‘विपात्र’, ‘काठ का सपना’ की अंतिम रचना है। संभवतः इसका रचनाकाल 1963-64 का है जैसा कि मुक्तिबोध रचनावली में व्यक्त है। यही वह समय है जब मुक्तिबोध बीमारी की अवस्था से गुजर रहे थे। ‘विपात्र’ सात अंशों का प्रथम खण्ड तथा दो अंशों का द्वितीय खण्ड के रूप में प्रकाशित हुआ। वस्तुतः मुक्तिबोध ‘विपात्र’ को उपन्यास के रूप में लिख रहे थे। बाद में कुछ अंश जोड़ कर 1971 में उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुआ। उपन्यास के रूप में प्रकाशित ‘विपात्र’ के आवरणीय वक्तव्य में कहा गया कि- ‘विपात्र’ एक लघु उपन्यास या लम्बी कहानी या डायरी का एक अंश या रम्य गद्य या चौकाने वाला एक विशेष प्रयोग, कुछ भी संज्ञा इसे दी जा सकती है।
अगर ‘विपात्र’ की वस्तु को लिया जाये तो बहुत स्पष्ट रूप से एक सीधी रेखा में चलते हुए नजर नहीं आती। बहुत उलझी हुई है। इसमें कई दृष्टियों का मेल है। इसमें मुक्तिबोध के अन्तर्मन और बाह्य जगत के बीच के संघर्ष को उद्घाटित किया गया। यह दोनों संघर्ष मुक्तिबोध के अन्दर ही घटित होता है। विचारों का प्रवाह है। लेखक को, बाह्य जीवन की उलझने, उसके मिथ्या व्यापार क्रम, भीतर से मथती है और झकझोरती भी है। लेखक के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन की चरम परिणति ‘विपात्रा’ का कथ्य है।
पात्रों का विश्लेषण करते समय मुक्तिबोध एक रेखाचित्र खड़ा करते हैं। पात्रों का संरचनात्मक विश्लेषण नहीं करते बल्कि उसके व्यक्तित्व का विश्लेषण भी करते चलते हैं। राव साहब के संदर्भ में देखा जा सकता है। राव साहब इस वक्त जिस सीढ़ी पर हैं उसकी अगली सीढ़ी का नक्शा बराबर ध्यान में रखते थे। उस अगली सीढ़ी पर चढ़ने की तरकीबें भी जानते थे और फिर अपना मुंह हमेशा उसी तरपफ रखते। वह सिर्फ मौजूदा जरूरत के लायक पढ़ लिया करते। सामाजिक वार्तालाप में पिछड़ जाने के भय पर विजय प्राप्त करने के लिए, वे दो चार अखबार रोज देख लिया करते। इनके चरित्र का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि- वे चुप रहते, खूब मेहनत करते। महाकाव्य के धीरोदात्त नायक की भांति ही वे धर्म-बुद्धि कर्तव्यपरायणता और दयाशीलता की सुशिल्पित मूर्ति थे। लेकिन काम पड़ने पर अवसर के अनुसार पवित्र नियमों से इधर-उधर हटकर अपना मतलब भी साध लेते। ‘विपात्र’ के एक पात्र जगत के रूप में देखा जा सकता है- अगर यदि वह सचमुच अमेरिका से ऊंची डिग्री लेकर लौट आता तो सम्भव है लोग उसके रौब में रहते लेकिन वह तो जा नहीं पा रहा था। उसके सामने अमेरिका जाने की थाली भी परसी गई थी लेकिन उसके माता-पिता ;जो धनी तो थे, किन्तु वे बहुत अव्यवहारिक के कहने से और ;उसका दुर्भाग्यपूर्ण विवाह भी हो चुका था अन्य कई झमेलों के आड़े आने से वह नहीं जा सका था। वह गरीब नहीं था। ऑक्सपफोड या हार्वर्ड अपने पैसों से जा सकता था। वह वहाँ जाने और बस जाने की इच्छा करता था। किन्तु उस इच्छा की पूर्ति के पूर्व घर के झमेलों से निपटने की कला उसके पास नहीं थी।
