काव्य का उत्स अंतर की गहराइयों में है और कहा भी जाता है कि कला का जन्म अंतश्चेतना से होता है । काव्य अध्ययन की पूर्णता की दिशा में व्यक्तित्व के अध्ययन और विश्लेषण का भी महत्व है। जब तक व्यक्तित्व का परिचय पूर्ण नहीं हो जाता काव्य का अध्ययन पूर्णता का अधिकारी कठिनता से कहा जाएगा । निराला के काव्य के अध्ययन के लिए यह और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि जिस छायावाद का ऐतिहासिक व्यक्तित्व माना जाता है उसकी बड़ी देन यह भी है कि साहित्य को ही ऐतिहासिक व्यक्तित्व उसे नहीं मिला वरन् कवियों को भी ऐसे व्यक्तित्व का देय उससे मिला है।

निराला के व्यक्तित्व के अध्ययन से उनके काव्य के स्पष्टीकरण की दिशा में ही केवल सरलता नहीं आएगी बल्कि वर्ण, समाज, साहित्य और उस आंदोलन की विशेषताएं भी समझ में आ जाएंगी जिसके वे अग्रदूत हैं। अनवरत अपराजिता आधुनिक हिंदी कविता के सम्मानोन्नत ललाट पर आज जो अनुपम सुषमामयी सौभाग्य रेखा अंकित है उसमें कुछ निराला की प्रतिभा के प्रतिभासम्मान कुंकुम -कण भी सम्मिलित हैं ।

यह समूल सत्य है कि पंत, प्रसाद, निराला को लोकप्रियता की अभय, कुल, प्लाविनी कल्लोलित त्रिवेणी में निराला की पाटल सलिला काव्यधारा ‘सरस्वती’ का पद पूर्ण करता रही है ,पर विशेषता के तात्विक अनुसंधान के समय उनकी यही रहस्यमई गोपन प्रवृति लोगों की कलुषित राग , द्वेष, दुष्ट दृष्टि की ज्वाला से परे चिर द्रुति और चिर शीतलता का कारण हो सकती है ।

विषम परिस्थितियों में जहां निराला टूटते हैं वही अपने अंतर में शक्ति ग्रहण के जीवन संघर्ष से जुड़े भी हैं यही कारण है कि निराला के नेतृत्व में हम सक्रियता ,रूढ़ियों का विरोध, विद्रोह व क्रांति का स्वर विशेष रूप से देखते हैं तो दूसरी ओर करुणा तथा जगत की नश्वरता का भी रूप देख पाते हैं। निराला ने छंद को ही निर्बंध नहीं किया वरन् स्वयं बंधन रहित रहें।फकीरी और स्वाभिमानी उनके स्वभाव में रही ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निराला को ‘सजग कलाकार’ कहा है। पंडित नंददुलारे वाजपेई ने उनके लिए ‘सचेत कलाकार’ अभिधा का प्रयोग किया है और घोषित किया कि “कविताओं के भीतर जितना प्रसन्न अथवा अस्खलित व्यक्तित्व निराला जी का है उतना न प्रसाद जी का है न पंत जी का ।” हिंदी के साहित्यकार जिसमें शिवपूजन सहाय ,बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ या सुमित्रानंदन पंत या दिनकर के बाद रचनाकार जिनमें शमशेर ,नागार्जुन, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे और नरेश मेहता ने कभी कविताओं , कभी लेखों और कभी समीक्षाओं के माध्यम से हिंदी क्षेत्र में निराला की कविता की प्रतिष्ठा की है।

आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने निराला के निधन को ‘शताब्दी के कवि का अवसान’ कहा था । यद्यपि महाकवि की मृत्यु के बाद इस शताब्दी के शेष होने में 39 वर्ष बाकी थे और हिंदी कविता के परवर्ती रूपों का प्रकाश में आना शेष था। परंतु इस शताब्दी के अंत में पहुंचकर यह तथ्य सहज ही स्वीकार करना पड़ता है कि बीसवीं सदी के हिंदी काव्य में निराला जैसे व्यक्तित्व एवं कृतित्व का कवि दूसरा नहीं है।

