सार

 भारतीय समाज में चाहे स्थान तथा क्षेत्र कोई भी हो नारी को हर जगह अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़नी ही पड़ती है। वैदिक काल में नारी को पुरूषों के समान ही दर्जा दिया जाता था फिर धीरे-धीरे सामाजिक कुसंगतियों, विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों आदि के साथ-साथ समाज में पुरूष व स्त्री के बीच असमानता की खाई और भी गहरी होती चली गईं। नारी पुरूषों से कितना भी कंधे से कंधा मिलाकर चले समाज उसके उन्नयन पर हमेशा एक तिरछी निगाह रखता है। एक मां, पत्नी, बेटी, बहन आदि के रूप में किए गए उसके संपूर्ण त्याग व समर्पण को भी केवल उसका कर्तव्य मानकर भुला दिया जाता है।

                  फिल्में समाज का आईना होती हैं तथा बहुत हद तक समाज को प्रभावित करती हैं। चाहे वे देशभक्ति जगाने वाली हो, चाहे फैशन जगत की राह दिखाने वाली हो या चाहे समाज का सच्चा स्वरूप हमारे सम्मुख प्रस्तुत करने वाली हो। हर प्रकार से ये समाज से सरोकार रखती है। भारत देश में अनेक भाषा-भाषी व संस्कृति के लोग निवास करते हैं। इसलिए अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार वहाँ की फिल्मों की भाषा तथा परिवेश में भिन्नता का पाया जाना बहुत ही स्वाभाविक हैं। प्रस्तुत लेख में दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध निर्देशक पद्मश्री के० बालचंदर द्वारा निर्देशित कन्नड़ फिल्म “बेंकीयल्ली अरळिद हुवू”  तथा तमिल फिल्म “अवळ ओरू त़ोडर कथै” व उससे विभिन्न भारतीय भाषाओं में पुनर्निर्मित चलचित्रों को आधार के रूप में लिया गया है; जिसमें नौकरीपेशा नारी के जीवन में उसके सम्मुख आने वाली अनेकानेक बाधाओं तथा उन बाधाओं का उसके निडर होकर सामना करने का चित्रण किया गया है। इस लेख में इन फिल्मों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि फिल्में समाज का आईना होती है और चाहे दर्शक किसी भी भाषा या संस्कृति से संबंध रखता हो, अपनी संप्रेषणीयता के माध्यम से वे उसे प्रभावित कर ही देती है और समाज को बदलने की शक्ति भी रखती हैं। भारतीय समाज को चाहे कितना भी सुसंस्कृत कहा जाए नौकरीपेशा नारी की समस्याएँ यहाँ अभी तक सुलझी नहीं है।

प्रस्तावना

13 नवंबर 1974 को रूपहले पर्दे पर उतरी तमिल फिल्म अवळ ओरू त़ोडर कथै की नायिका सुजाता है, इसका कन्नड़ रूपांतरण (1984) है – बेंकीयल्ली अरळिद हुवू जिसकी नायिका कविता है। नायिका केंद्रित फिल्में बनाने में निर्देशक के० बालचंदर का कोई सानी नहीं है। इनकी कथाओं के नारी पात्र प्रायः खुले विचारों वाले होते हैं जो अन्याय का पुरजोर विरोध करने की क्षमता रखते हैं। इस फिल्म की सारी कथा इस प्रधान नायिका कविता के इर्द-गिर्द ही घूमती है। एम० एस० विश्वनाथन जी का संगीत भी फिल्म में उपस्थित होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप है। कहीं  भी कोई गीत ऐसा नहीं लगता मानों बिना किसी प्रयोजन के डाला गया हो।

विवेचना

कहानी में दिखाई देने वाली नायिका कविता जो हमेशा सजी-धजी और रूवाब से भरी दिखाई देती है। वह अंदर से मोम की तरह कोमल है। सारे संसार को दिखाने के लिए उसने यह नकली आवरण ओढ़ रखा है। जो उन शैतानों से भी उसकी रक्षा करता है जो नारी को केवल भोग के लिए उपलब्ध एक मांस का पिंड मानते हैं। कहानी में कई नारी व पुरूष पात्र है जो बिल्कुल भिन्न-भिन्न गुणों को आत्मसात किए हुए है। पुरूष पात्रों में कोई शराबी है, कोई कामांध है कोई भावुक व सहनशील है, कोई सहृदय वाला सत्पुरूष है, कोई नारी की प्रगति का समर्थक है तो कोई नारी की सफलता से जलने वाला है। नारी पात्रों में कोई सारी जिम्मेदारी अकेली सहती है, कोई लाजवंती है, कोई अपने रूप का प्रयोग अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए करती है तो कोई दिन रात अपनी तकदीर पर रोती है। इस प्रकार भावनात्मक रूप से भिन्न-भिन्न पात्र इस कथा मे गूंथे हुए हैं।

