रीति कविता राजाओं और रईसों के आश्रय में पली है। यह एक स्वात: प्रमाणित सत्य है की उनकी अन्तःप्रेरणा और स्वरूप को कवियों और उनके आश्रयदाता दोनों के संबंध से ही समझा जा सकता है। रीति-काल के कवि वे व्यक्ति थे जिनको प्रायः साहित्यिक अभिरुचि पैतृक परम्परा के रूप में प्राप्त थी। विभिन्न विद्वानों का मत है कि काव्य का परिशीलन और सृजन इनका शग़ल नहीं था, स्थायी कर्तव्य-कर्म था। वह अपनी काव्य-कला के द्वारा ऐसे राजाओं अथवा रईसों का आश्रय खोज लेते थे जिनकी सहायता से इनकी काव्य-साधना निर्विघ्न चलती रहें। रीतिकवियों का सम्पूर्ण गौरव उनकी काव्य-कला पर ही निर्भर रहता था। इसी कारण कविता रीतिकालीन कवियों लिए मूलतः एक ललित कला थी। जिसके बल पर ये अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते थे। अपनी कला और प्रतिभा के प्रति वह जागरूक थे, इसका तो निषेध नहीं किया जा सकता परन्तु इसके आगे बढ़कर रीतिकालीन कवियों के काव्य-व्यवसायी या फ़र्मायशी कवि कहना अन्याय होगा।

डॉ. नगेन्द्र रीतिकविता को शुद्ध कला कहते हुए लिखते हैं कि-

“रीति-काव्य में आत्मा की काँपती हुई आवाज़ आपको नहीं  मिलेगी। वह अपने प्रतिनिधि रूप में वैयक्तिक गीत-कविता नहीं है। वह कलात्मक कविता है स्वभावतः उसमें वस्तु-तत्त्व’ असंदिग्ध है। इसलिए उसकी मूल प्रेरणा सीधी आत्माभिव्यंजना की प्रवृत्ति में न खोजकर आत्म प्रदर्शन की प्रवृत्ति में खोजनी चाहिए। हिन्दी-साहित्य के प्राचीन इतिहास में यही युग ऐसा था जब कला को शुद्ध कला के रूप में ग्रहण किया गया था। अपने शुद्ध रूप में रीति-कविता न तो राजाओं और सैनिकों को उत्साहित करने का साधन थी, न धार्मिक प्रचार अथवा भक्ति का माध्यम थी, न सामाजिक अथवा राजनीतिक सुधार की परिचारिका थी। काव्य-कला का अपना स्वतन्त्र महत्त्व था-उसकी साधना उसी के अपने निमित्त की जाती थी ; वह अपना साध्य आप थी।“   (1)

हिन्दी में रीति का प्रयोग साधारणत: लक्षण-ग्रन्थों के लिए होता है। जिन ग्रंथों में काव्य के विभिन्न अंगों का लक्षण उदाहरण सहित विवेचन होता है उन्हें रीति-ग्रंथ या लक्षण-ग्रंथ कहते है। जिस वैज्ञानिक पद्धति तथा विधान द्वारा यह विवेचन होता है उसे ‘रीति-शास्त्र’ कहते हैं। रीति-काल के अनेक कवियों ने प्रायः आरम्भ से ही काव्य की रीति, अलंकार-रीति, कविता-रीति आदि का प्रयोग स्पष्ट रूप से इसी अर्थ में किया है।

1 “अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रोति।“                                 देव – ‘शब्द-रसायन’

2 ”काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों, देखी सुनी बहु लोक की बातें।“     दास – ‘काव्यनिर्णय’

3  “कवित-रीति कछु कहत हौं व्यंग्य अर्थ चित लाय।“                      प्रतापसाहि-‘व्यंग्यार्थ-कौमुदी’

मतिराम का काव्य-वैशिष्ट्य

रीतिकालिन कवि मतिराम लक्षणग्रन्थकार है जिसका प्रमाण उनके दो लोकप्रिय ग्रंथ ‘रसराज’ और ‘ललितललाम’ है। जिनमें उन्होंने क्रमश: श्रृंगार रस और अर्थालंकारों का निरूपण किया है। ‘ललितललाम’ में भी अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं, पर उनके यश का आधार ‘रसराज’ में दिए गए उदाहरण हैं। मतिराम ने परंपरा और प्रचलन के प्रभाव में लक्षणग्रंथ बनाए, परंतु इस बात को लेकर सारे विद्वान एकमत हैं कि वे मूलतः अत्यंत सहृदय कवि थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं-