यह निराला की काव्य प्रतिभा का वैशिष्ट्य है कि वे आज भी कवियों एवं साहित्यकारों के लिए प्रेरणा के अक्षय स्रोत बने हुए हैं । आधुनिक काल के साहित्यकारों में केवल निराला ही ऐसे सर्जक हैं जिनके प्रति श्रद्धा ज्ञापन की सर्वाधिक कविताएं उपलब्ध हैं । इन प्रशस्ति परक कविताओं के रचनाकारों की सूची में हिंदी के लगभग सभी श्रेष्ठ कवि आते हैं । इन कविताओं की संख्या इतनी है कि इन्हें संकलित कर एक अच्छा ग्रंथ तैयार किया जा सकता है। यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि समस्त हिंदी साहित्य में तुलसीदास के बाद केवल निराला ही ऐसे साहित्यकार हैं जिनके प्रति जनसाधारण से लेकर विद्वान जनों का समान झुकाव है। उनका कृतित्व यदि ‘ बुद्ध विश्राम ‘ है तो उनका व्यक्तित्व ‘ सकल जन रंजन ‘ करने में समर्थ है। हिंदी जगत उनके साहित्य के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व से भी अभिभूत रहा है।

निराला जी को यह स्थान यूं ही प्राप्त नहीं हुआ, परंपरा के स्वस्थ पक्षों के साथ समकालीनता का विवेकपूर्ण समन्वय तथा सुंदर समाज की संरचना हेतु कांतदर्शी चेतना ने निराला को कालजयी रचनाकार की प्रतिष्ठा प्रदान की । उनमें कबीर और तुलसी दोनों के व्यक्तित्व एवं गुण वैशिष्ट्य एक साथ समाहित हैं।

व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही क्षेत्रों में वैविध्य ही उन्हें सही अर्थों में निराला बनाता है। ‘ वन वज्रदपि कठोरानि मृदुनि कुसुमादपी ‘ उक्ति यदि उनके व्यक्तित्व पर सही उतरती है तो उनकी रचनाओं में कथ्य, भाषा, भाव तथा अभिव्यक्ति की विविधता उन्हें दूसरे साहित्यकारों से पृथक करती हैं। यह वैविध्य ही साहित्य के अध्येताओं तथा आलोचकों को निराला साहित्य के पुनः मूल्यांकन हेतु प्रेरित करता रहा है।

कोई लेखक जो कुछ लिखता है वह सब रचना नहीं हो जाती। श्रेष्ठ लेखक द्वारा भी कभी-कभी ही रचना प्रस्तुत होती है कोई भी लिखित वस्तुरचना कब बनती है? यह एक बहुत जटिल मनोविज्ञान है। निराला ने भी सैकड़ों कविताएं लिखी लेकिन उनकी कुछ एक कविताएं ही ऐसी हैं जिनसे हम निराला को निराला के रूप में पहचानते हैं।

कवि अत्यधिक संवेदनशील प्राणी है चेतना की जितनी गहरी और व्यापक अनुभूति उसे होती है उतनी निश्चय ही और किसी को नहीं होती। उसका व्यक्तित्व जितना गरिमा में होगा उसकी अनुभूति भी उतनी ही गौरवपूर्ण और महनीय होगी।अनुभूतियों का मूल स्रोत यथार्थ में निहित है और किसी अन्य की अपेक्षा कवि यथार्थ के अधिक निकट संपर्क में रहता है।

मूल्य मानवीय होते हैं ,अतः उनके संबंधों को काव्य में ही व्यक्त किया जा सकता है। मानवीय मूल्यों की ये अभिव्यक्तियां एक ओर युग चेतना से संयुक्त रहती हैं तो दूसरी ओर उनका अतिक्रमण भी कर जाती हैं, अर्थात युगीन मूल्यों में ही शाश्वत मूल्य अनुस्यूत रहते हैं। मेरे ख्याल में ‘राम की शक्ति पूजा’ की महत्ता युगीन चेतना तथा व्यक्तिगत गौरव के आधार पर ही विश्लेषित की जा सकती है। प्रभाकर माचवे ने लिखा है :- “निराला की कविता में राष्ट्रीय भावधारा प्रत्यक्ष माइक्रोफोनी या प्रचारात्मक ध्वजवादी या नारीवादी कविता बनकर नहीं आई ।भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक जीवन के उसके उथल पुथल के बहुत सूक्ष्म और प्रत्यक्ष सूत्र निराला की रचना में विद्यमान हैं । ”
इसलिए निराला के युगबोध एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का पूर्णरूपेण प्रतिपादन उनके काव्य में स्वीकारा जा सकता है ।

युगबोध अपनी धरती , अपनी प्रकृति, अपने संस्कृति , अपने वर्तमान को भलीभांति जानना ,उसकी अनुभूति होना है। इसमें राजनीतिक ,सामाजिक, धार्मिक ,साहित्य, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के अतिरिक्त आध्यात्मिकता, एकता, प्रकृति चित्रण, उत्थान की कामना, प्राचीन गौरव का स्मरण, वर्तमान अध: पतन की पीड़ा एवं उसकी अनुभूति ,भविष्य की चिंता, नव सांस्कृतिक चेतना तथा जन जागरण आदि भी समाविष्ट होते हैं।

