सिनेमा या फिल्मों का हमारे सामाजिक जीवन में ज्ञान, मनोरंजन, सूचना व शिक्षा की दृष्टि से अत्यन्त महत्व है। इसलिए यह हमारे जीवन का एक अहम अंग बन चुका है। विशेषतः हिन्दी सिनेमा या फिल्मों ने तो वैश्विक पटल पर स्वयं को लोकप्रियता की श्रेष्ठ ऊँचाईयों पर सुस्थापित कर लिया किन्तु वैश्वीकरण भारतीय सिनेमा के लिए दोधारी तलवार के रूप में सामने आया है। अर्थात फिल्मकारों को जहाँ फिल्म निर्माण और प्रदर्शन की अत्याधुनिक डिजिटल  प्राद्यौगिकी मिली वहीं पश्चिमी हॉलीवुड इसकी दहलीज पर दस्तक देने लगा। फिर भी यह गौरवपूर्ण है कि विश्व में भारतीय फिल्मों का निर्माण व प्रदर्शन सर्वाधिक संख्या में किया जाता है। उत्सुकतापूर्ण प्रश्न यह है कि सिनेमा क्या है इसका उत्तर वैयक्तिक स्तर पर विभिन्न तरह से स्वज्ञान व अनुभव के आधार पर दिया जा सकता है। जिनमें यह किसी के लिए मनोरंजन का साधन तो किसी के लिए ज्ञान का स्त्रोत किसी के लिए निन्दनीय तो किसी के लिए प्रसंशनीय किसी के लिए व्यवसाय तो किसी के लिए कला व सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकता है। इसीलिए पश्चिमी बौद्धिक साहित्यिक संस्कृति ने सिनेमा की एक सर्वमान्य सार्वभौमिक परिभाषा प्रदान की है जिसे सिनेमा फिल्म चित्र पट की पर्यायवाची शब्दावली के व्यापक सन्दभों में अवलोकित किया जा सकता है।

जनसंचार विश्वकोश के अनुसार – “फिल्म गति, दृश्य, ध्वनि, रंगमंच और विद्यालय का मिश्रण है जो प्रभावपूर्ण ढंग से संचार करते हुए एक ही साथ बहुसंख्या में शिक्षित अशिक्षित, ग्रामीण, नगरीय जनों का ध्यान आकर्षित करती है। एसोसिएशन ऑफ़  मास कॉम) एक अन्य प्रश्न यह है कि सिनेमा कला, संस्कृति व शिक्षा का सशक्त माध्यम होते हुए भी क्या यह साहित्य का अंग है अथवा नहीं इसका उतना ही सटीक उत्तर देते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार, पटकथा लेखक व निर्देशक राही मासूम रजा ने 25 नवम्बर 1991  को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए कहा- “मैं सिनेमा (फिल्मों) को भी साहित्य का ही अंग मानता हूँ इसलिए इसे भी साहित्य के पाठयक्रमों में शामिल कर लेना चाहिए। परन्तु साहित्य के मठाधीश व कट्टरपंथी तैयार नहीं कि इसके सृजन में असाहित्यिक लोगों का भी हाथ होता है। मेरा उनसे भी यही कहना है कि फिर नाटक (ड्रामा) को साहित्य में इजाजत क्यों दी अरे सिनेमा में भी तो नाटक की भाँति निर्देशक, लेखक, अदाकार, मेकपमैन, ड्रैस डिजाइनर, लाइटमैन, एडीटर, कैमरामैन  आदि सभी अपनी भूमिकाओं में होते हैं। जब ड्रामा साहित्य के कोर्स में शामिल है तो फिर सिनेमा के साथ इतना अन्याय क्यों यह तो ड्रामा (टी.वी. सीरियल्स) का अगला कदम है इसलिए सिनेमा साहित्य की ही एक विधा है और यह भी उन्हीं आशाओं की पूर्ण करती है जिन्हें साहित्य की अन्य विधाएं  भी करती हैं।1