        “इनका सच्चा कवि हृदय था”  तथा मतिराम की भाषा के विषय में वे लिखते हैं-

“अशक्त शब्दों की भरती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं।…..मतिराम की सी रस सन्धिगता और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुकरण करने वालों में बहुत ही कम मिलती है।” (2)

मतिराम ने यूँ तो अनेक विषयों को अपने काव्य में स्थान दिया है। परन्तु उनके नायिका-भेद के रीतिग्रन्थों में गार्हस्थ्य-जीवन के वर्णनों एवं दृश्यों की भरमार मिलती है। कौटुम्बिक मर्यादा और संयम, सामजिक रीति-नीति, पर्व-त्यौहार इत्यादि गार्हस्थ्य -जीवन के विविध रूप हैं जिनका चित्रण उन्होंने अपने काव्य में किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी मतिराम को गार्हस्थ्य का कवि मानते है वे लिखते हैं-

“मूलतः वे गार्हस्थ्य के कवि हैं। मध्यकाल की अनुरागवती गृहवधू का जैसा मार्मिक और वास्तविक चित्रण मतिराम ने किया है। वैसा अन्य कवियों ने नहीं किया।” (3)

मतिराम के काव्य में गार्हस्थ्य चित्रण से पूर्व हमें गार्हस्थ्य के विषय में जानना आवश्यक है। गार्हस्थ्य शब्द का अर्थ है ‘गृहस्थ’ जीवन से संबंधित विज्ञान।‘ यह आश्रम व्यस्था का एक प्रमुख अंग है। आश्रम व्यवस्था प्रमुख रूप से एक वैयक्तिक अवधारणा है। जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी आयु के विभिन्न स्तरों में पृथक-पृथक दायित्वों का निर्वाह करते हुए मोक्ष के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। आयु में परिवर्तन के साथ ही व्यक्ति की योग्यता, कार्यक्षमता, दृष्टिकोण, रूचियों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन होता रहता है।  व्यक्ति के इन विभिन्न गुणों के अनुसार ही हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में उसे कुछ प्रमुख दायित्व सौंपे जाते हैं तथा मनुष्य के जीवन को धर्मानुकूल बनाकर सुव्यवस्थित किया जाता है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम हैं जिसमें गार्हस्थ्य आश्रम सबसे बड़ा आश्रम है तथा यह किसी भी समाज की आधारशिला है। मनुष्य शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर इस आश्रम में प्रवेश करता है। यह आश्रम उसे परिवार, समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्वों के निर्वाहन में सहयोग करती है।

भारतीय संस्कृति में सामजिक और धार्मिक दृष्टि से, पुरुष के लौकिक और पारलौकिक जीवन की सार्थकता विवाह करके घर बसाने में है। परिवार या गृह की रीढ़ नारी है जो घर के अत्याधिक दायित्वों का निर्वाह करती है। पति सहित बच्चों की देख-रेख उसी पर निर्भर है। वह गार्हस्थ्य जीवन की शोभा है तथा उसी के द्वारा घर निर्मित होता है। इस सम्बन्ध में एक उक्ति है-

“बिना गृहिणी के घर अरण्य तुल्य है और गृहिणी से ही घर-घर कहलाता है।”

 

“एक परिवार में पति-पत्नी और उनके बच्चों को सम्मिलित किया जा सकता है,  लेकिन परिवार के अन्तर्वाह्य सम्बन्धों को मर्यादित तथा हृदय के संतुलित विकास और परिष्कार के लिए समाज में संयुक्त परिवार की व्यवस्था की गयी। जो अब दिन-प्रतिदिन आर्थिक संघर्षों के कारण विघटित हो रही है। फिर भी, मध्यकाल तक इसको अत्याधिक महत्व प्राप्त था, क्योंकि बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह का पहला पाठ मनुष्य परिवार में ही सीखता है। मनुष्य की आत्मनिष्ठ प्रवृतियों को व्यापक और सामाजिक बनाने का कार्य परिवार में ही आरम्भ होता है।” (4)

