प्रत्येक भाषा के साहित्य में कुछ ऐसी कालजयी रचनाएं एवं रचनाकार होते हैं जो अपनी विषयवस्तु और वर्णन शैली के कारण न केवल जन मानस को प्रभावित करते हैं बल्कि उनका कंठहार बन जाते हैं और उस भाषा तथा साहित्य को आत्मसात करने वाले लोग उन कृतियों एवं उनके प्रणेताओं पर गर्व करते हैं। यह बात छायावाद के आधार स्तम्भों में महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों पर सटीक बैठती है। गीति कला उनके काव्य में पूर्णता को प्राप्त हुई है।
1907 में फर्रूखाबाद की धारा को पावन करती हुई जब इन्होंने इस विश्व में अपनी प्रथम बार आँखे खोली तो किसी ने कल्पना तक न की थी कि आप वेदना और करूणा की साकार प्रतिमूर्ति बनीं। अमर कवयित्री बनकर अपने काव्य में मानव के ह्नदय की पीड़ा को वाणी दी।
करूणा और पीड़ा महादेवी वर्मा की चिर संगिनी है। उनके व्यक्तित्व का निर्माण करूणा की भावुकता तथा दार्शनिकता की आधार शिला पर हुआ है। हिन्दी साहित्य में जिस किसी ने अपने काव्य में करूणा, विरह एवं वेदना को चित्रित किया है तो उसमें महादेवी जी का नाम सर्वोच्च है। उनके काव्य में पीड़ा, वेदना, कसक, टीस जैसे भाव ही अधिक मुखरित हुए हैं। महादेवी जी को पीड़ा से बहुत प्रेम है क्योंकि यह वेदना साधारण न होकर अपने प्रिय का दिया हुआ वरदान है। इसीलिए वे इस पीड़ा से क्षण भर भी पृथक होना नहीं चाहती। वर्मा जी की यह विरहानुभूति अध्यात्म प्रधान है किन्तु वह मनुष्य के जीवन से अधिक जुड़ी है, अलौकिक और लौकिक प्रणयानुभूति का सामंजस्य उनकी भावना की सफल अभिव्यक्ति करता है।
छायावादी काव्य में वेदना और पीड़ा का जो उत्कर्ष महादेवी जी के गीतों में मिलता है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। उनके सम्पूर्ण काव्य में प्रेम की गहनता विद्यमान है। वेदना व करूणा उनके काव्य का प्राणतत्व माना गया है । आँखो में अश्रुधारा एवं ह्नदय में असीम वेदना लिए हुए वे उस अज्ञात प्रियतम से मिलने को व्याकुल है।
‘‘जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश,पथ में बिछ जाते वन पराग गाता प्राणों  का तार – तार अनुराग भरा उन्माद राग आंसू लेते वे पद पखार।
हंस उठते पल में आर्द्र नयन घुल जाता होठो से विशाद छा जाता जीवन में बसन्त , लुट जाता चिर संचित विराग आँखे देती सर्वस्व वार।’’ (1) नीहार से गीत – पन्द्रहवाँ
महादेवी जी की काव्य गत प्रणयानुभूति आध्यात्मिक है। आश्चर्य यह देखकर होता है कि जो भावात्मक तीव्रता अन्य कवियों को यथार्थ प्रणयानुभूति के अश्लीलता आ जाने पर भी नही आती वह इनकी कल्पित प्रणयानुभूति में उन्नत आध्यत्मिक स्तर पर भी पाई जाती है। महादेवी जी ने अपनी आत्मा आध्यात्मिक स्तर पर भी पाई जाती हैं । महादेवी जी ने अपनी आत्मा को चराचर विश्व को आवृत्त करने वाला विस्तार देकर भी अपनी प्रणयानुभूति को उर्जस्वित रूप दिया है। उनके सुख – दुःख, जड़ – चेतन के सुख – दुःख बनकर सारी प्रकृति पर छा जाते हैं, सबको प्रभावित करते हैं। व्यापक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट झलकता है कि जो विश्वव्यापी सहानुभूति जायसी ने केवल विरह को प्रदान की थी वही महादेवी जी ने मिलन व विरह दोनों को दी। इनकी इसी विषिष्टता से प्रभावित होकर आलोचना सम्राटआचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं ‘‘छायावादी कहे जाने वाले कवियो में महादेवी वर्मा जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही इसके ह्नदय का भाव केन्द्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ कूट – कूट कर झलक मारती है। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है । उसी के साथ वह रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन सुख को वे कुछ नही गिनती । (2) हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