हिन्दी सिनेमा या फिल्मों की बात की जए तो इनकी लोकप्रिया तो केवल उत्तर भारत के खडी बोली क्षेत्र या हिन्दी पट्टी में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत व विश्व के अधिकांश भागों में निर्विवाद रूप में सिद्ध है। इसे और अधिक स्पष्ट किया जाए तो हिन्दी साहित्यकार प्रो० सूर्यप्रसाद दीक्षित ने लिखा है – “हिन्दी फिल्मों ने आकाशवाणी, दूरदर्शन जैसे संचार माध्यमों में सम्प्रेषण के नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। जिसका मूल कारण हिन्दी भाषी जनसमुदाय द्वारा व्यवहृत भाषा है। जिसके शब्द बार बार प्रयुक्त होने से होम्योपैथिक दवाओं की भांति इसकी पोटेंसी बढाते हैं। इनके गाने हिन्दी विरोधी व विदेशियों को भी गुनमुनाने को विवश करते है।2 भारतीय सिनेमा का सबसे विशिष्ट पक्ष यह है कि 2013 में इसने अपना शताब्दी वर्ष मनाया जिसके उपलक्ष्य में अनेक सरकारी संस्थानों ने विभिन्न समारोह किए व निजी इलेक्ट्रोनिक  व प्रिंट मीडिया में हंस व अहा जिन्दगी जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं के अंक तो स्वयं इन पंक्तियों के लेखक ने भी प्राप्त कर पढे़।

सिनेमा शताब्दी के भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि इतिहास का अवलोकन किया तो प्रथमतः फ्रांस के ऑगस्ट व लुई लूमियर बन्धुओं ने 28 दिसम्बर 1895 में पेरिस के ग्रेंड कैफे में 30 दर्शको के मध्य एक अव्यवस्थित फिल्म चित्र दृश्यावली प्रस्तुत की और इन्होंने पुनः 07 जुलाई 1996  को बम्बई (मुंबई) के वाटसन होटल में 6  छोटी फिल्मों का एक मैजिक लैंप नामक पैकेज प्रदर्शित किया। प्रथम भारतीय हरिशचन्द्र भटवडेकर (सावेदादा) ने अगले ही वर्ष 1897 में मुम्बई के हैगिंग गार्डन में कुश्ती की सैल्यूलाइड फिल्म प्रदर्शित की। 1898 में कोलकाता के हीरालाल सैन ने प्रथम फिल्म कैमरा खरीद कर राजदरबारों का चित्रांकन लोगों को दिखाया। सन् 1901 में भारतीय सिनेमाई सूर्योदय ने अपनी किरणमयी आभा बिखेरते हुए आर.पी. परांजपे की लघुफिल्म साबेदादा व अमेरिकी बागोग्राफ ने ’दिल्ली दरबार ऑफ़ लार्ड कर्जन’(1903 जे एफ. मदन ने कोलकाता में एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस की फिल्में (1905 सूरत के अली बंधुओं ने जगह जगह टयूरिस्ट सिनेमा (1901-1907 बी.पी.मेहता की थियेटर फिल्म ‘द लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट’ (1910 जिसने दादा फाल्के को प्रभावित व प्रेरित किया और अंततः घुंडीराज गोविन्द फाल्के ने ही 1913 में पहली मूक कथा फिल्म राजा हरिशचन्द्र निर्मित की।3 हिन्दी के पक्ष में यही तर्क है कि यह उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्र की प्रचलित पौराणिक कथा राजा हरीशचन्द्र के जीवन पर आधारित थी इसीलिए यह हिन्दी फिल्म थी जिसे 05 मई 1913 को मुम्बई के कोरोनेशन थियेटर में प्रदर्शित किया। अगले वर्ष 1914 में इसे लंदन में दिखाया गया और विदेश में प्रदर्शित पहली भरतीय फिल्म बनी। इसकी समीक्षा भी अंग्रेजी समाचार पत्र बॉम्बे  क्रॉनिकल ने प्रकाशित की। भारतीय सिनेमा इतिहास के पितामह दादा फाल्के के महान योगदान पर भारत सरकार ने 1969 में एक सार्थक पहल की और सिनेमा में अपूर्व योगदान के लिए फाल्के पुरूस्कार प्रारम्भ हो गया।4