मुक्तिबोध, जगत, राव साहब, बॉस आदि के माध्यम से एक मानक स्थापित करते हैं। सबको अपने मानक के अनुसार विश्लेषित करते हैं। ‘विपात्र’ कारखाने जैसी लगती है। जहां चरित्र और घटनाओं का विश्लेषण होता है। वहां चरित्रों को स्वायत्तता है। इसमें नायक कौन और खलनायक कौन है? यह कहना थोड़ा कठिन है। नायक और खलनायक जीवन की परिस्थितियों से उत्पन्न हाते हैं। जब दो पात्रों के बीच संवाद होता है तो प्रत्येक पात्र इसके मनोग्रंथि को खोलने का प्रयास करता है। सभी पात्र उस वस्तु स्थिति के चक्र में फंसे महसूस करते हैं। पात्रों के मनोविकारों को पकड़कर मुक्तिबोध कथा का निर्माण करते हैं। और यह कथा मात्र भावतिरेक भर नहीं बल्कि उसमें वैचारिकता का समावेश भी है। जैसा की निबंधों की दुनिया में होता है। जैसे रामचन्द्र शुक्ल ने मनोविकारों सम्बन्धी निबंधों में करूणा और प्रेम को बताया। उसी प्रकार मुक्तिबोध ने ‘विपात्र’ में लिखा कि वासना और वेदना दोनों में एक विचित्रता है। वेदना की अधिकता, कष्टों तथा संकटों की बारम्बारता मनुष्य को आत्मबद्ध बना देती है। इस प्रकार सारी दुनिया उसे परायी मालूम होती है, अपरम्पार दूरिया फैल जाती हैं। एक और अन्य जन पर विश्वास करने की क्षमता भी कम होती जाती है। इसी प्रकार वासना को बताते हुए लिखा कि- वेदना की भांति वासना और उसकी अधिकता मनुष्य को घनघोर रूप से आत्मबद्ध बना देती है, वासनाशील व्यक्ति अपने रंगीन सपनों की दुनिया में रहता है। वह आत्मग्रस्त हो जाता है। अपनी उस अहंबद्धता का वह आदर्शीकरण भी करता है। यही मुक्तिबोध वेदना और वासना का सूक्ष्म निरूपण करते हैं। जो समाज को सार्वभौमिकता की जगह व्यक्तिबद्धता की ओर ले जा रही है।
भाषा की दृष्टि से ‘विपात्र’ में सहजता है। उसमें पारिभाषिकता है और सूत्र भी है जिसका वे विश्लेषण करते चलते हैं। पात्रों और घटनाओं में अन्योनाश्रित संबंध है। जैसे उपन्यास में जटिलता और गहराई होती है उसी तरह ‘विपात्र’ में भी दिखाई देती है। उपन्यासों में रचनाकार अपने मनोभूमि को पात्रों की मनोभूमि से तादात्म्य स्थापित कर उसके जीवन के चारित्रिक विशेषताओं का निर्माण करता है। रचनाकार के पास स्पेस होता है अपनी बातों को स्पष्ट करने का। मुक्तिबोध ने भी ‘विपात्र’ में पूरे खुलेपन से पात्रों का विश्लेषण किया है। जिन्दगी के मार्मिक तथ्य उसमें दर्ज करते हैं, चरित्र के छोटे-छोटे तंतुओं को बहुविध रूप में बहुविध कोणों से प्रत्यक्ष करते हैं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता तथ्यों का सूक्ष्म निरीक्षण एवं परीक्षण है।
‘विपात्र’ की कथा शिल्प को लेकर विभिन्न आलोचकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। डॉ. जगदीश शर्मा लिखते हैं कि- मुक्तिबोध् का कथा शिल्प भी उनके आत्मा के भूगोल से जुड़ा हुआ है।जैसा कि मुक्तिबोध ने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ में लिखा है कि साहित्यिक कलाकार अपनी विधायक कल्पना द्वारा जीवन की पुर्नरचना करता है। जीवन की पुनर्रचना ही कलावृति बनती है कला में जीवन की जो पुनर्रचना होती है। वह उस जीवन का प्रतिनिधित्व करती है कि जो जीवन वस्तुतः इस जगत में जिया और भोगा जाता है- स्वयं द्वारा और अन्य द्वारा। उन्होंने इसी जीये और भोगे गये यथार्थ को ‘विपात्र’ के कथा शिल्प का आधार बनाया। उनके भीतर की बेचैनी तीव्र