राम रावण के युद्ध को इसमें ” ना भूतो ना भविष्यति ” नहीं कहा गया है बल्कि युद्ध की पीड़ा पर घोर अंतर्मंथन को सशक्त वाणी दी गई है । राम , रावण और उनका युद्ध तीनों प्रतीक है। यह युद्ध जीवन और मरण में बराबर चलता रहता है , मनुष्य के अंतर्जगत में चलने वाले युद्ध की विभीषिका कम उद्वेगजनक नहीं होती। यह तो सामयिक भी है, सनातन भी।

निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ काव्य में राम के द्वारा अपने युग की निराशा, पराजय , संघर्ष एवं विजय कामना का सजीव चित्रण किया है । रावण रूपी अंग्रेजों को परास्त करने के लिए राम शक्ति की आराधना करते हैं तभी सीता रूपी भारत माता को रावण पाश से मुक्त किया जा सकता है। राम अपने को नहीं धिक्कार रहे हैं अपितु भारतीय अपने को धिक्कारते हुए कह रहे हैं :-

“धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध
धिक् साधन जिनके लिए सदा ही किया शोध “

बार-बार युद्ध होने पर उसके अनियत बने रहने के कारण राम को शक्ति की आराधना करनी पड़ी शक्ति प्रसन्न होकर राम को विजय होने का आशीर्वाद देकर उनके बदन में लीन हो गई :-

“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!”

निराला की दर्शन चेतना को भी उनके काव्य से पृथक नहीं किया जा सकता । निराला पर भारतीय वेदांत ,रामकृष्ण और विवेकानंद का गहरा प्रभाव था। भारतीय दर्शन के एक समन्वित रूप को उन्होंने अपनी आत्मा में साधा था । शैव, शाक्त दर्शनों का भी उन पर प्रभाव था । ‘राम की शक्ति पूजा’ में योग, वेदांत , शैव, शाक्त दर्शन को एक साथ देख सकते हैं।
प्रत्यभिज्ञा दर्शन का पहला ही सूत्र है : – ‘प्रकृति स्वतंत्र है, वह विश्व सिद्धि का हेतु है , सब का कारण ।’ शाक्त दर्शन शक्ति या प्रकृति को ही कारण भूत मानता है ।

‘राम की शक्ति पूजा’ में निराला कहते हैं कि ‘शक्ति की मौलिक कल्पना करो।’ यह मौलिक कल्पना विराट प्राकृतिक आयोजन है क्योंकि सारी प्रकृति चैतन्य है और शक्ति रूपा है ।

निराला ने इस युद्ध को देखा ही नहीं बल्कि क्रियात्मक रूप से अनुभव किया । दर्शक की अनुभूति की अपेक्षा सैनिक की युद्ध – जन्य अनुभूति कहीं अधिक गहरी होती है ।राम की तरह निराला ने भी अनुभव किया था कि “वह हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित।” वह भी तो समाज की प्रतिक्रियावादी शक्तियों से जूझ रहे थे काव्यगत रूढ़ियों को तोड़ रहे थे। समस्त देश साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध लड़ रहा था किंतु प्रगतिशील शक्तियां संशय ग्रस्त थी – “रहे उठता जगजीवन में रावण -जय – भय ।” निराला ने यथार्थ को अनुभूति किया।

राम जिस स्थिति में चित्रित हुए हैं उनका मनोबल अतिशय दुर्बल और गतिशील हो गया देश जिस स्थिति से गुजर रहा था उसमें वह निराश हो चुका था। स्वयं निराला परिस्थितियों से लड़ते हुए क्षीण से प्रतीत हो रहे थे। राम की शक्ति – आराधना इन सब का शक्ति आराधन है।

युगीन बोध की चर्चा करते समय जब हम ऐतिहासिक संदर्भों में जाते हैं तो हम पाते हैं कि 19वीं सदी के अंत में भारत में दो नए वर्गों का उदय हुआ था यह नए वर्ग थे औद्योगिक पूंजीपति और उनके तहत काम करने वाला मजदूर वर्ग। निराला के समय में भारतीय समाज और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच युद्ध और अधिक तीव्र होता जा रहा था। ‘राम की शक्ति पूजा’ जिस दौर में लिखी गई थी उस दौर में पूंजीपति वर्ग के यहां का मजदूर वर्ग भी राजनीति में कूद चुका था , उसने भी अपनी राजनीतिक पार्टी जो कि हर देश में कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में वजूद में आती है भारत में बना ली थी । वह भी भारत के शोषितों को साम्राज्यवाद से मुक्त कराने के लिए प्रयासरत था।

