अपनी अमर वाणी से मानव जीवन को अभिनव दिशा प्रदान करने वाले निर्गुणपंथी संत महापुरूषों में गुरू रैदास अथवा रविदास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रभु के अनन्य भक्त, संत रैदास ने अपने संदेशों एवं रचनाओं के माध्यम से जीवनयापन की ऐसी युक्ति सिखाई जो आज भी पूर्ण प्रासंगिक है। वैष्णव मत से प्रभावित रैदास प्रेम और भक्ति के पक्षधर रहे हैं। रैदास की वाणी भक्ति की अप्रतिम भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत थी। इसी कारणवश उनकी रचनाओं का जनसाधारण के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। न केवल उनकी वाणी सहज जीवनयापन के संदेशों से संपृक्त है, अपितु उनका समस्त जीवन इस अनुपम पद्धति का जीवंत उदाहरण है। संत रैदास कबीर के समकालीन माने जाते हैं।‘‘रामानन्द जी के बारह शिष्यों में रैदास की भी गणना होती है तथा इनकी भक्ति भी निर्गुण ढ़ाँचे की जान पड़ती है।‘‘1 चैहदवीं शताब्दी के उत्तराद्र्व में अवतरित हुए रविदास ने समाज में जाति की अपेक्षा कर्म की सर्वोच्चता को स्थापित किया।

‘‘थोथा मन्दिर भोग-विलासा, थोथी आन देव की आसा।
साँचा सुमिरन नाँव बिसास, मन-बच-कर्म कहै रैदासा।।”2

रैदास ने सदैव कर्ममय जीवन जीने पर बल दिया। उनके अनुसार, समाज से विरक्त होकर समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन नहीं हो सकता। समाज में रहकर ही उच्च विचारों एवं कर्माें के द्वारा जीवन में सत्य की प्रतीति होती है।‘‘सहज संत रैदास गृहस्थ होकर गृहस्थ से ऊपर उठे। अपने व्यवसाय में चर्मकारी को पूर्णआस्था से संजोये जीवनयापन में जूतियाँ गाँठना भरण-पोषण का साधन रखा।‘‘3 अपनी जाति का उल्लेख करते हुए वे स्वयं कहते हैैं-

‘‘नागर जनाँ! ऐसी मेरी जाति बिखियात चमारं।।
हिरदै नाँव गोब्यंद गुणसारं।।”4

रैदास ने अपनी वाणी के माध्यम से वेदान्तों में निहित सिद्धान्तों का सरलीकृत रूप में प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने काम, क्रोध, मोह, मद, माया को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना-

‘‘राम नाम संसै-गाँटि न छूटै।
काम-क्रोध-मोह-मद-माया, इन पाँचन मिलि लूटै।।”5

रैदास ने अपने जीवन में भी इन पाँच शत्रुओं को स्वयं से दूर रखा। अतएव, एक ओर जहाँ ऐसी निर्लिप्तता के दर्शन होते हैं तो वहीं दूसरी ओर वर्तमान जगत का मानव है जो लोभ, मोह के दलदल में फँसा हुआ है। इसके परिणामरूवरूप समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार आदि स्थितियाँ सर्वत्र व्याप्त हो रही हैं। संत रैदास ने सदैव ऐसी स्थितियों से मुक्त रहने का संदेश दिया। मनुष्य की लोभी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए रैदास कहते हैं-

‘‘माटी कौ पूतरा कैसे नचतु है।।
देखै सुणै बोलै दौर्यौ फिरतु है।।
जब कछु पावत गरब करतु है,
माया गई तौ रौवन लगतु है।।‘‘6

अर्थात् शरीर माटी की पुतला है जो नाना प्रकार के कर्मो में लीन रहता है। उसे जब कुछ प्राप्त हो जाता है तबवह गर्व से भर उठता है और जब मोह-माया समाप्त होती है तो निराश होकर रोने लगता है। रैदास के अनुसार, शरीर तो भौतिक वस्तु है जिसे नष्ट हो जाना है। हमें इस पर अभिमान न करके अपने अन्तर्मन को निखारना चाहिए। भौतिक वस्तुओं पर अहंकार करना तो सारहीन एवं निरर्थक है क्योंकि जीवन तो भादों में उगने वाले कुकुरमुत्ते की तरह है-

‘‘तू काइँ गरबहि बावली।
जैसे भादउ खूँब राजुतु, तिस ते खरी उतावली।।”7

गुरू रैदास की मान्यता थी कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का अंश है और जिसका हृदय शुद्ध है, वह स्वयं ईश्वर का रूप है। जिसका हृदय दया, करूणा आदि भावों से परिपूर्ण होता है, वही दूसरों की पीड़ा तथा कष्टों का अनुभव कर सकता है-

