” देख तेरे संसार की हालत

                  क्या हो गई भगवान

                  कितना बदल गया इंसान”

आज वैश्वीकरण की आँधी में बुलेट ट्रेन की भाँति धुँआधार दौड़ती जिंदगी में यदि कुछ करीने से संजोकर रखने की जरूरत है तो वह है हमारे अनमोल मानव -मूल्य जिन्हें हम मच-मोर….मोर,,,,,मोर, मोर के झगड़ैल धूल में रोलते जा रहे है। हमारा जीवन स्वार्थ, असंतोष, अशांति के कारण बेढंगा-सा हो गया है। इंसान तुच्छ स्वार्थों के कारण अपने ईमान की बोली लगा रहा है। नवीन मूल्यों के निर्माण में उपयुक्त प्राचीन मानव-मूल्यों को ध्वस्त करने में मनुष्य कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहा है। मनुष्य मानवता की बली चढ़ाता जा रहा है और प्रेम व अमन का दीप बनकर उजाला करने का धर्म भूलता जा रहा है। वह अपने तक ही सिमट कर रह गया है।

        ” प्रेम अमन का दीप जलाएँ, घर-घर में उजियारा हो

          मानवता ही धर्म हमारा, मानवता ही नारा हो।”

सच्ची मानवता का नारा बुलंद करने वाला मध्यकाल युग था जिसकी केंद्रीय धुरी मानवीय चिंता थी। मध्यकाल के सभी संतों और भक्त कवियों ने इंसान को पशुता त्याग मनुष्यता पर टिके रहने का नारा बुलंद किया था। आज इन्हीं सच्चे संतों की आवश्यकता फिर से जान पड़ती है ताकि इस अमानवीयता से जलते संसार को, भभकते अंगारों से बचाया जा सके।

         “आग लगी आकाश को, झड़-झड़ पड़े अंगार

        संत न होते गर जगत में तो जल मरता संसार”

मध्यकालीन युग से आधुनिक काल में मूल्य संबंधी धारणा आसमान से उतरकर उस जमीन पर आती है जिसकी नींव नीत्शे के ‘ईश्वर की मृत्यु’ के घोषणा पत्र से शुरू होती है और मानव मूल्यों के नियामक ईश्वर न होकर मनुष्य बन जाता है। सार्त्र का इसी विषय पर मानना है कि:

“मैंने ईश्वर को अपनी विचारधारा से बहिष्कृत कर दिया है। अत: उसके स्थान की पूर्ति के लिए किसी न किसी को तो स्थापित करना ही होगा। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे इस स्थान पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और मनुष्य ही मूल्य निर्माता है।”1.

 समाज की आर्थिक संरचना मूल्य निर्माण का आधार होती है। मूल्य व्यक्ति और वस्तु दोनों की सहभागिता के द्वारा निर्णित होता है। मूल्य परिवेश, समाज, और समय से जुड़े होने के कारण इनमें परिवर्तन के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता जाता है। नए मूल्यों की सृष्टि होती है। मानव-मूल्य और साहित्यिक मानव-मूल्य एक ही होते हैं क्योंकि मनुष्य और सहित्य दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। मानव मूल्यों की इसी बनती- बिगड़ती प्रक्रिया को डॉ. धर्मवीर भारती इस प्रकार व्यक्त करते है:

” मानव- मूल्यों को मनुष्य की चेतना ने तीन धरातलों या सम्बधों के आधार पर मान्यता दी है वे हैं व्यक्ति और उसका स्वयं का संबंध, व्यक्ति और विश्व का संबंध तथा व्यक्ति और विश्वातीत का संबंध। मानव-मूल्य इन तीनों धरातलों पर अवस्थित है; बनते हैं मिटते हैं और फिर बनते हैं, यह क्रम निरंतर चलता ही रहता है।”2.

 जिस प्रकार समाज में आर्थिक संबंध एक जैसे नहीं होते ठीक उसी प्रकार हर युग की रचना और कला भी एक जैसी नहीं होती और इनसे निर्मित मूल्य भी एक जैसे नहीं होते। भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाख़ा से होते हुए प्रेममार्गी शाख़ा, रामकाव्यधारा, कृष्णकाव्यधारा और रीतिकाल की रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त और नीतिकाव्यधारा तक आते-आते मानव-मूल्यों में भी बदलाव आता गया।

