँ हैं जिन्हें बहुत बड़ी संख्या में मनुष्य करते हैं। वहीं जॉर्ज एम॰  फास्टर संस्कृति को नियोजित कार्य से जोड़ते हुए कहते है कि – “A culture is logically integrated, functional, sense making whole. It is no accidental collection of customs and habits thrown together by chance31.अर्थात् संस्कृति तर्कपूर्ण ढंग से समायोजित, कार्यात्मक एवं विचारों का निर्माण करने वाली है। यह रीति-रिवाजों और आदतों का आकस्मिक समायोजन का हठात् सौंपा गया समूह नहीं है। वास्तव में संस्कृति समायोजित जीवन का सृजन कर आदर्श स्थिति को मानव के सम्मुख प्रकट करती है।

पाश्चात्य चिंतनधारा के अंतर्गत टायलर, मैकाइवर तथा पेन जैसे समाजशास्त्रियों ने भी अपने विचार प्रकट किये हैं। टायलर संस्कृति को जटिल समष्टि मानते हुए उसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा अन्य क्षमताओं को सम्मिलित करते हैं। पेज सरीखे विद्वान् संस्कृति का संबंध मानवीय रहन-सहन एवं विचारों से मानते हुए कहते हैं – “Culture is the expression of natgure in our modes of living and of thinking in our everyday intercourse in art, in religion, in recreation and enjoyments”32 अर्थात् संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन तथा आनंद में पाया जाने वाला रहन-सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है। इसके अतिरिक्त हर्ष कॉविट्स संस्कृति का पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग मान संस्कृति में अलौकिक तत्त्वों का समावेश स्वीकार करते हैं।33

संस्कृति नैतिकता का विधान कर परंपरा के माध्यम से मूल्यों को स्थापित करती है। इसके माध्यम से जन-मानस का मार्गदर्शन भी होता है। अतः संस्कृति की एक सुनिश्चित परंपरा देखी जा सकती है। इसी संदर्भ में अपने विचार प्रकट करते हुए जॉन लुइस का मानना है कि आचार, व्यवहार, प्रथाएँ, मान्यताएँ, दृष्टिकोण, भावनाएँ और अन्य सामाजिक व्यवहार अनेक तत्त्वों से प्रभाव ग्रहण करते हैं। ये सब प्रत्येक समाज में एक सुनिश्चित पद्धति और परंपरा का निर्माण करते हैं। यह परंपरा समाज के सभी व्यक्तियों की थाती है। इन सभी प्रचलित और सर्वमान्य व्यवहार पद्धतियों को समष्टि रूप से संस्कृति की संज्ञा दी जाती है। वर्गों और मनुष्यों के परस्पर संबंध और इनके समस्त सापेक्ष व्यवहार सामान्य रूप से स्वीकृत होकर संस्कृति का रूप खड़ा करते हैं। संस्कृति मानव समाज में एकता की भावना उत्पन्न करती है और निर्बाध रूप से काम करने की शक्ति देती है।”34  वहीं दूसरी ओर श्री एफ॰ आर॰  कौल ‘संस्कृति’ को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि – “Culture is that which beingtransmitted orally by tradition and objectively through writing and other means of expression enhances the quality of life, with meaning and value by making possible the formulation, progressive realization apperciation and the achivement of truth, beauty and moral worth.”35अर्थात्  संस्कृति वह है जो परंपरा द्वारा, भौतिक रूप में, लिखित रूप में और अभिव्यक्ति के किसी अन्य साधन द्वारा सत्य, सुंदरता और नैतिकता की उपलब्धि को संभव बनाकर जीवन के स्तर को अर्थ और मूल्य देकर बढ़ाती है। उपर्युक्त पाश्चात्य मतों के आलोक में अंततः कहा जा सकता है कि पाश्चात्य चिंतनधारा संस्कृति को समाज का दूसरा रूप मान संस्कृति द्वारा ही मानव-जीवन का नियोजन संभव मानता है तथा सामाजिक विज्ञान से संस्कृति को जोड़ उसमें बुद्धि एवं आत्म-तत्त्व को प्रधानता मानता है। वस्तुतः संपूर्ण पाश्चात्य विचारधारा समाज, संस्कृति एवं अध्यात्म में ही लोक-जीवन की सार्थकता स्वीकार कर अनुकूल आचार-विचार में ही संस्कृति की सत्ता स्वीकार करता है।

