आज भूमण्डलीकरण के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सारा विश्व बाज़ार के रूप में स्थापित हो चुका है। बाज़ारवाद से आज समाज का कोई वर्ग, क्षेत्र अछूता नहीं है। बाज़ारवाद का प्रभाव साहित्य समाज, सिनेमा आदि प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। मानवीय सम्बन्धों, भावनाओं और संवेदनाओं पर बाज़ार हावी है। वर्तमान में मीडिया में, साहित्य में, विभिन्न मंचों पर उत्तर आधुनिकता पर चर्चा-परिचर्चा और बहसें हो रही है।  समकालीन साहित्य के विमर्शकरों ने बाज़ारवाद के इस उत्तर आधुनिक दौर की अत्यन्त बेबाक पूर्ण ढंग से वकालत की है, उन्होंने उत्तर आधुनिकता की संकल्पना के अति विस्तार को साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करते हुए कहा है कि, “भारत में शुरू होने वाला अस्मिता विमर्श, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, भाषा संचेतना आदि की स्वीकार्यता उत्तर आधुनिकता की स्वीकार्यता है। सच है उत्तर आधुनिकता के इस दौर में साहित्य में, समाज में या फिर फ़िल्मों में, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता के मनमाने अवसर मनमाने ढंग से तलाशे गए हैं। समाज में भी एक-दूसरे से अधिक आधुनिक होने की दौड़ ने हमारे जीवन मूल्यों को दरकने की स्थिति में पहुँचा दिया है।

मूल्यहीनता ने भी इन्सानी वजूद को बौना साबित कर दिया है। अब इन्सान इस ग्रह का नियंता और ईश्वर को सबसे ख़ूबसूरत रचना नहीं बल्कि उपभोक्ता है। यहाँ सबके लिए सब कुछ है, लेकिन फिर भी किसी को कुछ हासिल नहीं होता। उत्तर आधुनिक के इस कालखण्ड को सकारात्मक पहचान देने के लिए स्वस्थ और सार्थक बहस को परिणाम तक पहुँचाना ही होगा।” अन्य चीज़ों के तरह आज ज्ञान का भी बाज़ारीकरण हो गया है। “आज बाज़ार का दबाव बढ़ रहा है। आज यदि बाज़ार के ख़िलाफ़ भी लिखा जाना है तो वह बाज़ार की समझी जाने वाली शैली और भाषा में। बाज़ार को परास्त करने के लिए बाज़ार के उपकरण ही काम में लाये जाने चाहिए। बाज़ारू हुए बगैर पुरानी फ़्रेम को तोड़कर तस्वीर लगाई जानी है तो नई और चमकती फ़्रेम के साथ। तस्वीर भी स्पष्ट, साफ़ और आधुनिक या कहा जाना चाहिए नई होनी चाहिए।”

