‘भ्रमरगीत शब्द ‘भ्रमर’ और ‘गीत’ दो शब्दों से मिलकर बना है भ्रमर काले रंग का उड़ने वाला जन्तु होता है जिसे मधुप, मधुकर, अलि आदि विविध नामों से पुकारा जाता है दूसरा शब्द ‘गीत’ है जिसका समान्य अर्थ ‘गाना’ होता है इस प्रकार ‘भ्रमर गीत’ का शाब्दिक अर्थ ‘भौंरे का गीत अथवा भ्रमर से संबंधित गीत हुआ।’

‘डाॅ. सत्येन्द्र ने ‘भ्रमर’ शब्द का प्रयोग ‘भ्रम में पड़े हुए’ के अर्थ में किया इस दृष्टि से कृष्ण भ्रम में  डालने वाले भ्रमर थे तो उद्धव भ्रम में पड़े हुए भ्रमर थे, लोक गीतों में  यही भ्रमर शब्द ‘भँवर’ बन गया, जो पति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ वस्तुतः कृष्ण गोपिकाओं के पति ही थे इस आधर पर ‘भ्रमर गीत’ का अर्थ, लगाया जा सकता है पति को लक्ष्य कर लिखा गया है।’

पंडित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- ‘‘सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमर गीत है जिसमें गोपियों की वचन वक्रता अत्यन्त मनोहारिणी है ऐसा सुन्दर उपालंभ काव्य और कही नहीं मिलता।’’

‘गोपियाँ भ्रम के सहारे कभी कृष्ण पर व्यंग्य करती हैं और कभी भ्रमर पर इसके पश्चात गोपियों से उद्धव का जो संवाद विवाद चला उसमें लोक मानस, ऋषिमानस, भक्त मानस का समन्वय व्यंजित हुआ है।’

‘काव्य शास्त्र की दृष्टि से भ्रमर गीत का सम्बन्ध विप्रलम्भ शृंगार से हैं यह उपालम्भ-काव्य है जिसमें गोपियों ने भ्रमर के ब्याज से उद्धव और उद्धव के ब्याज से कृष्ण पर व्यंग्य किए हैं।’

इस तरह भ्रमर गीत को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है प्रथम व्यंग्य प्रधान द्वितीय उपालंभ प्रधान प्रथम कोटि की रचनाओं का संबंध उद्धव से हैं, इसमें भ्रमर के ब्याज से उद्धव और उनके ज्ञानोपदेश एवं निर्गुण ब्रह्मोपासना पर व्यंग्य किया गया, उपालम्भ पूर्ण रचनाएँ कृष्ण से संबंधित है, इनमें उद्धव के ब्याज से कृष्ण की स्वार्थ सेवी मनोवृत्ति को आभार मानकर उन्हें उपालम्भ दिया गया इस प्रकार भ्रमर गीत का मूल उद्देश्य ज्ञान पर प्रेम की मस्तिष्क पर हृदय की विजय दिखाकर, सगुण ब्रह्म की भक्ति भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन है।

‘भ्रमरगीत की इस परम्परा का अध्ययन करते हुए डाॅ. हरवंशलाल शर्मा ने अभिज्ञान शाकुन्तलम में राजा दुष्यन्त की पहली रानी हंसपादिका द्वारा शकुन्तला के प्रेम में डूबे हुए दुष्यन्त को जो उपालम्भ भ्रमर को सम्बोधित करके दिखलाया गया है उसे प्रथम भ्रमर गीत घोषित किया गया है।’

‘भ्रमर गीत परम्परा का मूल श्रीमद्भागवत है भागवत के दशम स्कन्ध के 46-47 अध्यायों के अनुसार भ्रमर गीत की कथा का आधार यह है-’