भारत में प्रथम बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ 1931 में बनी। कोलम्बिया विश्वविद्यालय की प्रो० देवश्री मुखर्जी इस दशक में फिल्मी दुनिया की प्रसिद्धि पर लिखती हैं – “स्वतंत्रता पूर्व तीसरे, चौथे दशक तक फिल्मों से जुडी सारी सड़कें मुम्बई जिसे बॉलीवुड , मायानगरी व फिल्मनगरी भी कहा जाता है। कि ओर ही जाती थीं। भारत भर के कलाकार अपनी किस्मत आजमाने वहीं जाते थे। इसके बाद तो अनेक भारतीय फिल्मों ने विश्व भर में लोकप्रियता के उच्च कीर्तिमान स्थिापित किए जिनमें अछूतकन्या, बाबुल, मुगलेआजम, ताजमहल, चैदहवीं का चाँद, पूरब पश्चिम, कुर्बानी, इंसाफ का तराजू, दीवार, शोेले, नसीब, चाँदनी, लैला मजनं, खलनायक, आशिकी, देवदास, गदर, ब्लैक, बागवान, तारे जमीन पर, थ्री इडियट्स व ओ माई गॉड आदि।6

फिल्मी कलाकारों में अशोक कुमार, ए.के. हंगल, के.एल. सहगल, बलराज साहनी, दिलीप कुमार, राजकपूर, धर्मेन्द्र, अमिताभ, शशिकपूर, देवानन्द, राजेश खन्ना, राजकुमार, मनोजकुमार, राजेन्द्रकुमार, रजनीकांत, कमल हासन, हेमा, रेखा, मीना, सबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नूतन, मुमताज, निर्देशकों में सत्यजीत राय, बी.आर. चौपड़ा, यश चौपड़ा, संजय लीला भंसाली,  राजकुमार हिरानी,  करण जौहर पटकथाकारों में सलीम जावेद, पंडित मुखराम, संगीतकारों में शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन, नौशाद, ए.आर. रहमान, रविन्द्र जैन गायकों में मुकेश, मौहम्मद रफी, मन्ना डे़, किशोर कुमार, सकील बदायुनी, हसरत जयपुरी, आशा भौंसले, लता मंगेशकर, गीतकारों में साहिर लुधियानवी नीरज, प्रदीप कुमार, अनजान, इन्दीवर के अतिरिक्त एक महान व विस्मृत सितारे शैलेन्द्र ने भी एक गीतकार व जनकवि के रूप में भारतीय हिन्दी सिनेमा में महान योगदान किया किन्तु यह बडे़ खेद का विषय है कि उन्हें सिनेमा की शताब्दी 2013 स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती 1997 में यहाँ तक कि शायद स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगाँठ अर्थात् आजादी के अमृत महोत्सव 2021 के अवसर पर भी विस्मृत भले ही कर दिया जाए लेकिन शैलेन्द्र हिन्दी सिनेमा के गीतकार के रूप में ही नहीं जनसरोकारों से जुडे़ लोकप्रिय कवि के रूप में भी फिल्मी इतिहास में हमेशा स्मरणीय रहेंगे।

