साहित्य और सिनेमा दो स्वतंत्र विधा होते हुए भी दोनों एक दूसरे से संबंधित हैं। वर्तमान समय में फिल्में हमारे समाज के यथार्थ को प्रस्तुत करने की सशक्त माध्यम बन चुकी है। एक साहित्यकार से यही उम्मीद रहती है कि वह अपने रचना कर्म के द्वारा समाज एवं परिवेश को गतिशील बनाए। साहित्य का विश्व में विपुल भंडार है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय में भी लगातार साहित्य की रचना हो रही है फिर भी समाज का एक बड़ा वर्ग साहित्य से कोसों दूर है। जब तक भारत में सभी वर्ग के लोग शिक्षित नहीं हो जाते साहित्य अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि साहित्य का उद्देश्य समाज के आगे चलना है वह भी मशाल लेकर और यह मशाल ज्ञान, जागरूकता का प्रतीक है। प्रेमचंद साहित्य का लक्ष्य बताते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक लेख में कहते हैं – “साहित्यकार का लक्ष्य महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है – उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है। ” साहित्य की पहुँच सिर्फ उन्हीं लोगों तक है जो पढ़ सकते हैं। सिनेमा आधुनिक काल की एक ऐसी विधा है जिसकी पहुँच समाज में प्रत्येक वर्ग के लोगों तक है। सिनेमा अपनी सरल एवं सहज भाषा के कारण जन-जन के बीच काफी लोकप्रियता हासिल कर चुका है। सिनेमा कठिन से कठिन बातों को पात्रों के अभिनय के द्वारा सरलता पूर्वक समझाता है। फिल्मों में जब हम अपने ही जैसे मनुष्यों को हँसते-रोते, नफरत-प्रेम आदि करते देखते हैं तो सहज ही उनका सुख-दु:ख अपना सुख – दु:ख बन जाता है। पात्रों को जब हम अपनी आँखों के सामने कुछ करते देखते हैं तो वह दृश्य हमारे मानस पटल पर स्थायी रूप से लंबे समय तक के लिए अंकित हो जाता है। इसके बरक्स साहित्य का पढ़ा पात्र एवं दृश्य भूल सकता है, पर फ़िल्मों में देखा हुआ पात्र एवं दृश्य जल्दी नहीं भूलता है। प्रसिद्ध साहित्यकार व पटकथा लेखक राही मासूम रजा का कथन महत्वपूर्ण है – “पहली बात यह है कि सिनेमा उन लोगों तक भी पहुँच जाता है जो लिखना नहीं जानते। भारत जैसे अशिक्षित देश में सिनेमा कि कला के महत्व को अनदेखा नहीं कर सकते। यदि हम शिक्षित भारतीयों को ही लें तो हम देखते हैं कि वह चौदह बड़ी भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करें…. मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि भारत की 96 प्रतिशत आबादी के लिए छापा हुआ या लिखा हुआ अर्थहीन है। लेकिन वही शब्द अगर सुना जाय तो उसकी पहुँच बढ़ जाती है। पूरे भारत में हिंदी फिल्मों की प्रसिद्धि इस बात का प्रमाण है।”
इस प्रकार साहित्य और सिनेमा अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र होते हुए भी, आज के संदर्भ में एक-दूसरे पर निर्भर रहने वाले और एक एक-दूसरे को पूरक बनाने वाले सबसे निकट माध्यम हैं। यह निकटता फ़िल्मकारों और साहित्यकारों के बीच भी आवश्यक है, ताकि आने वाले समय में हिंदी साहित्य और हिंदी सिनेमा को एक नया रूप और रंग दिया जा सके तथा उसे एक नए मुकाम पर स्थापित कर सकें।
सैद्धान्तिक पक्ष –