संवेगात्मक रूप धारण कर ‘विपात्र’ में परिलक्षित होती है। सेवाराम त्रिपाठी ने प्रतीकों के बारे में कहा कि- ‘विपात्रा’ में प्रयुक्त प्रतीक एक ओर कंधे- बंधे, घुटन भरे, घिरे हुए और बंद आकारों के हैं तो दूसरी ओर प्रज्जवलित और प्रकाशमय तिलिस्मी तहखाने प्रथम प्रकार के प्रतीक हैं। तो सिन्दूरी और सुनहली ज्वालाएं दूसरी प्रकार की। ये दोनों प्रकार के प्रतीक क्रमश: यथार्थ चेतना और उसके प्रति लेखक की तीव्र प्रतिक्रिया के वाहक हैं।उनके प्रतीक मध्यवर्ग, पूंजीपति वर्ग और निम्न वर्ग के जीवन से लिए गए हैं। जहाँ बॉस अभिजात्य मानसिकता का प्रतीक है, जो सभी तरह के दाव-पेंच जानता है कि किस प्रकार सत्ता में बना रहे वही ‘जगत’ और ‘मैं’ मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो वास्तविकता को जानते हुए भी अभिजात्य वर्ग का विरोध नहीं कर रहे। यह अगर विरोध भी है तो कुछ लोगों के अंतरात्मा में ही है जो खुलकर बाहर नहीं आ पाती। विद्या केन्द्र मात्र एक शिक्षण संस्थान भर नहीं है वह सत्ता का प्रतीक है। और सभी उसी सत्ता के सदस्य हैं। मध्यवर्ग के लोग बॉस साहब का हाथ पकड़कर अभिजात्य वर्ग में जाना तो चाहते हैं पर जा नहीं पाते।
‘विपात्र’ एक ओर मुक्तिबोध के अर्न्तमन के संघर्ष की ओर उद्घाटित करता है तो दूसरी ओर बुद्धजीवियों के विरोधभास को समेटता है। इन दोनों संघर्षों के ताना-बाना लिए हुए शिल्प का निर्माण होता है। मुक्तिबोध कहते हैं कि वस्तु अपना रूप स्वयं लेकर आती है। वस्तु और रूप को वे अलग नहीं मानते लेकिन उनका जोर सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के साथ उसको लेकर विषयवस्तु पर ज्यादा केन्द्रित है ।
मुक्तिबोध की बात कभी एक कहानी में समाप्त नहीं होती है। या किसी भी कविता में सम्पूर्णता नहीं होती। जब एक कहानी खत्म होती है तो वह अगली कहानी की पृष्ठ भूमि का काम करती है। क्योंकि कला को मुक्तिबोध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं मानते बल्कि सांस्कृतिक प्रक्रिया मानते हैं। इसी सांस्कृतिक प्रक्रिया का परिणाम ‘विपात्र’ है। यह कोरा विचार गद्य नहीं है। और न ही इसे ठीक-ठाक आत्मचरित्र’ ही घोषित किया जा सकता है। ‘विपात्र’ में मुक्तिबोध ने मध्यवर्ग की अजीब दास्तान को लपेटे हुए उसकी विडम्बनाओं और उसकी कायरताओं को उद्घाटित किया। एक तरफ तो व्यक्ति स्वतंत्रता की बात करता है तो दूसरी ओर बॉस का विरोध भी नहीं करता है। मध्य वर्ग का व्यक्ति संवेदनशील होने के साथ-साथ बौद्धिक भी हो जाये तो उसकी भीतरी दुनिया की टूट-फूट की रचना कुछ इसी तरह से संभव की जा सकती थी।
मुक्तिबोध एक लक्ष्योन्मुख रचनाकार है। जो मध्यवर्गीय समाज के संवेदनाओं को भली-भांति जानते और समझते हैं। वे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के बाद उपजी उस व्यवस्था के घोर विरोधी हैं जिसने राजनीतिक स्वराज तो प्राप्त कर लिया पर आर्थिक स्वराज के स्वप्न को धूमिल कर दिया। आर्थिक स्वराज के बिना समाज के वंचित लोगों का उद्धार नहीं हो सकता। इन्हीं वंचित लोगों के पीड़ा से पीड़ित मुक्तिबोध जीवन भर संघर्ष करते रहे और अपनी रचनात्मक भूमिका को एक दिशा प्रदान किए। उनका संघर्ष मात्र रचनात्मक ही नहीं बल्कि आंतरिक भी है।
