प्रस्तावना :-

         आधुनिक काल में मानव जीवन बहुत व्यस्त हो गया है उसकी आवश्यकताएं बहुत बढ़ गई है। व्यस्तता के इस युग में मनुष्य के पास मनोरंजन का समय नहीं है लेकिन मनोरंजन स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। ऐसे में मनुष्य भोजन के बिना चाहे कुछ समय तक स्वस्थ रह जाए किंतु मनोरंजन के बिना यह स्वस्थ नहीं रह सकता है। चित्रपट मनुष्य की इस महती आवश्यकता की पूर्ति करता है। यह मानव जीवन की उदासीनता को दूर कर ताजगी और नव जीवन प्रदान करता है। दिन भर कार्य में व्यस्त थकी हुई नर नारी शाम को सिनेमा हॉल में बैठ कर आनंदित हो जाते हैं और दिन भर की थकान को भूल जाते हैं चित्रपट पर हम सिनेमा हॉल में दिल्ली से हिमालय तक शिखर समुद्र के अंदर का दृश्य भी देख सकते हैं जिनको देखने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

सिनेमा और शिक्षा :-

          मनोरंजन के अतिरिक्त सिनेमा से समाज को और भी अधिक लाभ होते हैं यह शिक्षा का अति उत्तम साधन है या निम्न श्रेणी के लोगों का स्तर ऊंचा उठाता है और उच्च श्रेणी के लोगों को उचित स्तर पर लाकर विषमता की भावना को दूर करता है। यह कल्पना को वास्तविकता का रूप देकर समाज को उन्नत करने का प्रयास करता है इतिहास भूगोल विज्ञान तथा मनोविज्ञान आदि की शिक्षा का यह उत्तम साधन है।

         ऐतिहासिक घटनाओं को पर्दे पर सजीव देखकर जिस सरलता से थोड़ी समय में जो ज्ञान हो जाए, हो सकता है वह ज्ञान पुस्तकों के पढ़ने से नहीं हो सकता है। भिन्न-भिन्न प्रदेशों के दृश्य चित्रपट पर साक्षात देख कर वहां की प्राकृतिक रचना जनता का रहन-सहन तथा उद्योग आदि का जैसा ज्ञान हो सकता है। वह  भूगोल की पुस्तक पढ़ने से कदापि संभव नहीं है। इसी प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा भी चित्रपट द्वारा सरलता से दी जा सकती है।

         आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को पूर्णरूपेण प्रभावित किया है। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो विज्ञान से अछूता है। विज्ञान के माध्यम से मनुष्य ने अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की है।

         विज्ञान की इन अभूतपूर्व खोजों के माध्यम से मनुष्य हजारों मील दूर बैठे अन्य व्यक्तियों से बात कर सकता है। उसे देख सकता है प्राचीन काल में महीनों में बरसों में तब की जाने वाली दूरियों को आज कुछ दिनों बाद घंटों में तय कर सकता है। विज्ञान की अभूतपूर्व खोजों में दूरदर्शन भी ऐसी ही एक अनुपम उपलब्धि है जिसने मानव जीवन में एक क्रांति ला दी है।

         दूरदर्शन का आविष्कार सन 1944 ईस्वी में अमेरिका के महान वैज्ञानिक जॉन बेयर्ड ने किया था वर्तमान में दूरदर्शन का विस्तार केवल विकसित देशों में ही नहीं अपितु विश्व के समस्त कोनो तक पहुंच गया है संसार का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां तक इसकी पहुंच नहीं है हमारे देश भारत में इसका शुभारंभ 1959 ईस्वी में दिल्ली में दूरदर्शन केंद्र की स्थापना के साथ हुआ भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने इसका उद्घाटन किया था !