किसी भी साहित्यिक रचना का कुछ न कुछ सामाजिक उद्देश्य होता है। साहित्य का मुख्य प्रयोजन मानवीय संवेदना का विस्तार और प्रचार-प्रसार करना है। सामाजिक रूढ़ियों और विसंगतियों को दूर करना भी साहित्य का काम है। जिस रचना का फिल्म का निर्माण होता है, वह अपने अंदर सामाजिक सोद्देश्यता समाए हुए होती है। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में साहित्य की मूल संवेदना का विशेष ख़्याल रखना चाहिए। साहित्यिक संवेदना को दर्शकों तक पहुंचाना ही फिल्म का मुख्य उद्देश्य होता है। रचना की मूल संवेदना की रक्षा करना और फिल्म में रूपांतरित करना ही माध्यम रूपान्तरण की सफलता की मुख्य पहचान है। सिनेमा एक सामूहिक कला है। फिल्म का निर्माण निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीकी उपकरण में दक्ष कलाकार आदि मिलकर फिल्म का निर्माण करते हैं। इसलिए प्रसिद्ध कथाकार मन्नू भण्डारी कहानी की मूल संवेदना की रक्षा का भार फिल्म निर्माण की पूरी टीम को सौंपती हैं – “कहानी की आत्मा यानि कहानीकार अपनी रचना द्वारा जो प्रेषित करना चाहता है, पटकथा उसे ही अपने दर्शकों तक प्रेषित करे और जहां तक संभव हो अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से प्रेषित करे, क्योंकि दृश्य माध्यम तो वैसे भी अधिक प्रभावी होता है … पर यह दायित्व मात्र पटकथा लेखक का ही नहीं होता वरन फिल्म की पूरी टीम (निर्देशक, अभिनेता, कैमरामैन, संगीत-निर्देशक, सेट-डिजाइनर) आदि-आदि मिलकर इस दायित्व को निभाते हैं।”
फिल्म की एक समय सीमा है। कोई भी फिल्म ढाई से तीन घंटे से अधिक नहीं हो सकती है। निर्देशक का यह काम है कि वह रचना के मूल मर्म को समझकर उसे ढाई-तीन घंटे में फिल्मांकन करें। साहित्य की कई विधाएँ हैं जिसकी रचना लंबी होती है जैसे- उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा आदि। इन सभी रचनाओं में मुख्य कथा के साथ कई उपकथा भी होते हैं। फ़िल्मकार को उन उपकथाओं को छोड़ देना चाहिए जो फिल्म निर्माण की दृष्टि से अधिक उपयोगी न हो। जब फ़िल्मकार किसी रचना पर फिल्म का निर्माण करता है तब निर्देशक का कर्तव्य होता है वह रचना के अभिधा, लक्षणा और व्यंजनाओं को अच्छी प्रकार से समझ ले तब रचना के मूल संदेश को दर्शकों तक पहुंचाने का कार्य करे। माध्यम रूपान्तरण के बारे में मन्नू भण्डारी कहती हैं – “वैसे यह तो सर्व स्वीकृत तथ्य है कि लेखन और फिल्मांकन दो बिल्कुल भिन्न माध्यम हैं, इसीलिए इनकी अपेक्षाएँ भी भिन्न हैं, सो परिवर्तन तो अनिवार्य ही है पर ये परिवर्तन इतने और ऐसे ही होने चाहिए जो रचना के केंद्रीय भाव को और अधिक गहराई से…. चरित्रों को और अधिक निखार कर और द्वंद्व और टकराहट की स्थितियों को और अधिक प्रखरता से प्रेषित करके रचना के प्रभाव को कहीं बढ़ा दें।” साहित्य आधारित फिल्म निर्माण में पात्रों की संख्या पर विशेष ध्यान देना चाहिए। साहित्यिक रचनाओं में पात्रों की अधिकता होती है। फ़िल्मकार को बड़ी सावधानी पूर्वक मुख्यकथा और नायक खलनायक के चरित्र निर्माण में सहायक पात्रों का ही फिल्म में चुनाव करना चाहिए। फिल्म की मांग के अनुसार ही पात्रों को जोड़ा तथा अनावश्यक पात्रों को छोड़ा भी जा सकता है। इस बात को मन्नू भण्डारी भी स्वीकार करती हैं – “लेखक द्वारा वर्णितबातों को दृश्यों में बदलने के दौरान मुझे बराबर उनमें कुछ जोड़ना घटाना पड़ता है तो कभी – कभी किसी पात्र के मानसिक आवेग-उद्वेलन को व्यक्त करने के लिए नए पात्रों की कल्पना भी करनी पड़ती है… जिसके साथ संवादों के माध्यम से उनके मन की परतें खोली जा सकें। ”
माध्यम रूपान्तरण करते समय ऐतिहासिकता से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। यदि कोई रचना जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हो अगर उस पर फिल्म का निर्माण हो रहा है तो फिल्माकर उसके ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल करने के बाद उसमें परिवर्तन कर सकता है। अगर तथ्यों की पड़ताल किए बिना ही उसमें परिवर्तन करता है तो यह इतिहास से छेड़छाड़ का मामला हो सकता है। माध्यम रूपान्तरण करते समय रचना के देशकाल और