समाज में नारियों की परिस्थिति अलग-अलग होती है। अलग-अलग वर्ग की नारियों की परिस्थिति भी अलग-अलग होती है। उच्च वर्ग में रह रही स्त्रियों का जीवन अलग प्रकार का होता हैं उन्हें किसी भी वस्तु के लिए सोचना नहीं पड़ता। लेकिन ठीक इसके विपरीत मध्यवर्गीय नारी की परिस्थिति उच्च वर्ग की नारी की परिस्थिति से भिन्न है। उसे किसी भी काम को करने से पहले सोचना पड़ता है। उसकी जरूरत उसके परिवार पर निर्भर करती है। मध्यवर्गीय नारी ज्यादातर शिक्षित नहीं होती है। जिसके कारण उन्हें जीवन में बहुत-सी समस्याओं को देखना पड़ता है।
प्रेमचन्द जी ने साहित्य में नारी को केंद्र में रखकर उसकी समस्याओं, परिस्थितियों और उसके जीवन से जुड़े पहलुओं को अपने उपन्यास के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाया है। लेखन एक ऐसी कला है जिसके माध्यम से हम समाज को सच का आईना दिखा सकते हैं। प्रेमचन्द जी का लेखन, हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा है।
प्रेमचन्द जी का लेखन इतना स्पष्ट होता है कि इन्हें ‘कलम का सिपाही’ भी कहा जाता था।
प्रेमचन्द जी ने अपनी कहानियों व उपन्यासों में समाज में फैल रही कुसंगतियों व विडम्बनाओं की चर्चा की है। साथ ही साथ उन्हें विषय बनाया अपनी रचनाओं का।
प्रेमचन्द जी ने अपनी रचनाओं में समाज से सम्बन्धित अनेक समस्याओं को प्रदर्शित किया है। समाज में नारियाँ किन-किन परिस्थितियों से जूझती हैं तथा उसे समाज में क्या-क्या सुनना पड़ता है। उन सभी समस्याओं व परेशानियों को प्रेमचन्द जी ने अपनी कहानियों, उपन्यासों का विषय बनाया है।
‘20वीं शताब्दी के पहले स्त्री शिक्षा स्वतंत्रता तथा सम्पत्ति के सभी अधिकारों से वंचित थी। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में नारी समस्याओं, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, विधवाओं की दुर्दशा आदि की भत्र्सना की गई तथा स्त्री शिक्षा, स्त्री स्वतंत्रता तथा स्त्रियों की उन्नति जैसे नवीन विषयों को उठाया गया, किन्तु इनमें नारी के प्रति उदात्त भाव की अभिव्यंजना का सर्वथा अभाव रहा है। सर्वप्रथम, छायावादी कवियों ने नारी को संवेदनशील भावना से देखा और यथार्थ चित्रण एवं मानवतावाद के धरातल पर जो चित्र अंकित किए उनमें सेवाभाव, दया, ममता, संयम सहिष्णुता, प्यार, त्याग, साहस एवं प्रेरणा के गुणों का प्राधान्य है।1
प्रेमचन्द जी के उपन्यास सच्चाई के धरातल में दिखाई देते हैं। इन्होंने अपने उपन्यासों में हर परिस्थिति से हम पाठकों को अवगत कराया है। इनकी कहानियाँ या उपन्यास, किसी को भी पढ़ लें, उसे पढ़कर हमें ऐसा अनुभव होता है जैसे कि वह घटना या कहानी हमारे सामने ही घट रही है। इन्होंने बहुत रचनाएँ लिखी हैं, जिनमें नारियों की परिस्थितियों का बखूबी वर्णन किया है। उनकी समस्याओं के प्रति जो चिन्ता प्रेमचन्द जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्यक्त की हैं, उसका वर्णन करना आसान नहीं है। प्रेमचन्द जी का उपन्यास ‘सेवासदन’ एक सामाजिक उपन्यास है। इस उपन्यास में मध्यवर्गीय नारी की परिस्थिति को दर्शाया गया है। किस तरह एक मध्यवर्गीय नारी समस्याओं के घेरे में घिर कर वो काम कर बैठती है जो कभी उसने सोचा न हो। इसी तरह इस उपन्यास में, सुमन एक सीधी-साधी स्त्री होती है। जो परिस्थितियों का शिकार होकर वेश्यावृत्ति के दल-दल में फंस जाती है और उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, उसकी छोटी बहन शान्ता और उसके परिवार को। विशेषकर शान्ता को जिसकी बारात द्वार पर आकर लौट जाती है।
मदन सिंह ने भाई की ओर कड़ी निगाह से देखकर कहा, तुम क्यों बोलते हो जी। (उमानाथ से) सम्भव है तुम्हारे शत्रु ही ने कहा हो, लेकिन बात सच्ची है या नहीं ?
“कौन बात ?”
यही कि सुमन कन्या की सगी बहन है।
उमानाथ का चेहरा पीला पड़ गया, लज्जा से सिर झुक गया। नेत्र ज्योतिहीन हो गये। बोले-महाराज…..और उनके मुख से कुछ ना निकला।
मदन सिंह ने गरजकर कहा-स्पष्ट क्यों नहीं बोलते यही बात सच है या झूठ ?
उमानाथ ने फिर उत्तर देना चाहा किन्तु ‘महाराज’ के सिवा और कुछ न कह सके।
‘मदन सिंह को अब कोई सन्देह नहीं रहा। क्रोध की अग्नि प्रचण्ड हो गयी, आँखों से ज्वाला निकलने लगी। शरीर काँपने लगा। उमानाथ की ओर आग्नेय दृष्टि से ताककर बोले-अब अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे सामने से हट जाओ। धूर्त, दगाबाज, पाखण्डी कहीं का, तिलक लगा कर पण्डित बना फिरता है। चाण्डाल अब तेरे द्वार पर पानी न पीऊँगा। अपनी लड़की को जन्तर बनाकर गले में पहन-यह कहकर मदन सिंह उठे ओर उस छोलदारी में चले गये जहाँ सदन पड़ा सो रहा था और जोर से चिल्लाकर कहारों को पुकारा।
उनके जाने पर उमानाथ पद्यमसिंह जी से बोले, महाराज, किसी प्रकार पंडित जी को मनाइए। मुझे कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। सुमन का हाल जो आपने सुना ही होगा। उस अभागिनी ने मेरे मुँह पर कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी। पर अब गड़े हुए मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ होगा। आप ही न्याय कीजिए, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करताा ? इस कन्या का विवाह तो करना ही था। वह बात छिपाये बिना कैसे बनता ? आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझे यह समाचार सम्बन्ध ठीक होने के बाद मिला।’2
इस उपन्यास में सुमन के वैश्यापन के कारण उसके (शान्ता) विवाह में बहुत अड़चने आती हैं। बनी-बनाई बात भी बिगड़ जाती है। जब शान्ता का विवाह सदन से पक्का होता है तो शान्ता सदन को मन ही मन अपना पति मान बैठती है। लेकिन सुमन के कारण ही उसकी आई हुई बारात वापस चली जाती है। इससे शान्ता को बहुत दुःख होता है। उमानाथ पूरी कोशिश करता है कि बारात न जाए, लेकिन बारात वापस चली जाती है।
‘सुमन’ इस उपन्यास की प्रमुख पात्र है और यह उपन्यास उसी के इर्द-गिर्द घूमता है।
समाज में जीवन व्यतीत कर रही मध्यवर्गीय नारी के जीवन में जो समस्याएँ आती हैं, उन समस्याओं में एक समस्या ‘दहेज की समस्या’ उभर समाज के सामने आती है। इस समस्या के कारण मध्यवर्गीय नारी को आत्महत्या का कदम उठाना पड़ता है। अनेक अत्याचार भी सहने पड़ते हैं।
‘दहेज प्रथा के विवेचनार्थ आलोचकों ने प्रेमचन्द के उपन्यासों तथा कहानियों में दोनों को विषय बनाया, उपन्यासों में निर्मला, प्रतिज्ञा एवं सेवासदन से उन कारणों की विस्तृत समीक्षा की गई जो दहेज प्रथा के लिए उत्तरदायी हैं। डाॅ० महेन्द्र भटनागर ने दहेज-प्रथा की समस्या के लिए हिन्दू समाज की लोभी मनोवृत्ति को दोषी माना है। निर्मला उपवन्यास में बाबू भालचन्द्र सिन्हा के पुत्र भवन को वह अकर्मण्य, चरित्रहीन तथा दहेज के लालची युवकों की मानसिकता का प्रतीक मानते हैं। जो दहेज के सम्मुख, रूपवती, गुणशील, चतुर और कुलीन कन्या को तुच्छ समझते हैं।3
प्रेमचन्द जी ने जिन सामाजिक कलंकों को उजागर किया था, वह आज भी हमारे समाज में उपलब्ध हैं। उन कलंकों में से ‘दहेज की समस्या’ है। इसी समस्या के कारण सुमन का जीवन विभिन्न परेशानियाँ लेकर आता है और वह एक भंवर में फंस कर रह जाती है। सेवासदन में सुमन का पिता कृष्णचन्द्र ईमानदार होकर, दहेज के काारण अपनी ईमानदारी बेच देता है, ताकि सुमन का विवाह ऊँचे कुल में हो, लेकिन वहाँ विवाह करने के लिए दहेज इतना मांगा जाता है, जिसके कारण कृष्णचन्द्र को सोचना पड़ता है। इसी समस्या के कारण कृष्णचन्द्र वो कर बैठता है जो उसे जेल का रास्ता दिखा देता है और उसे जेल हो जाती है। लेकिन कृष्णचन्द्र जाने से पहले अपनी पत्नी गंगाजली को बोलता है कि जो पैसे आज तक उसने ईमानदारी से कमाये हैं उन पैसों को वह वकालत में न खर्च करें। लेकिन गंगाजली का मन नहीं मानता ओर वह उन पैसों को वकालता में खर्च कर देती है। अब गंगाजली के पास सबसे बड़ी समस्या सुमन के विवाह के दहेज की होती है। सुमन का विवाह दहेज न देने के कारण गजाधर से हो जाता है जो उम्र में काफी बड़ा होता है और महीने के 15 रुपये मिलते हैं।
समाज में बहुत-सी ऐसी मध्यवर्गीय स्त्री हैं जो इस समस्या के कारण, ऐसे वर को सौंप दी जाती हैं जो उनके योग्य नहीं होते हैं और धीरे-धीरे ऐसे जाल में फंसती जाती हैं जिसके कारण इनका जीवन जीने योग्य नहीं रहता है। इस समस्या को प्रेमचन्द जी ने सेवासदन में बहुत अच्छे तरीके से दिखाया है कि सुमन भी इस समस्या का शिाकार होती है। जिसके कारण वह हर सुख से वंचित रहती है और परिस्थितियों के भंवर में निरन्तर फंसती रहती हैं और परिस्थितियों से समझौता करके वह चुपचाप सहती रहती हैं, कुछ नहीं बोलतीं।
दहेज की समस्या ने समााज में ऐसा रूप धारण कर लिया है जिसके कारण समाज अन्दर ही अन्दर खोखला होता जा रहा है। जिसका परिणाम मध्यवर्गीय नारियों को भुगतना पड़ता है। मध्यवर्गीय नारी जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में ऐसी फंसती जाती है कि उनके लिए परिस्थितियों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार, सुमन भी ‘सेवासदन’ उपन्यास में जीवन की परिस्थितियों में फंसती जाती है। अंत में उसके लिए उन परिस्थितियों से निकलना मुश्किल हो जाता है।
समाज में जहाँ मध्यवर्गीय नारियों के लिए ‘दहेज की समस्या’ बहुत बड़ी है उसी प्रकार ‘वेश्यावृत्ति की समस्या’ को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। वेश्यावृत्ति की समस्या भी एक गम्भीर समस्या है। आज भी समाज वेश्याओं को घृणा की नजरों से देखता है। उनके साथ उठना-बैठना व बात करना भी अपमान लगता है। लेकिन समाज यह बात भूल जाता है कि वैश्या भी एक नारी होती है। मध्यवर्गीय नारी, न जाने किन परिस्थितियों के कारण वह वैश्या का रास्ता अपनाती है।
समाज आज भी वेश्याओं को उपभोग की वस्तु मानता है क्योंकि समाज में रह रहे व्यक्ति अपना दिल बहलाने के लिए वेश्याओं के पास जाते हैं और वेश्याएँ न चाहकर भी उन्हें खुश करने के लिए क्या-क्या नहीं करतीं।
अगर, समाज वेश्या को वेश्या के रूप में न देखकर बल्कि उसके वेश्या बनने के कारण के बारे में सोचे तो समाज में रह रहे व्यक्ति का नजरिया वेश्याओं के प्रति जरूर बदलेगा।
नारी के वैश्या रूप का वर्णन प्रमुख रूप से ‘सेवासदन’ उपन्यास तथा आंशिक रूप से ‘गोदान’ उपन्यास में किया जा सकता है। कहानी साहित्य के अंतर्गत वेश्या, लांछन, आगा-पीछा, दो कुत्ते आदि कहानियों में भी इस समस्या को बड़े कौशल से उठाया गया है। डाॅ० रामविलास शर्मा की समीक्षा आयाम में अति संक्षिप्त होते हुए भी इस समस्या का सर्वांग चित्र प्रस्तुत करती है। उनका वक्तव्य ध्यातव्य है-‘बाल, वृद्ध विवाह, गृह-कलह आदि अनेक कारणों से बहुत स्त्रियाँ वेश्या जीवन बिताने के लिए बाध्य होती हैं।4
वैश्याएँ भी एक मध्यवर्गीय नारी होती है, जो परिस्थितियों के आवेश में आ कर यह कदम उठाती हैं। चाहे वह समस्या वह गृह-कलह, बाल-वृद्ध विवाह आदि कोई भी समस्या हो सकती है, जिसके कारण मध्यवर्गीय नारी को वेश्या का जीवन बिताने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
इस समस्या को प्रेमचन्द जी ने अपने ‘सेवासदन’ उपन्यास में बखूबी ढंग से दिखाया है। प्रेमचन्द ने सेवासदन में इसी समस्या को उभारा है।
‘गजाधर – मैं तो ऐसा ही समझाता हूँ।
सुमन – तुम मुझे मिथ पाप लगाते हो, ईश्वर तुमसे समझेंगे।
गजाधर – चली जा मेरे घर से रांड, कोसती है।
सुमन – हाँ, यों कहो कि मुझे रखना नहीं चाहते। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो। क्या तुम्हीं मेरी अन्नदाता हो, जहाँ मजूरी करूंगी, वहीं पेट पाल लूंगी।
गजाधर – जााती है कि खड़ी गालियाँ देती है ?
सुमन जैसी सर्वगा स्त्री स अपमान को सह न सकी। घर से निकालने की धमकी भयंकर इरादों को पूरा कर देती है।
सुमन – अच्छा लो जाती हूँ।
यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किन्तु अभी उसने ना जाने का निश्चय नहीं किया था।
गजाधर एक मिनट कुछ सोचता रहा, फिर बोला-अपने गहने-कपड़े लेती जा। यहाँ कोई काम नहीं है।5
इस वाक्यांश में प्रेमचन्द यह चाहते थे कि ‘सेवासदन’ उपन्यास में गजाधर जो कि सुमन का पति होता है, उसे सुमन का मेल-मिलाप उस भोली के साथ पसन्द नहीं होता। एक दिन सुमन जब सुभद्रा के घर से वापस आती है तो गजाधर के क्रोध की सीमा नहीं रहती। वह सुमन को घर से बाहर निकाल देता है। जिसके कारण सुमन के हृदय में वज्रपात होने लगता है कि वो इतनी रात को कहाँ जाए। वह सुभद्रा के यहाँ जाने में भी हिचकती है। लेकिन फिर भी सहारे के लिए वह सवेरे-सवेरे वहाँ पहुँच जाती है और सुभद्रा को वह सब बता देती है। जब पद्यमसिंह को पता चलता है कि गजाधर ने उसे निकाल दिया है तो वह चिंतित होता है, लेकिन बात तब बिगड़ जाती है जब सुमन के घर में रहने से बदनामी होती है। अंत में सुमन के पास कहीं भी रहने के लिए जगह नहीं रहती। तभी अचानक भोली उसे दयनीय अवस्था में देख लेती है और उसे इशारा करके वह अपने पास बुलाती है लेकिन सुमन को तब भी डर लगता है कि गजाधर न देख ले।
भोली ने पूछा – आज यह सन्दूकची लिए इधर कहाँ से आ रही थी ?
सुमन – यह रामकहानी फिर कहूँगी। इस समय तुम मेरे ऊपर इतनी कृपा करोा कि मेरे लिए कहीं अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमें रहना चाहती हूँ।
भोली ने विस्मित होकर कहा – यह क्यों, क्या शौहर से लड़ाई हो गयी है ?
सुमन – नहीं, लड़ाई की क्या बात है ? अपना जी ही तो है।
भोली – जरा मेरे सामने तो ताको। हाँ, चेहरा साफ कह रहा है। क्या बात हुई ?
सुमन – सच कहती हूँ, कोई बात नहीं। अगर अपने रहने से किसी को कोई तकलीफ हो तो क्यों रहे ?
भोली – अरे तो मुझसे साफ-साफ कहती क्यों नहीं, किस बात पर बिगड़े थे ?
सुमन – बिगड़ने की कोई बात नहीं है। जब बिगड़ ही गये तो क्या रह गया ?’6
सुमन को मजबूरी में भोली के यहाँ शरण लेनी पड़ती है। न चाहकर भी उसे वहाँ जाना पड़ता है, जिसके कारण वह इस परिस्थिति में निरन्तर फंसती जाती है।7
प्रेमचन्द जी ने ‘सेवासदन’ उपन्यास में सुमन की उन परिस्थितियों व समस्याओं पर प्रकाश डाला है जिसके कारण वह कैसे वेश्यावृत्ति की समस्या में फंसती है। ठीक उसी प्रकार, समाज में रह रही स्त्रियों, जो वेश्या बनती हैं, उसके पीछे भी उनकी कोई समस्या या मजबूरी होती है। सुमन जब भोली के यहाँ रहने लगती है तो वहाँ तौर-तरीकों व चमक-दमक से आकर्षित हो जाती है और थोड़ा बहुत भोली, सुमन को बातों-बातों में फंसा देती है। उसकी खूबसूरती का बखान करती है। सुमन को गाना सिखाती है। धीरे-धीरे समय व्यतीत होते-होते वह सुमन से सुमनबाई बन जाती है। सुमन के रूप के सौन्दर्य के बखान की सीमा नहीं रहती। चारों तरफ सुमन की चर्चा होने लगी। सुमन धीरे-धीरे इस दलदल में फँसती जाती है।
समाज में मध्यवर्गीय स्त्रियों के समक्ष अलग-अलग समस्याएँ आती रहती हैं। फिर चाहे वह समस्या कोई भी हो, उन्हें उन समस्याओं के आगे झुकना ही पड़ता है और आजीवन उन समस्याओं के आगे झुकती रही हैं। जिसका कारण उनका अशिक्षित होना भी हो सकता है। अगर मध्यवर्गीय स्त्रियाँ शिक्षित होतीं तो वह हर समस्या का निवारण कर सकतीं थी, उस समस्या का खुलकर विरोध करती और अपना निर्णय स्वयं लेती। अगर हम बातें करें समाज में उच्च वर्ग की स्त्रियों की तो हम उन्हें हर परिस्थिति में मजबूत खड़े हुए देखते हैं। वह हर समस्या का खुलकर विरोध करती हैं, फिर चाहे वह समस्या कोई भी हो। प्रेमचन्द जी का स्वयं भी यह मानना है कि स्त्रियों को शिक्षित होना चाहिए।
अगर हम देखें तो ‘सेवासदन’ में सुमन भी इतनी शिक्षित नहीं होती है। अगर वह अच्छी पढ़ी-लिखी होती तो सुमन को कभी वेश्या का जीवन भोगना नहीं पड़ता। जब सुमन को गजाधर घर से बाहर निकाल देता है तभी वह उसका विरोध कर सकती थी। लेकिन अशिक्षित होने के कारण वह सब कुछ सहती रही। उसे न चाहकर भी वेश्या का जीवन जीना पड़ा।
समाज में जहाँ विधवा समस्या, शिक्षा समस्या, वेश्यावृत्ति की समस्या तथा दहेज की समस्या दिखाई देती है, वहीं शंका की समस्या से भी मध्यवर्गीय स्त्रियाँ अछूती नहीं रही हैं। उन्हें इस समस्या का भी सामना करना पड़ता है। इस समस्या से नारी का अपमा तो होता ही है, साथ ही में वह अन्दर ही अन्दर टूट जाती है और बिना कुछ कहे उस लांछन को अपने चरित्र में लगने देती है। अगर हम इस विषय में उच्च वर्ग की नारी की बात करें तो हमें सब समान दिखेगा। उनका अपमान, कड़वी बातें, अश्लील बातें, चरित्र में लांघना इत्यादि उन पर भी लगते हैं, लेकिन अन्तर सिर्फ यही आ जाता है कि वह उस समस्या का विरोध करती हैं तथा अपने बल पर वह अपने पति से अलग होकर अपना अकेले जीवन निर्वाह करने की क्षमता रखती हैं। लेकिन मध्यवर्गीय नारी की परिस्थिति इसके विपरीत होती है। वह कुछ न बोलकर सब कुछ सहती रहती है।
अगर हम सेवासदन में सुमन की बात करें तो हमें सुमन की परिस्थिति भी ऐसी लगती है। वह गजाधर के द्वारा लांछन लगाने पर भी कुछ नहीं कहती, न उसका विरोध करती है, बल्कि गलत रास्ते पर चली जाती है।
‘गजाधर सुमन की यह कठोर बातें सुनकर सन्नाटे में आ गया। यह पहला ही अवसर था कि सुमन यों उसके मुँह आई थी। क्रोधोन्मत होकर बोला, तू क्या चाहती है कि जो कुछ तेरा जी चाहे किया करे और मैं चूं न करूँ ? तू सारी रात न जाने कहाँ रही, अब जो पूछता हूँ तो कहती है मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। तुम मुझे क्या देते हो ? मुझे मालूम हो गया है कि शहर का पानी तुझे भी लगा। तूने भी अपनी सहेलियों का रंग पकड़ा, बस अब मेरे साथ तेरा निबाह न होगा। लेकिन तूने सुना…….न सुना। मुझे तू जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहाँ रही, तब तक मैं तुझे घर ले कि आज से तू मेरी कोई नहीं। तेरा जहाँ जी चाहे जा, जो मन में आवे कर।
सुमन ने कातर भाव से कहा-वकील साहब के घर को छोड़कर मैं और कहीं नहीं गयी। तुम्हें विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वहीं चाहे जितनी देर लगी हो। गाना हो रहा था, सुभद्रा देवी ने आने नहीं दिया।
गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दों से कहा-अच्छा तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो। फिर भला, मजदूर की परवाह क्यों होने लगी।8
सुमन को भी उन मध्यवर्गीय स्त्रियों की तरह ‘शंका की समस्या’ का शिकार होना पड़ा। गजाधर की शंका की सीमा अब निरन्तर बढ़ती जा रही थी, जिस कारण वह उसे घर से निकाल देता है। रिश्तों में जब शंका की भावना जागने लगती है तो वह अच्छे से अच्छा रिश्ता भी तोड़ देती है। इसी कारण सुमन का रिश्ता टूट जाता है और वह उस रास्ते पर चल पड़ती है। लेकिन जब सुमन को इसका अहसास होता है कि उसके कारण उसका परिवार व उसकी बहन को न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जब सुमन को पता चलता है कि उसकी बहन का रिश्ता उसी के कारण टूट गया, तो वह बहुत शर्मिन्दा व अन्दर से टूट जाती है। तब वह निश्चय कर लेती है कि अब वह वेश्या का काम नहीं करेगी। अब वह एक साधारण स्त्री का जीवन व्यतीत करना चाहती है। लेकिन उसमें भी उसे बहुत मुश्किलें आती हैं, परन्तु वह हार नहीं मानती और विधवा आश्रम में रह कर अपने जीवन का पश्चात्ताप करती है।
समाज की मध्यवर्गीय नारी और प्रेमचन्द के ‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन का जीवन लगभग एक जैसा है क्योंकि सुमन भी एक मध्यवर्गीय नारी है, जिसे दहेज की समस्या के कारण ऐसे व्यक्ति से विवाह के बंधन में बाध दिया जाता है। जिसके कारण उसका पूरा जीवन नष्ट हो जाता है। शंका की समस्या उसके जीवन को और भी खराब कर देती है। जिसकी वजह से उसे घर से बाहर निकाल दिया जाता है और मजबूरी में वह वेश्यावृत्ति रूपी दलदल में फँसती चली जाती है और उस दलदल के छींटे उसके परिवार व बहन के जीवन पर निरन्तर पड़ते रहते हैं जिसके कारण वह विधवा आश्रम में रहकर उस वेश्या रूपी श्राप को अपने जीवन नष्ट करने की ठान लेती है।

संदर्भ:-
1. प्रेमचन्द का कथा साहित्य, पृष्ठ 114, संपादक-डाॅ० मीना गुप्ता, प्रकाशक⪫ प्रकाशन, नई दिल्ली।
2. सेवासदन, पृष्ठ 130, संपादक-प्रेमचन्द, प्रकाशक – मनोज पाॅकेट बुक्स, नई दिल्ली।
3. प्रेमचन्द का कथा साहित्य, पृष्ठ 126, संपादक-डाॅ० मीना गुप्ता, प्रकाशक⪫ प्रकाशन, नई दिल्ली।
4. प्रेमचन्द का कथा साहित्य, पृष्ठ 144, संपादक-डाॅ० मीना गुप्ता, प्रकाशक⪫ प्रकाशन, नई दिल्ली।
5. सेवासदन, पृष्ठ 33, संपादक-प्रेमचन्द, प्रकाशक – मनोज पाॅकेट बुक्स, नई दिल्ली।
6. सेवासदन, पृष्ठ 39, संपादक-प्रेमचन्द, प्रकाशक – मनोज पाॅकेट बुक्स, नई दिल्ली।
7. सेवासदन, पृष्ठ 32, संपादक-प्रेमचन्द, प्रकाशक – मनोज पाॅकेट बुक्स, नई दिल्ली।
8. प्रेमचन्द: विविध आयाम – डाॅक्टर दिनेशा प्रसाद।
9. प्रेमचन्द – साहित्य-कोश, डाॅक्टर मीना निगम, डाॅक्टर सुरेश ऋतुपर्ण।
10. प्रेमचन्द – साहित्य में ग्राम्य जीवन – डाॅक्टर सुभद्रा।
11. कथाकार पे्रमचन्द – मन्मयनाथ गुप्त, रमेद्रनाथ वर्मा।
12. प्रेमचन्द और अधूत समस्या – डाॅक्टर कांतिमोहन शर्मा।
13. प्रेमचन्द और उनके उपन्यास – उषा ऋषि।

 

मनीता ठाकुर / डॉ. टी. एन. ओझा
शोधार्थी
मेवाड़ विश्वविद्यालय
राजस्थान

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