‘‘कौ का जानै पीर पराई।
जाके दिल मै दरद न भाई।।”8

हिन्दी साहित्य के जिस युग में संत रैदास का प्रादुर्भाव हुआ, वह सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अशांति और अव्यवस्था का युग था। तत्कालीन समाज में व्याप्त जातिवादी मानसिकता उन्हें उद्धेलित करती थी। पुरूषार्थ दर्शन के प्रणेता, गुरू रैदास अपने युग के परिवेश एवं वातावरण से प्रभावित चिंतन के सर्जक थे। उनकी वाणी में अपने युग की सम्पूर्ण चेतना मुखर हो उठती है। उनकी स्वानुभूतिमयी चेतना ने समाज में नूतन जागृति का संचार किया। उनके मौलिक चिंतन ने शोषित एवं अपेक्षित जनों के हृदय को आत्मविश्वास से भर दिया। संत रैदास ने मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया-

‘‘रैदास कहै जाके हिरदय, रहै रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न ब्यापै काम।।”9

संत रैदास ने नाम को राम से अधिक प्रभावशाली माना है। उनके मतानुसार, नाम ही राम, रहीम आद विभिन्न संज्ञाओं एवं धारणाओं की एकसूत्रता का प्रतीक है और इसी एकसूत्रता में विश्वशान्ति, लोक सामंजस्य तथा लोक-कल्याण के बीज निहित है। निर्गुण ब्रह्म में आस्था रखने वाले संत कवियों ने अपने संदेशों के माध्यम से लोक कल्याण की भावना को प्रबल किया। संत रैदास भी अपवाद नहीं थे। उनके अनुसार-

‘‘क्रिस्न-करीम, राम-हरि-राघव, जब लग एक न पेषा।
वेद-कतेब, कुरान-पुरानन, सहज एक नहिं देषा।।
जोइ-जोइ पूजिय, सोई-सोई काँची, सहजि भाव सत होई।
कहै रैदास मै ताहिकौ पूजूँ जाके ठाँव-गाँव नहिं कोई।।”10

संत रैदास ने श्रद्धा, भक्ति तथा कर्म पर बल देते हुए यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य की जाति-कुल नहीं, उसके कर्म ही श्रेष्ठता के परिचायक होते हैं। एकनिष्ठ परिश्रम और सत्कर्मों से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। नीची जाति में जन्म लेने पर भी यदि हृदय में विनम्रता, सत्य, दया आदि मानवीय गुण विद्यमान है तो वह मनुष्य प्रभु की विशेष कृपा का पात्र है। संत रैदास का मानना है कि मनुष्य मात्र घास की टाटी है जिसे जलकर मिट्टी में मिल जाना है। इस क्षणभंगुर जीवन के प्रति हृदय में अत्यधिक मोह मानवता के हित में नहीं है-

‘‘ऊँचे मंदिर साल रसोई। एक घरी पुनि रहनि न होई।
यह तन जैसे घास की टाटी। जलि गई घास रलि गई माटी।।”11