भक्तिकाल सामंती काल था। सामंती सामाज व्यवस्था में मूल्य और समाज दोनो का द्वंद्वात्मक संबंध है।समाज में अनेक तरह के परिवर्तन तो आए लेकिन सामाजिक मूल्यों में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। समाज उन्हीं पुरानी मान्यताओं, कुरीतियों से मुक्त नहीं हो पा रहा था। अन्याय, अराजकता, बहुदेववाद, कर्मकाण्ड, बाह्याडम्बर की स्थिति इतनी बढ़ गई थी कि मध्यकालीन समाज कलिकाल में तब्दील हो रहा था। कबीर, रैदास, धन्ना, गुरू नानक देव , तुलसीदास, मीरा,जैसे संतो और कवियों ने मानवीय मूल्यों(प्रेम, सहिष्णुता, मधुरता, करूणा, अहिंसा, अहंत्याग, सत्संग, समानता,  और सत्य आदि) की रचना और प्रतिष्ठापना पर जोर दिया। कबीरदास ने अहिंसा का समर्थन करते हुए जीव हत्या का विरोध किया है वो कहते हैं कि:

            “दिन को रोजा रखत है रात हनत है गाय

          यहां तो खून वहां बंदगी कैसे खुशी खुदाय”

कबीरदास ही नहीं भक्तिकाल के प्राय: सभी कवियों ने प्रेम के मार्ग में अहं त्याग को अनिवार्य माना है और गुरू, भक्ति तथा सत्संग की महिमा को श्रेष्ठ स्थान दिया है।

अहंत्याग –   “कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं

          सीस उतारै भुई धरै, सौ पैठै घर माहिं”        (कबीरदास)

भक्ति-      “सौ बताने की एकै बात

          सूर सुमरि हरि-हरि दिन-रात।”               (सूरदास)

  और,     ” म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णाँ कूयाँ”      (मीरा)

भक्तिकाल का फलक बहुआयामी है। अन्य भक्त कवियों के समान गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य में भी समानता, बंधुत्व, और स्वतंत्रता के स्वर मुखरित होते हैं। तुलसी ने सगुण-निर्गुण में कोई भेद नहीं स्वीकारा और वे अपने काव्य में समाज के कटु यथार्थ के दर्शन भी कराते हैं। तुलसीदास जी मर्यादावादी तत्वों के संरक्षक कवि के रूप में दिखाई देते हैं। यथा:

           ” ग्यानहिं भक्तिहिं नहीं कछु भेदा।

             उभय हरहिं भव सम्भव बेदा॥”

और,           ” खेती न किसान को,भिखारी को न भीख भली

             बनिक को बनिज न, न चाकर को चाकरी”     (तुलसीदास)

समाज में समानता और स्वतंत्रता का अधिकार पाने की ललक और जिद्द इन भक्त कवियों में देखने को मिलती है। समाज में व्याप्त सड़ी-गली रूढ़ियों के प्रति अस्वीकृति का भाव ही समाज में एकता, भाईचारा और सद्भाव आदि की निर्बाध प्रवाहित धारा का सूत्रपात कराता है। जाति-पाँति, ऊँच-नीच, वर्णव्यवस्था, बाह्याडम्बरों के प्रति प्रबल विरोध ही समाज में मानव- मूल्यों की स्थापना में सहायक हो सकता है।

              ” जाति-पाति पूछै नहीं कोय

            हरि को भजै सो हरि का होय।”

और सूरदास के काव्य में भी ईश्वर को लौकिकता प्रदान कर सखा के रूप में स्वीकार किया है सखा भाव में समानता का भाव छिपा होता है उसमें किसी भी प्रकार के भेद के लिए कोई जगह नहीं होती है। सूरदास जी कहते है:

              “खेलत में को काकौ गुसैया

     हरि हारे जीते श्रीदामा,बरबस ही कत करन रिसैया

     जाति पाति हमतै बड़ नाहि, नाहि बसत तुम्हारी छैयां।”

भक्तिकाल में सामाजिक रूढ‌‌- परम्पराओं और सामंती युग की क्रूर जंजीरों से मुक्ति का स्वर भी मिलता है। यहां स्त्री मुक्ति का स्वर भी मुखर दिखाई देता है। स्त्री को प्रेम करने की स्वतंत्रता सूरदास की गोपियों की बोली में मुखर रूप से उजागर होती है। यथा: ” ऊधौ मन नाहिं दस-बीस”, “आयौ घोस बड़ौ व्योपारी”, “काहे को गोपीनाथ कहावत” और “निरगुन कौन देस को बासी” आदि। मीराबाई का काव्य तो सामंती व्यवस्था से स्वतंत्रता की छटपटाहट से कहीं आगे का काव्य ठहरता है। यहाँ मुक्ति का कठोर एवं कटु संघर्ष है, चाहे वह वेश-भूषा, रहन-सहन, मित्रता, प्रेम आदि के फैसले हो उन्होंने लीक से हटकर लिए और मुक्त होकर अपना जीवन जीकर एक अलग  अनूठी चाल चली।

           “राणा जी म्हानै या बदनामी लगे मीठी

           कोई निंदों कोई बिंदो मै चलूंगीं चाल अनूठी”        (मीरा)

इस काल में प्रेम जैसा मूल्य अधिक विस्तार पाता है।प्रेम कई स्वरूपों में निखरता है जितनी गहराई से इसे नापेंगें उतना ही यह निखरता जाता है:”ज्यों-ज्यों निहारिये नेरे ह्वै नैननि, त्यों-त्यों खरी निकरै- सी निकाई।” प्रेम सूफी कवियों का सर्वोत्तम मूल्य है। यहाँ प्रेम अलौकिक होकर भी लौकिक भूमि पर खड़ा है। लौकिक प्रेम होने पर भी उसमें स्वार्थ, अहंकार, कामवासना नहीं बल्कि प्रणय-भावना, मधुरता, साहस, शौर्य, संघर्ष, बलिदान आदि मानवीय-मूल्य समाहित है।”पिउ सो कहहु संदेसड़ा, हे भौरा हे काग। सो धनि विरही जरि मुई तेहिक धुआँ हम लाग॥” और यही प्रेम रीतिकाल के रीतिमुक्त धारा के कवियों में भी देखने को मिलता है। यह प्रेम वहाँ एकनिष्ठ, स्वच्छंद, संवेदनशील ,पुरूष का विरह का करूण रूदन, आत्मनिवेदन और ‘जान है तो जहाँ है’ वाला प्रेम है।यथा:

    ” अति सूधो स्नेह कौ मारग है, जहाँ नेकु सयापन बाँक नहीं।

     यहाँ साँच चले तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसांक नहीं।”   (घनानंद)

रीतिबद्ध काव्यधारा में भी प्रेम का जो एक दूसरा रूप भी उद्घाटित होता है वह है राष्ट्रप्रेम।भूषण, गंग, बिहारी आदि ने राष्ट्र के प्रति बलिदान, त्याग, आत्मसमर्पण  और राष्ट्रीयता को अपने काव्य में स्थान दिया है। भूषण का काव्य राष्ट्रीयता से सम्बधित मानव-मूल्यों से भरा पड़ा है।”सिवाजी कै सराहौ कि, सराहौ छत्रसाल कौ,’  ‘इंद्र जिमि जंभ पर …..सेर सिवराज है” आदि के माध्यम से राजाओं के हृदय में कर्तव्य, प्रेरणा और उत्साह का संचार किया है।

सार्वभौमिक मानव मूल्यों की प्रतिस्थापना में रीतिकालीन नीतिकवियों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इन्होनें अपने काव्य में मानवीय मूल्यों का धार्मिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी उजागर किया है और मनुष्य को मनुष्य बने रहने की प्रेरणा दी है। आज के मनुष्य में स्वार्थ, लालच, अकर्मठता, संत्रास, अकेलापन, विलास आदि बुराईयाँ इतनी बढ़ चुकी है जो कि ये मनुष्य को संवेदनहीन और हृद्यहीन बनाती जा रही है। सुरेश सिन्हा के शब्दों में कहा जा सकता है:

” आज समाज से सत्य खंडित हो रहा है, संघर्ष इतना कटु हो गया है कि आदमी अपने ही भीतर कई मौतें मर रहा है। मनुष्य का विरोधी संस्थाओं और रूढ़ एवं अंध परम्पराओं द्वारा स्थापित वर्जनाओं ने मानवीयता का जबरदस्त अपहरण कर लिया है और मानव-मूल्यों के सभी संदर्भ अंधी गुफाओं में भटक गए हैं।3.

सारांशत: यह कहा जा सकता है कि आदर्शहीनता और मर्यादाहीनता का ऐसा युग हमारे देश में फिर से अवतरित हुआ है जिसमें परंपरा और आधुनिकता की टकराहट, विज्ञानवाद और मानववाद की टकराहट तथा समाज और व्यक्ति की टकराहट उन दो पक्षों के समान है जिसने मर्यादा की उस पतली- सी डोरी को तोड़ा जिस पर मानव-मूल्यों पर टिकी मानवता कायम थी। अत: हमें मध्यकालीन कवियों और भक्तों के सार्वभौमिक मानव- मूल्यों के पाठ को फिर से अपने अक्स में उतारने की आवश्यकता है। पहले एक अच्छा इंसान बनना जरूरी है इंसानियत का विकास हृदय में होना चाहिए बाकी सब विकास यात्रा बाद में।

                     “कुछ भी बनो

                 मुबारक है…पर

                 पहले इंसान बनों”

संदर्भ ग्रंथ सूची:

  1. भक्तिकाव्य और मानव-मूल्य :डॉ.वीरेंद्र मोहन,प्रकाशन संस्थान, दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 1986,पृ. सं.- 15 ।
  2. मानव मूल्य और साहित्य :डॉ. धर्मवीर भारती, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, तीसरा संस्करण 1999,पृ. भूमिका से।
  3. स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास में मानव मूल्य और उपलब्धियाँ :डॉ. भगीरथ बड़ोले , स्मृति प्रकाशन इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1983, पृ. सं. 273 ।

                                       सुमन

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