डॉ. अमरीश सिन्हा द्वारा लिखित “बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार” पुस्तक के लिए उन्हें १४ सितंबर-२०१७ को हिंदी दिवस के अवसर पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद के करकमलों द्वारा “राजभाषा गौरव” पुरस्कार से सम्मानित किया गयाहै।

            डॉ. अमरीश सिन्हा द्वारा लिखित “बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार” पुस्तक कल्पना प्रकाशन, दिल्ली द्वारा वर्ष २०१६ में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक को १४ सितंबर-२०१७ को हिंदी दिवस के अवसर पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद के करकमलों द्वारा “राजभाषा गौरव” पुरस्कार से सम्मानित किया गयाहै।

            डॉ. अंबरीश सिन्हा की सद्य: प्रकाशित पुस्तक “बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार” यह बीमा उत्पादक कंपनियों तथा बीमा धारकों के लिए अत्यंत उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में बीमा क्षेत्र से जुड़ी हुई उन तमाम बातों का ज़िक्र लेखक ने किया है जो बीमा उत्पादक कंपनियों से जुड़ी हुई है। निश्चित ही यह पुस्तक लोगों में जागरूकता फैलाएगी तथा बीमा उत्पादों के प्रति लोगों का आकर्षण भी बढ़ाएगी। सुरक्षा की दृष्टि से बीमा कितना महत्वपूर्ण है इसके साथ ही साथ बीमा की जीवन में कितनी उपयोगिता है, यह इस पुस्तक के माध्यम से बताया गया है। लोगों की सुरक्षा से जुड़े हुए विविध पहलुओं को ध्यान में रखकर जीवन बीमा कंपनियां उत्पादों का निर्माण करती हैं। ये कंपनियां अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उत्पादों का निर्माण नहीं करती बल्कि लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर उत्पादों का निर्माण करती हैं।

            भारत की विकास यात्रा में बीमा क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है, इस संबंध मेंपुस्तक के फ्लैप पर लिखा गया है कि “समृद्धि की ओर बढ़ते भारत की यात्रा में बीमा क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है। बीमा महज व्यवसाय नहीं है। वरन भारतीय समाज के समावेशी विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। यद्यपि बीमा का प्रसार पूरे देश में तेजी से हो रहा है पर सच्चाई यह है कि सामाजिक सरोकारों से संबंधित बीमा उत्पादों का प्रसार विगत डेढ़-दो वर्षों में जितना हुआ है उतना अनुपात इससे पूर्व नहीं हुआ। बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण नि:संदेह एक क्रांतिकारी घटना थी हिंदुस्तान के अर्थ जगत में। आम जनता तक बीमा की पहुंच का मार्ग प्रशस्त हुआ भी। विशेषकर जीवन बीमा की पॉलिसियां दूरदराज के इलाके तक के लोगों तक मिलने लगीं। परंतु यह संख्या जनसंख्या की दृष्टि से काफी कम थी। साधारण बीमा की पॉलिसियां तो फिर भी अधिसंख्य आबादी की पहुंच से दूर रहीं। ग्रामीणों के स्वास्थ्य, खेती, किसानों से जुड़ी बीमा पॉलिसियों का अपेक्षित प्रसार नहीं हो पाया। इसी प्रकार पशुओं के बीमे के बारे में भी कई कृषकों को जानकारी नहीं मिल पाती। किसानों तथा अन्य आय वर्गीय ग्रामीणों के हितार्थ सरकारी बीमा योजनाएं तो गिने चुने लोगों तक ही पहुंच पाती रही हैं। आलोचकों का यहां तक मानना है कि बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण के बाद के प्रारंभिक वर्षों में कुछ स्वार्थी तत्वों ने साधारण बीमा योजनाओं का गैर वाजिब फायदा भी उठाया। लेकिन कुछ केंद्र सरकार की इच्छा शक्ति के बूते एवं कुछ उदारीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न अस्वाभाविक जागरूकता के कारण बीमा का प्रसार हाल के वर्षों में अधिक हुआ है। यह प्रसार बीमा कंपनियों को प्राप्त प्रीमियम आय के परिणाम अथवा प्रदत्त दावों की राशि या संख्या के मद्देनजर नहीं है। गरज कि इन दोनों मोर्चों पर हर साल बीमा कंपनियां कामयाबी दर्ज करती रही हैं। वस्तुतः यह प्रसार बीमा के प्रति आम नागरिक के मध्य बढ़ती जरूरत और जागरूकता की बदौलत है। इसी जागरूकता का परिणाम है कि विगत लगभग एक वर्षों में पूरे देश में करीब 20 करोड़ देशवासी बीमा से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। चाहे वह हेल्थ बीमा की पॉलिसी लेने के जरिए हो या व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा, जीवन सुरक्षा बीमा या 9 मई 2015 से लागू प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना में शामिल होने के माध्यम से हो। किसानों के लिए 26 मई 2015 से शुरू हुआ नया दूरदर्शन चैनल सरकार की बीमा क्षेत्र को और सशक्त बनाने की प्रतिबद्धता दर्शाता है।”