हमारे यहां देखें तो भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर मैथिलीशरण गुप्त और निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी वर्मा आदि और फिर प्रगतिवादी साहित्य को इन्हीं वर्गों के विचारों की अनुगूंज से भरा हुआ पाएंगे। ‘राम की शक्ति पूजा’ को इस ऐतिहासिक संदर्भ से काटकर विश्लेषण करना कतई सही नहीं होगा। निराला ने तमाम मिथकीय प्रयोगों, प्रतीकों को चाहे वह ” सरस्वती” का हो या “दुर्गा” का हो या “राम” का हो मातृभूमि की गुलामी से मुक्ति के संवेदनात्मक उद्देश्य से ही अपनी कविताओं में प्रयुक्त किया है।यदि वे मिथकीय प्रयोग सिर्फ मिथकों को ही व्याख्यायित करने के लिए करते या सिर्फ अपनी मनोगत चिंताओं और निजी दुखों या भावनाओं को व्यक्त करने के लिए करते तो यह कविताएं स्थाई महत्व की हो भी नहीं सकती थी।

निराला ने राम नाम को ही इस कविता में प्रतिपादित क्यों किया? जबकि यह शब्द तो अपने संबोधन से ही अवतार का संबंध स्पष्ट करता है , क्योंकि मध्यकालीन साहित्यकारों ने इस नाम को अवतार के रूप में मुख्यतः दर्शाया है और वह उसी रूप में बंधा हुआ है। राम – नाम के संबंध में नंददुलारे वाजपेई का कथन है :-
“उनके सम्मुख कोई बने बनाए आदर्श या नपे तुले प्रतिमान ना थे इसलिए जो कुछ भी उन्हें उदाहरणों में अच्छा और उपयोगी दिखाई दिया उसी को वह नए सांचे में ढालने लगे। राम और कृष्ण उनके सर्वाधिक समीपी और परिचित नाम थे । अतएव इन्हीं चरित्रों को उन्होंने अपने नए सामाजिक आदर्शों की अनुरूपता देने की ठानी।”

निराला के सम्मुख प्राचीन आदर्श प्रतिमानों को छोड़कर नवीन आदर्श रूप में कोई प्रतिमान नहीं आया था , इसलिए उन्होंने यहां नाम के रूप में राम को तो उद्धृत किया है , किंतु नवीन रूप में क्योंकि यह राम अवतारी राम नहीं बल्कि संशय युक्त मानव, अपने समय का साधारण मानव है जो अपने समय की परिस्थितियों से अवसाद ग्रस्त भी हैं :-

“जब सभा रही निस्तब्ध: राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए ,शीतल प्रकाश खते विमन
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उसमें न इन्हें कुछ चाव, ना कोई दुराव,
ज्यों ही वे शब्द मात्र – मैत्री की समुनुरक्ति,
पर जहां गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।”

निराला की इस कविता का रचनाकाल सन् 1936 है अर्थात प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात का समय। इस कविता में युद्ध के मध्य उत्पन्न मानसिक प्रक्रिया है जिसमें राम के चरित्र के रूप में केवल मानवीय रूप उभर कर पग पग पर सामने आए हैं, जो प्राचीन राम कथा की रूढ़ियों को तोड़ नवीन दृष्टिकोण को परिभाषित कर रहा है :-

“स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर फिर संशय,
रह-रह उठता जगजीवन में रावण -जय -भय ”
× × × × ×
” बोले रघुमणि – ‘”मित्रवर, विजय होगी ना समर”
“अन्याय जिधर, है शक्ति उधर !” “कहते छल – छल
हो गए नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कंठ । “

निराला ने अपनी कविता में मनोवैज्ञानिक भूमि का समावेश कर उसे एक नवीन दृष्टिकोण दिया है। बंगाल कृति “कृतिवास” की कथा शुद्ध पौराणिक अर्थ की भूमि पर स्पष्टता रखती है। परंतु निराला ने अर्थ की कई भूमियों का स्पर्श किया है और उसमें युगीन चेतना आत्म संघर्ष का बड़ा प्रभावशाली चित्रण किया। ‘राम की शक्ति पूजा’ ‘कृतिवास’ से सर्वाधिक प्रभावित एवं प्रेरित है। कृतिवास के अनेक वर्णन ‘राम की शक्ति पूजा’ से मिलते जुलते हैं। यथा :-

