भाव और भाषा का अविच्छिन्न सम्बन्ध साहित्य सर्जना का मुख्य उपादान और लक्षण है। आशय की अनुरूपता के साथ भाषा का स्वरूप विधान कविता की भाषा योजना का मुख्य नियामक तत्व बनता है। अतः कवि के आशय की अभीप्सित व्यंजना सामान्यतः काव्य भाषा का प्रयोजन सिद्ध करती है। सिद्धान्ततः काव्य-भाषा का आदर्श स्वरूप वही है जो कवि के वक्तव्य को उत्कृष्ट रूप मंे अभिव्यक्त कर सके। कवि का आशय या काव्यार्थ सामान्य-अर्थों से भिन्न होता है। इसीलिए भाषा सम्बन्धी असामान्यता के साथ विषय और चरित्र की असामान्यता का आग्रह भी प्राचीन समीक्षकों के द्वारा किया गया है। अरस्तू ने महाकाव्य के लिए भाषा और विषय के औदात्य का निर्देश किया है।
भारतीय चिन्तन धारा में स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति द्वारा काव्य-भाषा के स्वरूप को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है। स्वभावोक्ति सामान्य कथन है और वक्रोक्ति विशिष्टि कथन। काव्य के लिए वक्रोक्ति की आवश्यकता भी बतलाई गई है। आगे चलकर भारतीय समीक्षा में रीतिवादी संप्रदाय का आविर्भाव हुआ जो काव्य भाषा की भूमिका पर ही खड़ा है। तदनुसार भाषा विन्यास मुख्यतः गौड़ी, पांचाली और वैदर्भी रीतियों के अनुरूप हो सकता है। सरल भाषा का आग्रह वैदर्भी रीति की एक प्रमुख विशेषता है। काव्य-भाषा में असामान्यता, विशिष्टता और परिष्कृत की विशेषता पश्चिमी और पूर्वी विचारकों ने समान रूप से निरूपित की है। काव्य-भाषा का स्वरूप इतिहास के माध्यम से भी परखा जा सकता है।
यूरोप में होमर और वर्जिल जैसे महाकवियों के काव्य में जहाँ एक ओर लोकभाषा का माधुर्य संकल्पित है, वहाँ दूसरी ओर सुसंस्ककृत भाषा का ओज और औदात्य भी प्रदर्शित है। भाषा के प्रयोग की यह स्थिति क्रमशः एकांगी होती गई। काव्य-भाषा सम्बन्धी एक नया आदर्श यूरोप में अठारहवीं शती के अंत तथा 19वीं शती के आरम्भ में प्रवर्तित किया गया। इंग्लैण्ड में इस प्रवर्तन के जनक वडर््सवर्थ थे। बोलचाल की गद्य भाषा के समीप रहना उनका काव्य भाषा सम्बन्धी आदर्श था, किन्तु एक प्रकार की भाषा को आदर्श मान लेने से कविता की सीमाएँ संकीर्ण हो जाती हैं, परिणामस्वरूप काव्य की भाव-भूमि भी एक छोटे घेरे में समाहित हो जाती है। अनेक बार कविगण अपने काव्य में विषय के अनुरूप अनेक भाषा-स्तरों और भाषा-रूपों का प्रयोग करते हैं।
उपर्युक्त विवरण विमर्श से भाषा के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। काव्य-भाषा सामान्य भाषा से अधिक व्यापक, व्यंजक, विशिष्ट और परिष्कृत होती है। वह सदा विषय और भाव का अनुसरण करती है। महान् और असाधारण विषय की अभिव्यक्ति के लिए उदात्त और असाधारण भाषा अनिवार्य हो जाती है। काव्य-भाषा में अतिशय कृत्रिमता और अतिशय सामान्यतया दोनों ही वर्जित है। बोलचाल की भाषा के बहुत से शब्दों को काव्य-भाषा से निकाल देने का उपक्रम भी एक अतिवाद है। शेक्सपियर की काव्य-भाषा को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि काव्य-भाषा की कोई पहले से निर्धारित सीमाएँ नहीं हो सकतीं। कवि की महान प्रतिभा अज्ञात स्थलों के शब्दों का चयन कर लेती है और उसे विषयानुरूप प्रयुक्त करती हैं।