            इसी क्रम में बीमा के इतिहास के संबंध में डॉ. अमरीश सिन्हा ने लिखा है कि “मरीन बीमा के बाद शुरू हुआ अग्नि बीमा इसकी शुरुआत 16 वीं सदी में जर्मनी में हुई। 1666 में इंग्लैंड में भयंकर आग लगी थी, जिसमें ८०-८५ फिसदी घर जलकर स्वाहा हो गए थे। लोगों को हुए इस आर्थिक नुकसान का कोई जायजा भी नहीं लिया जा सका। लेकिन इस घटना से सबक लेकर लोगों ने भविष्य में होने वाले नुकसान की सुरक्षा प्रदान करने की ठानी और फायर बीमा का प्रसार दुनिया के बाकी देशो में हुआ। भारत में यह बीमा तथा अन्य साधारण बीमा सुरक्षा दिए जाने का चलन 1850 में शुरू हुआ। देश में इस प्रकार की पहली साधारण बीमा कंपनी ट्राइटन इंश्योरेंस नाम से कोलकाता में शुरू हुई।

            इसी क्रम में बीमा के इतिहास के संबंध में डॉ. अमरीश सिन्हा ने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि “बीमा का संबंध चूंकि सुरक्षा से है, इसलिए इसका सामाजिक सरोकार महत्वपूर्ण है। यद्यपि बीमा की परिकल्पना काफी पुरानी है। भारत में भी यह 100 साल से भी अधिक समय से चलन में है। 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मध्य 2 वर्ष बाद बीमा कंपनियां भी इस देश में राष्ट्रीय एकीकृत हो गई। जीवन बीमा के लिए केवल एक कंपनी थी। आज भी सरकारी क्षेत्र की एक ही जीवन बीमा कंपनी है- भारतीय जीवन बीमा कंपनी। सबसे बड़ी कंपनी। परिसंपत्ति की दृष्टि से भी और ग्राहक आधार की दृष्टि से भी। हां निजी क्षेत्र की 14 कंपनियां हैं जो बीमा व्यवसाय का कार्य कर रही हैं। गैर-जीवन बीमा के लिए चार बीमा कंपनियां थीं – नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी तथा यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड। ये कंपनियां भारतीय साधारण बीमा निगम के अधीन कार्य करती थीं। आज ये चारों कंपनियां स्वतंत्र कार्य कर रही है और जीआईसी पृथक काम कर रहा है। अब जीआईसी पुनर्बीमा का कार्य कर रहा है।”

            इसी क्रम में विश्व में भारत की तुलना करते हुए लेखक का यह मानना है कि भारत में बीमा का प्रचार-प्रसार पिछले एक वर्ष में अधिक हुआ है। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि “यूं तो बीमा क्षेत्र का प्रसार पूरे विश्व में तेजी से हो रहा है पर हकीक़तन हमारे देश में बीमा का प्रसार विगत एक वर्ष में जितना हुआ है उतना अनुपाततन इससे पूर्व कभी नहीं हुआ। यह प्रसार बीमा कंपनियों को प्राप्त प्रीमियम आय के परिणाम अथवा प्रदत्त दावों की राशि संख्या के मद्देनजर नहीं है, गरज कि इन दोनों मोर्चों पर हर साल बीमा कंपनियां कामयाबी दर्ज करती रहती हैं। वस्तुत: यह प्रसार बीमा के प्रति आम आदमी के मध्य बढ़ती जागरूकता की दृष्टि से है। इसी जागरूकता की बदौलत विगत एक वर्षों से भी कम समय में पूरे देश में करीब 16 करोड़ देशवासी बीमा से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। चाहे वह हेल्थ बीमा की पॉलिसी लेने के जरिए हो या व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा, जीवन सुरक्षा बीमा या हाल में 9 मई को प्रधानमंत्री द्वारा लागू बीमा योजनाओं में शामिल होने के माध्यम से हो।”

            इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने बीमा का सफर किस प्रकार से शुरू हुआ और आज आधुनिक युग में किस प्रकार से उच्च स्तर पर पहुंच चुका है इसका जिक्र करते हुए वैश्वीकरण और आर्थिक सुधार के बारे में भी बताया है। उन्होंने बीमा बाजार को उपभोक्ता व उत्पाद से जोड़ते हुए बीमा उत्पाद के उपयोग करता शहरी वर्ग व ग्रामीण वर्ग को बताया है। आजकल बीमा कंपनियों के उत्पादों की बिक्री में यदि देखा जाए तो एक स्पर्धा का निर्माण हो चुका है। ऐसे में बीमा कंपनियों में आगे आने की होड़ लगी हुई है या यूं कहें प्रतिस्पर्धी वातावरण का निर्माण हो चुका है।