पहनावे पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। अगर किसी ग्रामीण परिवेश पर आधारित रचना का फिल्म निर्माण होती है तो वहाँ के मौसम, पहनावा, रीति-रिवाज तथा वहाँ की विशेषताओं को विशेष रूप से फिल्माया जाना चाहिए। ‘नदिया के पार’ और ‘तीसरी कसम’ परिवेश की दृष्टि से सफल फिल्मांकन कहा जा सकता है। साहित्य अपनी बात अभिधा के अतिरिक्त लक्षणा – व्यंजना में भी कहता है। कभी-कभी उसके एक लाइन के वाक्य में बहुत लंबी एवं गहरी बात छुपी रहती है। साहित्य की इन बारीकियों को समझकर उसे दृश्य रूप में परिवर्तित करने से फिल्म की गुणवत्ता बढ़ जाती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर जब सत्यजीत रे ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया तो वे उसकी एक लाइन के आधार पर लगभग आधी फिल्म का निर्माण कर दिये। वह एक लाइन का वाक्य यह था-“वाजिदअली शाह का समय था।”
माध्यम रूपान्तरण के दौरान नायक और प्रतिनायक की स्पष्ट पहचान होनी चाहिए। जिससे दर्शक नायक के प्रति सहानुभूति और प्रतिनायक के प्रति नफ़रत का भाव रखने लगे। वर्तमान समय में बहुत सी ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें नायक और प्रतिनायक की पहचान देर से होती है, जैसे – फना, कोयला, गजनी आदि ऐसी कई फिल्मे हैं। नायक प्रतिनायक की पहचान स्पष्ट न होने के कारण कभी-कभी दर्शक ऊबने लगते है। नायक और प्रतिनायक की पहचान फिल्म के आरंभ से ही हो जानी चाहिए। दोनों की पहचान हम पार्श्व ध्वनि, मधुर या कर्कश आवाज या बोलने या चलने के ढंग द्वारा भी करा सकते हैं।
माध्यम रूपान्तरण में संवाद की विशेष भूमिका होती है। साहित्यिक रचनाओं में अक्सर लंबे और क्लिष्ट संवाद होत्र हैं। क्लिष्ट और साहित्यिक भाषा के संवादों को साधारण बोल-चाल की भाषा में रूपांतरित करना चाहिए। संवाद छोटे और अर्थपूर्ण होने चाहिए। पात्रों की भाषा के संबंध में प्रसिद्ध कथा लेखिका मन्नू भण्डारी कहती हैं – “संवाद स्थिति और पात्रों के अनुकूल तो हों ही … सटीक और संक्षिप्त भी हों तो अच्छा है। शब्द की अधिकता बहुधा बात को अनावश्यक रूप से फैलाकर उसके प्रभाव को बिखरा देती है, जबकि जरूरत होती है कि बात को बहुत ही प्रभावी ढंग से कहा जाए।”
साहित्य की लगभग सभी गद्य विधाओं में गीत नहीं रहते हैं। कुछ लेखकों ने अपनी गद्य रचना में गीत का भी प्रयोग किया है जिसमें जयशंकर प्रसाद, फणीश्वरनाथ रेणु प्रमुख हैं। साहित्य की अपेक्षा लगभग सभी भारतीय फिल्मों में गीत का प्रयोग किया जाता है। यदि रचना में गीत है तो फिल्म में उसी बोल के अनुसार गीत की रचना की जानी चाहिए। यदि रचना में गीत नहीं हैं और फिल्म में गीत डालना है तो ऐसे गीत की रचना की जानी चाहिए जो फिल्म की कहानी को समझने और उसे आगे बढ़ाने में मदद करें। ‘तीसरी कसम’, ‘नदिया के पार’, ‘रजनीगंधा’ इसके उदाहरण हैं। आजकल की फिल्मों में बहुत सारे गीत ऐसे होते हैं जिनका फिल्म की कहानी से कोई संबंध नहीं होता है बल्कि इसका प्रयोग अंग प्रदर्शन और करोड़ो कमाने के लिए किया जाता है। फिल्म की कहानी से मेल न खाने वाले गीतों की मांग करने वाले फ़िल्मकारों पर व्यंग करते हुए राही मासूम रजा लिखते हैं – “हमारी हिंदी फिल्मों का हमारी संस्कृति से कोई ताल्लुक ही नहीं है। इक्का-दुक्का को छोड़ दीजिए तो दूर-दूर तक सन्नाटा है। हम तो वो लोग हैं कि गांधी जी पर फिल्म बनाने बैठे तो उनसे भी दो-चार गाने गवा डालें। कस्तूरबा किसी पेड़ पर बैठी गाना गाती हुई चाहे कैसी ही अजीब क्यों न लगे, परंतु यदि गांधी पर फिल्म बनेगी तो गांधी जी और कस्तूरबा का ‘दो गाना’ अवश्य होगा।”
व्यावहारिक पक्ष
