भारत जैसे दो-तिहाई निरक्षर देश में मानव अधिकारों की रक्षा में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्रीय मानव अधिकारों की सर्वमान्य घोषणा की थी – इन 50 वर्षों में भारत जैसे कई विकासशील देश मानव अधिकारों के बारे में सचेत हुए हैं। वह जागरूकता मीडिया की सकारात्मक भूमिका के कारण ही आई है। आज भारत जैसे विकासशील देश भी मानव अधिकारों के बारे में सचेत हुआ है।
भारत में यह माना जाता रहा है कि पढ़े लिखे लोग ही अपने अधिकारों को लेकर जागरुक रहते हैं और बेचारी आम जनता पिसती रहती है। पढ़े-लिखे लोग पुस्तकें अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़कर सचेत रहते हैं और अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ वे आवाज भी उठाना जानते हैं किंतु आम जनता तो अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती है,-,। ऐसे में दृश्य श्रव्य मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है-। रेडियो TV और फिल्मों के माध्यम से उनमें मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम पिछले कई दशकों में काफी असरदार ढंग से किया गया है। भारत जैसे बहुभाषी देश में यह काम और भी जरूरी है।
भारत में अधिकांश रहा महिलाएं और बच्चे निरक्षर रहते हैं और वही मानव अधिकारों में से सबसे अधिक वंचित रहते हैं उनको मानव अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने में मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभाई है,। देश में फिलहाल आठ करोड़ बाल मजदूर हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा और अनौपचारिकता या प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में भी नहीं गए। अपंग और विकलांग बच्चों की कहानी दूसरी है। वह भीख मांगकर अपना पेट पालने को मजबूर है। पिंकी कहानी इनकी मानव अधिकारों की लड़ाई इनका भाई भी नहीं लड़ना चाहता,। रेशम उद्योग में उजले वस्त्र घूमने वाले इन बच्चों के जीवन का अंधेरा पक्ष किसने देखा है ?
देश में इस वक्त बाल वेश्यावृत्ति की संख्या भी दिल दहला देने वाली है। खेलने की उम्र में गरीब मासूम लड़कियां अपने बाप की उम्र के लोगों से तन बेचने का सौदा करती है,। आज देश में बाल वेश्यावृत्ति एक संगीन जुर्म है एक अपराध है तो इसके पीछे मीडिया की शक्ति छिपी है मीडिया ने बाल वेश्यावृत्ति की तरफ पहले पहल सरकारों का ध्यान खींचा था,,। मीडिया ने ही लिखा था कि खेलने खाने की उम्र में बच्चे काम पर जा रहे हैं। बहुत से बच्चे अपने घर गांव और मां-बाप से दूर बड़ी मजदूरी और परेशानी की हालत में लगभग गुलामी की परिस्थितियों में शोषण का शिकार हो रहे हैं,,। क्या इन बाल मजदूरों को मालिकों द्वारा बांधकर रखने के बरक्स अखबार और मीडिया की कोई भूमिका नहीं है जीवन बाल मजदूरों की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था करें या इनको शिक्षित होने के लिए समय दें-। अखबारों ने फैक्ट्री वालों को मजबूर किया है। बहुत से अनाथ बच्चों की ओर अखबारों ने स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान खींचा है। दस्तकारी और हथकरघा जैसे पारंपरिक देशों में भी बच्चे घुट रहे हैं।
हरे को स्वतंत्रताका समानता का जीने का आत्म सम्मानसे जीने का, हक है- यह बात रेडियो ने समाचारों से वार्ताओं से रूपकों से, तथा रूपकों नाटकों के माध्यम से बार-बार बताइए,। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने कई ऐसे वृत्त चित्र कथा चित्र, दिखाए हैं जिनके माध्यम से समाज के सबसे निचले सबसे शोषित वर्ग की आवाज को बुलंद किया है,। जो बोलना नहीं जानते जो लिखना नहीं जानते उन के माध्यम से अखबार, रेडियो और TV बोलते हैं। कानपुर के कालीन उद्योग में लगे बच्चों का भयावह चित्रण हो या शीशे के व्यापार में लगे बच्चे हो हैदराबाद से चोरी छिपे ले जाई जा रही मासूम सलमा हो सबकी आवाज़ दो अखबारों TV और रेडियो ने जनता जनार्दन और मानव अधिकार आयोग के सामने अदम्य साहस और ऊर्जा के साथ रखा है,,।