आधुनिकता के तनाव हमारे साहित्य में भी दिखाई दे रहे हैं। अब वे अपनी मुक्ति, अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इन रचनाकारों की कृतियों ने समकालीन विमर्श को दूर तक बदल दिया है। “पालगोमरा का स्कूटर”, “कुरू कुरू स्वाहा”, “हरिया हरकुलीज़ की हैरानी”, “डूब”, “पार”, “मुझे चाँद चाहिए”, “एक ज़मीन अपनी”, “बाज़ार”, “महानगरी में गिलहरी”, “इन्द्रजाल”, “विश्व बाज़ार का ऊँट”, “बच्चे गवाह नहीं हो सकते”, “कलि का सत”, “दूसरे किले में औरत”, “प्रोटोकाल”, “हलफ़नामा”, “दौड़”, “हमारा शहर”, “उस चाँदनी की वर्तनी”, “बरस”, “उन्माद” आदि रचनाएँ उत्तर आधुनिकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिनमें उत्तर आधुनिक मूल्यों के तनाव देखे जा सकते हैं। राजेश जोशी “चाँद की वर्तनी” में बाज़ार के ख़तरे की ओर संकेत करते हुए कहते हैं- “बाज़ार पहले ही चुरा चुका था हमारी जेब में रखे सिक्कों को और अब सौदा कर रहा था हमारी भाषा का और हमारे सपनों का” हिन्दी के प्रख्यात टिप्पणीकार गिरीश मिश्र का मानना है कि, “मानव इतिहास में एक नया युग शुरू हुआ है जिसमें राष्ट्रीय सीमाएँ निरर्थक हो गई हैं और राष्ट्र राज्य की अवधारणा कूड़ेदान में चली गई है। भूमण्डलीय बाज़ार के तर्क की माँग है कि सभी देश अपने दरवाज़े वस्तुओं और पूँजी के उन्मुक्त प्रवाह के लिए खोल दें। उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं। कथाकार सुभाष पंत अपनी “बाज़ार” कहानी में बाज़ारवाद और भूमण्डलीकरण के द्वारा सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में तूफान आने की कहानी है। आनन्द हर्षुल की कहानी “महानगर में गिलहरी” अपने फंतासी शिल्प में एक बड़ा कैनवास लेती है। कथा गाँव से क़स्बा, क़स्बा से महानगर के विकासक्रम में पेड़ों, परिन्दों, आकाश, मुक्त हवा की बात करती है, बच्चों की बात करती है,………पेड़ कम हुए तो फलों का लोप हुआ, मुस्कान लुप्त हुई, चिड़िया और आकाश लुप्त हुए। अब वह सब डिब्बों में है, बड़े-बड़े विज्ञापनों में है जो पोस्टर ग्लोसाइन बोर्ड, इलेक्ट्रोनिक डिस्प्ले बोर्ड में हैं, टी.वी. में हैं, कम्प्यूटर में हैं। साहित्य में भी इस बदलाव को रेखांकित किया गया है।

भारतेंदु युग यानी ईशा की 19वी सदी के उतरार्ध में साहित्य और पत्रकारिता दोनों में स्वदेश स्वदेशी और स्वभाषा के प्रति निष्ठा के साथ विदेशी शासन द्वारा हो रहे शोषण तथा उस की पीड़ा की अभिव्यक्ति होने लगी थी। वैसे खड़ी बोली हिंदी गद्य का प्रयोग 18 वीं सदी के उत्तरार्ध से ही दिल्ली से लेकर कोलकाता तक होने लगा था।  हिंदी की पत्रकारिता का आरंभ हो चुका था, परंतु 19वीं सदी में भारतेंदु और भारतेंदु मंडल ने हिंदी के सर्वांगीण विकास के लिए साहित्य एवं साहित्यिक पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में पूरी निष्ठा तथा समर्पण के साथ साधना आरंभ कर दी। इसलिए यह माना जाता है कि 1873 में हिंदी नई चाल में ढली। खड़ी बोली गद्य को साहित्यिक रुप प्राप्त हुआ।यह अवश्य है कि काव्य के क्षेत्र में  ब्रजभाषा ही मान्य थी।खड़ी बोली गद्य की विभिन्न विधाओं के साथ साहित्यिक पत्रकारिता तथा सामान्य ( संवाद)  पत्रकारिता में खड़ी  हिंदी का विकास हो रहा था, परंतु बिहार के पंडित केशवराम भट्ट के नाटक और बिहार बंधु नामक पत्र की भाषा में उर्दू  की बहुलता की। बाद में उन में हिंदी का सुष्ठु रूप आने लगा था। वाराणसी के राजा शिवप्रसाद  ‘सितारे हिंद’ ने    अपनी सरकार की नीति के अनुसार हिंदी में उर्दू बहुल हिंदी की ओर अग्रसर होकर भारतेंदु का विरोध किया।  इसलिए उन्हें  ‘सितारे हिंद’ उपाधि मिली थी। अतः हिंदी के साहित्यकारों ने  हरिश्चंद्र को  ‘भारतेंदु’  की उपाधि प्रदान की। भारतेंदु ने अपने गुरु राजा शिवप्रसाद की इस भाषा नीति का विरोध किया ।

