भारतेंदु हरिश्चंद्र का साहित्य मोटे तौर पर सन् 1858-1885 के बीच एक ऐसे ऐतिहासिक काल की उपज है, जिसके एक छोर पर भारतीय किसानों और सिपाहियों का राष्ट्रीय विद्रोह था, वहीं दूसरे छोर पर ह्यूम के नेतृव्य में राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म की घटना। भारतेंदु ने अपने संपूर्ण साहित्य में जनचेतना का संचार किया है। यही कारण है कि विद्वानों ने उनके काल को दो महत्त्वपूर्ण युगों का संधिकाल कहा है। वह प्रायः अपने साहित्य विद्रोह और संघर्ष दोनों मूल्यों के माध्यम से जनजागृति और जनजागरण की भावना का सूत्रपात करते रहे, जिसने कालांतर में नवजागरण का रूप धारण कर लिया।

            सन् 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह पर टिप्पणी करते हुए फ्लोरा एनी ने ‘इंडिया थ्रू द एजेजें’ (1908) में लिखा है— “यह बहुत कुछ कृषकों के शांत एवं स्थिर जीवन में जागरण लाने की कोशिश थी। देशीय लोग तथा नये मालिक (अंग्रेज) के जीवन के बीच जहाँ भी टकराहट हुई, अशांति पैदा हुई। खैर यह विद्रोह असफल हुआ।” मार्क्स ने सन् 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय विद्रोह के रूप में देखा। किंतु स्वयं अंग्रेज होने के बावजूद फ्लोरा एनी ने इसे एक महान विद्रोह के रूप में याद किया। जबकि कई भारतीय इतिहासकारों की नज़र में यह विद्रोह एक गद्दारी थी। जिसके सफल होने पर भारत पिछड़ जाता। उपर्युक्त अंग्रेजी इतिहासकार ने अपनी सीमाओं में सन् 1857 के महान विद्रोह को ‘कृषकों के शांत एवं स्थिर जीवन में जागरण लाने की कोशिश’ और ‘जीवन की दो परंपराओं की परस्पर टकराहट’ के रूप में देखा।

            यदि भारतीय नवजागरण की एक धारा भारतीय परंपरा पर साम्राज्यवादी परंपराओं के प्रभुत्व की है, वहीं दूसरी धारा में भारतीय परंपरा की साम्राज्यवादी परंपराओं से टकराहट है। इस प्रकार हम एक को एकांगी नवजागरण और दूसरे को समग्र नवजागरण कह सकते हैं। तथ्य है कि नवजागरण की दूसरी धारा अनिवार्यतः अतीतवादी या आधुनिकता-विरोधी नहीं थी। जिसने सच्ची आधुनिकताओं को अपनाते हुए रूढ़ अतीत के पन्नों को केंचुली की भांति उतार फेंका। फलतः जनमानस में नई ऊर्जात्मक शक्ति का संचार आरंभ हुआ।

            भारतेंदु बाबू गोपालचंद्र के प्रतिभाशाली पुत्र थे। जिन्होंने पिता की भांति राष्ट्र उत्थान के लिए विभिन्न प्रकार की संभावनाओं, वास्तविकताओं को अपनी कृतियों में यथावत् रूप में उजागर किया। सन् 1930 में उनके द्वारा लिखा— “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” इसका सजीव प्रमाण है। इस नाटक में उन्होंने धर्म और उपासना के नाम पर समाज में प्रचलित अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य किया। साथ ही झूठी खुशामतकर्ताओं और केवल अपनी मानवृद्धि की फ्रिक करने वाले शासकों पर सत्य के छींटे छोड़े हैं। भारत के प्रेम में मतवाले, देशहित की चिंता में व्यग्र, भारतेंदु पर सरकार की जो कुदृष्टि हुई। उसके कारण को बहुत कम राजा समझ पाए। सरकार के इस अनाचारपूर्ण हस्तक्षेप ने मानव समाज के संपूर्ण उत्थान को समय-समय पर परिबंधित करने का घृणित कार्य कर जनमानस को सत्य से दूर कर दिया।