माध्यम रूपान्तरण के सैद्धान्तिक पक्ष के साथ व्यावहारिक पक्ष भी होते हैं, जिस पर ध्यान देना जरूरी होता है। व्यावहारिक पक्ष फिल्म को न केवल उत्कृष्ट बनाता है बल्कि उसकी सफलता में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
फिल्म निर्माण में पात्रों का चयन एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। कहानी कितनी ही अच्छी क्यों न हो अगर गलत पात्र का चयन कर लिया गया हो तो फिल्म असफल हो जाती है। यदि किसी कहानी का पात्र ग्रामीण-जीवन या शहरी – जीवन जीने वाले व्यक्ति का है तो वहाँ उसी के अनुरूप किसी पात्र का चयन करना चाहिए। यदि किसी उपन्यास का पात्र दुबला-पतला मरियल सा सूरदास है तो सूरदास के अनुरूप पात्र चाहिए न की हट्टे-कट्टे व भारी भरकम आवाज वाले धर्मेंद्र। धर्मेंद्र कितनी ही कोशिश क्यों न कर ले, दर्शकों को अपच ही रहेगा। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर आधारित निर्देशक त्रिलोक जेटली की फिल्म ‘गोदान’ पात्र के चयन में असफल रही है। फिल्म में कृषक कर्म में लीन, दुबले-पतले होरी का अभिनय राजकुमार ने किया है। यहीं पर फिल्म असफल हो जाती है। हालांकि राजकुमार की अभिनय क्षमता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं उठाया जा सकता है, पर होरी जैसे दुर्बल, दब्बू और धर्मभीरु के लिए राजकुमार का चयन गलत था।
देशकाल वातावरण किसी भी फिल्म की जान होती है। फिल्म सिटी या स्टुडियो में बनाए गए वातावरण या कहानी में बताए गए वास्तविक वातावरण में बहुत अंतर होता है। किसी भी साहित्यिक फिल्म को उसकी रचना में बताए गए क्षेत्र में फिल्माने से फिल्म में यथार्थता की गुंजाइश अधिक होती है। अन्यथा फिल्म बनावटी लगने लगती है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के दृश्यों को वहीं जाकर फिल्माने से दर्शक को वह फिल्म अपने गाँव-घर की कहानी के समान लगती है। वर्तमान समय में बहुत सारी फिल्मों का निर्माण पटकथा में लिखे गए स्थान या मूल रचना में बताए गए क्षेत्रों पर जाकर ही फिल्म की शूटिंग हो रही है। बनावटीपन कहानी की जीवंतता और फिल्म की यथार्थता पर मोटा पर्दा डाल देता है। केशव प्रसाद मिश्र ने ‘कोहबर की शर्त’ में जिस गाँव और वहाँ के लोगों का जिस प्रकार चित्रण किया है, उसकी शूटिंग किसी गाँव में ही हो सकती थी। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो उपन्यास की मूल संवेदना खो जाती।
माध्यम रूपान्तरण के समय इतिहासबोध का होना अति आवश्यक है। अगर कोई फ़िल्मकार किसी रचना पर फिल्म का निर्माण कर रहा है तो फ़िल्मकार को फ़िल्म निर्माण से पहले रचना की पृष्ठभूमि और रचना के इतिहासबोध की गहराई तक जानना चाहिए। यदि किसी रचना को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करना चाहते है तो रचना किस कालखण्ड पर आधारित है, रचना की भाषा, पहनावा, सामाजिक, राजनीतिक को समझकर ही फ़िल्म का निर्माण करना चाहिए। ‘कोहबर की शर्त’ (1965) उपन्यास का कथानक पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो गांवो बलिहार और चौबेछपरा के ग्रामीण परिवेश का है। गोविंद मुनीस ने जब 1982 ई॰ में ‘कोहबर की शर्त’ पर ‘नदिया के पार’ फ़िल्म बनाई तो वह पूरी तरह से ग्रामीण परिवेश के जन-जीवन, रस्मों रिवाज़ को जीवंतता और ताजगी के साथ उपस्थित किया। ग्रामीण परिवेश की यह उपस्थिति 1994 ई॰ के महानगरीय खेल में ‘हम आपके हैं कौन’ के जरिये तब्दील हो जाता है। सूरज बड़जात्या का अपने पिता द्वारा निर्मित और गोविंद मुनीस द्वारा निर्देशित ‘नदिया के पार’ के कथानक के शहरी परिवेश में ग्लैमरयुक्त करके और हिन्दू