“साधु साधु साधक धीर, धर्म धन जन्य राम !
कह लिया भगवती ने, राघव का हस्त थाम ”
– राम की शक्ति पूजा
× × × × ×
” चक्षु आड़ते राम वसीला साक्षाते
हेन वाले कात्यायनी धरि लेन हाते । ”
– कृतिवास

प्रकृति और मानव का अन्योन्याश्रित संबंध है। प्रकृति की इसी सुस्वारता , समरसता अथवा समन्वयधर्मिता की भाषा को टैगोर ने ” मानव की आत्मा की भाषा कहा है।” निराला जी की लंबी कविताओं में प्रकृति का रूपात्मक चित्र कम दिखाई देता है। प्रकृति उनके लिए वर्णनात्मक नहीं, भावात्मक है । निराला काव्य प्रकृति वर्णन के लिए न होकर स्वानुभूतिमय पूजन और इससे भी बढ़कर मानव की परिष्कृत चेतना का संघनित उत्थान है।

‘राम की शक्ति पूजा ‘,’तुलसीदास’,’कुकुरमुत्ता’ तीनों लंबी कविताओं में कवि निराला ने प्रकृति की पृष्ठभूमि का सहारा लेकर काव्य सृजन किया है। जीवन की विशिष्ट घटना, मानसिक उथल-पुथल, विराग, उल्लास वेदना की अनुभूति को कवि निराला ने प्राकृतिक पृष्ठभूमि या परिवेश में अभिव्यक्त कर इन लंबी कविताओं को नूतन आयाम दिया है :-

“रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर,
रह गया राम रावण का अपराजेय समर ।”
“भारत के नभ का प्रभापूर्य
शीतल छाया सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे तमस्तूर्य दिगमंडल ।”
– राम की शक्ति पूजा
× × × × ×
“एक थे नवाब
फारस से मंगाए थे गुलाब
बाड़ी बाड़ी में लगाए।”
– कुकुरमुत्ता

अपराजेय समर के वर्णन की पृष्ठभूमि को प्राकृतिक वातावरण के साथ आरंभ करना ही इस बात का सूचक है कि कवि प्राकृतिक छटा के साथ ही कविताओं को गति प्रदान करना चाहता है। लंबी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की प्राकृतिक पृष्ठभूमि कविता में मनः स्थिति को अभिव्यक्त करता है:-

“रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-छिप्र- कर वेग प्रखर ,
शतशेल, संवरणशील, नीलगभ गज्जित स्वर।

‘रवि हुआ अस्त’ की पृष्ठभूमि इस महाकाव्य उचित लंबी कविता को प्रकृति रूपी नवीन आयाम से जोड़ती है। ‘रवि हुआ अस्त’ शब्दों की प्रकृतिजन्य मनोभूमि यह बताने के प्रयास कर रही है कि कवि का मन उदास है, निराश है। ‘राम की शक्ति पूजा’ में वीर रस की ओजपूर्ण व्यंजना के साथ प्रकृति चित्रण स्वयं में अनुपमेय है। निराला ने भाव गंभीरता एवं उदारता के साथ प्रकृति चित्रण प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। निराला के युगबोध एवं मानवतावादी दृष्टिकोण के विषय में दूधनाथ सिंह ने लिखा है:-
“जनसाधारण के जिस सामान्य आदमी का कवि ने आत्मसाक्षात्कार किया है उसके रेखाचित्रों तक ही अपने को सीमित नहीं कर लिया बल्कि उसकी प्रतिष्ठा के लिए निरंतर अभियान चलाया । प्रचलित लीक से हटकर कवि की अभिव्यक्ति युगीन चेतना के भाव बोध की चुनौती को स्वीकार करती है और सतत तिरस्कृत, पद दलित, उपेक्षित एवं अप्रतिष्ठित के सभी खतरे झेल कर प्रतिष्ठित करने का प्रयास करती है। रचना धर्मिता की निष्ठा और इमानदारी चरम सत्य का स्पर्श करती है।”

पराधीनता के बंधन से ग्रसित निरीह भारतीय जनता के वक्ता के रूप में निराला जी ने अपनी वाणी मुखरित की है। निराला के काव्य में अंधकार से बाहर निकलने और स्वतंत्रता के वातावरण में सांस लेने की अदम्य अभिलाषा परिलक्षित होती है। ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से कवि निराला ने स्वयं राम के व्यक्तित्व में परिलक्षित होकर अथवा तत्कालीन राष्ट्रीय समस्याओं को स्वर दिया है।