 यह स्मरणीय है अंग्रेजों ने अपने शासन की राजभाषा अंग्रेजी बना दी थी और उर्दूभाषी जनों के दबाव में अपनी राजनीति की सफलता के लिए कचहरियों में उर्दू को प्रवेश दे दिया। हिंदी की पूरी उपेक्षा हुई।  अतः उत्तर ( संयुक्त प्रांत)  में हिंदी के पक्ष में आंदोलन आरंभ हुआ। भारतेंदु ने हिंदी के लिए अपने भाषण में कहा –

निज भाषा-उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, ।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल, ॥

  यह स्वर पूरे हिंदी भाषी प्रदेशों में गूँज उठा।अपनी भाषा की प्रतिष्ठा के लिए आंदोलन प्रभावी हुआ।अंग्रेजी साम्राज्यवाद को संयुक्त प्रांत की कचहरियों  में नागरी लिपि को स्थान देना पड़ा। इसके बाद बिहार में भी आंदोलन के बाद हिंदी को किसी प्रकार स्थान मिल गया।इसी का परिणाम रहा पहले नागरी प्रचारिणी सभा काशी की स्थापना हुई फिर हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ।

इस सदी के रचनाकारों ने समाज में अपना पैर पसार चुकी उपभोक्तावादी संस्कृति के साथ व्यक्ति के बीच पनपने वाले सम्बन्धों को एक नया आयाम दिया है। अलका सरावगी की रचना “दूसरे किले में औरत” में लोग औरत को वस्तु बनाकर दिखाने में उद्धत हो गए हैं। यहाँ स्त्री भी शामिल हो चुकी है। इसी क्रम में जयनन्दन की “प्रोटोकाल” की नायिका ज्यूसी अपने जिस्म बेचकर अपने ग्लोबल पति के उपभोक्ता संस्कृति के तहत नैतिक मूल्यों के सम्बन्ध में नई परिभाषाएँ देने लगी है। पर्यावरण आज की सुपर बिकाऊ चीज़ है। कथाकार सुरेन्द्र वर्मा, उदयप्रकाश, मनोहरश्याम जोशी बाज़ारू ताक़तों द्वारा स्त्री के पतन की कहानी को कहते हैं। वैश्वीकरण और उत्तर आधुनिकता ने स्त्री शोषण के नये आयाम खोल दिए हैं, मुनाफ़े का बाज़ार पुरानी रूढ़ियों को फिर से ज़मीन देने लगा है। स्त्री सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग और सामान बेचने में सहायक बना दी गई है। डॉ. शिवकुमार मिश्र ने अपने लेख “रमैया की दुलिहन ने लुटा बाज़ार” में इस सत्य को अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं, “आज उत्पाद है, उपभोक्ता हैं, वस्तुएँ हैं और वस्तुओं में बदलता आदमी और उसकी आदमीयत है।…….टी.वी. चैनलों पर चौबीस घंटे छाये रहने वाले विज्ञापनों पर एक निगाह डालिए- दैहिक भौतिक सुखभोगवाद के साधनों का प्रचार करते बच्चे-बूढ़े, किशोर-जवान, स्त्री-पुरुषों की एक भीड़, उनके हाव-भाव, उनकी भाषा, उनका हर ढंग और ढब जो उनका नहीं, उन लोगों के द्वारा तय किया गया है जो उनका इस्तेमाल कर रहे हैं।