‘विपात्र’ में मुक्तिबोध ने उन बुद्धजीवियों पर सवाल उठाया जो जिस परिवेश से आये उन्हें ही भूलकर उनका तिरस्कार करने में जुटे हुए हैं। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों पर प्रहार करते हुए उन्होंने लिखा है कि तुम्हारे भीतरी चेहरे पर शनीचरी छाया क्यों? तुम गाँव से आये, शहर में बसे। वहाँ बसकर, खासा कीमती सूट पहनने लगे। गांव के तुम्हारे जो साथी थे, वे अब गंवार महसूस हुए। तुम जितना ऊपर चढ़ते हो, अपने संगों से दूर क्यों हटते जाते हो? हर अगली सीढ़ी की ऊंचाई पर खड़े होकर तुम निचली सीढ़ी को हीन क्यों समझने लगते हो? प्रायः अपने ही जमीन को छोड़कर बुद्धिजीवी अपने को श्रेष्ठ समझने लगते हैं। इन बोद्धिजीवियों का संकट नैतिकता से समन्वित है। वे झूठी शान शौकत और स्वार्थबद्धताओं से परिचालित है और इसी कारण वे गहन अन्तर्विरोधें से जूझते रहते हैं। अपने वर्ग को त्यागकर चमक-दमक वाली नसैनियों से ऊपर तक पहुँचना चाहते हैं। वैसे उनमें अपने वर्ग के प्रति सहानुभूति रहती है लेकिन स्वार्थपरता ऐसी वस्तु है जो उसे तोड़ देती है। अपना सोशल स्टेट्स तैयार करने की फिराक में वे अपनी जमीन छोड़ देते हैं। इसी बुद्धिजीवी मध्यवर्ग के बारे में पवन कुमार वर्मा रचित ‘भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान’ में लिखा गया कि प्रतिष्ठा और हैसियत के प्रति आग्रह तकरीबन सभी मध्य वर्गों की विशेषता होती है। यह एक ऐसा वर्ग है जो अपने से नीचे वालों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करता है और अपने ऊपर और पहुँच से बाहर वालों के अनुरूप बनने में सारा जोर लगा देता है। बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी ट्रेजडी यही है।
मुक्तिबोध् ने ‘विपात्र’ में सवाल खड़ा किया कि क्यों आदमी-आदमी से दूर होता जा रहा है। और उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि- हर आदमी चाहता है कि दूसरे उसे पहचाने, उसके भीतर पहुंचे और उनकी आत्मा में जो मूल्यवान तत्व है उन्हें मान्यता प्रदान करें। जैसा कि राव साहब, बॉस के संदर्भ में देखा जा सकता है। एक सभा में सभी उपस्थिति होते हैं। साथ-साथ रहते हैं फिर भी एक दूसरे को जान नहीं पाते। इसका कारण यह है कि हर एक को घमण्ड है कि उसका ‘आत्म वैभव’ अद्वितीय है। और चूंकि वह अद्वितीय है इसलिए वह निर्मल और प्रदीप्त है। परिणाम यह होता है कि कोई किसी के भीतर पहुंच नहीं पाता। और कोई भी व्यक्ति चाहे जितना भी आत्मलोचन कर सकने का सामर्थ्य रखता हो वह अपने ‘स्व’ द्वारा ‘निज’ का परिष्कार और विकास नहीं कर सकता।
दरबार का जो परिदृश्य है वह पूंजीपतियों द्वारा खड़ा किया गया एक मकड़जाल है। जो सर्वहारा वर्ग को ही बांटने पर लगा हुआ है। बुद्धिजवी वर्ग इस मकड़जाल में इस कदर उलझ चुका है कि उससे मुक्ति नहीं मिल सकती। वह यह शायद नहीं जानता कि ‘मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।बुद्धिजीवियों की असलियत को मुक्तिबोध की एक कविता में भी देखा जा सकता है-
हरेक नंगा है निज कपड़ों के अन्दर,
श्लोक गुनगुनाते रहते गीता का सुन्दर!
वासांसि जीर्णानि यथा विहास,
नवाति गृण्हाति नरो पराणि….
मध्यवर्ग की उदरम्भरि जिन्दगी हुई यो वेमानी।।
बुद्धिजीवियों के दोहरे चरित्र को मुक्तिबोध ने ‘विपात्र’ में रेखांकित किया है। जो उसी वर्ग के होते हुए भी उनकी बुराई करते हैं। और अपने को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। जहाँ जन्म लिया पला बढ़ा उसी जगत की आलोचना करना एक फैशन सा बन गया, इन तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए। मुक्तिबोध इस बात का खण्डन करते हुए ललकारते हैं। अपनी पक्षधरता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- अंधेरे में रहकर अंधेरे में मर जाना ठीक समझता हूँ लेकिन फटीचरों से घृणा करना नहीं चाहता।
शोषण के चक्रव्यूहों में सर्वहारा वर्ग फंसा हुआ है। वह गंदी नालियों के किनारे, फटा-पुराना चिथड़ा लपेटे जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। आजादी के इतने सालों बाद भी स्थिति वहीं की वहीं बनी हुई है। जो अमीर है वह अधिक अमीर बनते जा रहे हैं जो गरीब है वह गरीब होता जा रहा है। सपनों का भारत कहीं खो गया है। इस स्थिति को सिर्फ बातें करने से टाला नहीं जा सकता। सामाजिक यथार्थ का तकाजा है कि बु(जीवी बातें भर न करता रहे बल्कि इस यथार्थ से टकराने के लिए अपने समूचे संघर्ष को सर्वहारा के कल्याण के लिए उपयोग में लाये। अपनी आत्मा के बंधन को शोषणकारी शक्तियों के हाथों से मुक्त करे। लेनिन के शब्दों में यदि राज्य सत्ता न मिटने वाले वर्ग विरोधों का फल है, अलग-अलग एक ऐसी ताकत है तो वह बिल्कुल साफ है कि उत्पीड़ित वर्ग तब तक आजाद न हो सकेगा जब तक कि न केवल एक हिंसापूर्ण क्रांति हो, बल्कि जब तक की राज्य सत्ता की उस मशीन को भी ध्वस्त न कर दिया जाये, जिसे शासक वर्ग ने तैयार किया था और जो इस अलगाव का मूर्त रूप है।
‘विपात्र’ में मुक्तिबोध ने बुद्धिजीवियों के एक और संकट को रेखांकित किया- बौद्धिकता का संकट। अति बौद्धिकता के कारण मध्यवर्ग के अंदर अहं का भाव जागृत हुआ जो उसे सर्वहारा से दूर करता गया। मुक्तिबोध ने सदैव मध्यवर्ग के उस वर्ग का पक्षधरता की जो शोषित और प्रताड़ित वर्ग था, जो निचले पायदान पर जिंदगी बसर कर रहा था। नंदकिशोर नवल जी ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने ;मुक्तिबोध ने मध्यम वर्ग को विषय बनाकर बहुत कुछ लिखा है, पर इससे यह न समझना चाहिए, कि वे मध्यम वर्ग के कवि थे। भारत में जितने कवि जनवादी क्रांति का स्वप्न देखते थे, उसमें वे मध्य वर्ग की अहं भूमिका मानते थे, इसलिए उन्होंने मध्यवर्ग को हमेशा मजदूर वर्ग से एकता स्थापित कर उसके नेतृत्व में आगे बढ़ने की सलाह देते हैं।
मुक्तिबोध ‘विपात्र’ में ‘जगत’ और ‘मैं’ के माध्यम से बुद्धिजीवियों के मन में उत्पन्न व्यथा पर एक बहस प्रस्तुत करते हैं। ‘जगत’ और ‘मैं’ की बहस इनके वर्ग की पोल खोलती है। ये दोनों गंदे होटलों में चाय पीने जाते हैं। लेकिन इनके मन में घबराहट भी है कि कहीं पकड़े न जाये। संविधान ने विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता प्रदान की। इसे मौलिक अधिकार के रूप में कानूनी मान्यता दी। पर क्या वास्तव में ऐसा होता है। डॉ. कुंवरपाल सिंह की