राम अपने सेनापतियों से घिरे श्वेत शिला पर बैठे हैं चारों ओर अमानिशा का अंधकार छाया हुआ है। इस अंधकार के राम के मन की स्थिरता जैसे और विचलित होती जा रही है और उनके मन की संशयालु स्थिति भी बढ़ती जा रही है। राम के रूप में निराला तत्कालीन परिवेश ,देशकाल ,वातावरण से निराश हो उठते हैं और कहते हैं:-

“है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार,
अप्रतिहित गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल,
भूधर जो ध्यानमग्न, केवल जलती मिशाल,
स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर फिर संशय
रह रहे उठता जगजीवन में रावण – जय – भय ।।”

यहां अमानिशा के माध्यम से तत्कालीन परतंत्रता की वेदना को दर्शाने का प्रयास किया गया है। राम यद्यपि सदैव स्थिर रहे हैं किंतु आज उनके ह्रदय में बार-बार शंका आ रही है यह भय विचलित किए दिए रहा है कि कहीं इस युद्ध में रावण की विजय न हो जाए ऐसा हुआ तो संसार में अनाचार, स्वार्थ और पाप विकसित होगा और यह घोर अन्याय न्याय के विरुद्ध होगा।

‘राम की शक्ति पूजा’ में ही आगे निराला आतताई शक्तियों का दमन करने के लिए राष्ट्रीयता को जागृत करने के लिए हुंकार उठते हैं :-

“हे पुरुष – सिंह तुम भी यह शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम करो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर रहा त्रस्त
तो निश्चय तुम ही सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त।।”

जामवंत के शब्दों में निराला कहते हैं कि जब अधर्मी लोग शक्ति ग्रहण कर सकते हैं तो नैतिक मूल्यों को मानने वाले क्यों नहीं?नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठापित करते हुए निराला कहते हैं कि सत्य की जय होगी , जय होगी और इस तरह राष्ट्रीयता को जागृत करते हैं :-

“होगी जय, होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन।”

महादेवी वर्मा ने निराला के बारे में कहा है :-
“अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्होंने कभी ऐसी हार नहीं मानी जिसे सहज बनाने के लिए हम समझौता करते हैं, स्वभाव से उन्हें वह निश्छल वीरता मिली है जो अपने बचाव के प्रयत्न को भी कायरता की संज्ञा देती है। उनकी वीरता राजनीतिक कुशलता नहीं है , वह तो साहित्य की एक निष्ठा का पर्याय है। निराला जी ऐसे ही विद्रोही कलाकार हैं। अनुभवों के दर्शन का विष साधारण मनुष्य की आत्मा को मूर्छित करके सारे जीवन को विषाक्त बना देता है , उसी ने उन्हें सतत जागरूकता और मानवता का मंत्र प्राप्त किया।”

समाज में व्याप्त अराजक तत्वों को ‘राम की शक्ति पूजा’ में आसुरी शक्ति दिखाकर और अंततोगत्वा आसुरी शक्तियों का दमन करा कर, नैतिक मूल्यों को मंडित करने वाले सदाचारी राम के द्वारा निराला जी ने मानवता को प्रतिस्थापित किया है और तत्कालीन परिवेश तथा काव्य जगत को नई दिशा दी है।

“होगी जय, होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन।”

निराला ने अपनी शील एवं साहित्य दोनों में ही संकीर्णता का विरोध करते हुए अपनी महाप्रणता का का परिचय दिया है। इसके लिए उन्होंने करुणा और विद्रोह दोनों का सहारा लिया है। करुणा उपेक्षित, पीड़ित, एवं प्रताड़ित जनसमूह के लिए और विद्रोह अन्यायी शोषक वर्ग के प्रति। यही निराला की प्रगतिशील जनवादिता कि आधारशिला है। उन्होंने प्रारंभ से ही क्रांति का अवलंब लेकर मानवतावादी मूल्यों का अनुमोदन किया है।

निराला जी का दर्शन अद्वैतवादी है । शंकर के अद्वैत दर्शन का विवेचन और उसका काव्यात्मक रूप अनेक काव्य में उपलब्ध होता है। स्वामी प्रेमानंद जैसे विद्वानों के संपर्क में रहने का उन्हें सौभाग्य मिला, आश्रम की आध्यात्मिक पत्रिका ‘समन्वय’ के संपादन का अवसर मिला और रामकृष्ण साहित्य का हिंदी अनुवाद भी उन्होंने किया स्वामी विवेकानंद के नव्य वेदांत का उन पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है।