प्रसिद्ध सिनेमाई गीतकार शैलेन्द्र अर्थात् शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र का जन्म 30 अगस्त 1923 को रावलपिण्डी तत्कालीन पाकिस्तान में हुआ। इनके पिता केसरीलाल व माँ पार्वती देवी मूलतः बिहार में आरा जिले के धुसपुर गाँव के निवासी दलित धुसिया (चमार) थे, जो रोजगार की तलाश में पंजाब आकर बस गए।7 बडे़ भाई की रेलवे में नौकरी के कारण शैलेन्द्र ने मथुरा में रहकर इण्टरमीडिएट (12वीं) तक पढ़ाई की तथा माँ के बीमार हो जाने पर मंदिरों में मन्नते मांगी किन्तु कुछ न मिलने पर अंधविश्वास व पाखंड जाता रहा व फिर आगरा से इलैक्ट्रीकल डिप्लोमा किया तथा 1942 में स्वयं भी रेलवे की नौकरी में मुंबई चले गए, जहाँ जनवादी विचारों के कारण कम्यूनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन इप्टा (इण्डियन पीपुल्स थिएट्रिकल एसोसिएशन) में सक्रिय हो गए। सन् 1947  में मुम्बई रेलवे में हुई मजदूरों की हड़ताल के अवसर पर माटुंगा रेलवे वर्कशॉप  के कामगार के रूप में मंच से एक माना गाया –

शहर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है।

छीना हमसे सस्ता अनाज तुम छंटनी पर हो आमादा।।

         ये अपनी भी तैयारी है तो हमने भी ललकारा है।। हर जोर जुल्म…..

गाँवों से नगरों तक श्रमिक शोषण के विरूद्ध संघर्ष का प्रतीक बनकर हजारों बार हवा में गूजने बाला यह नारा सम्पूर्ण भारत की प्रेरक शक्ति के साथ ही भारतीय सिनेमा की भी सांस्कृतिक विरासत है। शैलेन्द्र के इस संघर्षशील गीत की लोकप्रियता पर साहित्यकार मंगलेश डबराल लिखते हैं – “कोई भी रचना शायद तक बड़ी होती है जब वह अपने रचनाकार से अलग होकर समय और समाज की अपनी रचना होकर उसकी रगों में बहती हुई स्वायत्त जीवन जीने लगे।9

शैलेन्द्र का समग्र व्यक्तित्व सिनेमाई गीतकार के रूप में ही नहीं बल्कि वे उनके समय में चल रहे स्वतंत्रता के आन्तरिक व बाहरी संघर्ष में क्रांति के गायक बन जाते हैं जिन्हें नागार्जुन सरीखे बडे़ जनकवि ने भी अपनी एक कविता में मार्मिक रूप से स्मरण किया है। शैलेन्द्र लिखते हैं –

क्रांति के लिए उठे कदम/काँन्ति के लिए जली मशाल/भूख के विरूद्ध भात के लिए/रात के विरूद्ध प्रातः के लिए/हम लडेंगे हमने ली कसम।।

आगे इसी क्रांति के स्पप्न को शान्ति के उद्देश्य तक ले जाते हैं जब वे लिखते हैं-        “शान्ति के लिए उठे कदम/शान्ति के लिए जली मशाल।।10

भारतीय सिनेमा में महान गीतकार शैलन्द्र के योगदान को यहूदी, अनाड़ी, आवारा, श्री 420, गाइड, बरसात, संगम, तीसरी कसम, दूर गगन की छांव में, वंदिनी, सुजाता, सीमा, मधुमती, आरजू, जंगली व नागिन जैसी सुपर हिट फिल्मों के लिए लिखे गानों में देखा जा सकता है। जो इतने सदाबहार हैं कि आज भी भारतीय ही नहीं रूस, चीन, जापान, इग्लैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया  व कनाडा जैसे बडे़ देशों के लोगों को इनके गाने गुनगुनाते देखा जा सकता है।

लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी प्रो० सूर्यप्रसाद दीक्षित के अनुसार चीन में तो छात्रों को हिन्दी वर्णमाला उच्चारण हिन्दी फिल्मों के गीतों के माध्यम से सिखाया जाता है। उनके महान सिनेमाई योगदान को स्मरण कर प्रो0 शत्रुघ्नकुमार लिखते हैं – ”शैलेन्द्र ने स्वतंत्रता के बाद से 1966 तक 171 फिल्मों में कुल 800 गीत लिखे, जिनमें जीना इसी का नाम है तथा सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है (तीसरी कसम) जैसे मानवीय नैतिकता के गीत भी सम्मलित हैं।11

इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागध्यक्ष व भोजपुरी भाषा पाठयक्रम के संयोजक प्रो० शत्रुघ्नकुमार शैलेन्द्र को प्रथम भोजपुरी फिल्म का अमर गीतकार भी मानते हुए कहते हैं – “उन्होंने विश्वनाथ शाहाबादी निर्मित, कुंदनकुमार निर्देशित 1956 की भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईवो’ के गीत भी लिखे तथा पटकथा नजीर हुसैन ने लिखी जिसमें अनमेल विवाह, वैश्या के कोठे से लेकर अंधविश्वासी आदर्श पूर्ण कामनाओं को प्रदर्शित किया हैं। नायिका विषम परिस्थितियों में हताश होकर अन्त में गंगा मइया को अपनी सबसे प्रिय वस्तु ‘पियरी’ अर्थात सुहागिनों की पीली साड़ी अर्पित करने मनौती इन फिल्मी शीर्षक शब्दों में माँगती है –

हे गंगा मइया तोहे पियरी चढइवो/सईयां से कर दे मिलन वा होय राम।12

इसी फिल्म ने राम तेरी गंगा मैली जैसी प्रसिद्ध फिल्म के लिए राजकपूर को भी प्रेरणा दी। शैलेन्द्र ने साम्यवादी विचारदृष्टि से पूँजीवादी भौतिकवाद का विरोध भी फिल्मी गीतों के माध्यम से किया –

“सरकार बनाती है प्लान/डॉलर देता है योगदान।

परदेशी पूँजी चिर उदार/करती जाती है परोपकार।।

यहाँ पूँजीवाद के शिकंजे व मृगमरीचिका का संदेश छिपा है। स्वतंत्रता की खुशी में उन्होंने लिखा – “जय जय हे भारतवर्ष प्रणाम/हे युग युग के आदर्श प्रणाम।

           शत शत बंधन टूटे हैं आज/ बैरी के प्रभु रूढे हैं आज।13

साम्यवादी व जनकवि होने के कारण शैलेन्द्र ने जनता के शोषण अपमान, अन्याय,  गरीबी, भुखमरी व आर्थिक विषमता पर भी अपनी लेखनी चलाई जो उनकी स्वतंत्रता से जन निराशा को प्रदर्शित करती है।

आजादी की चाल दुरंगी/घर घर अन्न वस्त्र की तंगी/तरस दूध को बच्चे सोए।   निर्धन की औरत अधनंगी/बढती गई गरीबी दिन दिन/बेकारी ने मुँह फैलाया।।

नकारात्मक विकास पर शैलन्द्र लिखा – ‘होने को है ऐसा विकास/पाँचवे बरस के आस पास/सब जगह खेत लहलहाएंगे/भूखे नंगे तर जाऐंगे/तू मोह न कर इन चूल्हों से/टपकेंगे आम बबूलों से/मत चक्कर काट दफ्तरों के/तू सर मत मार पत्थरों से/बनियों से लेता जा उधार/और अपने मित्रों को पुकार।।

रामराज्य की मृगमरीचिका पर भी शैलेन्द्र ने लिखा – “राम राज्य का ढोल बजाया/नेता ने कंट्रोल उठाया/काले बाजारी बनियों को/दिल में दिल्ली में बैठाया/खुल्लमखुला लूट मच गई/ मंहगाई ने रंग दिखाया।

शैलेन्द्र ने भगतसिंह जैसे क्रांति के महानायकों को भी आजादी की निराशा में अपने गाने के माध्यम से सलाह दी – “भगतसिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की

              देश भक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की।।14

1948 की हंस पत्रिका में प्रकाशित उपरोक्त कविता उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित कर दी गई। विरोधस्वरूप शैलेन्द्र ने ‘अन्दर की आग’ नामक कविता लिखी, जिसमें उस आजादी की चीड़ फाड़ की गयी थी जो हमें बिना खून बहाए अंग्रेजों ने खुश होकर दी थी। उन्होंने लिखा –