टिप्पणी गौरलतब है- फअजीब विचार स्वातंत्रय है, जहाँ गालियाँ बकने और कीचड़ उछालने की स्वतंत्राता तो है लेकिन वास्तविक तथ्यों का उद्घाटन करने और सच कहने की स्वतंत्राता नहीं है। परदे के बाहर की बातों पर आप अपनी राय दे सकते हैं, लेकिन रंगमंच के पीछे होने वाले क्रियाकलापों के विषय में न तो इस देश के साधरण नागरिक को जानने का हक है, न कहने का, यदि कोई साहस करता है तो उसको अन्यायपूर्ण परिणामों की चुनौती का सामना करना पड़ता है। बॉस के दरबार में ऐसा ही होता है। विचार व्यक्त करने की स्वतंत्राता तो है पर लोगों को डर भी होता है कि कहीं बॉस नाराज न हो जाये। और उन्हें नौकरी से हाथ धेना पड़ सकता है।
इस पीड़ा की छटपटाहट ‘विपात्रा’ के ‘मैं’ में विद्यमान है। वह कहना तो बहुत कुछ चाहता है पर उसे खुल के सभी के सामने नहीं कहता उसके मन में ही एक अंतहीन बहस चलती रहती है। ‘मैं’ की एक समस्या यह भी है कि फ्आदमी-आदमी के बीच के फासले दूर कैसे होगें? जगत ने कहा- उनको बातचीत से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि वहां तरह-तरह के भेदों के दलदल हैं। इस बात का जवाब देते हुए ‘मैं’ का स्वर तीव्र होता है। हाँ, हमें इस दलदल को सुखाना होगा। लेकिन उसके लिए तो एक ज्वालामुखी की आग चाहिए। और वह आग सर्वहारा वर्ग के समन्वित वर्ग संघर्ष से ही उत्पन्न हो सकती है। सर्वहारा में वर्ग संघर्ष को उत्पन्न करने का काम उन बुद्धिजीवियों द्वारा ही हो सकता है जो अपने विशेष ‘सोशल स्टेट्स’ के लिए लगे हुए हैं। जो ‘विशेष जीवन प्रणाली’ की रक्षा को अंतिम मूल्य मान बैठे हैं।
मोती लाल वर्मा ने ‘विपात्र’ के बारे में लिखा कि अपनी उलझी चरित्र स्थितियों और यहाँ वहां शिथिल पड़ने वाले विश्लेषणों और उनके बिखराव के बावजूद ‘विपात्र’ जिन प्रश्नों को उभारता है वे मुक्तिबोध के जीवन दर्शन तथ्यों पर आधरित हैं तथा उन प्रश्नों को लेकर की गयी प्रतिक्रियाएं जीवनानुक्रमों के अनेक संदर्भों को समेटती है, साथ ही सोचने और समझने तथा समाधन ढूंढ़ने की अनिवार्यता पर जोर देती हैं। हमारी मध्यवर्गीय जड़ता में कसमसाहट, बेचैनी और हलचल पैदा करती हैं।
कुल मिलाकर मुक्तिबोध का ‘विपात्र’ ‘जगत’ और ‘मैं’ के संवाद से समाज के मध्यवर्ग की पोल खोलता है। खासकर उन बुद्धिजीवियों के बारे में जिस समाज में उनका जन्म हुआ, जहां वे अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किये और बाद में उसी समाज और वर्ग से अपने को भिन्न महसूस करते हैं। उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते।
वस्तुतः ‘विपात्र’ की वैचारिक संरचना भारत के वर्तमान सांस्कृतिक संकट को व्यवस्थापिकीय प्रभुत्व और शिक्षित मध्यवर्ग की प्रबुद्धता, विवशता और पुंस्त्वहीनता के मनोसामाजिक परिप्रेक्ष्य में ऐसा अर्थ खोजने की समस्या पर आधरित है जो जीवन को सही तरह से जीने के योग्य बना सके, मानवीय संवेदना को सही दिशा दे सके। बुद्धजीवियों की संवेदना को सही दिशा प्रदान करने पर ही शोषित वर्ग की मुक्ति संभव हैं और ‘विपात्र’ के ‘मैं’ की पूरी संवेदना साधरण जनता के प्रति ही है।

चंद्रमणि सिंह
जामिया मिल्लिया इस्लामिया

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