मिलन की उत्कंठा हो या विरह की विकलता महादेवी जी के गीत भावावेश के भूमि त्यागकर निर्वेद की समभूमि पर चलना नहीं जानती। उनके गीतो में दार्शनिक तथ्य भी केवल बौद्धिक उपलब्धि के रूप में सीधे खड़े रहकर प्रत्यक्ष होने के अभ्यस्त नहीं है। इनकी वेदनानुभूति की महती विशेषता यह है कि आप प्राण की सहज वृत्ति जड़ता एवं असीमता के विरूद्व चेतना एवं व्यापकता का सफल अभियान एवं परिणाम विजय में मानती है। उनकी चिरन्तन अतृप्त जिज्ञासा परम्परा द्वारा पकड़ाई गई मान्यताओं से तुष्ट होकर शान्त बैठने वाली नहीं हैं। वह कहती है कि मेरा चैतन्य सत्ता क्षितिज की संकीर्णाकार – प्राचीरों के पार का दृष्य देखने को आतुर है, प्राण भौतिक श्वास प्रवास में गण्य जीवनावधि वही विवषता में बंधकर रहने की अपेक्षा आत्मा की शाश्वत सत्ता को मान्यता देता है। आत्मा सागर समान असीम है उसमें जीवन – मरण की लघूर्मियां अनन्त बार बनती – बिगड़ती रहती हैं। भौतिक जीवन का छोटा सा दिया अपने मस्तक पर शाश्वत विद्यमानता का आकाश कैसे धारण किये है, यह निस्संदेह एक विस्मय कारक पहेली है जो परोक्षतः नाशवान क्षणो में नाशरहित अनन्तता की ओर संकेत करती है। अपनी रचना सान्ध्य गीत में इनकी भाव प्रवणता दर्शनीय है –
‘‘फिर विकल है प्राण मेरे
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है?
जा रहे जिस पथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?
क्यों मुझे प्राचीर बनकर आज मेरे श्वास घेरे?
सिन्धु की निःसीमता पर लघु लहर का लास कैसा
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा
दे रही मेरी चिरन्तनता
क्षणों के साथ फेरे’’ (3) यामा – गीत संख्या छप्पन – 96
इनके काव्य में भावाविष्ट होकर गम्भीर सत्य भी कल्पना और स्वप्न से अधिक आकर्षक हो उठा है। आराध्य के बिन सब कुछ सूना है या ब्रह्ना की सत्ता के बिना सम्पूर्ण दृष्य जगत अस्तित्वहीन है। एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि गाना और रोना किसे नहीं आता मानव समाज में गुनगुनाकर गाने की सहज प्रवृत्ति है जब व्यक्ति भावावेश में होता है तो अचानक गुनगुना उठता है । आप्त वाक्य है कि मानव जीवन में ही नहीं वरन सम्पूर्ण सृष्टि में एक तान है एक लय है जो अनादि काल से चली आ रही है और चलती रहेगी। तरू भी मर्मर करते हैं, पक्षी भी हँसते हैं, अतः प्रिय वियोग में वर्मा जी के अधिकांश गीत विरह की पीड़ा से पगे हैं। विरह की पीड़ा जब उनके मानस में स्मृतियों को जगाती है तब उनका ह्नदय किसी भी स्मृति आकुल – व्याकुल हो उठता है। तो वे प्रिय की मधुर स्मृति गा उठती हैं –
‘‘मधुर – मधुर मेरे दीपक जल
युग – युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिफल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम सा घुल से मृदु तन
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल – गल
पुलक – पुलक मेरे दीपक जल
सिहर – सिहर मेरे दीपक जल’’ (4) नीरजा – गीत संख्या – 37
महादेवी जी ने कान्ताभाव के सन्दर्भ में भी आराधना की सामग्री का उल्लेख किया है। यह सामग्री उनके काव्य में इतनी व्यापक रूप में प्रभावी हुई कि वह नाइट क्लब का वातावरण उत्पन्न करने के स्थान पर एक अलौकिक, आध्यात्मिक एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रस्तुत करी तथा एक ऐसी मनभावन पर्यावरण की सृष्टि करती हैं कि उसके आगे सभी आनन्द फीके पड़ने लगते है। यही नहीं रोली, चन्दन, अक्षत, पुश्प, प्रतिमा, देवालय, मंगल घर, शंख, घंटे तथा नैवेद्य के साथ दीप बनाकर सिहर – सिहर जलने वाली महादेवी वर्मा जब कृश्णाभिसारिका बनकर परम प्रियतम से मिलने चलती हैं तब भी आरती का थाल – सजाना नहीं भूलती। सात्विक वातावरण का इस प्रकार सृजन कर लेने के कारण कवयित्री मिलन में भी उपासिका के रूप को नहीं त्यागती और विरह तथा पीड़ा को विस्मृति नहीं होने देती क्योंकि इसी विरह और पीड़ा ने उन्हें  परम प्रियतम से ला मिलाया था –
‘‘ शलभ मैं शापमय वर हूँ
किसी का दीप निष्ठुर  हूँ