46वें अध्याय में उद्धव की ब्रजयात्रा, नन्द यशोदा से वार्तालाप तथा 47 वे अध्याय में गोपी-उद्धव संवाद का वर्णन किया है कृष्ण गोपियों को छोड़कर मथुरा चले जाते हैं अतः गोपियाँ विरहाग्नि में जलने लगती हैं। कृष्ण गोपियों के दुःख को दूर करने के लिए उद्धव को दूत बनाकर ब्रज भेजते हैं किन्तु अब गोपियाँ उद्धव से निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना का सन्देश सुनती है। अत्यधिक भावावेश के कारण कुछ भी कहने में असमर्थ हो जाती हैं। इसी समय एक भौंरा गोपीयों के चरणों के पास आकर गुनगुनाने लगता है। गोपियों को ऐसा लगता है कि वह कृष्ण के द्वारा भेजा गया दूत है, जो उन्हें मनाने का प्रयत्न कर रहा है यह देखकर उनकी विरह-व्यथा अधिक बढ़ जाती है वह भ्रमर में उद्धव का साम्य देखकर उद्धव को प्रत्यक्ष रूप में उपालम्भ देने लगती है भागवत का यह प्रसंग ही भ्रमरगीत परम्परा की आधारभूत कथा है।

आदिकाल में विद्यापति में विप्रलम्भ  शृंगार विषयक पदों में कुछ ऐसे पद भी उपलब्ध है जो भ्रमर गीत परम्परा के दृष्टिकोण से विचारणीय है।

‘कत दिन माथव रहब मथुरपुर द्यूचव विहि बाम।

दिवस लिखी लिखी नखा खो आयनु बिछुरत गोगुल नाम।।’

अध्ययन की सुविध के लिए इसे हम निम्नांकित तीन कालों में विभक्त कर सकते हैं।

भक्तिकाल में भ्रमर गीत परम्परा के दर्शन हमें सगुण भक्ति की कृष्ण-भक्ति शाखा में सूरदास, नंददास, परमानंददास रामभक्ति शाखा में तुलसी की कृष्ण गीतावली में कुछ पद मिलते हैं।

सूरदास- ‘भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है।’

भ्रमरगीत परम्परा को व्यापक, व्यवस्थित एवं कलात्मक रूप देने का श्रेय सूरदास को है। सूरदास ने भागवत के 46वें -47वें स्कन्द को शैली व मौलिकता से उसे अत्यधिक प्रभावशाली बना दिया। सूर ने सूरसागर में तीन (भ्रमर गीतों) की रचना की है। प्रथम भ्रमर गीत में कवि ने भागवत के भ्रमरगीत को अपने रूप में प्रस्तुत किया है किन्तु उसमें ज्ञान, वैराग्य की चर्चा होते हुए भी अन्त में भक्ति की विजय दिखाई है। भ्रमरगीत चैपाई छंद में है। दूसरा भ्रमरगीत केवल एक पद में मिलता है जिसमें गोपियों को उद्धव का उपदेश, गोपियाँ का उपालंभ उद्धव को मथुरा लौटकर कृष्ण के सम्मुख गोपियों का विरह वर्णन, कृष्ण का मूच्र्छित होना आदि वर्णन है जो सूर सागर को एक अंश है तीसरा भ्रमरगीत विस्तृत है उसमें उद्धव-गोपी-संवाद के अंतर्गत भ्रमर का आगमन होता है जिसके माध्यम से गोपियाँ उद्धव एवं कृष्ण के ऊपर व्यंग्य करती है।

जब उद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते तब गोपियाँ बीच में रोक कर इस प्रकार पूछती है-

‘निर्गुन कौन देस का वासी’ –

और कहती है कि चारों और उपस्थित इस सगुणसत्ता का निषेध करके तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर क्यों बात बना रहे हो।

‘सुनिहै कथा कौन निर्गुन की रचि पचि बात बनावत।

सगुन सुमेरू प्रकट देखियत तुम तृन की ओट दुरावत।’

इस प्रकार से कहा जा सकता है सूरदास जी सगुण शाखा की भक्ति को निर्गुणशाखा की भक्ति से ज्यादा महत्व देते हैं।