मतिराम ने भी अपने काव्य में स्वकीया और परकीया दोनों नायिकाओं के माध्यम से गार्हस्थ्य जीवन का चित्रण किया है। इसमें स्वकीया तो घर आँगन में ही मर्यादा और शील-संयम का अनुपालन करती है। लेकिन परकीया को परिवार के अतिरिक्त, सामाजिक आदर्शों का भी सामना करना पड़ता है। पग-पग पर उन्हें इन बाधाओं को पार करना पड़ता है। मध्यकालीन समाज में स्वकीया के माध्यम से पतिव्रता पत्नी के गुणों की चर्चा कवि सुन्दरदास अपने पद्य में इस प्रकार करते हैं-

“पति ही सूं प्रेम होय, पति ही सूं नेम होय,

पति ही सूं छेम होय , पति ही सूं रात है.

पति ही यज्ञ जोग, पति ही है रस भोग,

पति ही सू मिटे सोग, पति ही को जात है..

पति ही है ज्ञान ध्यान, पति ही है पुण्य दान ,

पति ही है तीर्थ ,न्हान,पति ही को मत.

पति बिनु पति नाहिं, पति बेनु गति नाहि,

सुंदर सकल विधि एक पतिव्रत है..”

“रीतिकवियों ने स्वकीया और परकीया नायिकाओं के निरूपण पारिवारिक मर्यादा और संयम की सीमाओं में किए हैं। चाहे पति-पत्नी का प्रेम हो अथवा पर-पुरुष और पर-नारी का प्रेम हो- दोनों के मार्ग में कौटुम्बिक मर्यादाएँ प्रतिबंधों के रूप में उपस्थित होती हैं। सास, ननद, जेठ, जेठानी, आदि के सम्मुख पति-पत्नी अपने प्रेम को प्रकट नहीं कर सकते।” (5)

स्वकीया के माध्यम से गार्हस्थ्य का चित्रण-

कुटुम्भ मर्यादा का पालन गार्हस्थ्य में सबसे अधिक आवश्यक है। भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की परंपरा रही है। लज्जा स्त्री का सबसे मूल्यवान आभूषण माना जाता है। परिवार जनों के बीच पति-पत्नी के मर्यादित प्रेम का चित्रण मतिराम के काव्य में खूब देखने को मिलता है।

जैसे हम यहाँ देख सकते है किस प्रकार नायक रात्रि की रति-क्रीड़ा से अतृप्त होकर दिन में मिलने का एक उपाय सोचता है। उसका प्यास लगने के बहाने नायिका से पानी मँगवाना तथा सूझबूझ वाली नायिका का नायक के मन्तव्य को समझकर चतुरता से काम लेते हुए देहरी पर पानी रखकर लौट जाना संयुक्त परिवार में रहने वाले दंपति का केली क्रीड़ाओं के उपरांत स्त्री का परिवार जनों के समक्ष आने वाली झिझकती है। यहाँ स्त्री मर्यादा का अनुपालन करती है, इसलिए वह नायक के मंतव्य को समझते हुए भी कमरे के भीतर प्रवेश नहीं करती है।

“केलि की राति अघाने नहीं, दिनँ मैं लला पुनि घात लगाई।

प्यास लगी कोउ पानी दै जाउ, यों भीतर बैठि कै बात सुनाई॥

जेठी पठाई गई दुलही, हँसि हेरि हिये ‘मतिराम बुलाई।

कान्ह के बोल पै कान न दीन्हों, सु गेह की देहरी पै धरि आई॥”

उपर्युक्त सवैये में तीन बातें पारिवारिक मर्यादा एवं परिवेश को स्पष्ट कर रही है-

नायक का पत्नी से सीधे जल न माँगना, जेठानी द्वारा नायक का अभिप्राय समझकर दुलहीन को ही जल लेकर भेजना और नायिका का पानी का पात्र देहरी पर रखकर पुनः अपने स्थान पर लौट आना।

मतिराम मर्यादा के कवि है। अपनी बात को वह इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि उसमें कहीं भी अश्लीलता का भाव नहीं आता। ‘गौने के द्यौस’ पद्य में वह सखियों द्वारा पतिमिलन पर किए जाने वाले भाव को परिहास के माध्यम से बड़ी सहजता से प्रस्तुत करते हैं। भाषा की समझ और भाव को प्रस्तुत करने की कला मतिराम में बेमिसाल है।