उपर्युक्त भारतीय एवं पाश्चात्य मतों के आधार पर ‘संस्कृति’ की अवधारणा को जानने के पश्चात् अंततः कहा जा सकता है कि संस्कृति मानव-निर्मित व्यापक अवधारणा है। मानव समुदाय द्वारा संजित संस्कृति वस्तुतः एक विशिष्ट जीवन पद्धति है जो मानवीय मूल्यों, पौराणिकता, धर्म, अध्यात्म, दर्शन आदि तत्त्वों को समाहित कर शिष्टाचार युक्त सभ्यता के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। प्राकृतिक परिवेश में आधारशिला ग्रहण कर संस्कृति मनुष्य को उदात्त एवं महिमामयी जीवन प्रदान करती है। संस्कृति अपने मूल रूप में मानव-मात्र की अमूल्य आंतरिक थाती है जिनसे जाति विशेष की संपूर्ण आस्थाओं एवं विश्वासों का स्वरूप निर्धारित होता है। इसके अतिरिक्त संस्कृति के अंतर्गत मनोविकार भी अभिव्यक्ति पाकर मनुष्यता को स्थापित करते हैं। वहीं संस्कृति हमारे खान-पान, रहन-सहन, धर्म, विश्वास, विचार, रीति-रिवाज, कला, संगीत, नृत्य, गीत, पर्वोत्सव, आमोद-प्रमोद आदि विविध माध्यमों द्वारा निरंतर अभिव्यक्ति पाती है। संस्कृति एक व्यापक अवधारणा है जो वास्तव में जीवन की विविधरूपा व्याख्या ही नहीं करती बल्कि आदर्श मार्ग भी दिखाती है I किसी भी देश की संस्कृति से उस देश की मूल विचारधारा और सामाजिक व्यवस्था का ही बोध होता होता है I अतः मानव जीवन की अनमोल  अभिव्यक्ति के रूप में संस्कृति के स्वरुप को देखा जा सकता है I

संदर्भ

  1. 1. शर्मा हरवंश लाल, सर्वात्म दर्शन, पृ.-233
  2. शर्मा मुंशीराम, वैदिक संस्कृति और सभ्यता, पृ-49
  3. कणाद ऋषि, वैशेषिक सूत्र-1/1/1
  4. भट्ट गंगाधर, संस्कृत-काव्य में नीति-तत्त्व, पृष्ठ-14
  5. उपाध्याय बलदेव, पुराण-विमर्श, पृष्ठ-3
  6. उपाध्याय बलदेव, भारतीय-दर्शन, पृष्ठ-3
  7. Ramaswamy P.C., Fundamentals of faith and culture, P.66
  8. डॉ. देवराज, संस्कृतिका दार्शनिक विवेचन, पृष्ठ-564
  9. सम्मलेन पत्रिका, लोक-संस्कृति, पृष्ठ-27से उद्धरित
  10. मजूमदार तथा टी.ए. मदान, An Introduction to Social Anthropology, पृष्ठ-14
  11. गुलाबराय, भारतीय संस्कृति, पृष्ठ-4
  12. शर्मा मुंशीराम, वैदिक संस्कृति और सभ्यता, पृष्ठ-15-16
  13. दिनकर रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-652
  14. द्विवेदी हजारी प्रसाद, अशोक के फूल, पृष्ठ-75-76
  15. विद्यालंकार सत्यकेतु, भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ-19
  16. वाचस्पति इन्द्रविद्या, भारतीय संस्कृति का प्रवाह, पृष्ठ-1
  17. शर्मा हरवंशलाल, सुर और उनका साहित्य, परिशिष्ट-2, पृष्ठ-13
  18. मीतल प्रभुदयाल, ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ-83
  19. गैरोला वाचस्पति, भारतीय संस्कृति और कला, पृष्ठ-61
  20. त्रिपाठी विश्वम्भरनाथ, स्वतंत्रता और संस्कृति, पृष्ठ-53
  21. दुबे श्यामचरण, संस्कृति और मानव, पृष्ठ-77
  22. मिश्र बलदेव प्रसाद, भारतीय संस्कृति को गोस्वामी तुलसीदास का योगदान, पृष्ठ-9
  23. गुप्त मदनगोपाल, मध्यकालीन हिंदी-काव्य में भारतीय संस्कृति, पृष्ठ-21
  24. वर्मा धीरेन्द्र, हिंदी साहित्य कोश, पृष्ठ-801
  25. अग्रवाल वासुदेव शरण, कला और संस्कृति, पृष्ठ-1
  26. पन्त सुमित्रानंदन, उत्तरा, पृष्ठ-15.
  27. Hastings J., Encylopaedia of religion and ethics VOL. IV, Page- 358
  28. 28. Arnald Methew, Culture and Anarchy, P.11
  29. Bagboy Philip, Culture and History, P.84
  30. Bagboy Philip, Ibid, P.24
  31. Tayler E.B., Primitive Culture, P.4
  32. Societym Maciver And Page, P.449
  33. Harskovits M.J., ‘Culture is man made part of envirement’-Culture Anthropology
  34. Lues John, Culture Society, P.139-140

35 Cowell F.R.,Culture in private and public, P.1

डॉ. कुलभूषण शर्मा

सहायक आचार्य

हिंदी विभाग

भाषा, साहित्यऔर संस्कृति विद्यापीठ

पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय

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