इस प्रकार काव्य-भाषा सम्बन्धी इन भूमिकाओं के पश्चात् निराला की काव्य-भाषा का परिचय देने के लिए यह आवश्यक है कि उनके समय की काव्य-प्रवृत्तियों तथा उनके मध्य में उनकी विशेष स्थिति पर ध्यान दिया जाय। निराला ऐसे समय में हिन्दी काव्य-रचना में प्रवृत्त हुए थे जब खड़ी बोली का काव्य अपने शैशव की स्थिति में था। हिन्दी काव्य की भावात्मक क्षमताएँ तब तक विकसित नहीं हुई थीं। इस प्रकार छायावादी काव्य और विशेषतः निराला का काव्य, भाषा की दृष्टि से नये प्रयोगों, नये विस्तार और नवोन्मेष का प्रतिनिधि है। इसके पश्चात् भाषा के नये आदर्श बनते हैं और काव्य में उसके प्रयोग की सूक्ष्म पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं। किसी विकसित साहित्य अथवा किसी अर्द्धविकसित साहित्य में काव्य तथा उसकी भाषा के प्रतिमान एक से नहीं होते। अतः निराला की काव्य-भाषा को विकास की इसी भूमिका पर देखना होगा।
छायावाद युगीन अन्य प्रमुख कवियों की तुलना में निराला की काव्य-भाषा अनेक भिन्नताएँ प्रकट करती है। किसी अन्य छायावादी कवि में प्रयोगों का ऐसा बाहुल्य नहीं। प्रसाद की काव्य-भाषा का आदर्श कालिदास में है। सरल और समास रहित भाषा को काव्योपयुक्त बनाना भाषा-सम्बन्धी सबसे बड़ी साधना है। कृत्रिमता के सारे अवरोधों को दूर कर बोलचाल के समीप की भाषा को काव्यात्मक सौंदर्य प्रदान करना श्रेष्ठ प्रतिभा और परिश्रम द्वारा ही संभव है। कालिदास को जो संस्कृत काव्य में शीर्ष स्थान प्राप्त है, उनके मूल में उनकी भाषा-सम्बन्धी साधना निहित है। प्रसाद की भाषा में समरसता का तत्व कालिदास की ही भाँति पाया जाता है। प्रसाद की काव्य-भाषा में वर्जित शब्दों की उतनी बड़ी संख्या नहीं मिलती, जितनी पन्त की भाषा में परिलक्षित होती है। प्रसाद सूक्ष्म और रोमांटिक काव्य-भाषा का वह प्रतिमान लेकर नहीं चले, जिसे पंत ने अपनाया है। प्रसाद की शब्दराशि हिन्दी की समग्र शब्दावली पर आघृत है। पंत की काव्यभाषा में परिष्कार अधिक है, परन्तु शब्द-राशि सीमित हो गई है। पंत जी की भाषा में तालव्य वर्णों की विशेषता बताई गई है। निराला ने एक स्थान पर लिखा है कि पंत ष, ण, ल और व के प्रयोक्ता हैं। वे प्रायः दंत्य वर्णों का परित्याग करते हैं। हिन्दी की प्रवृत्ति दन्त्य वर्णों की ओर अधिक है। पंत ने अपनी काव्य-भाषा का निर्माण पश्चिमी प्रतिमानों को सामने रखकर किया है। उनके आदर्श शेली और कीट्स हैं, जबकि प्रसाद के आदर्श भवभूति और कालिदास हैं। पंत की काव्य-भाषा अधिक सँवारी गई है, जिसकी तुलना में अन्य छायावादी कवियों की काव्य-भाषा