वैवाहिक रीति-रिवाज़ के ओवरडोज़ के साथ ‘हम आपके हैं कौन’ का निर्माण और उसकी सफलता, बदले समाज की दृष्टि से है। जबकि अपनी सरल कथा और सादगी, किन्तु आत्मीय छुअन का जो अनुभव ‘नदिया के पार’ देती है। वह तड़क-भड़क युक्त ‘हम आपके हैं कौन’ नहीं जयप्रकाश दत्त ने जब 2006 ई॰ में ‘देवदास’ का निर्माण किया तो उसकी अमीरन भी 19वीं सदी की अमीरन थी। बस चूक उन्होंने 19वीं सदी में नायिका से हैंडपंप से पानी चलाकर मुँह धुलते दिखाकर की है। सभी को पता है कि भारत में 19वीं सदी में कुआँ हुआ करते थे। उस समय हैंडपंप का तो नामोनिशान भी नहीं था। अत: एक सजग निर्देशक को चाहिए की यदि वह किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म का निर्माण कर रहा है और उसको उसी काल के अनुरूप बना रहा है तो उसको तत्कालीन समय के संसाधनों का भी ध्यान रखना चाहिए।
अरस्तू के विरेचन सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति द्वारा ट्रेजडी नाटक देखने के कारण उसके जीवन के व्याप्त करुणा और त्रास का विरेचन करना होता है। एक निर्देशक को माध्यम रूपान्तरण के दौरान उसी रचना का चयन करना चाहिए जिसमें नायक को कठिन श्रम के पश्चात ही सफलता मिले। प्रतिनायक हमेशा नायक से शक्तिशाली होना चाहिए। प्रतिनायक हमेशा मनुष्य ही नहीं होता है। कभी-कभी परिस्थितियाँ भी प्रतिनायक के समान ही कार्य करती हैं। कठिन संघर्ष से प्राप्त सफलता दर्शकों में सकारात्मक का संचार करेंगी और श्रम की महत्ता को प्रतिपादित करेगी।
भारत का एक बड़ा दर्शक वर्ग अभी भी गांवों में बसता है। अंग्रेजी तो दूर की बात है वह क्लिष्ट या तत्सम शब्दों से युक्त हिंदी भी नहीं समझ पाता है। उसे तो आज भी नायक के रूप में गाड़ीवान हीरामन, और उसकी टूटी-फूटी भाषा में ही आनंद प्राप्त होता है। अंगेजी भाषा और अंग्रेजी रहन-सहन तो उसकी समझ से परे की बात है। वर्तमान समय में भड़कीला पहनावा और द्विअर्थी भाषा के चलते पूरे परिवार के साथ लोग फिल्म नहीं देख पा रहे हैं। इससे फ़िल्मकार को बचना चाहिए। इस प्रकार की फिल्म में उन्हें अपना अक्स न दिखकर दूसरों का ही सुख-दु:ख दिखाई देता है। अतः निर्माता-निर्देशक को चाहिए कि थोड़े से धनाढ्य और उच्च शिक्षित वर्ग का ध्यान न देकर सामान्य जनता के लिए भी फिल्म का निर्माण करें। उन्हें इस प्रकार के साहित्य का रूपान्तरण करना चाहिए जो अंधविश्वास, पाखंड और बाह्य आडंबर के षड्यंत्र का पर्दाफाश करें। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर आधारित इसी नाम की फिल्म इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। ‘देवदास’ के उत्तर-आधुनिक संस्करण ‘देव डी’ में देव मरता नहीं, बल्कि चंदा के साथ अपने भावी जीवन की शुरुआत नाशमुक्त होकर करता है। सिनेमा को एक संवेदनशील और बौद्धिक कथ्य के साथ ऐसा भी कथ्य चाहिए जो दर्शकों में प्रेरणा भर सके।
संदर्भ ग्रंथ –
[1] नवल नन्द किशोर-(सं) हिंदी साहित्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं॰ 2007, पृष्ठ 30
[2] सिंह, कुंवरपाल (सं॰)सिनेमा और संस्कृति, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन ,पृष्ठ 18-19
[3] भण्डारी,मन्नू-कथा-पटकथा,वाणी प्रकाशन ,नई दिल्ली सं॰ 2003, पृष्ठ 13
[4] भण्डारी मन्नू-कथा-पटकथा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं॰ 2003 , पृष्ठ 14
[5] वही पृष्ठ 13
[6]भण्डारी मन्नू-कथा-पटकथा, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली ,प्रथम सं॰ 2003 ,पृष्ठ 15
[7] सिंह, कुंवरपाल (सं॰)सिनेमा और संस्कृत , नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन ,पृष्ठ 28