            सरकार के इस अनाचारपूर्ण कार्य के प्रतिकार में भारतीय साहित्यकार जनता को जागरूक करने का कार्य अपनी साहित्यिक कृतियों से निरंतर करते रहे। ऐसे साहित्यकारों में भारतेंदु का नाम उल्लेखनीय है। इस प्रयास में एक ओर जहाँ मौलिक कृतियों की रचना हुई तो वहीं कई कृतियों के अनुवाद भी हुए। उनकी मौलिक एवं अनूदित कृतियाँ पूर्णतः नवजागरणयुक्त चेतना का विकास और उसके संचार को समर्पित थी। उनके मौलिक नाटक हैं—

  • वैदिक हिंसा हिंसा न भवति
  • चंद्रावली
  • विषस्य विषमौषधम्
  • भारत दुर्दशा
  • नीलदेवी
  • अंधेर नगरी
  • प्रेमयोगिनी
  • सती प्रताप

इन मौलिक नाटकों में भारतेंदु ने कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में जनजागरण करने का प्रयास किया। इस प्रयास में वह सफल भी हुए हैं। उनका यह प्रयास आज भी प्रासांगिक है। आज भी लोग उनके साहित्य को पढ़कर निज को ऊर्जांमय हो जाते हैं।

            भारतेंदु के अनूदित नाटकों में विद्यासुंदर, पाखंड-विडंबन, धनंजयविजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, दुर्लभबंधु, रत्नावली, सत्य हरिश्चंद्र और भारतजननी प्रमुख है। कुछ विद्वान सत्यहरिश्चंद्र को उनकी मौलिक कृति मानते हैं। किंतु सत्य तो यह है कि यह एक पुराने बांग्ला नाटक का हिंदी अनुवाद है।

            विद्यासुंदर की उत्पत्ति चौर कवि कृत ‘चौरपंचाशिका’ को भारतचंद्रर राय ने कविता में प्रस्तुत किया था। इसी काव्य के आधार पर यतीन्द्रमोहन ठाकुर ने सन् 1968 में बंगभाषा में ‘विद्यासंदुर’ की रचना की। इन्हीं के इसी बहुचर्चित नाटक के आधार पर भारतेंदु ने एक नाटक की रचना की, जिसका नाम ‘विद्यासुंदर’ रखा। इसकी कथा बंगभाषा में अनेक रूपों में लिखी गई, जो आज भी लोगों की जबान पर है। इसमें विद्या नामक नायिका और नायक सुंदर की प्रेम कथा है। तीन गर्भांकों में विभक्त इस नाटक को पश्चिमत्तोर देशों ने सौ पुस्तकें लेकर इसका सम्मान बढ़ाया।

            पाखंड-विडंबन प्रबोध चंद्रोदय के तीसरे अंक का अनुवाद है। जिसे श्रीकृष्ण मिश्र ने लिखा था। इसमें भारतेंदु ने हिंदू-मुस्लिम समाज की कुंठाओं और कुरीतियों को उजागर करने का प्रयास किया है। ‘धनंजय-विजय’ का वैशिष्टय यह है कि भारतेंदु ने इसका अनुवाद छंदोबद्ध किया है। जिस पुस्तक के आधार पर इसका अनुवाद हुआ है, वह सन् 1525 में लिखी गई थी और इसी कारण प्रामाणिक भी है। इसकी पाठ योजना मूल के अनुकूल ही है। यह कविकांबन कृत संस्कृत नाटक ‘धनंजय-विजय’ का अनुवाद है। इसमें स्वतंत्रता और महाभारतकालीन विभिन्न घटनाओं की चर्चा है। जबकि ‘कर्पूर मंजरी’ राजशेखर की प्राकृत कृति ‘कर्पूरमंजरी’ का छायानुवाद है। ‘मुद्राराक्षस’ महाकवि विशाखादत्त के मुद्राराक्षस का हिंदी अनुवाद है। इसका रचनाकाल सन् 1875-77 है। इस नाटक में समाज की विषमता और पाखंड को चित्रित किया गया है।

            ‘रत्नावली’ श्रीहर्ष कवि कृत ‘रत्नावली’ नाटिका का अधूरा अनुवाद है। यह नाटिका बहुत अच्छी और पढ़ने वालों को आनंद देने वाली है। इस नाटिका में जहाँ संस्कृत के छंद थे, वहाँ अनुवादक ने भी छंदो का प्रयोग किया है। ‘दुर्लभ-बंधु’, अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर की कृति ‘मर्चेट ऑफ वेनिस’ का भाषानुवाद है। भारतेंदु ने यह अनुवाद बांग्ला अनुवाद की मदद से किया है। कहा जाता है कि भारतेंदु इस नाटक का अनुवाद पूरा न कर सके, कुछ अंश बाकी रह गए थे, तभी इनकी मृत्यु हो गई थी। बाकी अंश का अनुवाद भारतेंदु के मृत्योपरांत पं. रामशंकर व्यास ने किया। इस अनुवाद का नाम भारतेंदु ने ‘वंशपुर का महाजन’ भी रखा था। इसको अनूदित करते समय भारतेंदु ने इसके पात्रों को भी बदल दिया था, जिसके कारण यह कई दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा। इस अनुवाद को पूरा करने में बालेश्वर प्रसाद और पं. रामशंकर व्यास का बहुमूल्य योगदान है। इस अनुवाद का कुछ अंश हरिशचंद्र मैगज़ीन में भी प्रकाशित हुआ। जबकि ‘भारत जननी’ भारतेंदु के एक मित्र द्वारा बंगभाषा में लिखित ‘भारतमाता’ का अनुवाद है। जिसे उन्होंने सुधारते- सुधारते सारा फिर से लिख दिया।

            भारतेंदु ने अपने नाटकों के लिए जिस सामग्री का चयन किया, वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रकाश डालते हैं। एक ओर जहाँ ‘चंद्रावली’ में प्रेम के आदर्श रूप को दिखाया गया, वहीं दूसरी ओर ‘नीलदेवी’ में पंजाब के एक हिंदू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई के ऐतिहासिक वृत्त को लेकर लिखा गया है। ‘भारत दुर्दशा’ में देशदशा को बड़े मनोरंजक ढंग से सामने लाया गया है। समाज में घुलते विष रूपी अनाचार को व्याख्यायित करने के लिए ‘विषस्य विषमौषधम्’ में देशी रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति का चित्रण किया है। ‘प्रेमयोगिनी’ में भारतेंदु ने वर्तमान पाखंडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के बीच अपनी परिस्थिति का चित्रण किया है।

            भारतेंदु ने भारतीय नवजागरण के संदर्भ में सामंती जीवन एवं कला दृष्टि के विरुद्ध संघर्ष करते हुए लोकोन्मुख दृष्टि को प्रतिष्ठित करना उनके इतिहास लेखन का प्रमुख उद्देश्य था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पूर्व महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रीतिकालीन दरबारी एवं सांमती कवियों की तुलना करते हुए लिखा है— “भारतीय नवजागरण के अग्रदूत और जनता की जाग्रत चेतना तथा स्वाधीनता की आकांक्षा के प्रतिनिधि भारतेंदु हरिशचंद्र को श्रेष्ठ साबित किया था।”

            वस्तुतः सन् 1857 के विद्रोह ने नवजागरण को एक नया आयाम प्रदान कर भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कारण, भारतीय संदर्भ में नवजागरण का अर्थ साम्राज्यवादी आधुनिकता के प्रति सम्मोहन कदापि नहीं हो सकता था। राजा राममोहन राय ने साम्राज्यवाद की ओर झुके बिना नवजागरण की उपलब्धियों से सन् 1857 के विद्रोह में नवजागरण की नई धारा का बीजारोपण किया। जिसका झुकाव साम्राज्यवाद-विरोधी था। पहली धारा की भांति इसके मूल सामाजिक आधार में विशिष्ट वर्ग के लोग न होकर साधारण मध्यवर्ग और किसानवर्ग के लोग थे। इस नई प्रभावी धारा से जुड़ने हेतु भारतेंदु ने अपनी पैतृक संपति तक को स्वाह कर अपना वर्गच्युत स्थापित किया।

            सन् 1885 की विचारधारा से जुड़े बुद्धिजीवियों ने 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह को झुठलाने की बहुत कोशिश की। वह इसे राजद्रोहमूलक सिपाही विद्रोह मनाते थे। भारतेंदु मंडल के एक और प्रमुख साहित्यकार बदरीनायराण उपाध्याय प्रेमघन ने भारत सौभाग्य (1889) में 1857 के विद्रोह को शासक वर्ग के नजरिए से देखा। जबकि भारतेंदु ने इसे अपने प्रहसनात्मक एवं फंतासीपूर्ण नाटकों में ब्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था का साधन मानकर उसे बड़ी निर्ममता से उघाड़ा है। इस निर्ममता का प्रमुख कारण भारत की वह असहाय पीड़ा थी, जिसे वह सहन नहीं कर पा रहे थे और इस पीड़ा को वह अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त करते रहे।

            भारतेंदु मंडल के जाने-माने साहित्यकार प्रेमघन जिस प्रकार साम्राज्यवादी सुधारवाद के असर से घिरे हुए थे, वैसे भारतेंदु हरिशचंद्र नहीं। वह एक राजभक्त परिवार से होने के बावजूद ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्हें एक ओर अपने ही संस्कारों से तीव्र संघर्ष करना पड़ा, वहीं दूसरी ओर कितने ही लोगों के क्रोध का भाजन भी बनना पड़ा। वह सच्ची राष्ट्रीय भावनाओं के कारण विद्रोह का विरोध नहीं कर सकते थे और न ही खुलेआम समर्थन। क्योंकि ऐसा करना कड़े खतरे से खाली नहीं था। कारण, उस समय ब्रिटिश राज्य के विरोध को राजद्रोह करार दिया जाता था। जिसकी सजा फांसी थी। वह प्रेमघन की भांति देश के वीर नायकों को धिक्कार कर शासक वर्ग को खुश नहीं करना चाहते थे और न ही उन्होंने यह कभी माना कि ढीली धोती पहनाना भारतीयों की कायरता या निर्बलता का प्रतीक है। बल्कि वह इसे भारतीयों की उदारता एवं सहजता का प्रमाण मानते रहे।

            भारतेंदु ने अंग्रेजों की कुरीतियों को चुनौती देते हुए अपनी आलसी, रूढ़िग्रस्त, सोए एवं फूट के शिकार देशवासियों को जगाने का कार्य किया। भारतेंदु मंडल के अनेक सदस्यों ने भारतेंदु की इस चेतना को आगे बढ़ाते हुए सन् 1885 के बाद सुधारवाद  की छत्रछाया में उसका गला घोंट दिया और एकांगी सुधारवाद का मार्ग अपना लिया। इस परिपेक्ष्य में ‘भारतेंदु मंडल’ एक भ्रामक शब्दावली है। इस चेतना को ‘एक व्यापक चेतना’ कदापि नहीं जा सकता। क्योंकि भारतेंदु मंडल के अधिकांश साहित्यकारों ने राजा राममोहन रायकालीन एकांगी नवजागरण का पुर्नउन्मेष कर भारतेंदु के समग्र नववजागरणयुक्त दृष्टि का विकास नहीं किया।