बीसवीं शती के आरंभ में ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने  ‘सरस्वती’  के माध्यम से खड़ी हिंदी गद्य के शुद्ध व्याकरण  सम्मत हिंदी के रूप को प्रस्तुत किया। साथ ही  खड़ी हिंदी काव्य को प्रतिष्ठित कर दिया। हरिऔध  ने हिंदी के संस्कृतनिष्ठ तथा सरल दोनों रूपों का प्रयोग द्वारा हिंदी की शक्ति का दिग्दर्शन करा दिया तो मैथिलीशरण गुप्त में खड़ी बोली हिंदी के पद्य को मुक्तक तथा प्रबंध दोनों काव्य रूपों के अनुरूप बनाकर और  ‘भारत भारती’  का गायन कर  ‘राष्ट्रकवि’  का सम्मान पा लिया। उर्दू के कथाकार नवाबराय हिंदी कथा क्षेत्र में प्रेमचंद के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने साहित्य तथा पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी के सहज सरल रूप के द्वारा हिंदी कथा साहित्य,- ( कहानी और उपन्यास)  को सच्चा स्वरुप प्रदान कर दिया। वे  हिंदी के उपन्यास सम्राट बन गए।   छायावाद के प्रसाद निराला तथा महादेवी वर्मा हिंदी काव्य की भाषा को मधुर, प्रभावपूर्ण एवं सशक्त बना दिया।उनके द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिकाओं की भाषा भी गंभीर और प्रभावपूर्ण थी। दूसरी और अंग्रेजी की पत्रकारिता अंग्रेजी को महत्व दे रही थी। प्रियदर्शन मालवीय “प्रेम न हाल बिकाय” में बाज़ार के दबाव में जी रहे युवक “मजहर खाँ और युवती सोनी के मध्य का प्रेम अनायास ही बाज़ारवादी तंत्र के ढांचे में ढलता है। गिरीराज किशोर “उसका बीजमंत्र” कहानी में “भौतिक उपभोक्ता संस्कृति के बीजमंत्र” को अत्यन्त गंभीर स्तर पर खोलते हैं। इसी प्रकार संजीव की “नस्ल” कहानी का प्रतिभाशाली युवक बाज़ार और बाज़ारवाद द्वारा सिर्फ उपयोग के लिए खरीदा जाता है। कैरियर की जद्दोजहद में इस ख़रीद-फ़रोख़्त के चलते वह युवक न जाने कब अपने रिश्तों से ही विमुख होने लगता है यही नहीं वह “हाइपरटेंशन” का रोगी बन जाता है। “नस्ल” कहानी आज के आपाधापी के ज़माने में मनुष्य के मानवीय अवदान का मूल प्रश्न बड़ी शिद्दत से उठाती है। बाज़ारवाद के नकारात्मक पहलुओं को भी कहानी बड़े अर्थपूर्ण ढंग से उठाती है। प्रसिद्ध कथा लेखिका मृदुला गर्ग “कलि का सत” में पौराणिक पात्रों की मानसिकता को उत्तर आधुनिकतावादी विचारों के परिवेश में दिखाती है। पौराणिक पात्र भरत और उर्मिला आधुनिक पीढ़ी के वारिस के रूप में आते हैं। इनमें पर्यावरण और संस्कृति की सुरक्षा के नाम पर जंगलों का अस्तित्वविहीन करके गार्डन, पेप्सी फाउंटेनों और रेस्टोरेंटो आदि का विस्तार बताया है।

उर्दू की पत्रकारिता पर ब्रिटिश शासन की कृपा की।परंतु उस युग की हिंदी-पत्रकारिता साहित्य की भाषा से किंचित सरल थी पर उसमें भी साहित्य का स्पर्श होता ही था। साहित्य और पत्रकारिता की भाषा में विशेष अंतर नहीं था |

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ही जन भाषा हिंदी शासकीय भाषा अंग्रेजी और शिष्टजनों की भाषा उर्दू, दोनों से घिर गई,। सर सैयद अहमद खान ने उर्दू को शिष्टजनों तथा हिंदी को गंवारों की भाषा के रूप में मान्यता दी थी।  परंतु इससे हिंदी के साहित्य और हिंदी- पत्रकारिता का सहर्ष विकास होता रहा और दोनों हिंदी के अधिकार के लिए उठ खड़ी हुई थी। कारण रहा कि साहित्यकार और पत्रकार दोनों प्रायः एक थे। और वह स्वदेश, स्वभाषा तथा साहित्य के विकास के लिए समर्पित थे ।

