समय बदला, परिस्थितियाँ बदलीं, विमर्श बदले, किन्तु साधरणीकरण का महत्व कम नहीं हुआ। साधरणीकरण की अवधारणा किसी-न-किसी रूप में अखिल विश्व की साहित्यिक परंपराओं में विद्यमान रही। शब्दों व प्रस्तुतीकरण में भिन्नता हो सकती है, किन्तु साधरणीकरण की प्रक्रिया व उसके साथ संलग्न विषय-सूची को प्रायः सभी स्वीकार करते हैं।

महादेवी बर्मा हिन्दी साहित्य परंपरा की असाधारण कवियित्री हैं। रहस्ववादी भंगिमायें, निस्सीम के प्रति अनुरक्ति, अव्यक्त के प्रति समर्पण जैसे असाधारण भाव इनके सृजन के केन्द्र में है। ‘दुख’ अथवा ‘करुणा’ इनके काव्य का मेरुदण्ड है।

अनुभूतियाँ जब अति-असाधारण और अति-वैयक्तिक होंने लगतीं हैं तो उनके साधरणीकरण का प्रश्न भी समानान्तर उपस्थित होता है। मीरा के उपास्य कृष्ण थे। कृष्ण जनसामान्य के मानस में गहरे उतरे हुए हैं। यही कारण है कि मीरा और मीरा के पाठकों का आलंबन समान है। आलंबन की इस समानता के कारण साधरणीकरण की प्रक्रिया सरल हो जाती है।  कविता में हास्य, रति, प्रीति, क्रोध आदि भावों का आलंबन प्रायः कोई मूर्त वस्तु होती है। कवि और पाठक के बीच मूर्त आलंबन की स्थिति साधरणीकरण की प्रक्रिया आसान बना देती है।

प्रश्न यह है कि महादेवी के दिव्य दुखजीवी काव्य का साधरणीकरण संभव है क्या? यदि संभव है तो उसका पात्र कौन होगा? महादेवी बर्मा सदृश अभिरुचि वाले जीव कितने हैं? क्या महदेवी की अनुभूति अति-वैयक्तिक नहीं है? क्या इसमें भी साधारणीकरण की संभावनायें तलाशी जा सकतीं हैं?

साधरणीकरण को एक सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय भट्टनायक को है। यही कारण है कि उन्हें साधरणीकरण का प्रवर्तक माना गया है। बाद में साधरणीकरण को व्यवस्थित करने का श्रेय अभिनवगुप्त और मम्मट को है। साधरणीकरण के सभी पक्षों पर विचार न करते हुए अभी मात्र आलंबन पर ही विचार करेंगे।

प्राचीन भारतीय परंपरा में काव्यशास्त्रीय चिन्तन का केन्द्र दृश्यकाव्य रहा है। सर्वप्रथम भट्टनायक ने ही अपने चिन्तन के केन्द्र में श्रव्यकाव्य को रखा। साधरणीकरण किसका होता है, यह प्रश्न लंबे समय तक विमर्श का बिन्दु बना रहा। एक इसी बिन्दु पर ही यदि महादेवी बर्मा के काव्य पर विचार करेंगे तो भी बहुतेरे प्रश्नों का समाधान हो सकता है।

साधरणीकरण किसका होता है, यह प्रश्न विमर्श में उस समय आया जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा कि “साधरणीकरण आलंबनत्व धर्म का होता है।”(चिन्तामणि भाग 01,पृष्ठ 229-30) संस्कृत के आचार्यों ने साधरणीकरण किसका होता है, इस विषय में पृथक कोई प्रकरण नहीं लिखे। इस बिन्दु को अलग से एक प्रकरण के रूप में शुक्ल जी ने स्थापित किया। आलंबनत्व के साधरणीकरण की अवधारणा में महादेवी के काव्य की उपरोक्त समस्याओं का समाधान हो सकता है। साधरणीकरण में पाठक और सर्जक के बीच भावों का तादात्म्य होता है, न कि आलंबन का। इसी तादात्म्य भाव को शुक्ल जी आलंबनत्व धर्म कहते हैं।

कल्पना कीजिए कि आप अपने माता-पिता के विवाह का और उनके सरस दाम्पत्य के चित्र अथवा वीडियो देख रहे हैं। वही सामग्री जब आपके माता-पिता स्वयं देखते हैं, तो एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव से भीग जाते हैं। वहाँ वे एक-दूसरे के रति भाव के आलंबन हैं। वही सामग्री आप देखते हैं, तो आपके रतिभाव का आलंबन वे वीडिओ या चित्र नहीं बनते। सामग्री समान है किन्तु दर्शक के अपने सरोकार हैं। चूँकि आपका अपने माता-पिता के प्रति पूज्य का भाव हैं। अतः आपकी माँ के वही माँसल चित्र,मादक भाव-भंगिमायें आपके लिए रति भाव का आलंबन नहीं हो सकतीं। आलंबन नहीं होंने पर भी साधरणीकरण की प्रक्रिया घटित हो सकती है। माता-पिता के युग्म चित्रों को देखकर आपको भी अपने प्रिय का स्मरण हो गया। आपका हृदय भी अपने प्रिय के स्मरण और काल्पनिक मिलन से रोमांचित हो गया। आप भी उसी भावभूमि में पहुँच गये, जो भावभूमि माता-पिता के चित्रों में व्यक्त हो रही थी। आखिरकार भाव का प्रसार तो हो ही गया। नाटक में राम-सीता, शंकर-पार्वती के प्रेम-प्रसंगों को देखकर भी आप इनके साथ तादात्म्य की कल्पना भी नहीं करेंगे क्योंकि इनके प्रति आप भाव पूज्य-पूजक का है। इन्हीं प्रसंगो को देखकर अपने निजी प्रसंगों का स्मरण, और अपने प्रिय के मानसिक प्रत्यक्ष होने की प्रक्रिया साधरणीकरण का ही हिस्सा है।

उपरोक्त स्थिति में आलंबन तो दोनों के भिन्न-भिन्न ही रहे, किन्तु भाव अभिन्न हो गये। भाव की इसी अभिन्नता की वेदी पर साधरणीकरण खड़ा है।

भाव की इस अभिन्नता में दर्शक ने अपने जीवन की चेतना का वह अंश उस प्रसंग को दे दिया जो कि उस प्रसंग में औचित्यपूर्ण था। शेष भाव उस समय सुषुप्त हो जाते हैं। किसी अन्य प्रसंग में यह प्रेमभाव भी सुषुप्त हो जायेगा और जो भाव अभी सुषुप्त है, वह जाग जायेगा। भावों की इसी विविधता के कारण काव्यशास्त्र में भावाधारित विशद विवेचन हुआ है।

यहां भावों के इस तादात्म्य की कसौटी पर महादेवी के मूल्यांकन का प्रयत्न किया जा सकता है। महादेवी की अनुरक्ति का आलंबन अदृश्य, निस्सीम, व्यापक, विराट सत्ता है। विराट सत्ता संबंधी आशंकायें दार्शनिक गुत्थियाँ हैं, जिनका उल्लेख यहाँ प्रासंगिक नहीं है। किन्तु इस प्रकार के काव्य में भाव की मीमांसा से कुछ परिणाम हाथ लग सकते हैं। इसे समझने के लिए महादेवी की किसी एक कविता का उदाहरण लेना आवश्यक हो जाता है-

जो तुम आ जाते एक बार!

कितनी करुणा कितने संदेश,
पथ में बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणों का तार-तार,
अनुराग भरा उन्माद-राग,
आँसू लेते वे पद पखार!
जो तुम आ जाते एक बार!

हँस उठते पल में आर्द्र नयन,
घुल जाता ओठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत,
लुट जाता चिर-संचित विराग,
आँखें देतीं सर्वस्व वार!
जो तुम आ जाते एक बार!

यह एक मिलन की उत्कण्ठा लिये करुण गीत है। साहित्य के जानकार जानते हैं कि यहाँ ‘तुम’ कोई हाड़-मांस का प्राणी नहीं है। महादेवी का ‘तुम’ एक सर्वव्यापक, निस्सीम सत्ता है। यह तथ्य उनकी अन्य कविताओं से भलीभांति स्पष्ट हो जाता है। अव्यक्त सत्ता के प्रति मिलन की उत्कण्ठा तो ठीक थी, किन्तु उनकी कविता में मिलन की उत्कण्ठा से ज्यादा विरह की पीड़ा है। वे इस पीड़ा को अभिशाप नहीं मानतीं, अपितु वे इसे जीवन का सर्वस्व मानतीं हैं –

“मिलन का नाम मत ले, मैं विरह में चिर हूँ”

“ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!”

“वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात;
जीवन विरह का जलजात!”

‘जो तुम आ जाते एक बार’ में महादेवी का आलंबन भले ही अतीन्द्रिय सत्ता हो किन्तु, कोई सामान्य पाठक इसे पढ़ेगा तो मन में एक मूर्त रूप उभरेगा। अतः महादेवी और पाठक के आलंबन में समता होना तो एक कठिन कार्य है। जिस पाठक के साथ महादेवी के आलंबन की समानता होगी, वह भी महादेवी की तरह असाधारण ही होगा। साधारण के लिए तो महादेवी के आलंबन को समझना ही दूर की कौड़ी साबित होता है। अतः उपरोक्त कविता पढ़कर सामान्य पाठक के मन में उस व्यक्ति-विशेष की कल्पना होगी, जिसके प्रति उसका प्रेम होगा। महादेवी के आलंबन और पाठक के आलंबन में धरती-पाताल का फर्क होने के बावजूद भी, यदि मात्र भाव की भीतरी परतों को देखेंगे तो भावों में तो समानता दिख जायेगी।

कविता में भाव-प्रसार की मुख्यता है। सभी प्राणियों का आलंबन एक ही वस्तु नहीं हो सकती। किन्तु भिन्न-भिन्न आलंबनों में भाव की समानता हो सकती है। भाव की यही समानता साधरणीकरण के लिए अपेक्षित है। एक असीम के प्रति समर्पित है, तो दूसरा हाड़-मास के किसी मनुष्य पर। आलंबन भिन्न है, किन्तु समर्पण अभिन्न है। महादेवी की अव्यक्त सत्ता के प्रति विरहानुभूति में भी ठीक ऐसा ही है। उनके विरहगीतों को सुनकर स्वाभाविक है कि श्रोता को अपने प्रिय का बिम्ब उपस्थित हो जायेगा। दोनों ही स्थितियों में विरहानुभूति की समानता होने से साधरणीकरण की स्थिति बन जाती है। इसी स्थिति को शुक्ल जी ने आलंबनत्व धर्म का साधरणीकरण कहा है।

महादेवी स्वयं को दुखव्रती मानतीं हैं। सुख के स्थान पर दुख को महत्व देना, ये कठिन उपक्रम है। महादेवी के लिए ये स्थायी अनुभूति है। वे इससे बाहर नहीं निकलना चाहतीं। उनकी इस अनुभूति को सुनकर क्या किसी के मन में महादेवी जैसा भाव जागृत हो सकता है? प्रश्न आसान नहीं है।

जिस समय मनुष्य के जीवन में निराशा, हताशा छाती तो वह विषाद में आकण्ठ डूब जाता है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति पलायनवादी व नकारात्मक भी हो सकता है। यह स्थिति मनुष्य के जीवन में प्रायः आती-जाती रहती है। इसी मनोभूमि में यदि महादेवी की दुखजीवी कविता के जलकण पड़ जायें तो वहाँ भी वही भाव प्रस्फुटित होने लगेंगे, जो भाव महादेवी के हैं। भाव-प्रसार यहाँ भी हो सकता है, किन्तु आलंबन की भिन्नता यहाँ भी होगी।

यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस प्रकार के साधरणीकरण में श्रोता का निजी व्यक्तित्व से पलायन नहीं होगा। अपने पृथक व्यतित्व को कायम रखते हुए भी भाव सामान्य की यह स्थिति अनेक विमर्शों की ओर इंगित करती है।

डॉ. मनीष कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
श्री कुन्द कुन्द जैन स्नातकोत्तर महाविद्यालय खतौली

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