            इस प्रकार यह कहना समीचीन होगा कि भारतेंदु की भांति अन्यत्र किसी ने समग्र नवजागरण का सूत्रपात नहीं किया। वह शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्म, व्यवहार, कर्त्तव्य और अधिकार आदि सभी क्षेत्रों में सुधार की बात करते; विशेषतः मुक्ति की के संदर्भ में। भारतीय सिपाहियों ने जब मिस्र-विजय की तब उन्होंने एक बहुचर्चित कविता लिखी— ‘विजयनी विजय-वैजयन्ती’ (1882)। उनकी इस कविता का हवाला मुख्यतः उनकी राजभक्ति के लिए दिया जाता है। किंतु भारतेंदु ने इसमें भारतीय सिपाहियों की क्षमता का गौरवशाली गुणगान किया है। प्रायः भारतेंदु ऐसे अवसर की तलाश करते रहते थे जब वह महारानी विक्टोरिया की उदारता और क्षमता की प्रशंसा की ओट में साखा भारतवसियों की वास्तविक हालात और ताकत का बखान कर सकें। अवसर मिलने पर वह भारतीय-विकास वायु को प्रवाह देने से कभी पीछे नहीं हटे। जिसे उनके साहित्य सृजन में स्पष्ट देखा जा सकता है।

            भारतेंदु भारतीयों के दुःख, दर्द, पीड़ा और ऐतिहासिक गौरव-चिह्नों को गिनाने के कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। उनकी इस खूबी को उनकी कविताओं के शीर्षकों में ढूंढा जा सकता है जो तात्कालीन राजनीतिक घटनाओं का कच्चा-चीठा खोलती हैं। एक ओर जहाँ इस युग में मध्ययुगीन भक्तिकालीन रंगढंग की कविताएँ विद्यमान थीं, वहीं दूसरी ओर तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं पर आधारित कविताएँ एवं मुकरियाँ थी। काव्य के क्षेत्र में इतना अधिक विरोधावास अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। किंतु दोनों में एक चीज़ समान थी; ‘पीड़ा के बयान के साथ स्वच्छंदता की अंर्तनिहित चाह।’ ‘विजयनी विजय वैजयन्ती’ में भारतेंदु ने भारत की इसी दुःखभरी स्थिति का वर्णन किया है—

“जो भारत जग रह्यो सब सों उत्तम देस।

ताही भारत में रह्यों अब नहिं सुख को लेस।।”

अर्थात् भारतेंदु का दृष्टिकोण राष्ट्रवादी रहा। यही कारण है कि वह परमवीर हनुमान, अर्जुन और शास्त्रार्थ निपुण अभिमन्यु से लेकर पृथ्वीराज तक पहुँचे हैं। इसके पश्चात् वह पंजाब के राजा रणजीत सिंह तक पहुँचते हुए लिखते हैं—

“कित अंतिम नरवीर रणजीत सिंह भूपाल।”

भारतीय सिपाहियों की मिस्र-विजय की घटना के संदर्भ में भारत के ऐतिहासिक वीरों की गौरवशाली गाथा सुनाते हुए वह सन् 1857 के सिपाहियों की ऐतिहासिक भूमिका रेखांकित करना नहीं भूले। इसी कविता में उन्होंने औपनिवेशिक आतंकवाद के नग्न रूप की ओर संकेत करते हुए लिखा—

“कठिन सिपाही द्रोह-अनल जा जन-बल नासी।

जिन भय सिर न हिलाइ सकत कहुँ भारतवासी।।”

इन पंक्तियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो भारतेंदु ने अपने समय के औपनिवेशिक आतंकवाद को पूर्णता जी-कर लिखा हो। वह सिपाही विद्रोह को सही ठहराते हुए कहते हैं कि यह कितना कठिन काम था। जिसके प्रतिफल उन्हों अपने जीवन तक को संकट में डालना पड़ता था। इसका प्रतिशोध लेने के लिए अंग्रेज सरकार ने देश के जन-बल का इतनी निर्ममता के नाश किया कि अब भय के कारण कोई भारतवासी सिर तक नहीं उठता था। भारतेंदु कार्ल मार्क्स के समकालीन होने के कारण क्रांतिकारी नजरिया रखते थे। जिसे कार्ल मार्क्स ने मर्यादा कहा, उसे भारतेंदु ने कठिन कहा। यह अंतर स्वाभाविक था। कारण, कार्ल मार्क्स पश्चिम की स्वतंत्र स्थितियों में रहकर भारत की घटनाओं पर टिप्पणी कर रहे थे। जबकि भारतेंदु युगीन स्थितियों को देखते, जीते और अन्वेषित कर रहे थे।