संत शिरोमणि रैदास का विश्वास था कि यदि सभी प्राणी दुर्गुणों एवं विकारों को त्यागकर हृदय की शुद्धता पर बल दें तो श्रेष्ठ समाज की स्थापना हो सकती है। इसी कारण उन्होंने भेदभाव का विरोध करते हुए सामाजिक एकता पर विशेष बल दिया है। अतः यह कहना समीचीन होगा कि एकत्व से परिपूर्ण विचारधाराओं, विषम संघर्षो, प्रबल धार्मिक व सामाजिक समस्याओं एवं सूक्ष्म दार्शनिक उन्मेषों ने अपनी मूत्र्त अभिव्यंजना के लिए संत रैदास की वाणियों में स्वयं को आत्मसात कर लिया। मानव धर्म को सर्वोपरि मानने वाले ‘‘रैदास की सीधी-सादी मर्मस्पर्शी वाणियाँ लोगों के हृदय में अपूर्व श्रद्धा और भक्ति की प्रेरणा देती रहती हैं।”12
यद्यपि सिद्ध संत रैदास ने तत्कालीन समाज में व्याप्त परंपरागत रूढ़ियों, मान्यताओं तथा सामाजिक कुरीतियों आदि का प्रबल विरोध किया, तथापि उनकी वाणी में एक विशेष मधुरता का भाव विद्यमान है। ‘‘महात्मा रविदास बड़े ही मधुर स्वभाव के भक्त थे। उन्होंने किसी पर कठोर आक्षेप या व्यंग्य नहीं किया। इस अर्थ में वे सच्चे वैष्णव थे-अहिंसक, निरभिमान और मानदाता।‘‘ स्पष्ट है कि संत कबीर की वाणी में जहाँ आक्रोश और अक्खड़पन के दर्शन होते हैं, वही संत रैदास की रचनात्मक दृष्टि विभिन्न धर्मों को समान भाव से मानवता के मंच पर लाती है। वस्तुतः वह सच्चे अर्थो में, मानव धर्म के संस्थापक थे।
धर्म और समाज के उद्वारक रैदास ने एक बुद्धिजीवी कवि तथा आध्यात्मिक संत के रूप में जन-साधाराण के मानसपटल को अत्यधिक प्रभावित किया। इनके व्यक्तित्व में सन्तत्व एवं कवित्व का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। यह कहा नहीं जा सकता कि इनके सन्तत्व ने कवित्व को प्रसूत किया अथवा कवित्व ने सन्तत्व को तीव्रता दी। कदाचित दोनों ने ही एक-दूसरे को समृद्ध किया है। इनके कवित्व ने इन्हें संत की पद्वी तक पहुँचाया और इनके संतत्व ने इनकी कविता में अद्भुत आकर्षक, पकड़ और प्रभाव भर दिया। तात्पर्य यह है कि इनकी वाणी में मानवीय हृदय का संस्पर्श करने की अद्भुत शक्ति परिलक्षित होती है। श्री नाभादास कृत ‘भक्तभाल‘ में रैदास के स्वभाव और उनकी चारित्रिक उच्चता का प्रतिपादन मिलता है।14 वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी, संत रैदास के विचार समाजोत्थान व मानव जीवन के कल्याण के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सहजता से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठकों के हृदय को भावविभोर करते हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया कि मनुष्य अपने जन्म व कुल के आधार पर महान नहीं होता अपितु विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण रैदास को समाज में अत्यधिक सम्मान प्राप्त हुआ। रैदास का प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा इस मत के अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं।
‘‘मधुर एवं सहज संत रैदास की प्रेरणामयी वाणियों ने सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित, आर्थिक दृष्टि से वंचित और राजनीतिक दृष्टि से तिरस्कृत सहस्त्र-सहस्त्र अकारण दण्डित मनुष्यों में सिर ऊँचा करके चलने की शक्ति दी है और मनुष्य-जीवन के उत्तम लक्ष्य तक पहुँचने की प्रेरणा दी है।‘‘15रैदास ने सदैव समता एवं सदाचार पर बल दिया। वे खण्डन-मण्डन में विश्वास नहीं करते थे तथा सत्य को शुद्ध रूप में प्रतिपादित करना ही उनका ध्येय था।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि संत शिरोमणि रैदास उच्च कोटि के जननायक एवं मानवता के उद्वारक के रूप में सदैव चिरस्मरणीय रहेंगे। वर्णाश्रम-धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की मिथ्या सिद्धि का खण्डन-संत रैदास द्वारा अपनाए गए समन्वयवादी मानवधर्म के ही आधारभूत तत्व हैं। इनके मौलिक चितंन एवं अभिनव चेतना की छाप समाज एवं जनमानस के हृदय पर अमिट रूप से लगी हुई है।

संदर्भ-सूचीः
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक सं0, तृतीय, सं0 2060 वि0, पृ0 45
2. डा0 शिवकु0 शाण्डिल्य, ‘ महामानव रैदास‘ (पद एवं साखी भाग), मंगला प्र0, नई दिल्ली, प्रथम, 1987, पृ0 18
3. प्रो0 सरिता वाशिष्ठ, ‘हिन्दी के कालजयी कवि‘ कल्पना प्र0, दिल्ली, 2011, प्रथम, पृ0 197
4. महामानव रैदास, पृ0 18
5. महामानव रैदास, पृ0 33
6. महामानव रैदास, पृ0 29
7. महामानव रैदास, पृ0 16
8. महामानव रैदास, पृ0 9
9. महामानव रैदास, पृ0 38
10. महामानव रैदास, पृ0 33
11. महामानव रैदास, पृ0 4
12. ‘हजारी प्र0 द्विवेदी ग्रन्थावली‘, खण्ड-6 राजकमल प्र0, नई दिल्ली, 1981, पृ0 344
13. ‘हजारी प्र0 द्विवेदी ग्रन्थावली‘, खण्ड-6 राजकमल प्र0, नई दिल्ली, 1981, पृ0 344
14. नाभादास, ‘भक्तमाल‘ पृ0 452
15. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, पृ0 345-346

 

अम्बरीन आफताब
शोधार्थी
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
अलीगढ़

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *