‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानी सम्पूर्ण मानव जाति को एक परिवार की तरह देखने-मानने की अवधारणा हमारे आर्ष ग्रंथों में मिलती है। ‘जियो और जीने दो’ का सह अस्तित्ववादी सूत्र विश्व समाज को सूत्र बद्ध करता है। लेकिन इक्कीसवीं शदी में आज हर आदमी अजीब उलझन भरी जिंदगी जी रहा है । वह अपने जीवन को अधिक सुंदर, सुरक्षित व संपन्न बनाने के फेरे में ना जाने कितनी ही बार मरता है । वैश्वीकरण के इस दौर में स्वप्नलोक की काली जंजीरे सर्वत्र उसे घेर रही है । मानव मन में अनंत अभिलाषाएँ  होती है । एक अभिलाषा पूर्ण होते ही दूसरी फन उठाने लगती है बहरहाल भौतिक अभिलाषा इस जीवन में कभी तृप्त नहीं हो सकती है और ना ही वह कभी व्यक्ति के अंतःकरण को सच्ची खुशियां दे सकती है फिर क्यों इन भ्रामक खुशियों के लिए मरा जाए। इस धरा पर अभी तक जितने भी नरसंहार या विनाश हुए हैं उसके मूल में महत्वाकांक्षा ही रही है।  अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अत्यधिक जुनूनी हो जाना महत्वाकांक्षा की श्रेणी में आता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को केवल अपनी ही इच्छा नजर आती है और इसका एकमात्र लक्ष्य किसी भी कीमत पर अपनी इच्छा की पूर्ति करना हो जाता है।  ऐसे में इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए लाशों के ढेर पर से गुजरने से भी परहेज नहीं करते।

 पूंजी के तंत्रिकरण  के लिए यह एक बुरी खबर है कि पैसे से हर खुशी नहीं खरीदी जा सकती। हालांकि पूंजी के तंत्र ने सारे मानवीय पारिवारिक और भावनात्मक संबंधों को नग्न स्वार्थ, विनिमय और धन के संबंधों में बदल दिया है । संपन्न राष्ट्रों की कतार में बैठने की हसरत रखने वाले भारत और चीन जिस गति से अंतरराष्ट्रीय बाजार बाद की गिरफ्त में आए हैं उतने ही वहां के शहरी युवाओं की सतह पर दिखाने वाले प्रशस्न्नता बढ़ी है  क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति पश्चिमी समृद्धि से मिलने वाला दैहिक  आराम चाहता  है। सबको लक्सेस गाड़ी, घर में बिजली, नल में पानी, साफ सुथरा बाथरूम और रेफ्रिजरेटर चाहिए। सभी को अत्याधुनिक तकनीकि सुविधाओं से लैस अपना जीवन चाहिए।

इस लेख में असगर वजाहत की कुछ कहानियों में भूमंडलीकरण के कारण हुए प्रभाव को व्यक्त करने का प्रयास किया जाएगा।  5 जुलाई, 1946 को फतेहपुरउत्तर प्रदेश में जन्मे असग़र वजाहत  प्रथमतः कहानीकार हैं। कहानी के अलावा उन्होंने गद्य साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन किया है ।

इनकी पहली कहानी 1964 के आसपास छपी थी तथा पहला कहानी संग्रह ‘अंधेरे से’ 1976 में आपातकाल के दौरान पंकज बिष्ट के साथ (संयुक्त रूप से) छपा था। इनकी कहानियों के अनुवाद अंग्रेजी, इतालवी, रूसी, फ्रेंच, ईरानी, उज्बेक, हंगेरियन, पोलिश आदि भाषाओं में हो चुके हैं। असगर वजाहत नियमित रूप से अखबारों और पत्रिकाओं में भी लिखते  हैं।  यह सभी कहानियां कई संग्रहों से चुनी गई है यह कहानियां यथार्थ की परतों को उधेड़ कर हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं रिश्तों में समाई आत्मीयता को भूमण्डलीकरण ने बाजारवादी तेवर दिए हैं। भूमण्डलीकरण मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन का सुझाव भी देता है और मूल्यों को माल में भी परिवर्तित करता है। भूमण्डलीकरण पूँजीवाद का अतिव्यावहारिक/ अत्याधुनिक रूपान्तरण है। बाजारवाद भूमण्डलीकरण के दौर में नम्बर वन की हैसियत रखता है। उसने विश्व को, मनुष्य के एक एक रिश्ते को मल्टीपरपज़ शॉपिंग काम्पलेक्स में बदल दिया है। असग़र वजाहत की कहानी ‘गिरफ्त’ में उन्होंने भूमंडलीकरण की साजिशों को उद्घाटित किया है। आजकल संसार बाजारीकृत होता जा रहा है क्योंकि सब कहीं पूंजी को बटोरने की कामना है। समाज का कोई भी क्षेत्र इस बाजार की गिरफ़्त से मुक्त नहीं रह पाया है । अस्पताल भी इसके लिए अपवाद नहीं  लेखक ने अपनी कहानी के प्रारंभ में भारतवर्ष के बेबुनियाद महानता का बखान बहुत ही व्यंग्यात्मक ढंग से किया है। हमारे देश की हर चीज महान है हमारे परंपराएं भी महान है । हमारे महान परंपराओं में एक परंपरा यह भी है कि सभी दिवंगत जनों

को हम महान समझते हैं। मतलब मल्लू।  मल्लू गिरफ़्त कहानी में निम्न वर्ग का प्रतिनिधि है जो पूंजी के लिए कुछ भी करने को तैयार है।  कहानी का केंद्र मल्लू हेरा फेरी से दिन काटता था और हेराफेरी ना चल पाती तो खून बेचता था । जिस दिन वह खून बेचता था उस दिन शराब पीता था और उसकी ताकत अपनी पत्नी को मारने-कूटने और बच्चों को गालियां देने में निकलती थी। किसी ने उसे समझा दिया था कि शराब में बड़ी ताकत होती है मोहल्ले वालों से भी वह बराबर लड़ता था लेकिन खून देने के दौरान मल्लू मर गया लेकिन मरने के बाद मल्लू महान हो गया। एक नेक इंसान बन गया क्योंकि भारतवर्ष में मरने के उपरांत बुरे लोगों को भी अच्छे घोषित करते हैं। कहानी में राजनेता की पुण्यतिथि पर रक्तदान शिविर आयोजित करने की बात कही गई है। दिल्ली में व्यापक शिबिर सरकारी अस्पताल की ओ.पी.डी में लगाया गया। इसके लिए ओपीडी मरीजों के लिए बंद कर दी गई शिविर को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा देने के लिए दूरदर्शन की विशेष कैमरा टीम आ गई । विदेशी समाचार एजेंसियों की टीम एकत्रित हुई और गोरे संवाददाताओं ने रंग जमा दिया ब्लैक कैट आ गए ऊँचे अधिकारी आ गए । रक्तदान शिबिर का उद्घाटन लघु राज्य मंत्री जी के द्वारा संपन्न होना है। ऐसे में खून देने वाले स्वयंसेवक सफेद कुर्ता पजामा और चमचमाती मारुति कारों में आए। उन्हें खून देने का इतना उत्साह था कि पोर-पोर से खून टपक पढ़ता था । वैसे तो उनके शरीर में इतना खून था कि पूरे देश को दिया जा सकता था। यानी वे मुस्टंडे हट्टे- कट्टे खाए पिए सांड़ो जैसे लग रहे थे। उनके आने के पीछे यही उद्देश्य था कि वे विश्व भर में जाना जाए। खून देने का बहाना देकर दुनिया के सामने अपने को बड़ा उदारी   घोषित करना। मंत्री के आने से पहले विदेशी मंत्री आ पहुंचे और पिछली सीट से गीताजी उतरी। वह एक उभरते हुए उद्योगपति की दूसरी पत्नी थी। उसे कुत्ते पालने और राजनीति का शौक था।

  रक्तदान शिविर में गीताजी रक्त देने के बहाने आई थी मंत्री जी की उपस्थिति में गीता ने रक्त दिया। दूरदर्शन वालों ने छायांकन किया मंत्री जी के जाने के बाद जब गीताजी जाने ही वाली थी उन्हें खबर मिली कि स्वयं प्रधानमंत्री शिविर में आने वाले हैं यह सुनते ही गीता जी अस्पताल के अंदर की ओर भागी और उसे दोबारा

रक्त देने की इच्छा प्रकट की लेकिन डॉ. एक क्षण सोच में पड़े उसने मल्लू को बुलाया ।मंत्री जी सबसे पहले गीता जी के बैड के पास आए । ऑडियो, वीडियो आदि  सब तरह  के कैमरे चले । प्रधानमंत्री ने फूलों का एक गुलदस्ता गीता जी को भेंट किया गीता जी ने हाथ जोड़े वस्तुतः खून देने का नाटक कर रही थी नीचे मल्लू लेटा हुआ था। चादर से सब कुछ ढका हुआ था लगता यही था कि टप-टप बोतल में गिरने वाला खून मल्लू का  नहीं बल्कि गीता का है । दरअसल प्रस्तुत कहानी पूंजी के गिरफ्त में पड़े अस्पताल बालों, सरकारी कार्यालय, राजनेताओं, स्वयंसेवकों  व साधारण जनता पर व्यंग्य करती है। पूंजी के इस दिखावे तंत्र में हमारा देश विघटन के कगार पर है ।

ग्लोबलाइजेशन के मूल में साँस्कृतिक विविधता के विघटन के साथ साथ मुक्त बाजार, समन्वित अर्थ व्यवस्था, उपभोक्तावाद, नारी-विमर्श, मीडिया और मण्डीतंत्र की एक पश्चिमी गंध भी है। एक ऐसी गंध जिससे आम आदमी तेजी से प्रभावित, चमत्कृत और चिंतित दिखाई देता है। इस बाजार पर अमेरिका का वर्चस्व है।  ‘विकसित देश की पहचान’ में कहानीकार ने ऐसे ही मुद्दे को उठाया है । भारत जैसे विकासशील देशों के अमेरिका जैसे विकसित देशों का अंधाधुनिकरण करने की मानसिकता पर व्यंग किया है।  विकसित देश लगातार अपने वर्चस्व वजूद बनाए रखने के लिए अपना नंगापन ढकने के लिए हथियारों का निर्माण करते हैं । भारत में भुखमरी मिटाये बगैर सरकार द्बारा नए हथियारों के निर्माण में पूरा का पूरा पैसा खर्च करने पर पर व्यंग किया गया है।  भूमंडलीकरण के इस जमाने में फास्ट फूड की मांग बढ़ गई है। जिससे बच्चे, युवक तथा बुढ़े बहुत सारे रोगों से भी पीड़ित है । विकसित देशों में बच्चे पैदा नहीं होते बल्कि जवान पैदा होते हैं और जो पैदा होते ही काम करना शुरू कर देते हैं विकसित देशों में सब अपने-अपने ग्लोबल वर्ल्ड में जीते हैं । वहां आत्मीयता की गुंजाइश तक नहीं रहती विकसित देश सैनिक बल द्वारा ही मानव अधिकारों की रक्षा करते हैं।

वैश्वीकरण पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह अमेरिकी जीवन शैली का अंधानुकरण लगाता है। प्रश्न आदान प्रदान के अनुपात का है। इधर से बहुत कम जा रहा है, जबकि अमेरिकन जीवन शैली हमारे ऊपर छा रही है। दूसरी ओर सर्वाधिक खतरा व्यक्ति की पहचान का है।  मौलिकता के नष्ट होने का है। खान-पान, पहनावा, विचार, संतान का भरण -पोषण, पारिवारिक रख रखाव – यानी सम्पूर्ण जीवन पद्धति। भूमण्डलीकरण की अवधारणा अपधारणा तब बन जाती है, जब हम देखते हैं कि स्थिति यह है कि जो अमेरिका सोचता है, वही पूरा विश्व सोचे। असग़र वजाहत की अगली कहानी है ‘नाच’  नाच कहानी में उन्होंने बंदर और बंदर नचाने वाले के द्वारा आदमी को बंदर बनाने वाले समाज पर व्यंग्य किया है।  हमारी परंपरागत मान्यता आज बदल गई है ऐसे में सामाजिक, आर्थिक बदलावों के बीच तनाव की अनगिनत वजहें  पैदा हो रही है। लिहाजा कल्चर के पैमाने बदल रहे हैं  जो आज अमानवीयता को बरकरार रखती है । जिन चीजों में पहले लोगों की रुचि थी अब उसके विपरीत रूप ही दूसरों को मनपसंद लगना शुरू हुआ है। मसलन  बंदर के खेल की जगह बंदर नचाने वाले की क्रीड़ाएँ घटनाएं देखने लोग इकट्ठे होते हैं । दरअसल मनोरंजन के कोई भी खेल जो पहले मानवीयता का संवहन करता था, आज उसमें नर हिंसा का बोलबाला है । आज की सभ्यता मानव को बंदर की तरह नचाने में है जहां  व्यक्ति की पीड़ा टीस, कसक आदि   के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है  चूँकि आज भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है । सार्वजनिक खेलों में ऐसी विषैले हानिकारक बातों की भरमार है जिसको खारिज करना चाहिए ।