अखबारों में एक छोटी सी खबरदेश विदेश की मानवधिकार संस्थाओं के कान खड़े हो जाते हैं भंवरी बाई के साथ देश के किसी दूर दराज के गांव में बलात्कार होता है और वह निर्वस्त्र घुमाई जाती है और दूसरे दिन राष्ट्रीय दैनिकों में उसकी खबर प्रमुखता के साथ शक्ति है और संसद तक उसकी खामोश चीख घूम जाती है । अगर स्वतंत्र अखबार और स्वायत्त मीडिया ना होता तो यह सब कैसे होता? भारत जैसे देश को मानव अधिकारों की लड़ाई कई स्तरों पर लड़नी पड़ती है| यहां अंधविश्वास, अंध मान्यताएं, रीति रिवाज, और जाति प्रथा का शिकंजा इतना मजबूत और इतना कसा हुआ है कि कई बार आम जनता को मानव अधिकारों के बारे में जागरुक करना मुश्किल हो जाता है | जन्म से ही गुलामी के अंधकार में रहते हुएउन्हें आजादी का उजाला भाता नहीं है जन्म से ही अपने को दास, गुलाम, सेवक मानते हुए शोषण में ही उन्हें रास्ता आने लगता है| समाज में अपनी स्थिति के बारे में वह चिंतित नहीं होते हैं| उनमे आत्म- सम्मान जगाना अभी मीडिया का कार्य है|
हमारे यहां अल्पसंख्यक भी सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं| उनमें अशिक्षा का अंधकार काफी गहरा है| पढ़े-लिखे अल्पसंख्यक भी समाज में यथोचित जागरूकता फैलाने में असमर्थ रहते हैं| विभा का यदा कई बार अपने भाइयों का शोषण करने लगते हैं| अल्पसंख्यकों में क्रांति की लौ जगाना, अन्याय, अंधकार के विरुद्ध आवाज उठाने में मीडिया उत्प्रेरक की भूमिका अदा करता है| मीडिया के माध्यम से ही विश्व – ब्रह्मांड एक गांव हो गया है| एक देश में, एक गांव में. एक जिले में घटी घटना दूसरे देश तक तुरंत पहुंचती है| दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में अस्पृश्यता और रंगभेद के विरुद्ध आवाज उठाने में मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभाई और वहां से रंगभेद समर्थक शासन और सत्ता को उखाड़ फेंका| वही उदाहरण दुनिया के अन्य देशों में भी मीडिया ने पहुंचाया और जागृति की नई लहर दौड़ाई | दुनिया में जहां कहीं भी अत्याचार होता है- उसकी आवाज सब जगह एक साथ सुनाई देती है|
मीडिया ‘ चेक्स एंड बैलेंस’ का काम भी करता है। मीडिया नियंत्रण लगा देता है। मीडिया शासकों और आतताइयों को अपनी सीमा के भीतर रहने को विवश करता है। अपना चाबुक उठाने से पहले शासक सौ बार सोचता है कि कहीं किसी अखबार में खबर न छुप जाए और लेने के देने ना पड़ जाए। हर तरफ शोर मच जाएगा कि राजा नंगा है क्रूर है बदतमीज है तनाशाह है,। भारत में आम आदमी को उसके लिए बने कल्याणकारी कानूनों का ,पता नहीं है। जनता को प्रेस और अखबार बताते हैं कि पढ़ाई का लिखाई का भरपेट भोजन और काम पाने का,जानने का, और बताने का तुम्हारा मौलिक अधिकार है। इसे तुमसे कोई नहीं छीन सकता । 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा कर जनता से उसकी मूलभूत स्वतंत्रता छीनने चाहिए तो उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इमरजेंसी के खिलाफ मूलभूत स्वतंत्रता छीनने के खिलाफ जनता में व्यापक जन- जागरण कि जो आंधी चली थी उसमें अखबारों और उनके संपादकों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी,।
भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में जहां प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बाद तीसरा सर्वशक्तिमान व्यक्ति टाइम्स ऑफ इंडिया का संपादक होता है,- वही अखबारों की भूमिका मानव अधिकारों के क्षेत्र में कितनी महत्वपूर्ण है कहने की जरूरत नहीं है,,। हमारे यहां एक्टिवेट’ पत्रकारों – संपादकों की एक लंबी परंपरा रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी ‘ हरिजन’ के माध्यम से मानवाधिकारों के पक्ष में प्रतिरक्षा में आवाज उठाई थी,। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने नेहरू ने, पटेल ने,सबने राष्ट्र निर्माण में, अखबारों के माध्यम से ही जागरूकता फैलाई थी,। इनका काम व्यर्थ नहीं गया है। आज भी अरुण सॉरी जिस रामास्वामी एमजे अकबर, जैसे पत्रकार मानवाधिकार के पक्ष में अपनी आवाज उठाते रहते हैं,। गोएथे के शब्दों में- ‘उसी की है जो हर दिन इसे लड़ कर पाता है। ‘ आज जबकि हमें हर दिन अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना पड़ता है – अखबार हमारे लिए हर दिन यह लड़ाई लड़ते हैं।