            भारतेंदु ने अपने ‘विषस्य विषमौषधम्’ नामक नाटक में राजा-महाराजा और सामंतवाद के पतन की ऐतिहासिक अनिवार्यता की अधिक परिपक्व घोषणा करते हुए व्यंग्य भरे स्वर में लिखा है— “सुख भी तो हिन्दुस्तान में तीन ही ने किया है— एक मुहम्मद शाह, दूसरा वाजिदअली शाह और तीसरा हमारे महराज ने। मुहम्मद शाह से लखनऊ ही छूटा, अब देखे इनकी कौन गति होती है।” उनकी कविता ‘विजय-वल्लरी’ (1881) और ‘विजयनी विजय वैजन्यती’ (1884) में भारत के दुःखों-कष्टों’ का सजीव वर्णन करती है। जिसमें ‘विजय-वल्लरी’ अफगान युद्ध की समाप्ति पर और ‘विजयिनी विजय वैजन्यती’ मिस्र विजय के बाद लिखी गई कविता है।

            भारत-दर्दुशा (1876)  नामक नाटक की रचना भारतेंदु ने दुष्ट लिटन के काल में की थी। इस नाटक में वह भारत की दुर्दशा का जिक्र करते हैं कि वर्ण-वैषम्य, दरिद्रता, भूखमरी, महामारी, महँगाई, फूट निरुद्यमता, असंतोष, आलस्य, धार्मिक उन्माद, कायरता आदि उस समय जनमानस में कैसे रचा बसा था। जिसे भारतेंदु ने इन पंक्तियों के माध्यम प्रकट किया है— “कुछ पढ़े-लिखे लोग देश सुधारना चाहते हैं। हहा-हहा! एक चने से भाड़ फोड़ेगे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको इतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पॉलिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं, मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के सब चौपट करता हूँ।” ब्रिटिश सेना का इतना आतंक था कि सुधार की बात करने वाले बहुत कम थे। जिसमें भारतेंदु प्रथम थे। वह बड़ी उत्सुकता से ‘भारत-दुर्दशा’ में एक बंगाली और एक महाराष्ट्री पात्र के माध्यम से हिंदी क्षेत्र में बंगाली-महाराष्ट्री सामाजिक विभिन्नता को दर्शाते हैं।

            ‘भारत-जननी’ में भारतमाता अपने पूर्ववत् में सोए पुत्रों को जगाती है। ताकि जनजागरण कि चेतना का संचार हो सकें। किंतु कुछ समय के बाद सब पूर्ववत् की भांति सो जाते हैं। भारतीयों की ऐसी उदासीनता पर भारतेंदु ने लिखा—

“छोट चित्त अतिभीरू, बुद्धि-मन चंचल विगत उछाह।

उदरभरणरत, ईस बिमुख, सब भए प्रजा नप नाह।।”

अर्थात् फैशन, अपव्यय, सिफारिश और अदालत जैसे नए आधुनिक रोग भारतीयों की चेतनहीनता का बीजभाष बने रहे।

            हालांकि भारतेंदु ने स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। किंतु ऐसी स्त्री-शिक्षा का नहीं जो स्त्री को निर्लज्ज बनाती हो। ‘नीलदेवी’ की भूमिका में उन्होंने सिर्फ इन्हीं संदर्भों में भारतीय स्त्रियों को आगे आने का आह्वान किया है— “और बातों में जिस भाँति अंग्रेज स्त्रियाँ सावधान होती है, पढ़ी-लिखी होती हैं, घर का कामकाज सँभालती हैं, अपनी संतानगण को शिक्षा देती है, अपना स्वत्व पहचानती हैं। अपनी जाति और देश की संपति-विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं और इतने समुन्नत मनुष्य जीवन को ग्रहदासता और कलह ही में नहीं खोतीं…।” उनकी मान्यता थी कि भारतीय स्त्रियाँ भी ऐसी बनें। स्त्री द्वारा घर की दासता और कलह से आजादी; राष्ट्रीय एवं सामाजिक कर्मी बनने की परिकल्पना 19वीं सदी के नवजागरण की एक प्रमुख घटना रही।