भूमण्डलीकरण के प्रभाव ने रिश्तों के नए पैरामीटर स्थापित किए हैं। प्रौढ़ पत्नियाँ भी पुरुष मित्र जुटा रही हैं और युवा बेटियाँ भी।  इस अवसरवादी संसार में नौकरी छूटने के बाद आदमी की हैसियत कमतर होती ही जाती है। घर में अब इज्जत की रोटी का अवकाश नहीं रहा।

‘श्री. टी.पी. देव की कहानियाँ’  शीर्षक के अंतर्गत जो भी कहानियाँ आती है वह विशेष उल्लेखनीय है । जिसमें आज की भारतीय संस्कृति की विडम्बनात्मक पक्षों पर व्यंग है।  उत्तर औपनिवेशिक संदर्भ  में प्रतिरोध उत्पन्न करने वाली है ये कहानियां आज के इस नव उपनिवेशी दौर में व्यक्ति अपने से बहुत दूर है । मनुष्य किस प्रकार अपनी परिस्थितियों से कटा हुआ है इसका चित्रण यहाँ मिलता है।  प्रतियोगिता वृद्धि आज बढ़ गई है। महत्वाकांक्षा में नैतिकता का ह्रास हुआ है । अतः जिंदगी जीने की रफ्तार में वह अपने निजी जिंदगी के सुखद अंशों से काफी दूर भटक रहा है।

 दूसरी कहानी में  मनुष्य टीवी जैसे प्रौद्योगिक सुविधाओं के गुलाम बन गए हैं, इस पर व्यंग है विज्ञापन हमारे इस भूमंडलीकरण माहौल का अपरिहार्य अंग बन गया है इसके सिवा जीना बेहाल है। तीसरी कहानी के द्वारा उन्होंने मनुष्य के मन में ओहदा प्राप्त करने की महत्वाकांक्षाओं का जिक्र किया है । पार्क में एक खाली बेंच को देखकर  श्री.टी.पी. देव की प्रतिक्रिया इस बात को उजागर करती है।  चौथी कहानी में आज के संबंधों में काफी दरारें पड़ गई है गौरतलब है कि व्यक्ति स्वयं अपने से काफी दूर है । वह अपने को सही रूप में पहचानने में सक्षम नहीं है अपनी कहानियों में भी उनका कहना है मानव अर्थ- केंद्रित ज्यादा बन गया है । उसकी प्रत्येक चेष्टा में व्यापारी करण की प्रवृत्ति द्रष्टव्य है।

