सोने को गलाकर किसी भी साॅंचे में ढाला जा सकता है परन्तु हीरे को नहीं ,उसे हम तोड़ सकते हैं गला नहीं सकते | उसका कोई भी आभूषण हम अपनी सुविधानुसार नहीं बना सकते उसका हर खण्ड़, हर कण अपने-आप में मूल्य रखता है । उनका प्रखर व्यक्तित्व भी किसी की इच्छानुसार गला-ढला नहीं परन्तु सबके लिए मूल्यवान रहा।
रामजी पाण्डेय की ये पंक्तियां देवी जी के प्रबल व्यक्तित्व को दर्शाती है इतने प्रबल व्यक्तित्व की धनी होने के पश्चात् भी उनके हद्रय में सम्पूर्ण संसार के लिए करूणा किस सीमा तक है यह उनकी निम्न पंक्तियो से स्पष्ट है –

अलि मैं कण-कण को जान चली
सबका दुख पहचान चली

महादेवी के काव्य में दुख व करूणा को विशेष स्थान मिला है, परंतु इनके दुखवाद में भी संसार हित ही निहित रहा है । वे दुख और करूणा को आधार बना मानवीय मूल्यों को जगाना चाहती हैं । वे आज के आंसूओं से आने वाले समय के लिए मार्ग स्वच्छ करना चाहती है जिस प्रकार कीचड़ में खिलने वाला कमल सारे संसार में सुन्दरता, खुशबू व कोमलता ही फैलाता है वैसे ही देवी जी का काव्य भी वेदना में जन्म लेकर सबके पथ को आलोकित ही करता है ।

मै अपने आसूं में बुझ घुल
देती आलोक विशेष रही ।

उन्होने स्वंय ही कहा है हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढी तक भी न पहुॅंचा सकें, परन्तु हमारा एक बूदं आँसू भी जीवन को अधिक उर्वर, अधिक मधुर बनाए बिना नहीं गिर सकता । ; रश्मि की भूमिका

शायद इसीलिए वे स्वयं को नीर भरी दुख की बदली कहतीं हैं बदली का कार्य सबका कल्याण करना होता है । उसी प्रकार कवयित्री भी अपने दुखवाद के द्वारा सबमें करूणा की भावना जगाना चाहती है ।

मैं नीर भरी दुख की बदली
स्पन्दन में चिर निस्पंद बसा
क्रदन में आहत विश्व हॅंसा

कभी-कभी वे बस वेदना और करूणा में इतनी आकण्ठ मग्न हो गई है कि उन्हें यह समग्र जीवन ही विरह का जलजात प्रतीत होने लगता हैं ।

विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
वेदना में जन्म करूणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात
जीवन विरह का जलजात

जब तक हम अपना सब कुछ उत्सर्ग करने की इच्छा नही रखेंगे तब तक जीवन सार्थक नहीं बनाया जा सकता है । यदि हमें अपने देश व समाज की उन्नति में अपना योगदान देना है तो इसकी राह में आने वाली सभी बुराइयों को हराने के लिए हमें अपनी सभी इच्छाएं, रीति रिवाज, धन, ऐश्वर्य, वैभव सभी का त्याग करना होगा । हमें अपने अन्दर इतना आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि विकास मे आने वाली बाधाओं को हम सरलता से पार कर सकें । जब तक नारी स्वंय निश्चय कर आगे बढने का प्रयत्न नहीं करेगी तब वह विकास के पथ पर आगे नहीं बढ पायेगी ।
अपनी कविता के माध्यम से देवी जी यह संदेश प्रत्येक भारतीय विशेषकर स्त्रियों को देना चाहती है कि अपने देश, अपने समाज अपनी बहू-बेटियों की उन्नति के लिए हमें ही प्रयत्न करने होगें । स्वयं स्त्री को भी अपने अधिकारो को प्राप्त करने के लिए आगे आना होगा ।

अपने काव्य के माघ्यम से जो संदेश महादेवी जी ने देने का प्रयत्न किया है उसके विषय में रामजी पाण्डेय का मत है ‘उनका सृजन भारतीय संस्कृति की निरंतर गतिशील भगीरथी था । इसे स्मरण नहीं आत्मसात करने की आवश्यकता है । उनका व्यक्तित्व उस उज्जवल प्रपात की तरह था जो अपने तीव्र वेग को रोकने वाली शिलाओं पर निर्मम आघात करता है और मार्ग देने वाली कोमल धरती को स्नेह से भेटता हुआ आगे बढ़ता है । उनमें अदम्य शक्ति, अडिग विश्वास और अपने परिवेश के प्रति बेहद आकर्षण था । वे जीवन से विरक्त नहीं थी । उन्होने संघर्ष से पराजय नहीं मानी और प्रतिकूल परिस्थितियों से कभी समझौता नहीं किया ।’ उनके अन्दर अदम्य साहस था तभी तो वे कह सकी –

