अस्वस्थता में
पहचान होती
ईश्वर और इंसान की
कौन था मददगार
श्मशान के क्षणिक
वैराग्य ज्ञान की तरह
भूल जाता इंसान
मदद के अहसान को
फर्ज के धुएँ में
सांसे थमी
आँखे पथराई
रतजगा से आँखों में सूजन
अपनों की राह निहारती आँखे
झपक पड़ती हुई निढाल सी
आवश्यकता का भान
मन बेभान
भरोसे का वजन करने की चाह में
ईश्वर और इंसान
बन जाते तराजू के पलवे
गुहार का कांटा
झुकता है किस और
किसी को पता नहीं
किंतु एक विश्वास
थमी सांसों के लिए
जो मांग रहा दुआएँ
पीड़ित की सांसे चलने
अपनों की आबो हवा में
फिर से साथ जीने का
नए जीवन का अहसास
एक आस के साथ
खोजता मददगारों को
वो ईश्वर हो या इंसान