‘मैं हिन्दू हूँ’ कहानी संग्रह की ‘आग’ कहानी में भुखमरी से पीड़ित एक परिवार का चित्रण है जोकि एक प्रतीकात्मक कहानी है। घर में आग लगी है जैसी खबर सुनकर बुद्धिजीवी लेखक पत्रकार आदि आए अपना दुख प्रकट किया और चले गये।  दमकल वाले आए चिंता में डूबे – यह आग इसी तरह लगी रही इसी में देश की भलाई है इसी बातचीत के बीच वहां विशेषज्ञों का  दल आ पहुंचे आग देखकर बोले इतने विराट आग इसका तो निर्यात हो सकता है । विदेशी मुद्रा आ सकती है और यह आग खाड़ी देशों में भी भेजी जा सकती हैं । यहां मनुष्य के उपभोक्तावादी वृत्ति का चित्र खींचा है भूख से पीड़ित आदमी को देखकर भी किसी के दल में संवेदना नहीं जाती बल्कि वे उसकी भूख को भी उपयोग में बदलने की तड़प में है । भूमंडलीकरण के चलते आम आदमी की हालत बद से बदतर है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में बाजारवाद नम्बर वन की हैसियत रखता है। बाजारवादी संस्कृति रिश्तों का बाजार लिए है। कहती है – बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया। भूमण्डलीकरण के प्रभाव स्वरूप भारत में तेजी से आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन हो रहे हैं। सांस्कृतिक स्तर पर वैश्वीकरण के खूबसूरत क्लोज अप ‘सरगम कोला’ कहानी में अभिजात्य वर्ग की सभ्यता एवं संस्कृति पर व्यंग्य है ।  आज  इस भूमंडलीकृत युग में कला संस्कृति पर भी बाजार हावी है। अतः फिलहाल भारतीय कला और संस्कृति का जिम्मा उन्हीं लोगों ने ले रखा है जो भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाते हैं। कला संस्कृति को भी इन्होंने पैसा कमाने का जरिया बना लिया है जिन लोगों की दिलचस्पी दरअसल भारतीय कला व संस्कृति में है उन्हें इससे दूर रखा जा रहा है। उनका डर तथा अन्य कहानियां में वह लिखते हैं कि- यह साला निकल रहा है आर्ट सेंटर का डायरेक्टर। पेंटिंग बेच-बेच   कर कोठियाँ खड़ी कर ली। अब सेनेटरी फिटिंग का कारोबार डाल रखा है यह साले आर्ट कल्चर करते हैं।  क्योंकि इनको पब्लिक रिलेशन का काम सबसे अच्छा आता है पार्टियां देते हैं एक हाथ से लगाते हैं दूसरे से कमाते आते हैं …..लड़की सप्लाई करने से लेकर वोट खरीदने तक का धंधे जानते हैं… यहां कहानीकार ने अभीजात्य संस्कृति पर व्यग्यं  करने के साथ भारतीय कला और संस्कृति के आड़ में भ्रष्ट आचरण करने वाले लोगों को बेनकाब किया है । भीड़तंत्र उनका कहानी संग्रह है जिनमें हाल के देश-समाज के दृश्य आ गए हैं। संग्रह की पहली ही कहानी भगदड़ में मौत दस छोटी-छोटी कहानियों का समुच्चय है जिसमें वे एक स्थिति रख देते हैं कि भगदड़ में मारे जाने के बाद कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं।ये प्रतिक्रियाएं समाज के सभी वर्गों से आ रही हैं जिनमें परिवार, सरकार, प्रशासन और कॉर्पोरेट तक शामिल हैं। संवेदनहीनता का यह चरम क्या हमारे ऐश्वर्यशाली समय की सचाई नहीं है? वजाहत जी इस चरम को दिखाते हैं और पाठक को इस यथार्थ के विभिन्न आयामों से जोड़ देते हैं। ‘किरिच किरिच लड़की’ में शो रूम में डमी बनकर खड़ी लड़की को जैसे ही उसका प्रेमी छूता है वह “शीशे के नाजुक गुलदान” की तरह टूटकर बिखर जाती है और उसकी किरचें फैल जाती हैं। यह मानवीय संभावनाओं को शोषण से चकनाचूर कर देने की चरम स्थिति है। अब्दुल शकूर की हंसी इस विडंबना का दूसरा पक्ष है जब अत्याचार के बावजूद पीड़ित से अपेक्षा की जा रही है कि वह हंसे—”हम तुम्हें मार रहे हैं लेकिन तुम हंस रहे हो.देखो कितनी सच्ची, प्यारी और अनोखी हंसी है.” कहानी के पांचवें भाग में वजाहत अब्दुल शकूर की हंसी के यथार्थ का उद्घाटन करते हैं जब वह कहता है कि उसे तो आपने ही समझाया है कि वह देश से प्यार नहीं करता।

अंततः यह कह सकते हैं कि आज लोक के हर संबंधों में, हमारे वार्तालाप में , हमारी खामोशी में भी, हमारे प्रेम और यहाँ तक कि हमारे घृणा में भी हर पल दखल देता रहता है भूमंडलीकरण।  भूमंडलीकरण की उद्दाम लालसाओं ने समाज में जो विकृतियां उत्पन्न की हैं, उन्हें असगर वजाहत ने अपनी कहानियों में रेखांकित किया है।

 

प्रियंका कुमारी
शोधार्थी
जामिया मिल्लिया इस्लामिया

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *