भूमंडलीकरण की वास्तविक परिभाषा उसके शब्द से ही स्पष्ट होती है। भू अर्थात् पृथ्वी या धरती, मंडलीकरण अर्थात् मंडल में परिवर्तित कर देना। चूंकि भूमंडलीकरण शब्द आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्ध रखता है, अतः पूरे विश्व को मंडल बनाना यहाँ पर व्यापार से सम्बन्धित है। ‘‘भूमंडलीकरण का अर्थ यह नहीं है कि यह सब लोगों के लिए बराबर है। भूमंडलीकरण एक स्वेच्छाकारी प्रक्रिया है, जिसके नियमों का पालन हमें करना होगा और हम सबको उसके पीछे चलना पड़ेगा। ये यह भी तय करेगी कि हमारी स्थितियाँ कैसी होंगी। उन्हें कैसा होना चाहिए।’’ इस प्रकार भूमंडलीकरण का तात्पर्य एक केन्द्रीय व्यवस्था होती है। भूमंडलीकरण वह व्यवस्था है, जिसमें पूंजी राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघकर मुक्त रूप से विचरण करती है और अपने विस्तार के लिए सस्ते श्रम और सस्ते कच्चे माल की तलाश में रहती है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं तथा अमीर देशों के दबाव से राज्यों के नियम-कानून समाप्त किये जाते हैं ओर एक मुक्त बाजार व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाता है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समाकलित किया जाता है।
नई टेक्नाॅलाजी को विश्व-व्यवस्था में शामिल होने के लिए क्षेत्रीय या राष्ट्रीय सीमाओं को लांघना पड़ता है। इसके लिए नई प्रौद्योगिकी का विस्तारवादी स्वभाव बहुत ही उपयोगी साबित हो रहा है – अगर कथित भूमंडलीकरण को नई प्रौद्योगिकी का सहारा नहीं मिलता तो वह राष्ट्रीय सीमायें नहीं लांघ पाता, क्योंकि राष्ट्रवाद से टकराव में यह शायद ही टिक पाता। परन्तु प्रौद्योगिकी बिना आवाज के प्रवेश करती है और उसके साथ ही प्रवेश करती है भूमंडलीकरण की धारणा।
अब प्रौद्योगिकी इस प्रकार की विकसित हुई है, जो किसी एक देश की सीमाओं में नहीं रह सकती, उसका विस्तार ही उसकी व्यापारिक सफलता की कुंजी है। यह किसी प्रकार के नियम कायदे, आर्थिक मान्यतायें यहाँ तक कि सांस्कृ तिक एवं धार्मिक मान्यताओं को भी आधुनिक प्रौद्योगिकी के मार्ग में बनने वाली बाधाओं को नहीं स्वीकार करता। कभी-कभी तो सामाजिक रचना को भी बदलने की आवश्यकता रही है, इसलिए यह नहीं मानना चाहिए कि जब हम नई प्रौद्योगिकी के यह भोगवादी मानसिकता समाज की उप श्रेणियों में बहुसंख्यकों में भी जाग्रत हो रही है जिनके पास विलास की वस्तुओं के लिए साधन नहीं है। संचार साधन इस उपभोक्तावाद का प्रचार कर नयी मानसिकता फैला रहे हैं। समाज इस तरह स्वविवेक निर्देशित या परम्परा निर्देशित न रह कर अन्य निर्देशित होता जा रहा है। उसकी सामूहिकता नष्ट हो रही है। ऐसा समाज न दूसरों की चिंता करता है न उसके दुख दर्द में शामिल होता है। यह प्रवृत्ति निश्चय ही नयी सामाजिक व्याधियों को जन्म देगी। ‘‘भूमंडलीय दुष्प्रभावों को लेकर साहित्य में चिंता व्यक्त की गई है। विशेषकर तीसरी दुनिया के विकसनशील राष्ट्रों के साहित्य में अमीरी गरीबी के बीच बढ़ती खाईं और मनुष्यता के छीजने की पीड़ा गहराई से अभिव्यक्त हुई है।’’ इस प्रकार देखा जाए तो साहित्य में भूमंडलीकरण की परिधि में व्याप्त प्रभावों और उसके कोड में पल रहे विसंगत और पक्षपात युक्त दृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। हिन्दी साहित्य ने विशेष रूप से इसे अभिव्यक्त किया है।