हमारे दैनिक लड़ाई में हमारे ‘ दैनिक’ हमारी दैनिक मदद करते हैं। सुबह शाम वे हमारे लिए अनथक लड़ाई लड़ते हैं। वह हमारी आवाज हमारे प्रधानमंत्री तक पहुंचाते हैं। प्रधानमंत्री जो एक मजबूत सुरक्षा कवच से घिरे हैं,:अखबार उन तक हमारा प्रार्थना पत्र ले जाते हैं। हम समाज में हो रहे हैं अत्याचारों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। वह हमारा पैगाम ले जाते हैं। दूर – दराज के किसी गांव में मार दिए गए पत्रकार उमेश डोभाल हो साहिबाबाद में मार दिए गए रंगकर्मी, सफ़दर हाशमी हो भिलाई में मार दिए गए मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हूं, – सबकी आवाज उनके मरने के बाद भी सुनी- सुनाई जाती है और हत्यारे बचकर नहीं जा सकते हैं। पुलिस के द्वारा नकली मुठभेड़ में मार दिए गए निर्दोष सिख हो या कश्मीर में सेना द्वारा जाली आतंकवादी करार दिए गए लोग हो- सब की आवाज मानवाधिकार आयोग तक पहुंचाने में अखबार निष्पक्ष भूमिका निभाते हैं। अचानक ‘ गायब’ कर या ‘ लापता’ करार दिए गए लोगों के बारे में अखबार छानबीन करते हैं।
अखबार और मीडिया धर्म जाति, और संप्रदाय से ऊपर उठकर मानवाधिकारों की प्रतिरक्षा में अपनी आवाज उठाते हैं। अखबार निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर सत्ता और शासन में बैठे हुए लोगों के खौफ, मैं ना आकर आम आदमी की आवाज इतनी ऊंची कर देते हैं कि खुदा बंदे से पूछे की बता तेरी रजा क्या है ? अखबार भूखे को रोटी गुलाम को आजादी अनपढ़ को, शिक्षा और बीमार को दवा दिलाते हैं। अगर अखबार न होते तो इन 50 सालों में मानवाधिकार किस किताब में बंद रह जाते। उन्हें लागू करने कराने में अखबारों और मीडिया की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है-॥
मानवाधिकारों के उलंघन की खबरों की रिपोर्टिंग करना ही उन्हें लागू करना या लागू कराने पर जोर देना है। रिपोर्टिंग से ही की जय प्रकाश में आती है। रात के अंधेरे में घटी घटनाएं दिन के उजाले में सबके सामने आती है। सफेदपोश चेहरे बेनकाब होते रहते हैं। अत्याचारियों की सदाशयता दयालुता की खबरों के पीछे का सच सामने आता है,। शतरंज की चालें समझ में आ जाती है। शासन और सत्ता के हाथों कार्यपालिका विधायिका और कई बार न्यायपालिका भी कुंठित हो जाती है। ऐसे में स्वतंत्र प्रेस अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकता।उसे कई बार इन तीनों की भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वाह करना पड़ता है। तभी सर्व शक्तिमान सत्ता के खिलाफ निहत्थे व्यक्ति की लड़ाई परवान चढ़ती है।
संचार कंप्यूटर उपग्रह संचार आदि की चकाचौंध मैं कई बार निहत्थे व्यक्ति की आवाज अनसुनी रह जाती है । ऐसे लोगों के लिए, ऐसे लोगों की भाषा में आवाज उठाना, मीडिया का काम है। मानवाधिकारों को लोगों की जुबान और उनकी बोली ठाली में उन तक पहुंचाने का काम मीडिया का है। मातृभाषा में देसी भाषा में, आंचलिक बोली में मानव अधिकार की आवाज पहुंचाना बहुत जरूरी है,। आदमी के शोषण से आदमी को बचाने में, और औरत के शोषण में औरत को बचाने में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। धर्म के शोषण से व्यक्ति या समाज को बचाने में भी मीडिया की भूमिका सर्वश्रेष्ठ है। अखबार मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज उठाने में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका निभाते हैं। व्यक्ति व्यक्ति का सम्मान करें, उसे आत्म सम्मान के साथ जीने में मदद करें, व्यक्ति खुद के अधिकारों का प्रवक्ता हो, वह खुद अपना एडवोकेट हो सके, अपना व्याख्याता वह स्वयं हो – यह काबिलियत अखबार उसमें पैदा करते हैं। अखबार अशिक्षित को शिक्षित, सुस्त मुद्दई को चुस्त, सोए को जगाने में मदद करते हैं।
स्वतंत्र लेखक और साहित्यकार भी विभिन्न लेखों के माध्यम से मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का वातावरण बनाते हैं। आम ‘ पत्र संपादक’ के माध्यम से संसद के द्वार पर दस्तक देती है।
आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भोगोलिक अधिकारों के लिए लड़ने में अखबार महत्वपूर्ण कारक होते हैं। समाज और राष्ट्र मैं इन सम्यक् अधिकारों की सुरक्षा से समाज में शांति और भाईचारे का वातावरण बनता है। हर धर्म को हर संस्कृति को पर्याप्त सुरक्षा और स्वतंत्रता की गारंटी दिलाने में समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है,।
अस्पृश्यता, दहेज, सती प्रथा जैसी कुरीतियों के निवारण, में, समाचार पत्र हवा बनाते हैं। व्यक्ति जानता है कि वह किसी भी व्यक्ति से जाति धर्म लिंग, के आधार पर अस्पृश्य और छोटा नहीं है। व्यक्ति को न्याय संगत सुरक्षा मिलेगी,। बड़े से बड़े अपराधी को ‘ दुबारा फाइल सुनवाई’ का हक है। जेल में मार दिए गए कैदी की आवाज भी मानव अधिकार आयोग तक मीडिया पहुंचाता है।
सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान के लिए मानव अधिकार एक ऐसा पिटारा है जिसे बंद रखने में ही अपनी कुशलता मानते हैं। कि अगर एक बार यह पिटारा खुल गया तो लोग मानव अधिकार मांगने लगेंगे और उनका भांडा फूट जाएगा। इसलिए सत्ता और प्रतिष्ठान में बैठे हुए लोग थोथे नारो और लोकलुभावन तमाशों से जनता को धोखे में रखते हैं। भोली-भाली जनता उन की कारगुजारियों और भ्रष्ट तरीकों के बारे में जान नहीं पाती। स्वतंत्र मीडिया जनता को ऐसे खोखले लोगों के खतरनाक इरादों के प्रति सावधान करता है। धर्म की आड़ में यह जा रहे अत्याचारों के प्रति भी वह लोकमानस को सावधान करता है। एक गांव के एक घर से उठी आवाज को मीडिया अंतर्राष्ट्रीय मंच तक पहुंचाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संयुक्त राष्ट्र तक एक गांव के घर की नन्हीं आवाज पहुंचती है और वहां की स्थानीय सरकार को झुकना पड़ता है और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुरूप काम करना पड़ता है।
अपने वर्तमान को अतीत की समृद्ध विरासत से परिचित कराने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। हम अपने बच्चों को गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा के अंधकार से बाहर लाने में मदद करें। हम पृथ्वी को आने वाले लोगों के लिए अधिक खुशहाल और शस्य श्यामला छोड़ जाएं। हम भय और पूर्वाग्रह मुक्त समाज की स्थापना करें – ऐसे समाज की स्थापना में अखबार और मीडिया अपना निष्पक्ष सहयोग देते हैं। हम तर्कपूर्ण, विचारशील और न्याय संगत समाज के निर्माण में सहयोग दें। हम ऐसा समाज बनाएं, जिसका विवेक जागृत हो।
मानव अधिकारों का हनन सबसे अधिक सामंती समाज में होता है और मीडिया उसके बरक्स लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत करता है। इस पर रूप में मानव अधिकारों की प्रतिरक्षा करता है।
मीडिया ऐसे अंधाधुंध विकास के खिलाफ भी लिखता है जिनमें मानवाधिकारों का हनन होता हो। उनके है 1973 में संसार भर में मानव अधिकारों की घोषणा की रजत जयंती मनाई गई थी, तब संयुक्त राष्ट्र ने इस बात पर जोर दिया था कि लोगों को इन अधिकारों के बारे में सचेत करने की जरूरत है नहीं तो कई अच्छी बातों की तरह यह अधिकार भी पुस्तकालयों में बंद रह जाएंगे,। हमें इनके प्रति जनता में रुचि जगानी होगी । इन 50 सालों में अखबारों और मीडिया की कृपा से जनता काफी कुछ जान गई और आसानी से अपना शोषण नहीं होने देती है। हर शहरी और ग्रामीण भी मानव अधिकारों के प्रति जागरुक है – जो न्यूनतम मजदूरी की बात करता है- प्यार के खिलाफ आवाज उठाता है।
पिछड़े लोगों में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करना उन्हें ज्ञान और सत्य की खोज में लगाना उसे आधुनिक दृष्टि देना ही मीडिया का मुख्य उद्देश्य है । जनता का शासन द्वारा उठाए गए कल्याणकारी उपायों की देना ही मीडिया का काम है। इसका मानवाधिकारों की प्रतिरक्षा में मुख्य भूमिका निभाता है |

संदर्भ सूची :

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डॉ. कमलिनी पाणिग्राही
विभागाध्यक्ष, हिन्दी
ई डी महिला महाविद्यालय, कटक, ओडिशा

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