जैसे प्रस्तुत पद की तीसरी पंक्ति में नायिका की सखी परिहास करते हुए, उसे बिछुआ पहनाते हुए कहती है की यह सदा तुम्हारे प्रियतम के समीप बजता रहें। यहाँ मतिराम ने अपने काव्य कौशल के माध्यम से पति-पत्नी के केली-क्रीड़ाओं संबधित भाव को परिहास द्वारा सहजता से प्रस्तुत किया है। नायिका सखि की इस छेड़खानी पर उसे प्रेम से मारने को हाथ उठाती है पर लाजवश वह यह नहीं कर पाती।

“गौने के द्यौस सिँगारन को ‘मतिराम’ सहेलिन को गनु आयौ ।

कंचन के बिछवा पहिरावत, प्यारी सखी परिहास बढ़ायौ ।।

‘पीतम स्रौन समीप सदा बजै’ यौं कहि के पहिले पहिरायौं।

कामिनि कौल चलावनि कौं, कर ऊँचो कियौ पै चल्यौ न चलायौ।।“

उनकी भाषा के विषय में नन्दकिशोर नवल लिखते हैं कि-

“रीतिकाव्य की कुछ अपनी रूढ़ियाँ थीं, जिनसे किसी भी कवि के लिए बच सकना संभव नहीं था, तथापि मतिराम ने उन्हीं के बीच अपनी विशिष्टता प्रमाणित कर दी । उनकी विशिष्टता है सरलता और स्वाभाविकता। जहाँ तक आलंकारिक झंकृति की बात है, सानुप्रास शब्द-योजना तो रीतिकाव्य की सामान्य विशेषता बन चुकी थी । इस दृष्टि से मतिराम में भी हमें अनुप्रास की रमणीयता मिलती है, लेकिन वह कवि-कौशल के प्रदर्शन के लिए नहीं आती, प्राय: उनकी कविता को उत्कर्ष प्रदान करने के लिए आती है।” (6)

समाज में स्त्री की दशा से वे भली-भाँति परिचिति थे। स्त्री का किसी अन्य परपुरुष गमन उसके चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाता था। परंतु वह स्त्री जिसका पुरुष अन्य स्त्री के पास होकर आया है वह उसका कुछ नहीं कर सकती। स्त्री की निर्बलता का चित्रण वे अपने गार्हस्थ्य के पदों में करते हैं।  “विलासितापूर्ण उन्मुक्त प्रेम की अभिव्यक्ति तथा नारी के प्रति सामन्तीय दृष्टि के भी इस प्रवृत्ति में गार्हस्थिक प्रेम की व्यापक स्वीकृति देखने को मिलती है। “छोड़ि आपनो भौन तुम, भौन कौन के जात’ अथवा ‘ते धनि जे ब्रजराज लखें, ग्रहकाज करै अरु लाज सँभारे’ (मतिराम) द्वारा स्वकीय-प्रेम की जिस प्रकार स्थापना की गयी है वह सामान्यतः इस प्रवृत्ति के प्रत्येक कवि की रचनाओं में देखने को मिलती है और नायकों की रसिकता अपनी पत्नियों के साथ किये गये उचित-अनुचित प्रेम-व्यवहार से प्रायः बाहर नहीं जा पाती। इसमें सन्देह नहीं कि परकीया और सामान्या प्रेम का वर्णन भी इन लोगों ने किया है, किन्तु ऐसा उन्हें अपने नायक-नायिका-भेद के विवेचन को पूर्ण बनाने के कारण करना पड़ा है।” (7)

नायक और नायिका आषाढ़ की संध्या आंगान में बैठे थे। बातों ही बातों में नायक के मुँह से परस्त्री का नाम निकल जाता है जिसे वह हंसी के माध्यम से छुपाने का प्रयास करता है। नायिका एकनिष्ठ है पति के मुख से परस्त्री का नाम सुन क्रोधवश उसकी भौंह इंद्र के धनुष समान चढ़ जाती है। परन्तु विवशता वश वह कुछ नहीं कर पाती केवल आँख से आँसू की बूँद है जो उसके प्रेममय वातावरण को हंस के सामान उड़ा देती  है। मतिराम को अपने परिवेश की गहरी समझ थी उन्होने मध्यकालीन समाज में स्त्री की विवशता का चित्रण किया है जहाँ नायिका अपने पति के विवाहेत्तर संबंधों को जानते हुए कुछ भी ना कर पाने को विवश थी।

“दोऊ अनंद सों आँगन-माँझ बिराजे असाढ़ की साँझ सोहाई।

प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई।।

आयो उनै मुँह मैं हँसी, कोपि तिया सुरचाप-सी भौंहें चढ़ाई।

आँखिन ते गिरे आँसू के बूंद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाँई।।“

मतिराम स्त्री की मनोदशा को जानने वाले कवि हैं। यहाँ  ऐसी नायिका की बात की गई है जिसका पति परस्त्री गमन करके आया हो और अपनी पत्नी पर अधिकार जमाने का प्रयास करता है। जिसपर पत्नी कहती है- परस्त्री के पास जाकर मेरा मान तो नष्ट कर चुके हो, बेवजह के बहलावे से मेरे हृदय को और आघात मत पहुंचाओ। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो तुम वहाँ रह सकते हो मैं तुम्हें रोकने का प्रयास नहीं करूंगी। यहाँ मतिराम ने गार्हस्थ्य में स्त्री सम्मान का प्रश्न उठाया है की किस प्रकार स्त्री पारिवारिवारिक बंधनों में बांधकर भी अपने मान की रक्षा हेतु जागरूक रहती है।

“कोऊ नहीं बरजै मतिराम रहौ तितही जितही मन भायो ।

काहे को सौं हजार करौ तुमतो कबहूँ अपराध न ठायो ।।

सोवन दीजै न दीजै हमैं दुख याँही कहा रसवाद बढ़ायो ।

मान रह्योई नहीं मनमोहन मानिनी होय सो मानै मनायो”।।

 

“इस श्रृंगारिकता के विषय में दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि इसका स्वरूप प्रायः सर्वत्र ही गार्हस्थिक है। इसका कारण यह है कि रीति-काव्य श्रृंगार भारतीय परम्परा का ही स्वाभाविक विकास है। उस पर बाह्य प्रभाव बहुत कुछ पड़ा ज़रूर, लेकिन उसके मूल तत्त्व सर्वदा भारतीय ही रहे। भारतीय श्रृंगार-परम्परा का इतिहास साक्षी है कि वह पूर्वानुराग, संयोग, प्रवास, करुण, विप्रलम्म सभी दशाओं में अपने गार्हस्थ्य-तत्त्व को बनाए रहा है यहाँ तक कि वन्य जीवन को स्वच्छन्दता में भी उसकी गार्हस्थिकता नष्ट नहीं हुई। इसी परम्परा में होने के कारण रीति-कविता का श्रृंगार दरबारी प्रभाव में रहते हुए भी अपना सहज स्वरूप बनाए रहा। उसमें नागरिकता तो आई परन्तु दरबारी वेश्या-विलास अथवा बाजारी हुस्न-परस्ती की बू नहीं पाई।“  (8)

मतिराम ने अपने काव्य में दाम्पत्य जीवन के विभिन्न चरणों का सहजता से वर्णन किया है। कभी वह एक छली नायक के विषय में बात करते है तो कभी वह एकनिष्ठ स्त्री का वर्णन करते है जो गृह मर्यादा का पालन करती है। यहाँ मतिराम ने एक नई नवेली-वधू का चित्रण किया है। जो किसी नव परिवेश में जाकर अपनी मनोस्थिति को किसी अन्य के समक्ष प्रकट करने से झिझकती है जिसका पति परदेस जाने वाला है। नायिका की सखी उसके पति को नायिका की मनोदशा के विषय में बताते हुए कहती है- जिस दिन से तुमने अपने परदेस जाने की चर्चा की है, उसी दिन से उसने अपने आभूषण और वस्त्रों का परित्याग ही नहीं बल्कि खान-पान भी छोड़ दिया है। अपनी सहेलियों के साथ हँसना-खेलना तो वह भूल ही गई है। नायक ने ऐसे समय में अपने जाने की बात छेड़ी, जब वसंत ऋतु का आगमन हो चुका है तथा चारों ओर प्रेममयी वातावरण है जो नायिका के हृदय को उद्वेलित कर रहा है। उसे अपनी कोई सुध-बुध नहीं है नायिका अपनी विरह स्थिति को परिजनों से छुपाने का यत्न करती है। जब भी कोई उसके दु:ख का कारण पूछता है, तब वह कहती है कि मायके की याद आ रही है।

“जा दिन तें चलिबे की चरचा चलाई तुम।

                    ता दिन तें वाके पियराई तन छाई है।।

 कहै मतिराम छोड़े भूषण बसन पान।

                     सखिन सों खेलनि हँसनि बिसराई है।।

आई ऋतु सुरभि सुहाई प्रीति वाके चित्त।

                     ऐसे में चलो तो लाल रावरी बड़ाई है ।।

 सोवन न रैन दिन रोवत रहित बाल।

                     बूझै तें कहित मायके की सुधि आई है”।।

 

इसी प्रकार प्रस्तुत उदाहरण में संकेतों के माध्यम से गार्हस्थ्य के आनंदित सौंदर्य का चित्रण करते है। जहाँ एक युवती का पति विदेश से आया है। यहाँ नायिका के भीतर उद्वेलित होने वाले अदृश्य आनंद को देखा जा सकता है। नायक का आँगन में परिजनों के साथ बैठना और बार-बार अपनी नजर घर के चारों ओर फिराना। वही दूसरी ओर भवन के भीतर दरवाजे पर खड़ी सुकुमार युवती का आनंद से कंपित हो उठना तथा नायक को बार-बार घूँघट की ओट से ताकना जिसे इस पंक्ति द्वारा सरलता से समझा जा सकता है। ‘घूघट को पट ओट दिए पट ओट किए पिय को मुख देखै’।

“आए बिदेस तें प्रानपिया मतिराम अनंद बढ़ाय अलेखै।

लोगन सों मिलि आँगन बैठि घरी ही घरी सिगरो घर पेखै।।

भीतर भौन के द्वार खड़ी सुकुमारि तिया तनकंप बिसेखै।

घूघट को पट ओट दिए पट ओट किए पिय को मुख देखै।।“

 

“संतान प्राप्ति नारी के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि ‘नारी की पूर्णता मातृत्व में निहित है। संतान के कारण उसके शरीर और व्यक्तित्व में परिष्कार और पूर्णता आती है।“(9) इसके उपरांत भी वह पति-मर्यादा की रक्षा हेतु स्वयं को बाँझ कहलाती है, लेकिन पति की पुरुषत्वहीनता का रहस्य उद्धाटित नहीं करती। कभी-कभी तो जीवन पर्यन्त यह रहस्य-रहस्य ही बना ही रहता है।

“गुरुजन दूजे ब्याह कों, प्रतिदिन कहत रिसाइ।

पति की पति रखे बहू, आपुन बाँझ कहाई”।।

 

रीति कवियों ने घर की सीमाओं के भीतर चलने वाले प्रेम का चित्रण अपने काव्य में किया है। इसी प्रकार मतिराम ने अपने काव्य में नायिका का घर की सीमाओं के भीतर रहते हुए भी अपने देवर के प्रति आकर्षण के भाव को दिखाया है। यहाँ एक ओर स्वकीया कुल-प्रतिष्ठा की संरक्षिका होती है परंतु दूसरी ओर उसके भीतर रहता स्त्री मन उसे परपुरुष की और आकर्षित करता है।

“है यह गाँव गुलाब बर पुर ठाकुर के गेह।

चलो न आवति बास है जो देवर की देह”।।

रीतिकवियों ने नायक द्वारा चातुर्य पूर्ण ढंग से एक ही साथ दोनों नायिकाओं को संतुष्ट करने के भी आकर्षण उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। यहाँ मतिराम का नायक एक ओर पहली नायिका की वेणी गूंथकर और दूसरी नायिका के  कपोलों को चूम कर प्रेम प्रकट कर रहा है।

“बेनी गूँथत एक की नंदलाल चित्त लोल।

चूमत प्यारी के मधुर बिहँसत गोल कपोल”।।

परकीया के माध्यम से गार्हस्थ्य का चित्रण –

भारतीय समाज में परकीया प्रेम को आज भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है। यहाँ लोग राधा-कृष्ण की पूजा एकसाथ अवश्य करते है परंतु उनके प्रेम के आलौकिक रूप को ही स्वीकार करते है तथा उनका जीवन या यथार्थ से सम्बन्ध नहीं मानते है। समाज संचालन हेतू एक व्यवस्था की आवश्यकता होती है इसलिए विवाह रूपी व्यवस्था का निर्माण किया गया है। स्त्री का अपने पति के प्रति प्रेम समाज स्वीकार्य है परंतु स्त्री किसी परपुरुष से प्रेम करे तो वह समाज स्वीकार्य आज भी नहीं है। ऐसा करना समाज में स्त्री के चरित्र पर प्रश्न चिह्न लगता है। जब आज के आधुनिक समय में भी हम परकीया प्रेम को स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं तो रीतिकाल जो आज से 200-300 साल पूर्व रहा है वहाँ परकीया प्रेम के प्रति समाज के सकारात्मक दृष्टिकोण को कैसे सोच सकते हैं?

 “मातृवत् परदारेषु’ समझने वाले इस देश में परकीया प्रेम को, चाहे वह कितना ही उत्कृष्ट एवं तीव्र हो, कभी भी मान्यता नहीं दी गयी। साहित्य-शास्त्र के निर्माताओं ने इस तरह के प्रेम-वर्णन श्रृंगाराभास के अन्तर्गत माना।”   (10)

भारतीय जीवन में अनेक प्रकार के धार्मिक विश्वास प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए सुघर या मनवांक्षित पति की प्राप्ति हेतु गौरी की पूजा-अर्चना का रीतिकवियों ने प्रचुर वर्णन किया हैं। मतिराम एक अनूढ़ा परकीया नायिका गौरी से मनवांछित पति पाने के लिए इस प्रकार विनती करती है-

“गोप सुता कहै गौरि गुसांइनि पायं परी बिनती सुनि लीजै ।

दीन दयानिधि दासी के ऊपर नैक सुचित दयारस भीजै ।।

देहि जो ब्याहि उछाल सों माहनै मात पिताहू को सो मन कीजै ।

सुन्दर सांवरो नन्दकुमार बस उर जो वह सो वर दीजै” ॥

मतिराम ने अपने काव्य में कृष्ण को प्रतीक के रूप में दर्शाया है, जो उनके काव्य का नायक जो कहीं पति के रूप में प्रस्तुत है तो कहीं प्रेमी के रूप में। यहाँ एक ऐसी नायिका का चित्रण है, जो विवाहिता है परंतु उसकी रुचि कृष्ण में है स्वभावतः जब उसे एक संदेशवाहक से यह पता चलता है कि उसका पति दूसरा विवाह करने को इच्छुक है, तो वह मन ही मन प्रसन्न होती है और सुरक्षा का अनुभव करती है। वह इस प्रकार का स्वांग रचती है जैसे इस समाचार से उसका मन बहुत आहत हुआ हो। जबकि वास्तव में वह अपनी दुःख के बहाने अपने सुख को छिपाने का यत्न करती है।

“मोहन तें कछु द्योसन में मतिराम बढ़यो अनुराग सुहायो ।

बैठी हुती तिय मायके में ससुरारि को काहू सँदेसो सुनायो ।

नाह के ब्याह की चाह सुनी हिय माँहि उछाह छबीली के छायो ।

पौढ़ि रही पट ओढ़ि अटा दुख को मिस कै सुख बाल छिपायो” ।।

 

मतिराम स्त्रियों की सारी लीलाओं से परिचिति थे अन्यथा वह इस छंद की रचना नहीं कर पाते। परकीया आगतपतिका मायके से ब्राह्मण का आगमन सुनकर, उसे नायक का कुशल-क्षेम पूछने के बहाने एकांत में ले जाती है।

 

“सुन्यो मायके तें बहै आयो बाह्मनु कंत ।

कुसल बुझिने के लिये लीनों बोलि इकंत”॥

प्रवरस्यप्रेयसी नायिका प्रियतम का विदेश-गमन रोकने के लिए कभी-कभी अमंगल सूचक प्रतीकों का भी प्रयोग करतीं है। एक परकीया नायिका अमंगल-प्रतीक के रूप में खाली घड़े का प्रयोग करके  नायक के मार्ग में खड़ी हो जाती है। जिससे उसके प्रियतम का गमन स्थगित हो जाय।