ताज है जलती शिखा चिंनगारियाँ श्रृंगार माला
ज्वाला अक्षय कोश सी, अंगार मेरी रंग शाला
नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ
शून्य मेरा जन्म था अवसान है मुझ को सवेरा
प्राण आकुल के लिए संगी मिला केवल अँधेरा
मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ।’’
यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो,
रजत शंख घड़ियाल स्वर्ग बंशी  वीणा स्वर
गये आरती बेला को शत – शत लय से भर (5)
‘‘ वर्मा जी छायावादी युग की प्रमुख कवयित्री है तथा उनके गीतो में उस युग की शैली का अनुसरण, भावों की अभिव्यक्ति और भाषा का प्रयोग दीख पड़ता है। कवियों की सी रहस्यनुभूति तथा मानस की चिरन्तन विकलता और बुद्ध के संयोग के हेतु अत्यधिक उत्सुकता भी उनके गीतो में दीख पड़ती है। दुःख से उन्हें स्वाभाविक प्रेम हैं। उन्हीं के शब्दो में ’’ दुख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँध रखने की क्षमता रखता है। उनके गीत इतने अन्तर्मुखी हैं कि उनमें प्रकृति पर्यवेक्षण का अभाव – सा दीख पड़ता है।’’ (6) – हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य दुर्गा शंकर मिश्र वर्मा जी काव्य में वेदनानुभूति के जितने पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं उन सब में सर्व प्रमुख है उनकी दृढ़ भावना क्योंकि आपने वेदना और दुःख से कभी पलायन करना नहीं सीखा सदैव समीपता, सानिध्य की कामना की है। वे सुख की अपेक्षा दुख को जीवन के अधिक निकट एवं व्यापक मानती है। वे इस प्रकार के दुःख से छुटकारा पाना नहीं चाहतीं वरन इसी में वे जीवन की चिरन्तनता में वास्तविकता के दर्शन करती है। लौकिक वियोग में सौन्दर्यपरक अनुभूति नहीं होती इस कारण यह पीड़ा कष्टदायक और त्याज्य हो सकती है पर महादेवी की पीड़ा में विशेष प्रकार का आनन्द मिलता है इसीलिए वे इसमें स्वयं को चिरन्तन पाती है। यही कारण है कि उन्होंने प्रिय वियोग में जीवन से कुंठा और हताशा का परित्याग करके अपने को विरह रूपी सरोवर में विकसित कमल बना लिया जिस प्रकार कीचड़ व जल में रहते हुए भी कमल के सौन्दर्य और जीवनी शक्ति पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता उसी प्रकार वर्मा जी ने प्रिय वियोग में आँसुओ का अनमोल कंठहार धारण कर लिया है। वेदना से परिपूर्ण उनका ह्नदय गा उठता है –
‘‘विरह का जल जात जीवन विरह का जल जात
वेदना में जन्म करूणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्र गिनती रात
आंसुओ का कोश उर दृग अश्रु की टकसाल
तरल जल – कण से बने घन सा क्षणिक मृदुगात
अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास
अश्रु की ही हाट बन जाती करूण बरसात’’
पूछता इसकी कथा निश्वास में ही वात – (7)
इनकी इसी विशेषता से प्रभावित होकर प्रसिद्व आलोचक डा0 नगेन्द्र ने लिखा है ‘‘ उनके गीतों में कला का मूल्य अक्षुण्ण भाशा के रंगो को हल्के – हल्के स्पर्श  से मिलाते हुए मृदुल तरल चित्र आँक देना इनकी कला की विषेशता है। महादेवी वर्मा का काव्य अनुपम सघन अनुभूति और चित्रमयी व्यंजना के कारण हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि कहा जायेगा ।’’
– हिन्दी साहित्य का इतिहास- (8)
भारतीय काव्य शास्त्र में विद्वानों ने विरह का उसके लक्षणों एवं प्रकारों सहित विशद विवेचना किया है। काव्य शास्त्र के विद्वानों के मतानुसार श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं – संयोग और विप्रलम्भ । अतः विरह का सम्बन्ध विप्रलम्भ से होता है और आचार्य द्वारा इस वियोग रस को दस अन्तर्दशाएं स्वीकार की गई है – अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग प्रलाप, उन्माद, व्याधि जड़ता, मरण जब हम काव्य शास्त्रीय दृष्टि से वर्मा जी के गीतों का मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि सभी काम दशाओं का सफल चित्रण उनके काव्य में मिलता है क्योंकि