            गांव के उत्थान में बीमा एवं वित्तीय संस्थाओं का कितना अहम योगदान रहा है इस पर भी उन्होंने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं उनका मानना है कि हमारे देश में सबसे अधिक व्यापार की संभावनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में हैं लेकिन इस दृष्टि से सोचने के बजाय यह ध्यान देना अधिक महत्वपूर्ण हे कि देश का समावेशी विकास तभी संभव है जब गांव का सर्वांगीण विकास हो। ग्रामीण भागों में कृषि उत्पाद से संबंधित कंपनियों ने जिन उत्पादों को बीमा के रूप में लाया है उनके नाम हैं राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम कॉफी बीमा ऑर्गेनिक वृक्ष धीमा अंगूर बीमा से बीमा रबड़ प्लांटेशन बीमा वर्षा बीमा रवि फसल बीमा गेहूं बीमा आलू खेती बीमा जैव इंधन वृक्ष बीमा पर पेड़ पेड़ बीमा LIC प्लांट पैदावार बीमा फसल बीमा योजना जैसे अंय कई उत्पादों को उन्होंने ग्रामीण भागों में अपने उत्पाद को बुलाया है।

            इतना ही नहीं किसानों की मदद हेतु डेयरी फार्मिंग के लिए वित्तीय सहायता नाबार्ड द्वारा प्रदान करना तकनीकी सुविधाएं मुहैया कराना तथा दुग्ध उत्पाद को बढ़ावा देना यह ग्रामीण विकास के उद्देश्य से किया गया प्रयास है लेखक का मानना है कि डेयरी उद्योग के विकास में ही देश का विकास संभव है भेड़ पालन के लिए भी संभावनाओं के रूप में वित्तीय सहयोग प्रदान किया जाता है।

            स्वास्थ्य बीमा को सामाजिक समृद्धि का माध्यम मानते हुए उन्होंने लिखा है कि “यूं तो स्वास्थ्य बीमा का अस्तित्व प्रारंभ से ही है तब से ही जब से बीमा कंपनियों का अस्तित्व शुरू हुआ है लेकिन जागरूकता के अभाव में चुनिंदा लोग ही बीमा करवाते थे भारत में स्वास्थ्य बीमा के नाम से पृथक बीमा पॉलिसी की शुरुआत 1986 में हुई आज भी गांव और नगरों में लगभग 70 फ़ीसदी नागरिकों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है।”

            अपनी इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने लोगों को यह समझाने का प्रयास किया है कि वे भ्रामक विज्ञापन तथा लुभावने उत्पादों से दूर रहें तथा सही उत्पादों को अपनाएं उन्होंने बीमा कंपनियों को भी हिदायत दी है कि ग्राहकों की शिकायतों को तुरंत दूर किया जाए कंपनी अपनी गलती को स्वीकार करें और अपने बचाव में तर्क न दें ग्राहक की समस्या को समझ कर उसे समझाने का प्रयत्न किया जाए और साथ ही साथ ग्राहक की भाषा में उसकी शिकायत को सुनकर उसे समझाने का सुझाव भी दिया है और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने पर बल दिया है। बीमा उत्पादों का प्रचार प्रसार किस तरह से होना चाहिए इस पर भी उन्होंने अपना मंतव्य प्रस्तुत किया है भाषा की रोचकता को विज्ञापन की आवश्यकता माना है उन्होंने अंग्रेजी विज्ञापन के बजाय हिंदी विज्ञापन पर ज्यादा जोर दिया है।

            लेखक ने इस पुस्तक में बड़े ही सरल, सहज और आसान से आसान शब्दों का प्रयोग किया है ताकि ग्रामीण अंचल में रहने वाले पाठक भी इसे पढ़कर आसानी से समझ सकें। भाषा अत्यंत सरल एवं सहज है, जिसे समझने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होगी। लेखक ने अपनी इस पुस्तक में क्लिष्ट भाषा का उपयोग नहीं किया है। वे इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि बीमा उत्पाद न सिर्फ शहरों के लिए है बल्कि ग्रामीणों के लिए भी अत्यंत उपयोगी है।

            कहना न होगा कि इस पुस्तक का संपूर्ण अवलोकन करने के बाद इस निष्कर्ष पर निकलते हैं कि बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार यह बीमा कंपनियों तथा बीमा धारकों के लिए अत्यंत उपयोगी पुस्तक है ना सिर्फ बीमा उत्पाद लेने वाले अपितु बीमा उत्पाद देने वाली बीमा कंपनियों के लिए भी यह महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। जिनके मन में बीमा के प्रति गलत धारणाएं एवं गलत मान्यताएं रहती हैं उनके लिए यह पुस्तक अत्यंत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके मन में पनप रही गलत धारणाओं और एवं गलत मान्यताओं को दूर करने मैं यह पुस्तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। कहना ना होगा कि डॉ अमरीश सिन्हा द्वारा लिखित बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार यह पुस्तक सामाजिक दृष्टि से बीमा सुरक्षा के क्षेत्र में भविष्य में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी।

 

 

डॉ. प्रमोद पाण्डेय 

मुंबई

 

 

 

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