भूमंडलीकरण ने अपने समय में समूचे विश्व को अत्यधिक प्रभावित कि विश्व बाजार में इसी संकल्पना में अपनी छाप छोड़ी थी। हिन्दी कविता ने इसके प्रभाव को सबसे अधिक अभिव्यक्त किया है। भूमंडलीकरण ने अजनीबन को जन्म दिया है। पहचान का संकट उत्पन्न हुआ है इस समय में। ‘यह नम्बर मौजूद नहीं’ कविता में यही भाव स्पष्ट हुआ है-
‘‘जहाँ भी जाता हूँ
जो फोन मिलाता हूँ,
अक्सर एक बेगानी सी आवाज सुनाई देती है,
दिस नम्बर इज नाट एग्जिस्ट,
यह नम्बर मौजूद नहीं है।’’
इससे हमारे सामाजिक चरित्र का हृास हो रहा है। सामाजिक संरचना बुरी तरह से डगमगा गयी है। लक्ष्यों में भ्रष्ट और साधनों में अवसरवादी संगठन की इकाइयों की नियंत्रण शक्ति क्षीण हो गई है। भूमंडलीकरण ने कुछ अच्छे परिणाम भी दिये हैं, पर साथ ही अनियंत्रित लिप्सावाद का प्रसार भी किया है। नया धर्म सूत्र है ‘धनी बनो और जल्दी।’ धन सुख का पर्यायवाची बन गया है। इसका परिणाम हुआ है सामाजिक विषमता में वृद्धि होना। समाज में गैर बराबरी बढ़ रही है, जिससे सामाजिक विकृतियों की बाढ़ सी आ गई है और इसके साथ ही बाजार का बढ़ता दुष्प्रभाव और अधिक दिखने लगा –
‘‘जो भी खुली जगह दिखाई देती है कहीं
कुछ दिनों बाद निकलों वहां से तो पता चलता है
उस जगह भी खुल गयी है कोई दुकान।’’
भूमंडलीकरण के कारण जो संस्कृति फैल रही है उसके फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अन्तर्राष्ट्रीय हों। पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा खाद्य। समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन-स्तर का बढ़ता भव्य आवास चाहिए। इस जीवनशैली में उपभोग के साथ प्रदर्शन और प्रतिस्पर्धा की भावना भी जुड़ी रहती है। जो दूसरे के पास है, हमारे पास उससे अधिक और अच्छा होना चाहिए। संस्कार और त्यौहार प्रतिस्पर्धा के अवसर बन जाते हैं। उनमें इतना खर्च हो और ऐसी चमक हो कि लोग भी याद रखें। ये वे लोग हैं, जो विदेशों में भारतीय और भारत में विदेशी जीवन-शैली और मूल्यों के साथ जीते हैं, उनकी जड़ें भारतीय और भारत में विदेशी जीवन-शैली और मूल्यों के साथ जीते हैं, उनकी जड़ें भारतीय परम्परा में नहीं होती, पर साथ ही उनका पश्चिमीकरण भी बहुत ही सतही स्तर वाला होता है। वे पश्चिम की संस्कृति के बाह्य लक्ष्यों का तो अनुकरण करते हैं, पर गहराई में जाकर उसकी आत्मा से साक्षात्कार करने से कतराते हैं। वे जो हैं उसे न जीना और जो नहीं है उसे जीना, उनकी नियति है। अपनी विभाजित मानसिकता के साथ वे एक अनिश्चित और दिशाहीन प्रवाह से जुड़ जाते हैं। यह प्रवृत्ति उनमें और देश के मान्य जनजीवन में अलगाव उत्पन्न करती है और वे सामाजिक सरोकारों से प्रायः कट जाते हैं। उनका आभिजात्य मध्यम वर्ग को आकर्षित करता है और उसकी छाया निम्न मध्यमवर्ग और नगरोन्मुख निम्न वर्ग पर भी पड़ती है। सीमित क्षेत्र में इन वर्गों में भी अनुकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है। सिनेमा और टीवी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। अब तो डिश एन्टेना और केबल भी छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में पहुँच गये हैं और वहाँ अपसंस्कृति की बौछार कर रहे हैं। अपसंस्कृति और उसकी विकृतियाँ अधिकांशतः समृद्ध वर्ग तक सीमित है, पर उनका विष और धीरे-धीरे लोक-संस्कृतियों की ओर भी फैल रहा है। आज नहीं तो कल स्थिति गंभीर हो सकती है। हमारी संस्कृति अनुकरण की भोगवादी और लिप्सावादी संस्कृति बन गयी है। आर्थिक उदारता, खुलापन और भूमंडलीकरण संसार भर में एक अप-संस्कृति फैला रहे हैं। हम इस प्रवृत्ति के असहाय दर्शक मात्र बन गये हैं। इस अपसंस्कृति का प्रभाव इस प्रकार बढ़ता जा रहा है कि हम अपनी पुरानी स्मृतियों और परम्पराओं को छोड़ते जा रहे हैं। इसकी सुन्दर अभिव्यक्ति किवाड़ कविता में दिखती है-
‘‘ये सिर्फ किवाड़ नहीं है
जब ये हिलते हैं/मां हिल जाती है…
मोटी सांकल की/चार कड़ियों में
एकपूरी उम्र और स्मृतियां/बंधी हुई हैं
जब सांकल बजती है/बहुत कुछ बज जाता है घर में ….
जब ये नहीं होंगे/घर
घर नहीं होगा।’’
बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य का सबसे भयावह पहलू है अपसंस्कृतियों का उदय। इनके प्रभाव से समाज के कुछ विशेषाधिकार प्राप्त अंग सामाजिक सरोकारों से कट जाते हैं और व्यक्ति-केन्द्रित भोगवादी जीवन-दृष्टि से नियंत्रित होने लगते हैं। यह ‘प्ले बाॅय’ और ‘पेन्ट हाउस’ की संस्कृति है, जो शरीर के अनिर्बंध प्रदर्शन में सौंदर्य की खोज करती है। स्वच्छंदता के नाम पर यौन अनुशासन क्षीण होता है। पारिवारिक बंधन इस सीमा तक ढीले होते हैं कि विवाह की संस्था ही अनावश्क हो जाती है। विचित्र व्यंजन, बहुविज्ञापित महंगी मदिराएँ, अन्य मादक पदार्थ वेशभूषा और मेकअप पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है। नित्य नए फैशन जन्म लेते हैं। समृद्धि की झीनी परत के पास इस सुख की प्राप्ति के साधन हैं पर बहुजन समाज उसकी ओर सिर्फ ललचायी निगाहों से देख सकता है। बड़े पैमाने पर उसे ‘लक्ष्य भ्रम’ होता है। समाज दिशाहीन और धुरीहीन हो जाता है। यह अपसंस्कृति अनियंत्रित विकास और छद्म आधुनिकता की देन है, जिनसे समृद्ध और विकासशील देश आज त्रस्त है और सार्थक विकल्पों की तलाश कर रहे हैं।
भूमंडलीकरण के आरम्भिक परिणाम चिंताजन्य हैं। क्या मैडोना और माइकल जैक्सन अपनी तमाम मानसिक विसंगतियों और विकृतियों के साथ नयी आराध्य प्रतिभाओं के रूप में प्रतिष्ठित होंगे। क्या विम्पी, मेक्डोनल्ड और केन्दुकी फ्राइड चिकन की संस्कृति अपने कूड़ा खाद्य से हमारी अभिरूचियों को विकृत और स्वास्थ्य को नष्ट करने के लिए स्वतंत्र होगी। उपभोक्ता समाज नित नयी उपभोग की वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है। जिनका महत्व प्रतिष्ठा चिन्ह के रूप में अधिक और उनकी वास्तविक उपयोगिता के कारण कम होता है। मर्यादाएँ टूट रही हैं और समाज में अराजकता फैल रही है।
अन्तर आक्रोश और अशान्ति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हृास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य भ्रम से भी पीड़ित है। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदण्ड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति केंद्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही है। गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। भूमंडलीकरण जनित संस्कृति हमारी नींव को ही हिला रही है। यह एक बड़ा खतरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।

मनोज चौधरी
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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