इनके बिना विरहानभूति दिग्दर्शन होना सर्वथा असम्भव है। वह अपने प्रिय के प्रति नाना प्रकार की अभिलाषाएं उत्पन्न करती हैं उनका ह्नदय निरन्तर चिन्ता , उद्वेग, उन्माद स्मृति से ओत प्रोत रहता है। कभी वह गुण कथन द्वारा प्रिय का यशोगान करती दिखाई देती है तो कभी तो कभी प्रलाप और व्याधि से ग्रसित होकर अतिशोकाकुल अवस्था में पहुँच जाती है। उनके गीतों में इन दशाओं को इतनी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है कि पाषाण ह्नदय व्यक्ति भी उन कविताओं को पढ़कर द्रवीभूत हो जाता है। चिन्ता और उद्वेग तथा अभिलाषा नामक दशाएं कितनी सहजता और सरलता से अभिव्यक्त हुई है।
‘‘किसमें देख संवारू कुन्तल अंगराग पुलकों का जलमय
स्वप्नों से आँसू पलके चले किस पर रीझूँ
भर लू किस छवि से अन्तरमन
टूट गया वह दर्पण निर्मम – चिन्ता
नयन श्रवण मय, श्रवण नयन मय, आज हो रही कैसी उलझन
रोम – रोम में होता री सखि एक नया डर का सा स्पन्दन
पुलकों से भर फूल बन गये जितने प्राणों  के छाले हैं
अलि क्या प्रिय आने वाले है – अभिलाषा (9)
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महादेवी जी की विरहानुभूति में गहन प्रेम वेदना का गांभीर्य भरा है, वह करूणा से लहराता हिलोरे मारता, नाना उमंग – तरंगे उत्पन्न करता सागर है। इनका विरह दुःख नारी सुलभ सात्विक व्यथा धारा से प्रवाहमान है। उसमें अन्तःकरण की विविध कामदशाओं की क्रीड़ा भरी हुई है वह विरह की आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं। यही नहीं वह केवल कामदशाओं का दिग्दर्शन ही नहीं कराता अपितु उसमें भक्ति भावना की तन्मयता भरी हुई है और वही कवयित्री के सदय ह्नदय में अजस्र गति से प्रवाहित हो रही है इसलिए इस विरह में ही मिलन का आनन्द है।
इस पीड़ा में ही संयोग – सुख है, वेदना में ही हर्ष की सिहरन है और इस करूण क्रन्दन में ही अन्तःकरण का शान्त स्पन्दन है। वैसे महादेवी जी की यह विराहनुभूति, मूकता, एकाकीपन एवं नीरवता से ही भरी हुई है क्यांेकि यह सिन्धु के समान है जिसमें नाना प्रकार के पदार्थ छिपे रहते हैं उसमें कालकूट जैसा तथा यह अनुभूति आकाश की तरह असीम है। जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है पर किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता तथा मणि के समान निरन्तर प्रकाशमान रहने की शक्ति है। जो संसार के झंझावातों और साहित्यिक उतार -चढ़ावों के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है। कोई भी वाद, कोई भी आलोचना तथा दृष्टि कोण इसके प्रकाष को फीका नहीं कर सकता। युग बदलेगा, विचारधाराएं बदलेंगी पर वर्मा जी का काव्य हर देश काल में प्रासंगिक रहा है और आगे भी रहेगा यह इसी प्रकार नीरवता की तरह शान्त होकर, मूक भाव से जन – जन के ह्नदयों में हर्ष और उल्लास के भाव जगाता रहेगा।

सन्दर्भ सूची-
1. महादेवी वर्मा ‘नीहार’ लोक भारती प्रकाशन, महात्मा गाॅधी मार्ग इलाहाबाद – पेज – 24
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – हिन्दी साहित्य का इतिहास – कमल प्रकाशन नई दिल्ली – पेज – 469
3. महादेवी वर्मा – यामा – लोक भारती प्रकाशन महात्मा गाॅधी मार्ग इलाहाबाद – गीत संख्या 56 , पेज – 96
4. यामा – गीत संख्या – 37, पेज – 66
5. महादेवी वर्मा – यामा – लोक भारती प्रकाशन महात्मा गाॅधी मार्ग इलाहाबाद,पेज – 90
6. आचार्य डा0 दुर्गाशंकर मिश्र – हिन्दी साहित्य का इतिहास – प्रकाशक डाॅली गंज रेलवे क्रांसिंग , सीतापुर रोड , लखनऊ , पेज – 305
7. महादेवी वर्मा ‘ यामा’ लोक भारती प्रकाशन गाॅधी मार्ग इलाहाबाद गीत संख्या – 34 , पेज – 62
8. डा0 अशोक तिवारी – हिन्दी साहित्य का इतिहास – हरीश प्रकाश मन्दिर गोल्डेन पैलेस आगरा , पेज – 241
9. महादेवी वर्मा – नीरजा – लोकभारती प्रकाशन – गाॅधी रोड इलाहाबाद , पेज – 72

डॉ. गरिमा जैन

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