    स्वाधीनता आंदोलन के तीव्र होने पर उर्दू ,मुस्लिम लीग की मांग का हिस्सा बन गई। प्रगतिवादी लेखक संघ के सज्जाद जहीर ने उर्दू का समर्थन कर दिया। अतः राजनीति पर दबाव बढ़ा। साहित्य और पत्रकारिता के पग बढ़ते रहे। स्वाधीनता आंदोलन का माध्यम हिंदी ही रही। 1962- 63 के चीनी आक्रमण के समय साहित्यकार और पत्रकार हताश जन जीवन में नई आशा जागृत करने में सफल रहे। सन 1974- 75 का जयप्रकाश जी के नेतृत्व में संघर्षशील आंदोलन भी हिंदी के माध्यम से ही प्रभावी होता गया। काव्य, कहानी और पत्रकारिता तीनों में हिंदी का सहज प्रवाह पूर्ण रूप हृदय को स्पर्श करता रहा। हिंदी ने उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों को अपनाया। इससे भाषा समृद्ध हुई।  हिंदी पत्रकारिता दबाव से मुक्त रही।

    संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया पर धीरे-धीरे अपनाने की शर्त के साथ वह शर्त अभी तक पूरी नहीं हुई, परंतु हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए  डॉक्टर रघुवीर की साधना स्मरणीय रहेगी। संस्कृति के धातु रूप तथा उपसर्ग- प्रत्यय के सम्यक प्रयोग से हजारों शब्दों की रचना की। बाद में राहुल जी का भी योगदान हुआ।  अंग्रेजी समर्थकों ने नए शब्दों  पर व्यंग की। भ्रम उत्पन किया। तथापि सैकड़ों शब्द साहित्य और पत्रकारिता  में प्रचलित हुए।उदाहरण स्वरूप संसद, लोकसभा, विधेयक, दीर्घा, पारित होना आदि शब्द हैं। अंग्रेजी वर्चस्व के लिए व्याकुल रही। उर्दू का राजनीतिक दबाव रहा। दक्षिण ने भी थोड़ी आपत्ति की। इस विषम परिस्थिति में भी साहित्य और पत्रकारिता की भाषा में अंतर नहीं आया ।

इन सबका प्रभाव हिंदी की पत्रकारिता पर पड़ा है। वैसे बड़े समाचार पत्र बड़े घरानों के हैं। फलतः हिंदी के समाचार पत्रों की सहज-स्वाभाविक भाषा बदलने लगी। अंग्रेजी शब्दों, अंग्रेजी वाक्यांशों, तथा अंग्रेजी के प्रभावी शीर्षकों ने हिंदी पत्रकारिता पर अधिकार कर लिया है। उनका तर्क है कि शासन, शिक्षा, और बड़ी कम्पनियों  की बड़ी नौकरियों के लिए अंग्रेजी अनिवार्य है।वे हिंदी को वैश्विक भाषा बना रहे हैं। करोड़ों  हिंदी भाषी पाठकों के समक्ष प्रातः काल ही वैश्विक हिंदी या ‘हिग्लिश’  परोसी जाने लगी है। पाठक थोड़ा तिलमिलाए पर वह कुछ कर नहीं सके। उनके बच्चे भी तो अंग्रेजी पढ़ कर आ रहे हैं। वह भी यही भाषा बोल रहे हैं। धारावाहिकों में ऐसी भाषा का प्रयोग हो रहा है।  हिंदी फिल्म हिंदी-उर्दू -इंग्लिश की बाजारु भाषा को अपनाकर करोड़ों कमा रही है।  प्रायः सभी प्रादेशिक भाषाओं की स्थिति यही है। साहित्य और पत्रकारिता की भाषा में बहुत अंतर आ गया । अनेक समाचार- पत्रों की भाषा हिंदी के रूप को विकृत कर रही है।  सभी समाचार- पत्र युवाओं के लिए परिशिष्ट भी निकालते हैं, उनमें हिंदी हिग्लिश बन चुकी है और मुख्यमंत्री के लिए सीएम, प्रधानमंत्री के लिए पीएम तथा जिलाधिकारी के लिए डीएम शब्दों को आरोपित कर ये ‘भाषा निर्माता’  सब को जीह्वा पर बिठा रहे हैं। दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन में हिंदी में अपने रुप को विकसित कर भारतीय जीवन के सभी आयामों को अनुप्राणित किया। यथावश्यक अंग्रेजी शब्दों को भारतीय रुप देकर अपना लिया। इस वैश्वीकरण के दौर में अंग्रेजी अपनी प्रभुता में देश की भाषाओं का दमन कर रही है या भाषाओं को विश्व बाजार की भाषा बना रही है। इस में पत्रकारिता का बहुत योगदान है।