पंथ रहने दो अपरिचित
प्राण रहने दो अकेला ।
अन्य होगे चरणहारे
और है जो लौटने दे शूल की संकल्प सारे ।

महादेवी जी का मन साहस और आत्मविश्वास से भरा हुआ था उनका यही विश्वास उन्हें सदा आशावादी बनाए रखता है । वे निराशा में आशा के दीप जलाना जानती है । वे यह भी मानती है कि चाहे साधना मार्ग हो चाहे जीवन विकास की यात्रा हमें अपने इष्ट अर्थात अपने लक्ष्य को कभी भी दूर नहीं मानना चाहिए । मार्ग में आने वाले तूफान और बाधाओं का सामना हमें पूर्ण विश्वास के साथ करना होगा तभी हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे । उनका यही आत्मविश्वास उन्हें जीवन के प्रति आशावादी बनाए हुए हैं ।

प्राणों ने कहा कब दूर
पग ने कब गिने थे शूल
मुझको ले चला जब भ्रान्त
वह विश्वास ही का ज्वर
मैंने हस प्रलय से बांध
तरिणी छोड दी मझधार ।

महादेवी के अदम्य साहस को दर्शाती हुई ये पंक्तिया इस बात को स्पष्ट करती है कि देवी जी मार्ग में चलते हुए तूफानों का सामना करने से भी नही डरती हैं और यही संदेश वह अपनी कविताओं के माघ्यम से सबको देना चाहती है ।

इस प्रकार आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महादेवी के जीवन में केवल निराशा, उदासी और अवसाद ढूॅढना व्यर्थ होगा । आने वाले दुख से वे कभी निराशा नहीं होती अपितु उससे अपनी आत्मीयता स्थापित कर लेती है । जिससे उन्हे पीडा मधुर लगने लगती है । आशा महादेवी के जीवन में मिलने की सद् पे्ररणा देती है और साहस से उन्हें कष्ट झेलने की अपूर्वशक्ति मिलती है । उनका अतंर्मन कभी थकता नहीं ।

जैसे वे स्वयं हार नहीं स्वीकारती हैं वैसे ही वे भारतीय नारी को भी हारा हुआ स्वीकार नहीं करना चाहती हैं, और इसके लिए उन्होंने अथक परिश्रम भी किए । गाॅवों में जा जाकर शिक्षा का प्रसार किया । स्त्रियों को कढ़ाई बुनाई आदि की शिक्षा प्रदान करवाई । महिला विघापीठ की स्थापना भी उनके इसी उद्देश्य की पूति मात्र थी । ऐसी महादेवी के काव्य मे नारी-विमर्श सीधे-सीधे’ ढुढॅने से नहीं मिलेगा वरन् प्रतीकात्मक रूप से उनका काव्य पूरे समाज के लिए प्रेरणादायक है ।

मानव की दुर्बलताओ का तीव्र दर्शन ही इस दुखवाद का कारण है । इसीलिए उनका दुखवाद केवल दार्शनिक दुखवाद नहीं वरन् जीवन की अपूर्णता को देखकर उत्पन्न मानवीय संवेदना है । सुख व्यक्तिवादी और दुख समष्टिवादी होता है ।

वह निराशा का संदेश न देकर आशा के दीप जलाता है । अतः उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है दुख व करूणा तो हमारे मानवीय संबंधों को और अधिक सुदृढ़ बना हमें जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण प्रदान करते हैं । देवीजी के काव्य में व्यक्त वेदना संपूर्ण मानवजाति की वेदना हे । अतः हमें लौकिक-आलौकिक के भेद में न पड़कर यथार्थ से जोड़कर देखने की आवश्यकता है । उनकी करूणा कितनी यथार्थवादी है इन शब्दों से स्पष्ट् है –

मत व्यथित हो फूल । किसको
सुख दिया संसार ने
स्वार्थमय सबको बनाया
है यहाॅं करतार ने ।
अब न तेरी ही दशा पर
दुख हुआ संसार को
कौन रोयेगा सुमन !
हमसे मनुज संसार को