अधिक लोक सामान्य है। महादेवी वर्मा ने काव्य-भाषा के क्षेत्र में कोई सचेत प्रयास कम ही किया है। वे अपनी रहस्यवादी कविताओं में कल्पना चित्रों को सज्जित करने में जितनी तल्लीन रहती हैं, उतना ध्यान वे भाषा के निर्माण और नियमन पर नहीं रखतीं फिर भी उनकी काव्य-भाषा की प्रवृत्ति प्रसाद की ही भाँति है। प्रसाद की काव्य-भाषा में देशज शब्दों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। महादेवी के काव्य में उनकी सापेक्षिक अधिकता है।
तुलनात्मक पद्धति के क्रम में कहा जा सकता है कि निराला की काव्यभाषा के स्रोत एक ओर संस्कृत कवि जयदेव हैं, तो दूसरी ओर तुलसी और तीसरी ओर रवीन्द्र हैं। निराला ने अपने शृंगारिक काव्य में जयदेव की सामासिक पदावली का एक सीमा तक ही अनुसरण किया है। यह शैली वास्तव में उनके वीर रस के काव्य में और विशेषकर ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘तुलसीदास’ में मुखर है। निराला की पदावली दन्त्य प्रयोगों से सम्पन्न है। जहाँ वे संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं, वहाँ भी वे तालव्य प्रयोगों के हिमायती नहीं है। निराला के कथनानुसार भारतीय कवित का भाव पक्ष दन्त्य प्रयोगों की प्रकृति का ही अनुसरण करता है। वास्तव में हिन्दी के समस्त भक्त कवियों ने जिस ब्रजभाषा और अवधी भाषा का आधार लिया है, वे सबकी सब प्रधान हैं। ब्रजभाषा और अवधी में तालव्य शब्दों को दन्त्य स में और मूर्धन्य ण को दन्त्य न में परिणत किया जाता है, व को ब और ल को प्रायः र कर दिया जाता है। यह इन भाषाओं की आधारभूत प्रकृति है और निराला ने इस प्रवृत्ति को ही अपनी काव्य-भाषा में स्थान दिया है।
निराला पर दूसरा प्रभाव तुलसीदास का है। तुलसीदास की काव्यभाषा विनय पत्रिका में समास बहुल और गुम्फित है, वहीं रामचरित मानस में सरल और प्रासादिक भी है। तुलसीदास की भाषा अधिक सांस्कृतिक है। निराला ने भी अपनी मुख्य काव्य-रचना का आधार संस्कृति और हिन्दी के संयत मिश्रण में प्रदर्शित किया है। रवीन्द्रनाथ की काव्यभाषा की विशेषताएँ भी निराला के द्वारा अपनाई गई हैं। विशेषतः भाषा के द्वारा व्यंजित होने वाली सांगीतिक ध्वनियों और अनुप्रास तथा यमक को उन्होंने रवीन्द्र की काव्य भाषा के आधार पर सज्जित किया है। मुक्त छंद में देर-दूर तक चलने वाली तुकान्तहीन रचना में अनेक ऐसे स्थल आए हैं, जहाँ एक प्रकार का तुकान्त मिलता है। ‘जागो फिर एक बार’ का तुक जहाँ आसान है, सहस्रार ही में दिखाई देता है। इस प्रकार के प्रयोग रवीन्द्र की कविता में विशेष रूप से देखे जाते हैं। रवीन्द्रनाथ की काव्य-भाषा का एक गुण यह भी है कि जन भाषा के ठेठ प्रयोग भी उसमें बहुसंख्या में मिलते हैं। रवीन्द्र ने जनभाषा का सम्पर्क नहीं छोड़ा। निराला के काव्य में संस्कृत-गर्भित पदावली के बीच-बीच में ऐसे ठेठ शब्द आ जाते हैं, जो लोक-जीवन में व्याप्त हैं और लोकभाषा का अंग बन चुके हैं। इसी प्रसंग में निराला के काव्य में पाए जाने वाले उर्दू और फारसी शब्दों को भी देखा जा सकता है। ‘उन्माद’ यद्यपि एक संस्कृत-बहुल कविता है तथापि अनायास उर्दू के शब्द उसमें सम्मिलित हो गए हैं।