वही नवाव वही राजे कुहराम वही है/पदवी बदल गई है किन्तु निजाम वही है।

थका पिसा मजदूर वही दहकान वही है/कहने को भारत पर हिन्दुस्तान वही है। 15

हालांकि शैलेन्द्र के सिनेमाई अवदान को प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के एक ग्रंथ, 2013 में एक डाक टिकिट, रमा भारती के अन्दर की आग, डा० इन्द्रजीत सिंह के जनकवि शैलन्द्र, धरती कहे पुकार के तथा सम्यक भारत दिल्ली के शैलन्द्र समर्पित अंको द्वारा विहित किया है। किन्तु निष्कर्ष के रूप में यह स्पष्टतः कहा जा सकता कि  है शैलेन्द्र जैसे महान गीतकार व जनकवि को सरकार ही नहीं समाज द्वारा भी अभी और उचित सम्मान की दरकार है तथा आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2021  में तो यह अवश्य ही होना चाहिए, जिन्होंने देश के भविष्य नौनिहालों के लिए भी ये बेशकीमती शब्द लिखे-        “नन्ने मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है/

मुट्ठी में है तकदीर हमारी। हमने किस्मत को वश में किया है।16

 

संदर्भ ग्रंथ –

  • प्रो0 के.पी. सिंह- सिनेमा और संस्कृति संस्करण 2004 पृष्ठ 372
  • प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित- भाषा प्राद्यौगिकी व भाषा प्रबंधन 2004, पृष्ठ 49
  • फिल्म इतिहास के पितामह दादा फाल्के, अहा जिंदगी (पत्रिका) जून 2013, पृष्ठ 77
  • फिल्म इतिहास के पितामह दादा फाल्के, अहा जिंदगी (पत्रिका) जून 2013, पृष्ठ 77
  • प्रो० देवश्री मुखर्जी, बॉलीवुड के निर्माता स्ट्रगलर, अमर उजाला 09.05.2021 , पृष्ठ 10
  • अहा जिंदगी (मासिक पत्रिका) जून 2013 , पृष्ठ 22
  • के.पी. मौर्य, जीवन गीतों के सृजनकार शैलेन्द्र, सम्यक भारत पत्रिका अगस्त 2014, पृष्ठ 07
  • के.पी. मौर्य सम्पादक, सम्यक भारत मासिक पत्रिका दिल्ली शैलेन्द्र समर्पित अंक अगस्त 2014, पृष्ठ 18
  • मूल्यांकन, मंगलेश डबराल, आजकल पत्रिका दिल्ली, भारत सरकार अप्रैल 2020, पृष्ठ 47
  • मूल्यांकन, मंगलेश डबराल, आजकल पत्रिका दिल्ली, भारत सरकार अप्रैल 2020 पृष्ठ 47
  • प्रो० शत्रुघ्नकुमार, प्रथम भोजपुरी फिल्म के अमर गीतकार शैलेन्द्र, सम्यक भारत दिल्ली अगस्त 2014, पृष्ठ 14
  • प्रो० शत्रुघ्नकुमार, प्रथम भोजपुरी फिल्म के अमर गीतकार शैलेन्द्र, सम्यक भारत दिल्ली अगस्त 2014, पृष्ठ 15
  • शैलेन्द्र जी की कविताएं, सम्यक भारत मासिक पत्रिका अगस्त 2014, पृष्ठ 16
  • शैलेन्द्र जी की कविताएं, सम्यक भारत मासिक पत्रिका अगस्त 2014, पृष्ठ 17
  • मूल्यांकन, मंगलेश डबराल, आजकल पत्रिका दिल्ली, भारत सरकार अप्रैल 2020, पृष्ठ 48
  • मूल्यांकन, मंगलेश डबराल, आजकल पत्रिका दिल्ली, भारत सरकार अप्रैल 2020, पृष्ठ 48
बुद्धिराम शोधार्थी
इग्नू नई दिल्ली

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