चारों ओर फैले स्वार्थ और भ्रष्टाचार से देवी जी अनभिज्ञ नहीं है । इस स्वार्थमय संसार में व्यक्ति कितना अकेला है इससे भी वे अनजान नहीं है इसीलिए वे पुष्प से कह रही हैं कि तेरी व्यथा, तेरे दुख को समझने वाला यहां पर कोई भी नही है तेरे दुख तेरे ही है ।
उनकी रचनाओं में उनका कभी न हारने वाला दृढता से परिपूर्ण व्यक्तित्व ही प्रकट हुआ है ’दीपक’ में स्नेह है, ज्वाला है, अनुराग है और प्रकाश की चेतन किरणें – यही उनका व्यक्तित्व है उनके आघ्यात्मिक गीत भी घरती पर पले है । उनकी गति को न तिमिर की शिलाएं तोड़ सकती है, न दिशांए ही अवरोध उत्पन्न कर सकती है ।

न पथ रूंधती येे
गहनतम शिलांए
न गति रोक पाती
पिघल मिल दिशाएं
चली मुक्त मैं ज्यों मलय की मधुर वात

हमारे पथ को कोई नहीं रोक पायेगा । ये गहनतम शिलाएं रूढ़ियों का प्रतीक है । जिनसे हमारा समाज चारो ओर से घिरा हुआ है । ये मृतप्राय हो चुकी परंपराए हमें आगे बढ़ने से सदैव रोकती रही है । हमारा सृदृढ़ व्यक्तित्व, हमारी आत्मशक्ति ही हमें इन सबसे लड़ने की शक्ति प्रदान करेगी ।

प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं को इतना सबल, इतना निडर, इतना आत्मविश्वासी बनाना होगा कि वे रूढ़ियां जो हमारे पैरों में बेड़ियाॅं बन गई हैं और सदैव हमें विकास पथ पर आगे बढने से रोकती हैं वे स्वयं ही टूट जाए । जब तक ये कुप्रथाएं शिला के समान हमारे मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी तब तक हम जीवन पथ पर अग्रसर नहीं हो पायेगें ।

पथ बना उठे जिस ओर चरण,
दिश रचता जाता नुपूर स्वन
जगता जर्जर जग का शैशव

कवयित्री की मान्यता है कि साधक के चरणों का स्पर्श पाकर तो राह के काॅंटे भी फूल बन जाते हैं । ऐसे ही यदि हम प्रयत्न करेंगे तो जिस दिशा में भी कदम बढायेंगे वहाॅं पर पथ का निर्माण स्वतः ही हो जायेगा । हमारे द्वारा निर्मित इस पथ पर हम तो चलेंगे ही साथ ही नूपूरो से गुंजरित दिशा में अनेकों लोग भी हमारे साथी बनकर चलेगें । यह सब तभी संभव है जब हम एक चरण उठा नवीन मार्ग बनाने का प्रयत्न करेंगे क्योकि बिना हमारे प्रयत्न के कुछ भी संभव नहीं होगा ।

देवी जी अपनी रचनाओं के माघ्यम से सबके जीवन में प्रकाश भरना चाहती है चाहे वह ज्ञान का प्रकाश हो, चाहे उन्नति के पथ को आलंकित करने वाला । चारों ओर छाए हुए अंधकार को वे मिटाना चाहती है । शायद इसीलिए उन्हें दीपक से विशेष लगाव है । वे स्वयं भी जानती है कि विश्व में प्रकाश किरणों को फैलाने के लिए हमें भी दीपशिखा के समान स्वयं को जलाकर दूसरो को प्रकाशित करना होगा । जिस प्रकार दीपशिखा स्वयं जलकर दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाती है । दूसरो को मार्ग दिखाने के लिए वह अपना उत्सर्ग कर देती है ठीक उसी प्रकार हमें भी उससे प्रेरणा ग्रहण करनी होगी ।

आज दीप उत्सर्ग की भावना से ही ओत-प्रोत नहीं है वरन् वह अकेला ही तूफानों, आँधियों से लडने की क्षमता रखता है । वह अंधकार को मिटाकर तब तक जलना चाहता है तब तक की सूर्य का उदय नहीं होता । सूर्य की किरणें आकर जब तक संसार के अंधकार को नही मिटाती हैं तब तक यह लघु प्रहरी सबके लिए प्रकाश फैलाता रहेगा  ।

झंझा है दिग्भ्रांत, रात की मूर्छा गहरी
आज पुजारी बने ज्योति का यह लघु प्रहरी
जब तक लौटे दिन की हलचल
तब तक यह जागेगा प्रतिपल

