मध्यकाल अपने समय और सरोकारों के साथ एक ऐसा काल है जो, मध्यकालीन रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि समाज, मनुष्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध है। इनमें से कोई भी घटक एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना या प्रभावित किए बिना नहीं रह सकते। पूरा मध्यकाल इसका सशक्त उदाहरण है लेकिन भक्त कवियों ने इसी मध्ययुगीन समाज से शक्ति ग्रहण करते हुए जो सत्य था, जो सुंदर था और समस्य मानव जाति के कल्याण के लिए था, उसको उद्घाटित किया। समाज दो तरह से काम करता है। पहला तो यह कि उस समाज में रह रहे व्यक्यिों पर अपना रंग छोड़ते हुए अपने में मिला लेता है और दूसरा ऐसी चेतना का विकास करता है जिससे सत्य की प्रतिष्ठा की जा सके। मीरा इसी सत्य की प्रतिष्ठा की जबरदस्त उद्घोषि‍का हैं।
मीरा का व्यक्तित्व भौतिकता और अध्यात्म के बीच विकसित व्यक्तित्व है। मीरा का घर छोड़ना अध्यात्म चेतना की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ भौतिक आसक्तियों की तिलांजलि तथापि वह समाज विमुख नहीं हुई थी और न ही उन्होंने मर्यादा-विहीन मार्ग का ही अनुसरण किया था। हां, वे पूर्णतया परम्परावादी सामाजिक मूल्यों को अंगीकृत नहीं कर सकी थीं। वह शाश्वत मूल्यों की समर्थिका थीं। मीरा का काव्य चिरंतन काव्य है। वह मानवतावाद की सम्पोषिका थीं और सांस्कृतिक अन्तश्चेतना की जागरूक प्रहरिका। भक्त कवियों ने जाति-पाति, धार्मिक संकीर्णता और रूढ़ांध परम्पराओं का स्पष्ट विरोध कर समरसता, समानता तथा मातृत्व भाव को संरक्षण दिया है। ये विश्व को कुटुम्ब मान कर चले हैं। मीरा भी उन्हीं में से एक थी- निष्ठा और प्रेम की उद्घोषिका।
मीरा ने जिन परिस्थितियों का सामना किया था, वे परिस्थितियां सामाजिक रूढ़ांधता की प्रतीक थीं। उन्होंने स्पष्ट कहा था-

लाज सरम तो सभी गुमाई, यां तन चरणां धारि।
साध संगत मेरे मन राजी, भई कुटुम्ब सूं न्यारी।
महल किया राणा मोहि न चाहिये, सारी रेशम पट की।
राजापणां की रीति गुसाई, साधन के संग भटकी।

पूर्वमध्यकाल की प्रतिष्ठा प्रतिरोध की चेतना पर आधारित है। लगभग सभी भक्त कवियों ने सत्ता और सामंती व्यवस्था के प्रति असंतोष जाहिर किया। मीरा को भी राज की चारदीवारी से बाहर निकलने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा या विष का प्याला पीना पड़ा था। राजघराने की वधू महल की चौखट से बाहर निकल कर साधु-सन्तों के साथ उठ बैठ नहीं सकती थी। उसने अपने परिवार के मुखियों से संघर्ष किया था। काफी दुःख भी पाये थे। उसको उसके घरवालों ने भी शरण नहीं दी थी। वस्तुतः मीरा को एक विधवा राजपूतानी के रूप में अपने अस्तित्व के लिए सशक्त संघर्ष करना पड़ा था। क्या वह समग्र दुर्द्धष संघर्ष मीरा की सामाजिक संचेतना की सर्वोत्तम उपलब्धि नहीं है? क्या मीरा का काव्य नारी संघर्ष की उदात्त कहानी नहीं है? समस्त भक्तिवादी कवियों की तरह क्या मीरा का जीवनीय आस्था का संघोषक एवं उसे प्रश्रय देने वाला प्रतीत नहीं होता है?
मीरा की व्यक्ति चेतना समस्त मानवजाति की सामाजिक चेतना है। उनकी सामन्ती ठाट-बाट को ठुकरा कर अकेला ही लोक जीवन के साथ घुल-मिल जाना ही यह प्रमाणित करता है कि वह सामाजिक मंगलेच्छा से अनुप्रेरित होकर ही जीवनीय मूल्यों की पुनःस्थापना के लिए अवतरित हुई थीं। मानवता के प्राणों में चिर विमल तथा मन्त्रमुग्धकारी स्पन्दन प्रदान करने वाली मीरा का जीवन संसृति के पुलक प्राणों के समान महनीय था। वस्तुतया वह चिर वियोगिनी थी, वह चिर साधिका थी और जन-मन की मंगलेच्छा थी।
मीरा ने साम्प्रदायिक नेताओं की उन बातों का कतई समर्थन नहीं किया, जो मानव – मानव के मध्य मतभेद पैदा कर रहे थे। वे धार्मिक जो गद्दीधारी होने का गलत लाभ उठा रहे थे, उनको मीरा रास्ते पर लाने में सफल रही थी। यह मीरा की ही बानगी थी कि उन्होंने किसी को गुरू नहीं माना, सिवाय कृष्ण के। नारी धार्मिक क्षेत्र में बिना गुरू भव सागर पार नहीं कर सकती है, मीरा ने इस उक्ति को अपने जीवन के उदाहरण से गलत सिद्ध किया था। जीवन गोस्वामी के मन के भ्रम को दूर करने में वह सफल रही। कृष्ण को छोड़ कर वहां सब नारी हैं, मीरा का यह तर्क अत्यन्त ही शक्तिशाली था। धार्मिक सामन्तवाद को मीरा ने इस प्रकार नकारा कि नकार तत्व से पैदा होने वाली घृणा-उपेक्षा सामने न आ सकी। मीरा ने सामन्तीय मूल्यों को नकार नवीन सामाजिक चेतना का स्वर मुखर किया था। उन्होंने जिस साहस व धैर्य से राणा की सामन्ती को नकार कर स्वतंत्र जीवन चेतना को अंगीकार किया था, वह कर्त्तव्य की आस्थावादी संभूमिका की बेमिसाल स्थापना है। यही कारण है कि उनका वैयक्तिक आत्मनिवेदन समग्र-जाति का आत्म-निवेदन सिद्ध हुआ है।
निस्संदेह मीरा काव्य आध्यात्मिक भूमिका को उदात्तता का संस्थापित करता हुआ लौकिक पक्ष को भी स्वीकृति प्रदान करता है। नारी की संघर्षमयी मुद्दों में मीरा का समस्त साधिनी-उपसना अमानवीय मूल्यों के स्थान पर मानवीय मूल्यों को संस्थापित करती है। उसके काव्य में युगों-युगों से उपेक्षित शोषित तथा कुंठित नारी को पहली बार जीने के लिए संघर्ष का स्वर मिला है। वह विद्रोह अत्यन्त संयत, शुभ्र और सृजनात्मक है। उसकी शाश्वत तथा रागमीय भावाभिव्यक्ति समस्त नारी मन की मूलभूत सम्वेदनाओं का उदात्त सम्प्रेषण है। वर्ग तथा युग की सीमा से ऊपर उठ कर मीरा ने जिस चेतना का परिबोध व्यक्त किया है, वह हमारे समाज की आधारभूमि है। मीरा ने एकमात्र शास्त्रनुमोदित मार्ग का अनुसरण न कर स्वतंत्र मार्ग का अनुसंधान किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वह व्यक्ति-स्वातंतत्र्य की मूलभूत शक्ति को सामाजिक सत्ता से संयुक्त करने में ही सबकी मंगलाकांक्षा देखती है। मीरा ने धार्मिक कट्टरता का स्पष्ट विरोध किया है और साम्प्रदायिक शक्तियों को प्रेम से वशीभूत किया है। उन्होंने विरोध के लिए विरोध नहीं किया है और न प्रतिक्रिया वादिता में वह फंसी है, अपितु प्रेम-ममता-करूणा से उनमें परिव्याप्त संकीर्णता को दूर किया है। इस दृष्टि से मीरा की सामाजिक संचेतना समस्त मानव-समाज की प्रेरणा की उत्स सिद्ध होती है।
साहित्य-सर्जना मूलतः साहित्यकार की वैयक्तिक प्रतिभा एवं आत्म-तत्व की अभिव्यंजना है, किन्तु उस अभिव्यक्ति में सामाजिक परिवेश और युग-परिस्थितियों का भी अभीष्ट समावेश रहता है। साहित्यकार का मानस उसकी आन्तरिक चेष्टाओं और वंशानुगत परम्पराओं के सम्मिश्रण का ही संघात नहीं होता अपितु उसके निर्माण में उसकी शिक्षा-दीक्षा तथा सांस्कृतिक धरातल का भी संयोजन रहता है। अन्य प्राणियों की भांति साहित्यकार भी एक चेतना सम्पन्न जीव है जिसके अंतःकरण पर युग-परिवेश का प्रतिबिम्ब किसी न किसी रूप में प्रत्यंकित होता है। उसके युगजीवन की राजीनतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों तथा जीवन-दर्शन की गतिविधियां उसके मनस्तत्व का गठन करने में अपना योगदान करती हैं जिसके प्रभाव से सर्वथा अस्पुष्ट रह जाना किसी भी साहित्यकार के लिए सम्भव नहीं है। यह एक अलग बात है कि साहित्यकार का मनोमय कोष अपनी सर्जना को समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में प्रस्तुत करे अथवा वह स्वयं समाज का नि‍यामक बनकर उसका पथ-प्रदर्शन करने में भी सक्षम हो सके। इस दृष्टि से साहित्यकारों की भी दो प्रमुख श्रेणियां (युगजीवी तथा कालजयी) हो जाती है। मीरा की अंतस्साधना के अधिष्ठान उसके मानस-जगत् का निर्माण करने में भी उसकी अंतर्मुखी भावनाओं तथा बहुर्मुखी परिस्थितियों का अपेक्षित महत्व रहा है जिनका विश्लेषण करना प्रस्तुत अध्याय का मूल प्रतिपाद्य है।
प्रायः सभी अधिकारी विद्वान् मानते हैं कि जोधपुर राज्य के अन्तर्गत मेड़ता के राठौड़ घराने में उनका जन्म तथा मेवाड़ के सिसोदिया वंश में उनका विवाह हुआ था। इन दोनों राज्यों की संघर्षमयी राजकीय परिस्थितियों ने मीरा की जीवन-धारा को अनेक प्रकार से प्रभावित किया।
मुसलमान बादशाह, हिन्दू राजा और सामन्त वर्ग ऐशो-आराम की जिन्दगी जीते थे जबकि जनसामान्य अभावों और संघर्षों की चक्की में पिसता था। इस्लाम धर्म के अनुयायी मुसलमान अपने धर्म के नवीन उत्साह से परिपूर्ण थे। वे अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उसके विस्तार के प्रयास में तलवार का उपयोग करते थे। परिणामस्वरूप हिन्दू भी अपनी संस्कृति एवं आत्मसम्मान की रक्षा के लिए कटिबद्ध हुए। वे अपनी जाति-पांति, आचार-विचार एवं नीति का पालन विशेष कट्टरता से करने लगे। राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से त्रस्त बेचारा निम्नवर्ग अपने ही समाज के इस कठोर नियमन से अत्यंत परेशान एवं दुखी था। स्त्रियों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। उनका सहधर्मिणी रूप स्पष्टतया उपेक्षित था। पुरूषों में बहु-विवाह की प्रथा थी। राजपूतों और वैश्यों में इसका प्रचलन अधिक था। उस समय के कई नरेशों की पत्नियों की संख्या का औसत नौ से कदापि कम नहीं था। चूंकि युद्ध के अवसर पर जीवन का कोई ठिकाना नहीं रहता था, इसलिए प्रत्येक योद्धा अनेक पत्नियों का होना आवश्यक समझता था। परिणामतः जायदाद तथा अधिकार के झगड़ों से पारिवारिक झंझट पैदा हो जाते थे। बहुपत्नी-प्रथा के कारण विधवाओं का बाहुल्य होना भी स्वाभाविक था। पति के मरने के बाद उनको परिवार में भार-रूप माना जाता था। सम्पत्ति में उनका कोई अधिकार न होने से उनको जीवन के कटु अनुभवों का सामना करना पड़ता था। उत्सव के अवसरों पर या यात्र के समय विधवा का दर्शन अच्छा नहीं समझा जाता था। महाराणा रायमल तथा जयपुर के महाराजाओं ने विधवाओं के अधिकार और पालन-पोषण संबंधी समस्या को हल करने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें आंशिक सफलता ही मिली। सवाई जयसिंह ने उनके पुनर्विवाह के लिए नियम बनाने का प्रयत्न किया। कोटा और जयपुर के अभिलेखों में विधवाओं को सहायतार्थ अनुदान दिये जाने के उल्लेख भी मिलते हैं।
उस समय का स्त्री समाज सती-प्रथा से पीड़ित था। परन्तु आगे चल कर जब बहु-विवाह प्रथा ने बल पकड़ा तो पति की पत्नियों का सती होना भी आवश्यक माना जाने लगा। कभी-कभी तो मरने वाले पुरूष की प्रतिष्ठा उसके शव के साथ जलने वाली पत्नियों की संख्या से आंकी जाती थी। अबोध बाल-विधवाओं को भी जबरन सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। सती होने के समय रानियां घोड़े पर बैठ कर सती होने के लिए प्रस्थान करती थीं। श्मशान में पहुंच कर वाद्य-यंत्र की तुमुल ध्वनि के साथ वे चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाती थीं। प्रत्येक राजा के साथ इस प्रकार अनेक पत्नियों, उपपत्नियों, खवासनें और दासियां सती होती थीं। किसी विशेष समय या परिस्थिति में भले ही इस प्रथा का समर्थन प्राप्त रहा हो, परन्तु इसमें जबरदस्ती किये जाने की सम्भावना बड़ी घातक थी। इससे मध्ययुग में असंख्य अबोध अबलाओं को अपने जीवन से हाथ धोने पडे़।
तत्कालीन राजपरिवारों और आभिजात्य वर्ग की स्त्रियों में शिक्षा का प्रचलन था। राजपरिवारों की स्त्रियों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जब उन्होंने अपनी विद्वता एवं योग्यता द्वारा लोगों को प्रभावित किया। रानियां सैन्य-संचालन में पटु होती थीं। वे राज्य-संचालन में भी भाग लेती थी। राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज की पत्नी ताराबाई युद्ध-विशारदा थी और अपने पति के साथ युद्ध-क्षेत्र में जाती थी। राणा विक्रमादित्य की माता हाड़ी रानी कर्मवती ने अपने पुत्र की अल्पवयस्कता के कारण चितौड़ राज्य का संचालन किया था और युद्ध क्षेत्र में सैन्य-क्षेत्र में सैन्य-संचालन करने में भी वह पीछे नहीं रही थीं।
राजस्थान में धर्म की एकसूत्रता युग-युगान्तर से स्वीकृत चली आ रही है जिसमें विश्वास, देव-प्रर्चन, सद्कार्य, धार्मिक शिक्षा तथा धर्म-विचारकों के प्रति श्रद्धा आदि भावनाएं सम्मिलित हैं। वैदिक धर्म और उससे संबधित विश्वासों के प्रतीक राजस्थान में आज भी देखे जाते हैं। मेवाड़ के बाप्पा रावल, क्षेत्रसिंह तथा महाराणा कुम्भा वैदिक यज्ञों के अनुष्ठानों में बहुत विश्वास रखते थे। जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने भी वैदिक परम्परा को महत्व दिया। राजस्थान में मुख्य देवता के रूप में ब्रह्मा का अर्चन प्रचलित था जो पुष्कर, बांसवाड़ा और सिरोही आदि राज्यों के मन्दिरों से प्रमाणित होता है। आगे चलकर ब्रह्मा उपदेवों की श्रेणी में आ गये। ब्रह्मा की भांति सूर्य की भी मुख्य देव के रूप में पूजा प्रचलित थी। चितौड़ का सूर्य-मन्दिर आज भी इसका साक्षी है। इस देवता की आराधना मध्यकालीन सुरह-स्तम्भों तथा हस्तलिखित ग्रन्थों से स्पष्ट है।
इन तमाम परिस्थितियों के आलोक में यह स्पष्ट है कि मीरा ने अपने समय के समाज से संघर्ष और प्रतिरोध लेते हुए नए मूल्यों की स्थापना की। ये मूल्य मानव कल्याण के लिए, सत्य की प्रतिष्ठा के लिए, सत्व और उदात्त चरित्र के विकास के लिए और मनुष्य की सहज चेतना को प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मीरा के लिए उनका समाज उन्हें शक्ति देता है न कि निर्बल करता है। मीरा का जीवन ही मीरा का संदेश हैं। यह भी कहा जा सकता है कि आंदाल और मीरा को वैसा समाज न मिला होता तो उनकी विचार चिंतना उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितनी की है। इसलिए हमने यह स्थापित किया कि मीरा का संपूर्ण व्यक्तित्व या मीरा की निर्मिति मधययुगीन समाज का सीना फ़ोड़कर पैदा होती है।

 

विश्वम्भर दत्त काण्डपाल / डॉ. टी. एन. ओझा
सिंंघानिया विश्वविद्यालय
राजस्थान

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