डाॅ. मुंशी राम का मत है- ‘भ्रमरगीत योग के ऊपर प्रेम की ज्ञान के ऊपर भक्ति की और निर्गुण के ऊपर सगुण की जीत का काव्य है।’

परमानंद दासः- अष्टछाप कवियों में सूरदास के पश्चात् परमानन्ददास का रचना बाहुल्य एवं काव्य सौष्ठव की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है।

‘परमान्ददास के पदों में भ्रमरगीत सम्बन्धी अनेक पद है डाॅ. दीनदयाल गुप्त एवं सुश्री सरला शुक्ला ने अपनी रचनाओं में इन्हें उद्धृत किया है’

‘रैनि पपीहा बोल्यो री माई।

नींद गई चिन्ता चित्त बाढ़ी स्याम की आई।’

तुलसीदासः- गोस्वामी तुलसीदास की श्रीकृष्ण गीतावली में कृष्ण चरित का वर्णन है भ्रमरगीत प्रसंग पर भी कुछ पद पाए गए है। 21वें पद से ही गोपी विरह वर्णन प्रारम्भ हो जाता है उद्धव का वर्णन 33वें पद से प्राप्त होता है, उद्धव के संदेश की असफलता का संकेत मात्र पद 59 में मिलता है।

‘गोपियों के विरह प्रसंग में कवि की दृष्टि प्रेम की अलौकिकता की ओर उन्मुख हुई ज्ञान मूक उद्धव के समक्ष ज्ञान के खंडन के सन्दर्भ में कवि ने ‘मधुप’ मधुकर आदि सम्बोधन के साथ भक्ति के स्वरूप को स्पष्ट किया है।’

गोपियाँ अवधि आशा से उनकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी किन्तु कृष्ण न आए उध्र गोपियाँ विरह व्यथा से कराहने लगी ब्रज से दूर मथुरा में बसने वाले मनमोहन प्रतिक्षण उनके नेत्रों में ही झूलने लगें-

‘लागियै रहति नयननि आगै तै

न हरति मोहन मूरति’

सेनापति- कवित्त रत्नाकर में भ्रमरगीत सम्बंधी कुछ कवित्तों की भी रचना की है कुब्जा से अपनी तुलना करती हुए एक स्थान पर गोपियाँ कहती है-

‘कुबिजा उर लगाई हमहूँ उर लगाई

पी रहे दुहू तन मन वारि दीने हैं।’

अक्षर अनन्य- प्रेम दीपिका में उद्धव का मुखर रूप दिखाई पड़ता है गोपियों के प्रेम से प्रभावित उद्धव जब, ब्रज विरह का वर्णन करने लगे तब उनके भ्रमकों को श्री कृष्ण ने दूर किया।

        ‘यो कहि उधव कौ भरम दूर कीन्ह हरिगई

        ग्यान भक्त को गर्व गढ़ ढाहों ब्रजहि पढ़ाइ’

आलम तथा शेखः- रीतिकाल तक आते-आते सैद्धान्तिक अंश प्रायः पीछे छूट गया था। अतः आलम ने भी निर्गुण सगुण के विवाद की अपेक्षा साध्ना पक्ष योग संदेश का ही विशेष उल्लेख किया गोपियों की अभिलाषा के विपरीत यह योग-सन्देश उन्हें क्यों आग्रह है इसका वर्णन शेख ने सुुन्दरता से किया।

‘चाहती सिंगार तिन्हें सिंगी सों सगाई कहाः

औधि की है त्रास तौ अधरी कैसे गहिये।’

भक्तिभावना से पूर्ण भ्रमरगीत रीतिकाल के श्रृंगारिक वातावरण में अलौकिकता अक्षुण्ण नहीं रह पाया। अतः रीतिकाल की सामाजिक राजनैतिक धर्मिक परिस्थितियों के परिवेश में भ्रमरगीत परम्परा का स्वरूप बदलने लगा जिसके कारण उसमें दार्शनिकता समाप्त हो गई।

मतिरामः मतिराम की गोपियों का समस्त रोष कृष्ण पर ही है अतः उद्धव के प्रति सहानुभूति हावी है वे उद्धव की परिस्थिति को समझकर ही कहती है-