“नागरी नेवेली रूप आगरी अकेली रीति

गागरी ले ठाढ़ी भई बाट ही के घाट में”॥

“यह श्रृंगार उपभोग-प्रधान एवं गार्हस्थिक है जो एक ओर बाज़ारी या दरबारी वेश्या-विलास से भिन्न है, दूसरी ओर रोमानी प्रेम की साहसिकता अथवा आदर्शवादी बलिदान-भावना भी प्रायः उसमें नहीं मिलती।“(11)

रीतिकालीन रीतिकवियों के बीच मतिराम का सदैव अपना ही एक विशिष्ट स्थान रहा है। रीतिकाल पर अनेक विद्वानों के अपने-अपने मत है। रीति कवियों ने अपने काव्य में गार्हस्थ्य जीवन को दर्शाते हुए विभिन्न नायिकाओं का चित्रण किया है। जहाँ उन्होने लोक-लाज, मान-मर्यादा से परे अश्लीलता के भाव को अधिक उद्घाटित किया है। वही मतिराम के काव्य को देखे तो उन्होने स्वकिया और परकीया नायिकाओं के मनोभाव को स्पष्ट रूप में समाज़ के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है साथ ही उनके काव्य में गार्हस्थ्य जीवन के विभिन्न पक्षों को देखा जा सकता है। जहाँ एक ओर नायिका पति के प्रेम में विलीन है परंतु वह पारिवारिक सीमाओं में रहकर अपने प्रेम को प्रकट करने में असमर्थ है। तो वहीं नायक के परस्त्री से संबंध रखने पर भी नायिका अपनी पीड़ा को सबके समक्ष नहीं रख पाती। मतिराम मर्यादित सौंदर्य के कवि है जो अपने काव्य में बिना अश्लीलता के नायिका के सम्पूर्ण गार्हस्थ्य को संकेतों के माध्यम से  स्थान देते है साथ ही नायक के मंतव्य को जैसे का तैसा प्रस्तुत करते है। भावों की सहजाभिव्यक्ति उनके काव्य का प्रमुख गुण है। भाषा के ही समान मतिराम के काव्य मे न तो भावों की  कृत्रिमता हैं न ही व्यंजक व्यापार चेष्टाएँ। इनके भावव्यंजक व्यापारों की श्रृंखला स्पष्ट और सहज है। भारतीय जीवन से छाँटकर उन्होने मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव प्रस्तुत किए है वह समान रूप से सभी की अनुभूति के अंग हैं उनका चित्रण मतिराम ने अपने काव्य में अनोखे ढंग से किया है।

संदर्भ ग्रंथ सूचि–

1  रीतिकाव्य की भूमिका- डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ स. 242

2  हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचन्द्र शुक्ल

3 मध्यकालीन बोध का स्वरूप- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

4 रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना – बच्चन सिंह, पृष्ठ स. 333

5   रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना – बच्चन सिंह, पृष्ठ स. 334

6  रीतिकाव्य –नंदकिशोर नवल,  पृष्ठ स. 15

7  मध्यकालीन काव्य चिंतन- डॉ. विनोद कुमार मिश्र, पृष्ठ स. 16

8  रीतिकाव्य की भूमिका – डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ स. 169

9  रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना-बच्चन सिंह, पृष्ठ स .-  320

10  रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना-बच्चन सिंह, पृष्ठ स.-  332

11  रीतिकाव्य की भूमिका- डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ स.172

आधार ग्रंथ  – 

रीतिकाव्य की भूमिका – डॉ. नगेन्द्र,

हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना – बच्चन सिंह

मध्यकालीन काव्य चिंतन – डॉ. विनोद कुमार मिश्र

रीतिकाव्य – नन्दकिशोर नवल

मध्यकालीन बोध का स्वरूप- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

सौन्दर्य दृष्टि का दार्शनिक आधार – मुकेश गर्ग

निबंधों की दुनिया – डॉ. रामविलास शर्मा

रीतिकालीन कलाएँ और युग जीवन – डॉ. जनेश्वर प्रसाद

रीतिकाव्य के विविध आयाम – डॉ. सुधींद्र कुमार

ललिता शर्मा
शोधार्थी
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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