भाषा के सम्बन्ध में कोई पवित्रातावादी दृष्टि निराला की नहीं है। वे किसी शब्द को काव्य के लिए त्याज्य नहीं मानते। वे परस्पर प्रतीत होने वाले शब्दों को विवेकपूर्वक अपनी कविता में रखते चले जाते हैं।
भाषा की समस्या सभी श्रेष्ठ कवियों के समक्ष विद्यमान रहती है। कवि की प्रतिभा केवल नई वस्तु का उन्मेष नहीं करती, वह उसके अनुरूप भाषा का नया विन्यास भी करती है। नवीन विन्यास के द्वारा प्रत्येक श्रेष्ठ कवि भाषा पर अपनी मुद्रा अंकित करता है। छायावाद युग में नई चेतना भूमियों की अभिव्यक्ति के लिए कवियों ने जिस गंभीरता से भाषा-निर्माण के प्रयत्न किए उसक संकेत हम कर चुके हैं। उनके मध्य में भाषा-प्रयोगों के वैविध्य की दृष्टि से निराला सबसे आगे हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति से उन्हें कितना गहरा परिचय था, वह हिन्दी की विशिष्ट ध्वनियों के सम्बन्ध में उनके वक्तव्यों से भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है। उनके समान संगीत-प्राण कवि के लिए यह बहुत स्वाभाविक भी है।
विस्तार, एकत्राीकरण और व्यवस्था काव्य-भाषा की तीन प्रक्रियाएँ हैं। निराला इनमें से प्रथम दो के प्रतिनिधि हैं, तीसरी के नहीं। निराला जी की भाषा सर्वत्र कोश का अनुसरण नहीं करती, इसीलिए जो लोग केवल स्वीकृत शब्दावली के प्रेमी होते हैं, वे इन नए प्रयोगों और उनकी नई अर्थ-निष्पत्तियों को स्वीकार नहीं करते। निराला की काव्यभाषा जो परम्परागत अर्थ बोध के बाहर प्रतीत होती है उसका कारण भाषा में नई शक्तिमत्ता लाने का प्रयास तथा अपरिचित अर्थों की संयोजना का अभिमान है। व्यापकता और विस्तार को लक्ष्य में रखने के कारण निराला की काव्य भाषा समरस नहीं है। वह प्रयोगशील है। छायावादी कवियों में निराला की यह स्थिति अद्वितीय है। अन्य छायावादी कवियों की काव्य-भाषाएँ अपनी-अपनी सीमाओं में बँधी हुई हैं, इसीलिए वे अधिक स्थिर और अधिक सौन्दर्योन्मुखी हो सकी हैं, पर निराला की काव्य-भाषा की भाँति विस्तृत और विविध नहीं कही जा सकतीं। निराला की काव्य-भाषा समास बहुल संस्कृत के प्रयोगों से लेकर बोलचाल की भाषा के अशिष्ट प्रयोगों तक संचरण करती है। इन सीमान्तों के मध्य इनकी व्यापक काव्यभाषा है, जो रसों की विभिन्नता के अनुरूप अपना निर्माण करती हैं। छायावादी कवियों तथा प्रसाद के काव्य में प्राप्त होने वाली सौंदर्य छवियों कल्पना प्रसूत उत्पे्रक्षाओं से समन्वित हैं। पंत के काव्य में प्राकृतिक परिवेश का सौंदर्य अधिक धनीभूत हो गया है। महादेवी की सौन्दर्य छवियों में अलंकरण की प्रमुखता है। इन तीनों से भिन्न प्रकार का