        ‘मथुर जोग बिष उगलिए, कहु न तिहारौ रोष’

घनानंद- विरह की पीड़ा न समझने के कारण एक अन्य गोपी उन्हें भ्रमर सदृश बताती है।

        ‘कहा जानौं कितहूँ कसक है कि नाही तुम्हें

        भौंर से भुलाने देखियत ठौर-ठौर के’

आधुनिक काल

भ्रमरगीत का आधुनिक प्रसंग भी मानव हृदय को उसी प्रकार रस मग्न करता रहा है राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों के कारण मनुष्य का दृष्टि कोण बदल रहा था इस परिवर्तित दृष्टिकोण का प्रभाव आधुनिक भ्रमर काव्य पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्रः- भ्रमरगीत प्रसंग में रस के लोभी भ्रमर पर अविश्वास करते हुए कृष्ण पर अप्रत्यक्ष रूप से व्यंग्य किया है।

        ‘भौरा रे रस के लोभी तेरो का फरमान

        तू रस मस्त फिरत फूलन परकटि अपने मुख गान।’

सत्यनारायण कविरत्नः- इन्होंने भ्रमरदूत में नई मौलिकता दी है भ्रमरदूत का भ्रमर स्वयं कृष्ण है जो माँ के दुख को सुनने के लिए भागकर आ गए।

‘बिलपति कलपति अति जबै लखि जननी निज श्याम

भगत भगत आये तबै, भाये मन अभिराम’

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ प्रियप्रवास में कुब्जा का उल्लेख ही नहीं है प्रियप्रवास के गोपियों से प्रेम करने वाले कृष्ण देश कल्याण के लिए ही सुख का त्याग करते हैं भ्रमर प्रवेश का उल्लेख प्रियप्रवास में रसलोलुप कृष्ण का प्रतीक नहीं है वरन् उसे देखकर गोपियों को श्यामली मूर्ति की स्मृति हो जाती है।

जगन्नाथदास रत्नाकरः- इन्होंने भी मौलिकता प्रदान करने की कोशिश की है यहाँ पर योग सन्देश के मूल में कुब्जा को ही जानकर कुब्जा, कृष्ण तथा उद्धव पर भी व्यंग्य करती है।

‘वे तो भए जोगी पाइ कूबरी कौ जोग

आप कहें उनके गुरु हैं किधें चेला है।’

इसके अतिरिक्त इसी परम्परा में मैथलीशरण गुप्त का द्वापर, द्वारिका प्रसाद मिश्र का कृष्णायन और डाॅ. श्याम सुन्दरलाल दीक्षित का श्याम-सन्देश आदि का उल्लेख मिलता है।

नंददास का भँवरगीतः- ‘गोस्वामी बिट्ठलनाथ के शिष्यों में नंददास प्रमुख है। इनकी कई पुस्तकें प्राप्त होती है जिसमें रासपंचाध्यायी, सिद्धांतपंचाध्यायी, अनेकार्थमंजरी, रूपमंजरी, भँवरगीत, गोवर्द्धनलीला, सुदामाचरित्र।’

भँवरगीतः- ‘नंददास का भँवरगीत का आधार भी सूरदास की भाँति भागवत का दशम स्कंध ही है भँवर-गीत को दो भागों में विभाजित किया जा सकता पहले भाग में गोपी उद्धव संवाद है दूसरे भाग में श्री कृष्ण विरह से व्यथित गोपियों का चित्रण है।’

नन्ददास ने करीब 75 छंदों में भँवरगीत की रचना की। 1 से 28 दार्शनिक वाद-विवाद के बाद 29 वे छन्द में उद्धव गोपियों को कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराते हैं 30 से 44 तक गोपियों के करूण निवेदन का चित्रण है 54वें छन्द में भ्रमर का प्रवेश होता है उसके बाद उपालंभ का क्रम चलता है जिसकी समाप्ति 59वें छंद में होती है। 61 से 69 तक उद्धव के अन्तद्र्वन्द्व तथा मत परिवर्तन को दिखाया गया है। 70-74 तक श्री कृष्ण- उद्धव संवाद है 75 वें छन्द में कृष्ण रूप दर्शन के साथ काव्य का अन्त किया गया है।