शिक्षा शासन, आजीविका और  व्यापार सब पर अंग्रेजी भाषा का निरंकुश प्रभुत्व स्थापित हो रहा है। इसके पीछे पश्चिम के आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा है ।ये भयावह है। असह्य है। यह राष्ट्रीय प्रश्रय व सांस्कृतिक पहचान को चुनौती है और इसे दे रहे हैं बड़े घरानों के अखबार और बहुराष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिष्ठानों के षड़यंत्र। हमें इस चुनौती से जूझना है ।

दूसरी और हिंदी को सरल- सहज और ‘सुंदर’ बनाने के लिए हिंदी की संवाद- पत्रकारिता अरबी फारसी के शब्दों का विशेष प्रयोग संभवत उर्दू को साहित्यकता लाने के लिए कर रही है। निस्संदेह साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता आवश्यकतानुसार सरल हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। अरबी फारसी के शब्द हिंदी में आ रहे हैं। हम यथा अवश्यकता अपना चुके हैं। इधर  हिंदी पत्रकारिता को उर्दू के शब्दों के प्रति प्रेम जग गया है। वैसे तो  ‘गजल’  के बढ़ते प्रभाव से उर्दू शब्दों का स्वागत हो ही  रहा है, पर संवाद पत्रिकारिता के पत्रकार योजनापूर्वक प्रांत और प्रदेश के बदले सूबा, आरम्भ- शुभारंभ के बदले आगाज, राजनीति के बदले सियासत, घर भवन के बदले आशियाना, आपूर्ति के बदले मुहैया प्रेम-प्रणय-अनुराग के अनुराग के बदले इश्क मोहब्बत, गीत के बदले नगमा, सौंदर्य के बदले हुश्न, परिणाम के बदले अंजाम, भाव के बदले जज्बा, अनुभव-अनुभूति के बदले अहसास ऐसे अनेकानेक शब्दों को यह पत्रकार हिंदी में ला रहे हैं। प्रचलित शब्दों को हटाकर ऐसा किया जा रहा है। जो शब्द प्रचलित हैं उनको हटाने का अधिकार इन्हें किसने दिया है ?  यह अनुचित कार्य है। इन शब्दों का विरोध नहीं है, पर हिंदी को अपने शब्द- प्रयोग से क्यों हटाया गया?  यह प्रश्न विचारणीय है। यह चुनौती

सन्दर्भ:

  • कुमुद शर्मा, विज्ञापन की दुनिया- नटराज प्रकाशन, 2006
  • शिलर, हरबर्ट आई.,(अनु.) राम कवींद्र सिंह, संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ग्रंथशिल्पी, दिल्ली,
  • जगदीश्वर चतुर्वेदी, मिडिया समग्र, अनामिका प्रकाशन , नई दिल्ली
  • धूलिया, सुभाष, सूचना क्रान्ति कि राजनीति और विचारधारा, ग्रंथशिल्पी, दिल्ली
  • हरमन, एडवर्ड एस और मैकचेस्नी, रोवर्ट डब्ल्यू, (अनु.), चंद्र्भूषण, भूमंडलीय जनमाध्यम निगम पूजींवाद के नए प्रचारक, ग्रंथशिल्पी, दिल्ली
  • उद्धृत लेख रमैया की दुलिहन ने लुटा बाज़ार, डॉ. शिवकुमार मिश्र, सम्प्रेषण, अंक 133, वर्ष 39, 2004,
  • शाल्मली, नासिरा शर्मा, किताबघर प्रकाशन, 1994
  • यथार्थ की यात्रा कथा वैचारिकी, भालाचन्द जोशी, अन्यथा, अंक 19
  • चाँद की वर्तनी, राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, 2006
  • महानगर में गिलहरी (कहानी), आनन्द हर्षुल, अन्यथा, अंक 5,
  • नया ज्ञानोदय, सं. रवीन्द्र कालिया, अंक 90, अगस्त 2010,

डॉ. राकेश कुमार दुबे

 

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