सिनेमा और साहित्य:-

         भारतीय सिनेमा ने अपने शताब्दी वर्ष के मुकाम को हाल ही में पूरा किया है। सिनेमा जगत में साहित्य का बेजोड़ संबंध है। साहित्य और सिनेमा के संबंध तो भारत के समाज से भी जुड़ा है। साहित्य को विश्व जनमानस से जोड़कर सिनेमा जगत में अंतरराष्ट्रीय मंच दिलाया है क्योंकि साहित्य की ही तरह सिनेमा भी अपनी प्राण शक्ति समाज से ही ग्रहण करता है। इस कार्य के जन्मदाता रामचंद्र गोपाल दादा साहब फाल्के ने बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि फिल्में केवल मनोरंजन के लिए नहीं होती इनकी कामयाबी के लिए सामाजिक सरोकारों से जोड़ना आवश्यक है। सिनेमा जगत में वी शांताराम की हादसे विमल राय श्याम बेनेगल मणि के चेतन आनंद सत्यजीत रे आदि का नाम अग्रणी है जो सिनेमा जगत के सफलतम निर्देशक और निर्माता माने जाते हैं।

आज समाज का दर्पण कहा जाने वाला साहित्य सिनेमा के जरिए जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत कर रहा है। सिनेमा की सफलता के लिए भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के ने साहित्य को जरूरी माना और कहा भी कि साहित्य के बगैर सिनेमा की यात्रा अधूरी है। दादा साहब ने कभी यह बात बड़ी बेबाकी से कही थी। फिल्म विदा सिर्फ मनोरंजन के साथ नहीं चल सकती है। उसमें साहित्य की उद्देश्यता आवश्यक है उसके बाद के अनेक फिल्मकारों ने इस बात की गंभीरता को समझा और साहित्य व सिनेमा के अंतर संबंधों को मजबूती प्रदान की साहित्य ने जो कहा उसे सिनेमा ने दिखाया !

         इसी प्रकार साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे कविता एकांकी नाटक लोक संगीत आदि में अभिरुचि रखने वाले सिनेमा नए-नए कार्यक्रम समय-समय पर प्रस्तुत करता है। सिनेमा पर आज की युवा पीढ़ी की रूचि के अनुसार भी कार्यक्रम उपलब्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सिनेमा समाज के  प्रत्येक वर्ग के लिए आवश्यक मनोरंजन प्रदान करता है। इसमें प्रत्येक वर्ग की अभिरुचि के अनुसार ही कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं।

         यह कहना गलत नहीं होगा कि साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में कथानक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से अत्यंत सशक्त होती हैं। इसलिए बी शांताराम की आसिफ महबूब खान विमल राय, अबरार अल्वी, चेतन आनंद, सत्यजीत रे, मंडल सेन, श्याम बेनेगल, मणि कौल, गोविंद निहलानी, गौतम घोष, मणिरत्नम जैसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त निर्देशकों का ध्यान हिंदी साहित्य की ओर रहा। सोवियत संघ से अमेरिका तक गुनगुनाए जाने वाले गीतकार संगीतकार हुए और जय हो श्री रहमान ने विश्व में अपनी अलग पहचान बना ली। अभिनय क्षेत्र में भी मेघा की कमी नहीं रही बलराज साहनी, किशोर साहू, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, अमरीश पुरी, ओम पुरी, नसीर जैसे सशक्त अभिनेता हुए अभिनेत्रियों में मीना कुमारी सुरैया नूतन रेखा स्मिता पाटिल शबाना आजमी श्रीदेवी हेमा मालिनी जयाप्रदा सरीखी  विलक्षण प्रतिमाएं रही।

सिनेमा और युवा वर्ग :-

         सिनेमा समाज में बनता है  समाज के लिए बनता है और एक नए समाज का निर्माण करता है “राजा हरिश्चंद्र ” और “आलम आरा ” से लेकर वर्तमान दौर तक हिंदी सिनेमा ने एक लंबी दूरी तय की है। इस दौरान भारतीय सिनेमा ने समाज के विभिन्न पहलुओं को घटनाओं को पर्दे पर दर्शाया है। भारतीय सिनेमा का इतिहास बहुत ही उज्जवल है। पुरानी फिल्में जहां सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण होती थी। वहीं वर्तमान में बनने वाली फिल्म में सामाजिक विघटन को बढ़ावा दे रही है। वर्तमान में सिनेमा के प्रभाव से आज का युवा खुद को नहीं बचा पा रहा है जीवन के हर पड़ाव से प्रभावित हो रहा है।

हिंदी में सिनेमा की शुरुआत राजा हरिश्चंद्र पर 1913 में बनी इस फिल्म से हुई थी। शुरुआती दौर में धार्मिक फिल्में ही बनी देश की जनता भी यही देखना चाहती थी। यही वजह है कि उस समय नैतिकता और धर्म का भी बोलबाला था। फिर आगे ऐतिहासिक फिल्में भी आने लगी और खूब सराही गई मुगल-ए-आजम ने नए कीर्तिमान स्थापित किए क्योंकि जब हिंदी सिनेमा बनना शुरू हुआ था। उस समय देश अंग्रेजों का गुलाम था इसलिए देशभक्ति की फिल्में बनाना खतरे से खाली नहीं था। लेकिन आजादी के बाद देश भक्ति पर भी फिल्में बनने लगी और इसमे मनोज कुमार का नाम सबसे ऊपर है जिन्हें भारत कुमार भी उपनाम दे दिया गया था। पिछले कुछ दशकों में तो बहुत सी देशभक्ति पर पर आधारित फिल्में बनी और खूब चली भी।

         उसके बाद आया सामाजिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों का दौर यूं तो यदा-कदा समाज सुधार को और विचारकों पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फिल्में बनती रहती थी पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था।

सिनेमा का सकारात्मक प्रभाव:-

         सिनेमा को मूल रूप से मनोरंजन के सभी साधनों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। युवा आराम करने और मनोरंजन करने के लिए सिनेमा देखते हैं हालांकि इसके साथ ही वे कई नई चीजें सीखते हैं। सामान्य मानव प्रवृत्ति इन चीजों को अपने जीवन में लागू करना है।

         क्योंकि युवा किसी भी राष्ट्र का भविष्य है इसलिए आवश्यक है कि वे एक सकारात्मक मानसिकता का निर्माण करें। इस प्रकार उनके लिए सिनेमा की अच्छी गुणवत्ता देखना आवश्यक है, जो उन्हें मानसिक रूप से बढ़ने में मदद करता है और उन्हें अधिक जानकार और परिपक्व बनाता है ना केवल क्रियाएं और बॉडी लैंग्वेज बल्कि भाषा पर उनकी कमांड का स्तर सिनेमा से प्रभावित होता है।

इसके अलावा कई फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं करती हैं बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में बहुत सारी जानकारी प्रदान करती हैं। यह युवाओं को एक खुली मानसिकता विकसित करने में मदद करती हैं। कुछ अच्छी फिल्में और बायोपिक सही मायने में व्यक्ति के मन को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं और उसे जीवन में कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित कर सकती हैं।

         फिल्में और गाने दर्शकों में देशभक्ति की भावना को जन्म दे सकते हैं। एक फिल्म हमेशा एक अच्छा मनोरंजन होता है। यह आपको अपनी सभी समस्याओं को भूल जाने देता है और आपको कल्पना की एक नई दुनिया में ले जा सकता है जो कई बार लाभकारी हो सकती है।

         कई बार फिल्में भी अपनी शैली के अनुसार आपके ज्ञान के दायरे को बढ़ा सकती हैं। एक ऐतिहासिक फिल्म इतिहास में आपके ज्ञान में सुधार कर सकती हैं एक वैज्ञानिक फिल्म आपको विज्ञान आदि के कुछ ज्ञान से अवगत करा  सकती है।

         अच्छी कॉमेडी फिल्मों में आपको हंसाने की ताकत होती है और इस तरह से आप अपना मूड बदल सकती हैं। साहित्यिक फिल्में आप में साहस और प्रेरणा की भावना पैदा कर सकती हैं।

सिनेमा का नकारात्मक प्रभाव:-

         फिल्में समाज का दर्पण होती हैं। यह समाज में व्याप्त बुराइयों और विसंगतियों को आम जनमानस के सामने प्रकट कर इसे समूह खत्म करने को प्रेरित करती हैं। फिल्मों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाता है लेकिन वर्तमान में कुछ भारतीय फिल्मों में पश्चिमी परंपराओं के साथ-साथ अश्लीलता दिखाई जा रही है। जिसका भारतीय संस्कृति पर बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है। फिल्मों के रुपहले पर्दे पर छोटे-छोटे भड़काऊ कपड़े पहनकर अभिनेत्रियों द्वारा अभिनय करना हमारे समाज के वास्तविक जीवन में भी देखने को मिल रहा है। चाहे आमिर और सलमान का गजनी और तेरे नाम का हेयर स्टाइल हो या फिर फिल्म धूम में दिखाई गई बैंक डकैती इन सब की स्पष्ट प्रमाण है कि इन कृत्यों ने  समाज में नकारात्मक प्रभाव डाला है। त्योहारों पर होने वाला बेहिसाब खर्चा चुनाव में होने वाली दबंगई छोटे शहरों में माफिया राज कहीं ना कहीं समाज ने इस फिल्मों से ही सीखा है। पुरानी फिल्में सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण होती थी। वह वर्तमान में बनने वाली अधिकतर फिल्में सामाजिक विघटन को बढ़ावा दे रही हैं। वर्तमान में सिनेमा के प्रभाव से आज का युवा खुद को नहीं बचा पा रहा है। जीवन के हर पड़ाव में इनसे प्रभावित हो रहा है। फिल्मों का युवा वर्ग पर सामाजिक और सांस्कृतिक दोनों रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। युवाओं पर सिनेमा का या नकारात्मक प्रभाव समग्र रूप से भारतीय समाज की दशा और दिशा दोनों को ही बदलने में सक्षम है।

कभी भारतीय संस्कृति और मूल्यों की पैराकोर रही फिल्में वर्तमान समय में समाज के सामने हिंसात्मक अश्लील और भड़काऊ चीजें परोसने लगी है। फिल्मों के साथ ही युवाओं की आचार विचार रहन-सहन में व्यापक परिवर्तन आया है। इसके लिए कहीं ना कहीं हमारा सिनेमा ही जिम्मेदार है जिसने पश्चिमीकरण को ही अपना सब कुछ मान लिया है फिल्में विशुद्ध व्यवसाय बन गई हैं।

उपसंहार :-

         एक चीज के हमेशा दो पहलू होते हैं। एक सकारात्मक और एक नकारात्मक फिल्मों को अवश्य देखना चाहिए और अपने सभी नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए उन्हें एक सीमा तक प्रभावित करने देना चाहिए। जैसा कि ठीक कहा गया है सीमा में किया गया सब कुछ लाभार्थी है। इसी तरह ऐसी फिल्मों में समय लगाना चाहिए जो आपके लिए लाभदाई हो ना कि ऐसी फिल्मों में हम अपना समय बर्बाद करें जो आपके जीवन को नष्ट करने वाली हो।

सिनेमा ने मनुष्य के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। अतः निर्माताओं एवं निर्देशकों को फिल्म बनाते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह जनता को जो कुछ भी दिखाना चाहते हैं, वह तर्कसंगत होने के साथ-साथ मनुष्य के जीवन  में सकारात्मक प्रभाव लाए  जो कि देश के विकास में हितकर हो।

         सिनेमा का साहित्य और युवाओं पर सकारात्मक प्रभाव ही दृष्टिगत होना चाहिए सिनेमा भारतीय जीवन का एक अमूल्य अंग है और इसका सही दिशा और दशा में प्रयोग करके ही इसे समुन्नत बनाया जा सकता है।

सन्दर्भ ग्रंथ सूची :-          

  1. सन्दर्भ-सूत्र परीक्षा मंथन, सं० अनिल अग्रवाल, ताशकन्द मार्ग सिविल लाइंस, इलाहाबाद,
  2. हंस, फरवरी अंक 2013,
  3. परीक्षा मंथन,
  4. हंस, फरवरी अंक 2013,
  5. आजकल, अक्टूबर अंक, 2015
  6. आजकल, जून अंक, 2015

 

डॉ. नम्रता जैन                                                                           डॉ. रत्नेश कुमार जैन

असि. प्रोफेसर                                                                            प्राचार्य

तीर्थंकर आदिनाथ कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन                 तीर्थंकर आदिनाथ कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय  मुरादाबाद         तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय  मुरादाबाद

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