            भारतेंदु को अपने जमाने में एक नई चीज़ का ज्ञान हुआ— ‘स्वत्व’। इस प्रकार 19वीं सदी के नवजागरण की एक मुख्य खोज ‘स्वत्व’ है। हम स्पष्ट देखते हैं कि भारतेंदु आधुनिकता के समर्थक थे, जिन्हें समाज सुधार की चकाचौंध में अपने ‘स्वत्व’ की जरा भी फिक्र नहीं थी। भारतेंदु के नवजागरण का स्वप्न इंग्लैण्ड के आधुनिक समाज के जनतांत्रिक जागरण और भारत की गौरवशाली परंपराओं के बीच रचनात्मक संवाद का नतीजा था।

            निष्कर्षतः भारतेंदु ने अपने युग के नवजागरण में कबीर से लेकर गुरू नानक तक के उत्सर्ग को समेटते हुए पूरे भक्ति-आंदोलन की परंपरा में प्रतिष्ठित कर दिया। देश की वैचारिक चिनगारियों को इकट्ठा करके राष्ट्रीय लपट में बदलना इसी का परिणाम है। भारतेंदु का राष्ट्रीय जागरण के लिए बलिया वाला भाषण ऐतिहासिक है। इसमें वह आह्वान करते हैं— “बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, बाह्मण, मुसलमान सब एक हाथ पकड़ो।” राष्ट्रीय जागरण के इस आह्वान में मानव बंधन का एक अद्भुत संदेश निहित था। यह नवजागरण के वैश्विक तत्त्व ‘रैशनलिज्म’ का ‘नैशनलिज्म’ से मिश्रण था। यहाँ दुविधा का कोई अंधेरा नहीं था।

            भारतेंदु ने सन् 1857 की चेतना को सांस्कृतिक-वैचारिक नवजागरण का रूप देते हुए क्रांतिकारी सुधारवाद का रास्ता दिखाया। ताकि ‘कविवचन सुधा’ की उद्घोषणा के अनुसार ‘स्वत्व निज भारत गहै’ की संकल्पना को साकार किया जा सके। वह हर प्रकार के जोखिम को उठाते ‘कविवचन सुधा’ में यह आशा व्यक्त करते हैं कि— “जिस तरह अमेरिका उपनिवेशित होकर स्वाधीन हुआ, वैसे ही भारतवर्ष ही स्वाधीनता का लाभ कर सकता है।” वह अमेरिका की एकता और स्वतंत्रता से गद्गद् थे। वह उपनिवेशित भारत में राष्ट्र का वैसा ही भविष्य देख रहे थे, जैसा कि तात्कालीन अमेरिका के पास था। भले परिस्थितियों के अभाव में खुद कुछ ज्यादा कर पाने में असमर्थ थे। किंतु कुछ कर गुजरने की अद्भुत लौ जलाने के अग्रणी मार्गदर्शक बने रहे। अन्ततः उनकी आत्मपहचान, स्वतंत्रता और नए ज्ञान प्रकाश की खोज विशिष्ट रही।

संदर्भ ग्रंथ सूची – 

  • शंभुनाथ (संपा), भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली, 2009
  • पाण्डेय, मैनेजर, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2000
  • शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, कमल प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, 2009
  • (संपा), डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूरपेपरबैक्स, नोएडा, 2009
  • भारतेंदु ग्रंथावली भाग-2
  • डॉ. पूरनचंद टडंन, प्रयोजनमूलक हिंदी, किताव घर, नई दिल्ली
  • गोस्वाममी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका,  राजकमल प्रकाशन,  नई दिल्ली, 2008

सुमन
शोधार्थी

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