‘भँवरगीत नन्ददास के परिपक्व दर्शन ज्ञान विवेक बुद्धि, तार्किक शैली और कृष्ण भक्ति का परिचायक काव्य है इस रचना का मूल उद्देश्य निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना का खंडन करते हुए सगुण साकार कृष्ण की भक्ति की स्थापना करना है।’

भँवरगीत का दार्शनिक पक्षः- ‘सम्प्रदाय और दर्शन की दृष्टि से भँवरगीत बल्लभ-सम्प्रदाय के शुद्धाद्वैत दर्शन का पोषक ग्रंथ है।’

नंददास ने ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग निर्गुण और सगुण के स्वरूप-विश्लेषण में मनोयोग पूर्वक प्रवृत होते हैं।

ब्रह्म- सम्पूर्ण भँवरगीत में नाना माध्यमों से यही आवाज निकलती है कि वास्तविक वस्तु तो सगुण है जो समस्त दृश्यमान जगत में भी विद्यमान है।

‘निर्गुण न भए अतीत के सगुन सकल जगमाँहि’

        माया- नंददास की दृष्टि जिस प्रकार बादल से आने वाला जल पहले परम स्वच्छ रहता है उसी प्रकार ब्रह्म से निर्गत जीव परम शुद्ध रहता है।

                ‘वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच

                गुन ते गुन न्यारे भये अमल वारि मिलि कीच’

भँवरगीत में शुद्धाद्वैत दर्शनः- पुष्टिमार्ग में तन्मयतापूर्ण प्रेमासक्ति को भगवद्भक्ति का आदर्श माना गया है। ज्ञान गर्व को त्याग प्रेमी भक्त बनने पर उद्धव कृष्ण के नित्य सान्निध्य की कामना से ब्रज में तरू तृण लता होने की इच्छा करने लगते हैं-

        ‘कै हवै रहौ द्रुम गुल्म लता बेली बन मांही

        आवत जात सुभाय परै मों पै परछाँही।’

भँवरगीत में भाव सौन्दर्यः- दार्शनिक ऊहापोह के और क्रमबद्ध अध्कि होने से कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया है कि इसमें भाव निरूपण नगण्य है। भँवरगीत में भावात्मक स्थलों की कमी नहीं है। नंददास की गोपियों के अनन्य निश्छल एवं एकनिष्ठ प्रेम की प्रतिष्ठा सपफलतापूर्वक की है। वे गोपी हृदय की वेदना को वाणी देने में पूर्ण कृतार्थ हुए है।

‘भँवरगीत’  शृंगाररस के विप्रंलभ  शृंगार का एक मनोरम काव्य है। गोपियाँ भी ‘रूप शील, लावन्य सवै गुन आगही और प्रेमपुंज रसरूपनि।’

आरम्भ मंे ही श्याम के सखा को आया देखकर गोपियाँ हर्ष विभोर हो जाती है किन्तु उद्धव से प्रियतम कृष्ण का नाम सुनकर के सुध-बुध भूल जाती है कवि ने रोमाँच अश्रु सात्विक भावों द्वारा इसका चित्र इस प्रकार उपस्थित किया है।

‘सुनत स्याम कौं नाम ‘वाम’ गृह की सुधि भूली।

भरि आँनद रस हृदय प्रेम बेली द्रुम फूली।।

पुलक रोम सब अंग भए भरि आए जल नैन।

कंठ घुटे गद्गद गिरा बोल्यो जात न बैन।।

विवस्था प्रेम की।।’

उद्धव- अभिलाषा में भक्तवर नंददास की हृदय ही बोल उठा ब्रज की धूलि बनने का मुनि-दुलर्भ अवसर यदि मिल सके तो मैं कृत्य-कृत्य हो जाऊँगा-

        ‘अब है रहौ ब्रजभूमि को मारग में की ध्ूरि

        विचरत पग यौं पर धरे सब सुख जीवन मूरि’

नंददास कृत भँवरगीत का पूर्वाद्ध दर्शन प्राप्त है तो उत्तार्द्ध भाव प्रधान हैं।

भँवरगीत एक उपालंभ काव्यः- ‘उपालम्भ की उक्तियों से पूर्व भ्रमर-प्रदेश नन्ददास की मौलिक कल्पना है कृष्ण के प्रति उपालम्भ और भ्रमरगीत उपालम्भ के छंदों में नंददास ने व्यंग्य और कूट वचनों का प्रयोग किया है और यह तीखापन भागवत या सूरदास में नहीं।’

प्रिय की निष्ठुरता ही उपालंभ की जननी है नंददास की गोपियों ने कृष्ण की निष्ठुरता को लक्ष्य कर कहा है-

        ‘इनके निरदै रूप मै नाहिन कोऊ चित्र।

        पथ प्यावत प्रानन हरे पुतना बाल चरित्र।।’

गोपियाँ भ्रमर को फटकारती हुई नजर आती है-

        ‘तुमही सों कपटी हुतो नागर नंदकिशोर।’

भँवरगीत का सांस्कृतिक चित्रणः- किसी व्यक्ति जाति राष्ट्र आदि की सब बाते जो उनके मन, रूचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक होती हैं, संस्कृति कहलाती हंै।

बहुपत्नीवाद की प्रथा मुगलकाल से चल रही थी। जिसके कारण प्रेम के स्थापित का महत्व भी कम हो गया था। नंददास की गोपियों के इस कथन में-

        ‘हमको पिय तुम एक हौ तुमको हम सी कोरि।

        बहुत पाइ कै राबरै, प्रीति न डारौ तोरि।।’

भँवरगीत का शिल्प विधानः- काव्यरूप ‘भँवरगीत के पद्यबद्ध संवेदात्मक कथा रूप को देख उसे साधरणतः खण्ड काव्य कहा गया है।’

भँवरगीत की शब्द सम्पत्तिः- भँवरगीत इनकी प्रौैढ़ कृति है। तत्सम- भँवरगीत में- ग्राम, ब्रह्म, नासिका, अग्नि अथर।

तद्भव- भँवरगीत में- औसर, मुरली कान्हा निठुर, जिसके प्रयोग से भँवरगीत की भाव व्यंजना में पात्रा परिस्थिति सापेक्ष सरलता और स्वाभाविकता का संचार हुआ।

मुहावरें और कहावतेंः- 1. प्रेम ठगौरीआय 2. लोभ के नाव

छंद- ‘भँवरगीत रचना मिश्रित छंदों में हुई है इसके प्रत्येक छंद मंे कवि ने पहले एक रोला, फिर एक दोहा और अन्त में दस मात्रा की टेक का वर्णन है। ‘भँवरगीत में उन्हांेने रोला छंद के साथ धु्रवक जोड़कर उसे और संगीतात्मक बना दिया है।’

        अलंकार- पुनरुक्ति प्रकाश- 1. बन बन, दुरि-दुरि,

        उपमा, यमक आदि अलंकार भी पाये जाते हैं।

निष्कर्षः-

इस प्रकार से कहा जा सकता है कि भ्रमरगीत परम्परा अपने भाव वैशिष्ट्य और अभिव्यंजना कौशल के कारण उल्लेखनीय काव्य धारा मानी जाती है सर्वप्रथम महाकवि कालिदास ने दुष्यंत की पहली रानी हंस पदिका द्वारा उपालम्भ देकर साहित्य में एक नवीन परम्परा का बीजवपन किया। इसके पश्चात् हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भम्ररगीत परम्परा केवल भक्तिकाल तक ही सीमित नहीं रही वरन् रीतिकालीन श्रृंगारी कवियों ने भी भ्रमरगीत की उपालम्भ वक्रता और व्यंग्य शैली से प्रभावित होकर उसे अपने काव्य में स्थान दिया आधुनिक युग में भ्रमरगीत परम्परा की प्राचीन परिपाटी  के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना का नवीन भाव भी समाविष्ट हो गया है।