सौंदर्यांकन निराला ने किया है। ‘जूही की कली’ जैसी रचनाओं में जहाँ मुक्त शृंगार का बाहुल्य है, वहाँ ‘संध्या सुन्दरी’ जैसी कविताओं में एक भिन्न ही भाव चेतना क्रियाशील है। पारिवारिक जीवन छवियों से लेकर सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्शों तक के गीत निराला ने लिखे हैं। इसके अतिरिक्त विनय भावना और आत्म निवेदन के शांत रसीय गीत भी विद्यमान हैं। आशय यह कि निराला के सौंदर्यचित्रण में स्वच्छंदता और प्रयोग-बाहुल्य की चरम सीमा है। यही कारण है कि कोई एक भाषा-प्रतिमान उनके लिए पर्याप्त नहीं था। उन्हें विविध भाषा-प्रतिमानों की आवश्यकता थी। बाहरी दृष्टि से उनकी काव्य-भाषा में अव्यवस्था और नियमहीनता दिखाई दे सकती है, परन्तु विषयानुरूप भाषा-निर्माण में निराला की शक्ति अद्वितीय ही कही जाएगी।
किसी भी काव्य-भाषा के लिए उपयुक्त संगीतात्मक और लयात्मक पद-विन्यास आवश्यक होता है। काव्य-योजना का यह बहिरंग पक्ष है। निराला के काव्य में न केवल शब्दालंकार नियोजित है, बल्कि उनकी संगीतात्मक ध्वनियाँ भी सहृदय पाठकों को प्रभावित करती हैं। मुक्त छंद में दिए हुए उनके विराम और प्रयुक्त शब्दालंकार उनके काव्य कौशल के द्योतक हैं:-
देख यह कपोत कंठ
बाहुबल्ली कर-सरोज
उन्नत उरोज पीन क्षीण कटि
नितम्ब भार चरण सुकुमार
गति मन्द मन्द
छूट जाता धैर्य ऋषि मुनियों का
देवों भोगियों की तो बात ही निराली है
यहाँ एक सांगीतिक प्रवाह तो है ही, सरोज के साथ उरोज, पीन के साथ क्षीण, भार के साथ सुकुमार जैसे प्रयोगों में शब्दालंकार सुन्दर प्रमाण की नियोजना करते हैं।
काव्य-भाषा का सौन्दर्य छन्द योजना पर भी आश्रित रहता है। केवल छन्दशास्त्र या पिंगल का अनुसरण न करके निराला के गीतों में राग-रागिनियों का भी यथेष्ठ ध्यान रखा गया है ‘जग का एक देखा तार’ शीर्षक गीत में छन्द-विन्यास और वर्ण-मैत्राी का सुन्दर संबन्ध प्रायः सर्वत्र दिखाई देता है। जब वे तुलसीदास जैसे दीर्घ काव्य में दीर्घ छंदों को अपनाते हैं, तब उनकी भाषा महाकाव्योचित औदात्य की भूमि पर पहुँच जाती है और जब वे छोटे छंदों की भूमिका पर कार्य करते हैं, तब उनकी भाषा में सरलता और मृृदुलता के गुण आ जाते हैं।

संदर्भ सूची –

1. राम की शक्ति पूजा, राग विराग, सं. रामविलास शर्मा, पृष्ठ- 92-104

2. जागो फिर एक बार, मतवाला (साप्ताहिक) कलकत्ता, 9 जनवरी, 1926

3. जूही की कली, राग विराग, सं. रामविलास शर्मा, पृष्ठ- 48-49

4. संध्या सुंदरी, निराला रचनावली,भाग-1,सं. नंदकिशोर नवल,पृष्ठ-77-78

5. देखा यह कपोत कंठ, पंचवटी प्रसंग-3, निराला रचनावली, भाग -1 सं. नंदकिशोर नवल, पृष्ठ-57

6. जग का एक देखा तार,राग विराग, सं. रामविलास शर्मा, पृष्ठ-77

डाॅ. सुनील कुमार तिवारी
शहीद भगतसिंह काॅलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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