प्रकृति के माध्यम से वे उस सभी कवियों साहित्यकारों को भी वह संदेश देना चाहती हैं कि यह समय केवल प्राकृतिक सुषमा की व्याख्या करने का नहीं है वरन् यह समय तो देश व समाज के लिए कुछ करने का है । प्रकृति के रूप वर्णनमें रम कर हमअपने उत्तर दायित्वों से विमुख नहीं हो सकते है । आज हमारे देश में असंख्य व्यथित, शोषित मनुष्य है । उनकी भय से त्रस्त आँखें, ठंडी सांसो में संताप स्पष्ट झलकता है उनका भविष्य क्या होगा, यह सोचने का अवकाश भी उन्हे प्राप्त नहीं है वे तो केवल समाज की विद्रुपताओं को देखने के लिए, जीने के लिए ही पैदा हुए है । इनकी व्यथाओं और करूणा का चित्रण न करके केवल प्रकृति की सौन्दयोपासना में लिप्त रहना ही कविकर्म नही है । इसका उत्तर भी वह प्रकृति के माघ्यम से ही दे रही है।

मेरे हंसते अधर नहीं
जग-की आसूं लडियां देखो
मेरे गीले पलक छूओ मत
मुरझाई कलियां देखो

महादेवी के समक्ष कई प्रेरित करने वाली नारीयाॅं थी । वे नये युग की नयी विचारधारा वाली नारी थी । जो देश व समाज में समयानुकूल परिवर्तन करना चाहती थी । महादेवी अनपढ़-गंवार सभी सुविधाओं से हीन संस्कार के बोझ तले दबी हुई नारी की मुक्तिकामी के रूप में हमारे समक्ष उभरी है अपने काव्य में उनहोंने पूर्णतः मुखर रूप न अपनाकर प्रतीकों का सहारा लिया है परन्तु उनके ये सभी प्रतीक नारी जीवन को ही दर्शाते हैं ।

उनकी काव्य रचनाओं में स्पष्ट् है कि देवी जी ने अपने काव्य में लोकानुभव को दर्शाया है उन्होंने सम्पूर्ण मानवता के सुख को अपने काव्य के माघ्यम से सबके सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयत्न्न किया है । दुख से आविल उनका यह काव्य मानव को मानव से जोडने वाला है उन्होंने स्वतः सुख को महत्व नहीं दिया है वरन् निज से उपर उठकर पर की सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया ।

स्वयं नारी होने के नाते वह भारतीय नारी की अभावपूर्ण स्थिति से पूर्णतः अवगत थी । भारतीय नारी किस प्रकार अभावों में अपना जीवन व्यतीत कर रही है । इसकी झलक भी उनके काव्य में लक्षित होती है । महादेवी का विरह, उनके जीवन का अभाव केवल उनका अपना नहीं है, वह प्रत्येक भारतीय नारी के अभावपूर्ण जीवन की झांकी है जो किसी न किसी रूप में सदैव उत्सर्ग ही करती आ रही है । फिर भी सबसे अध्कि उपेक्षा की पात्र बनी हुई है । नारी की इस हीनावस्था करूणदशा को देख उनका ह्रदय भी करूणाद्र हो उठा है शायद इसी करूणा को उन्होंने अपने काव्य का आधार बनाया है ।

देवी जी ने अपना सारा जीवन समाज के गरीब, दलित तिरस्कृत लोगों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उनका यह समर्पण भाव दीपशिखा के रूप में हमारे समक्ष आता है साथ ही दीपशिखा के माध्यम से वह यह संदेश भी सबको दे रही है यदि हमें अपने समाज , अपनी बहनों, अपनी बच्चियों को विकास के पथ पर लाना है तो दीपशिखा के समान ही सब कुछ उत्सर्ग करने की आत्मशक्ति रखनी होगी । जब तक अपना सब कुछ त्याग करने की इच्छाशक्ति हमारे ह्रदय से नहीं होगी तब तक हमारा समाज उन्नति नहीं कर पायेगा ।

अतः नारी विमर्श देवी जी के काव्य में पूर्णतः लक्षित होता है । नारी होने के कारण वे नारी की स्थिति को अधिक सह्रदयता से समझ सकी । नारी उनके काव्य का विषय रही है इतनी वेदना इतनी करूणा उनकी अपनी नही है वरन् पूरे समाज की है। महादेवी के आंसू उनके अपने नहीं है वरन् सदियों से पद् दलित, पीडित नारी का ही रूदन है ।

उनका प्रिय प्रतीक दीपक भी नारी के उत्सर्ग को ही दर्शाता है । भारतीय नारी भी स्वंय जलकर दूसरों के पथ को आलोकित करती रही है। वैसे ही महादेवी जी ने भी अपना जीवन दूसरों के पथ को आलोकित करने में व्यतीत कर दिया परंतु अब समय है, जब समाज के इस उपेक्षित पात्र को प्रकाश में लाया जाए । इसके पथ को आलोकित कर इनके मार्ग को प्रशस्त करे । देवी जी का साहित्य केवल नारी के लिए नहीं है वरन् व संपूर्ण समाज के पथ को प्रशस्त से प्रशस्त्तर बना रहा है ।

डाॅ.ऋचा शर्मा

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