वस्तुतः नन्ददास का भँवरगीत एक क्रमबद्ध पद्य-निबंध के रूप में उपस्थित किया गया है। भँवरगीत में जो बौद्धिक तत्व है उसका भी अपना महत्व है। भँवरगीत में दार्शनिक पक्ष, शुद्धाद्वैत का दर्शन, भाव सौन्दर्य के अन्तर्गत विप्रलम्भ श्रृंगार का वर्णन, उपालंभ काव्य और सांस्कृतिक चित्राण के साथ शिल्प पक्ष में भाषा अलंकार, छंद आदि इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए नंददास का भँवरगीत तुलनात्मक दृष्टि से सूर से कुछ कम नहीं माना जा सकता है यह ठीक है सूर के भ्रमरगीत की जैसी विविधता नहीं हैं। फिर भी कहा जा सकता है कि सूर का भ्रमरगीत यदि पुष्प वाटिका है तो नन्ददास का भँवरगीत चुना हुआ पुष्पगुच्छ। भँवरगीत भक्ति और प्रेम की तर्क संगत विजय स्थापित करने वाली यह अपने प्रकार की एक सुन्दर एवं अनूठी रचना है और भ्रमरगीत-परम्परा में भँवरगीत का महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय स्थान है।

आधर ग्रंथ-

  1. नंददास ग्रंथावली- संम्पादक ब्रजरत्नदास, प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा काशी, पहला संस्करण-2006

सन्दर्भ ग्रंथ सूची –

1.    भ्रमरगीत का काव्य सौन्दर्य- सत्येन्द्र पारीक, सुशील प्रकाशन, अजमेर, प्रथम संस्करण-1969

2.     भक्ति आन्दोलन और सूर का काव्य-मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2003

3.     हिन्दी साहित्य का इतिहास- रामचन्द्र शुक्ल, कोशल पब्लिशिंग हाउस, फैजाबाद, प्रथम संस्करण-2011

4.     नंददास का भँवरगीत, विवेचन और विश्लेषण, डाॅ. स्नेहलता श्रीवास्तव, चैतन्य प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण-1962

5.     हिन्दी के प्राचीन प्रतिनिध् कवि- डाॅ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा, संस्करण द्वितीय-2009

6.     रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत- डाॅ. सुधीन्द्र, विनोद पुस्तक मन्दिर प्रकाशन, आगरा, प्रथम संस्करण-1953

7.     हिन्दी में भ्रमरगीत काव्य और उसकी परम्परा डाॅ. स्नेहलता श्रीवास्तव, भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ़

8.    भ्रमरगीतसार- रामचन्द्र शुक्ल, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2012

9.     भ्रमरगीत और सूर- डाॅ. देवेन्द्रकुमार, प्रकाशक ग्रंथम प्रकाशन, कानपुर संस्करण-1969

10.    हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास- हजारीप्रसाद द्विवेदी, इक्सीवाँ संस्करण-2017, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

11.    कृष्ण-काव्य में भ्रमर गीत- डाॅ. श्यामसुन्दरलाल दीक्षित, विनोद पुस्तक प्रकाशन, आगरा, प्रथम संस्करण 1958

12.    हिन्दी साहित्य का इतिहास- डाॅ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद, संस्करण-1985

13.    भँवरगीत विमर्श- डाॅ. भगवान दास तिवारी, स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-1972

14.   नंददास और उनका भँवरगीत- डाॅ. पूर्णमासी राय, बिहार पब्लिशिंग प्रकाशन, पटना

15.    नन्ददास विचारक, रसिक, कलाकार-रूपनारायण, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-1968

16.    हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास-डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी, ओरियंट ब्लैकस्वाँन प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2011

 

गौरव वर्मा
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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