रावण की पक्षधर शक्ति को “श्यामा विभावरी ,अंधकार” कहा गया है, जाहिर है कि अज्ञान के अंधकार में डूबी जनशक्ति ही अन्याय का जाने अनजाने पक्ष लेती है। जर्मनी में हिटलर हो या पूंजीवादी देशों में लोकतंत्र की आड़ में शोषकों का वर्चस्व वें इसी जनशक्ति का पक्ष लेने के कारण सत्ता में रहते हैं । न्याय के पक्ष को जिसका प्रतिनिधित्व इस कविता में राम करते हैं हारते हुए देखकर जो कवि विचलित हो रहा है उसे ” रूद्र राम पूजन प्रताप तेज : प्रसार ” कहा गया है जो कि ज्योति का ही एक रूप है ।

विश्वपूंजीवाद जब साम्राज्यवाद की अवस्था में पहुंचकर दूसरे देशों को पराधीन बना लेता है तो राष्ट्रीय मुक्ति का दायित्व उस देश में उपजे राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग पर या उस वर्ग के कमजोर होने पर वहां के नवोदित मजदूर सर्वहारा वर्ग पर आ जाता है लेकिन उसे भी विजय प्राप्त भी हो सकती है जब पूरे राष्ट्र की जनशक्ति उसके साथ एकजुट खड़ी हो , जैसा कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का इतिहास सिद्ध करता है। निराला ने यह कविता 1936 में लिखी थी लेकिन इसमें दी गई रणनीति से ही हमें आजादी मिली किसी एक व्यक्ति के चमत्कारी शक्ति से नहीं इस अर्थ में यह कविता एक प्रोफोटिक रचना है ।

‘राम की शक्ति पूजा’ जिजीविषा का काव्य है । जीवन शक्ति का काव्य है । ‘राम की शक्ति पूजा’ छायावाद के भीतर की रचना है, जिसको आनंद की सिद्धावस्था का काव्य कहा गया है। यह निराला की पुण्य भूत साधना का साकार विग्रह है।

कवि निराला एक ऐसे वातावरण में पले थे जिसमें संस्कृति का गहन रंग था। उनकी शिक्षा-दीक्षा ने भी उनके मानस को भी सांस्कृतिक संदर्भ से अंकुरित कर दिया था । यद्यपि वे क्रांतिकारी कवि थे, युग और समाज के जागरूक दर्शक थे, उनके चारों ओर पश्चिम दिशा के प्रवाहित एक नवीन वातावरण छा रहा था; फिर भी उनका काव्य इस बात का प्रमाण है कि वह भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रति उन्होंने अपनी आंखें बंद नहीं कर ली थी,परंतु जो कुछ देखा उसे आत्मसात करने के लिए देखा, भारतीयता में सम्मिलित करने के लिए देखा ।उन्होंने नए वातावरण का उपयोग अपनी संस्कृति के विकास के हेतु भी किया था।

निराला की सांस्कृतिक अभिरुचि उनके व्यक्तित्व का प्रमुख घटक है। उन्होंने ऐतिहासिक एवं पौराणिक काव्य विषय भी ऐसे ही अपनाएं हैं जो सांस्कृतिक गरिमा से ओत प्रोत हैं । ‘पंचवटी प्रसंग’, ‘सेवा प्रारंभ’ , ‘यमुना के प्रति’ , ‘राम की शक्ति पूजा’ , ‘तुलसीदास’ ऐसे ही उदात्त काव्य भूमियाँ है।

‘राम की शक्ति पूजा’ में निराला ने अन्य सांस्कृतिक आयाम की प्रस्तुति की है । निराला की अभिरुचि राम के उस मन के प्रस्तुतीकरण में है जो कभी थकता नहीं, जो कभी हारता नहीं, विपरीत परिस्थितियां जिसे झुका नहीं सकती, दैन्य जिसकी प्रकृति के विरुद्ध है। हठयोग की अन्तरसाधना भी इस वंदना के साथ सहयोग करती है । निराला इसी सांस्कृतिक आदर्श चरित्र से प्रभावित होकर जीवन संघर्षों में आजीवन डटे रहे :-

”ये अश्रु राम के आते ही मन में विचार
उद्वेल हो उठा शक्ति – खेल – सागर अपार
हो श्वसित पवन – उनचास , पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प उड़ा अतूल
शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़
जल राशि- राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़’ ”

डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने निराला के काव्य की सांस्कृतिक दृष्टि का विवेचन करते हुए लिखा है :- “निराला की काव्य अनुभूति में तत्कालीन द्वंद ग्रस्त जीवन और जगत की विविधता भरी हुई है। उसमें प्राचीन परंपराओं एवं रूढ़ियों के विध्वंस का तीव्र स्वर भी सुनाई पड़ता है और नवीन समाज रचना का मधुर राग भी गूंज रहा है। समता एकता संवेदना एवं सहानुभूति की मधुर स्वर लहरी भी प्रवाहित होती हुई दिखाई देती है । साथ ही उसमें मानव प्रेम है, विश्व प्रेम है ,भगवत भक्ति है ,रक्त क्रांति की प्रेरणा भी, है नव निर्माण का शुभ संदेश भी है।”

विद्रोह भाव निराला के व्यक्तित्व का स्थाई अंश है व्यक्तित्व की छाप शैली और विचारधारा दोनों को प्रभावित करती है। ‘कुल्ली भाट’ उपन्यास में उन्होंने स्वीकारा है :-
“मैं ईश्वर सौंदर्य ,वैभव ,और विलास का कवि हूं फिर क्रांतिकारी ।”

कुछ आलोचकों का कहना है कि ‘राम की शक्ति पूजा’ के पात्र प्रतीक मात्र है ।लक्ष्मण सुमित्रानंदन पंत, रावण के विपक्षी आलोचक हैं , शक्ति महादेवी हैं । शिव जयशंकर प्रसाद ,सीता कविता तथा राम स्वयं निराला है । निराला का व्यक्तित्व राम के व्यक्तित्व के माध्यम से व्यक्त हुआ है । राम एवं निराला का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है । आंतरिक एकता दोनों में है ।

‘राम की शक्ति पूजा’ का निश्चित संदेश मानव के लिए है जो कवि का परम उद्देश्य है । विदेशी दासता के साथ-साथ मानवता को बंधन मुक्त करना निराला का उद्देश्य है । निराशा और अंधकार ग्रस्त मानव को आशा का संदेश देकर अंधकार से मुक्त कराना निराला का उद्देश्य है । राम की निराशा वैयक्तिक नहीं अपितु समस्त भारतीयों की निराशा का प्रतीक है रावण विदेशी शक्ति का प्रतीक है । इसीलिए निराला को कहना पड़ा अन्याय जिधर है शक्ति भी उधर है :-

”बोले रघुमणि – मित्रवर , विजय होगी न समर ,
यह नहीं रहा नर – वानर का राक्षस से रण ,
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण ;
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति ! कहते छल -छल
हो गए नयन , कुछ बूंद पुनः ढलके द्रगजल”

निराला ने परामर्श स्वीकार करने एवं शक्ति की उपासना करने का तथ्य प्रस्तुत कर यह बतलाना चाहा है कि केवल शक्ति , पौरुष और पराक्रम तथा अस्त्र शस्त्रों के अभाव में युद्ध में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है । शक्तियों में सबसे बड़ी शक्ति आत्मा की शक्ति या आत्मिक शक्ति महाशक्ति को राम के बदन में लीन करवा दिया है। मानव एकाग्रता ,अनंत निष्ठा और तपस्या के द्वारा ही जीवन में लक्ष्य को सिद्ध किया जा सकता है। राम की आराधना इसी तथ्य की अभिव्यंजना करती है।

आशावाद काव्य का संदेश है ।अंतिम क्षणों तक आशा का पल्ला ना छोड़ने वाले को ही अंततः सफलता प्राप्त होती है। निराला जीवन संग्राम में मृत्यु पर्यंत संघर्ष रत रहे । इसीलिए अपने आदर्श नायक राम के द्वारा “न दैन्यं न पलायनम्” को स्वस्थ एवं कर्म प्रधान मार्ग पर चलने का संदेश दिया है ।घोर संकट में राम पराजय को स्वीकारते नहीं काव्य का यही संदेश है।

निष्कर्षत: निराला युग प्रवर्तक कवि हैं ।उनकी रचनाओं में न केवल उनका युग बल्कि आज का एवं आने वाला युग भी बिंबित होता है । उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से अतीत वर्तमान एवं भविष्य की मूकता को वाणी प्रदान की । कवि ने आम आदमी को चेतना दीप्त करने का प्रयास किया । अंधकार के साम्राज्य से निजात पाने के लिए रश्मि की खोज की। निराला के शब्दों में :-

“पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है ,
आज्ञा का प्रदीप जलता है ह्रदय कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है,
दिड़्निर्णय धुव्र से जैसे नक्षत्र पुंज में ।”

सौरभ कुमार सिंह

शोधार्थी

दिल्ली विश्वविद्यालय

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