              तमिल फिल्म अवळ ओरू त़ोडर कथै (वह कभी न खत्म होने वाली कहानी) तेलुगु ,कन्नड़, हिंदी, बांग्ला भाषाओं में भी रूपांतरित की गई। जिनके नाम क्रमशः अंत़ुलेनी कथा (कभी खत्म न होने वाली कहानी), बेंकि अल्ली अरळिद हूवू (आग में खिला फूल), जीवनधारा तथा कबिता  है। फिल्मों के नाम, नायक-नायिकाएँ, स्थल अलग- अलग है पर हर घटनाएँ बिल्कुल एक सी हैं जिसे देखने के बाद किसी भी भाषा का दर्शक कथा से जुड़ सा जाता है। इन फिल्मों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि सभी अभिनेताओं व अभिनेत्रियों ने अपनी भूमिका के साथ संपूर्ण न्याय किया है।

कामकाजी महिलाओं की समस्या (भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में)

“कामकाजी महिला चाहे जहां भी हो उसे पुरूष का दमन तो सहना ही पड़ता है। चाहे वह घर में हो, रास्ते में बाहर या किसी कार्यालय में हो उन्हें हर पल एक परीक्षा सी देनी पड़ती है। हर क्षेत्र में प्रगति के सोपानों को छूने पर भी भारत में स्त्रियों के भाग्य का निर्णय अभी भी उनके पति या परिवार के हाथों में होता है वह अपने विवाह परिवार यौन-संबंध तथा अन्य बातों के संबंध में मुक्त नहीं है।” यदि महिला इन बंधनों से मुक्त होने की कोशिश भी करती है तो उसे समाज बदचलन या वेश्या का नाम देता है। कविता का भाई मूर्ति एक शराबी है फिर भी वह घर में ऐसे रहता है जैसे वहीं घर का मालिक हो जिसका एकमात्र कारण है उसका पुरूष होना। कविता की आधुनिक वेशभूषा देखते ही पुरूष वर्ग उसे सरलता से उपलब्ध हो जाने वाली वस्तु के रूप में देखने लगता हैं। कामकाजी महिलाओं की समस्या पर चर्चा करते समय उनकी घरेलू जिन्दगी भी इसके अंदर समाहित हो जाती है उन पर केवल कार्य स्थल के काम का बोझ ही नहीं अपितु घर व उसकी समस्याओं का भी बोझ है फिल्म में कविता को इन दोनों से हर पल जूझते हुए दिखाया गया है। भारतीय कामकाजी महिला का संबंध प्रायः समाज के मध्यम वर्ग या निम्न मध्य वर्ग से होता है। उच्च-वर्ग की स्त्रियाँ प्रायः जीवन निर्वाह के लिए कार्य नहीं करती वरन कार्य करने के पीछे उनका उद्देश्य सामान्यतया खाली समय बिताना होता है। जबकि घरेलू कार्यो में भी उनकी कोई भूमिका नहीं होती घर के काम-काज उनके नौकरों के जिम्मे होते हैं। एक मध्य अथवा निम्न मध्य वर्ग की कामकाजी महिला का नसीब ऐसा नहीं होता। नि:संदेह उसकी स्थिति दो नावों में सवार व्यक्ति के समान होती है क्योंकि एक ओर उसे कार्यालय में तनाव के नीचे कार्य करना होता है जहाँ स्त्री होने के कारण अधिकारी वर्ग उसे दबाने की कोशिश में लगा रहता है और दूसरी ओर वह घर की समस्याओं के साथ पिसती रहती है।

कविता के कार्यालय में कार्य करने वाला कामी पुरूष चंद्रशेखर सदा उसे अपनी काम पिपासा बुझाने का प्रयत्न करता है और मुंह की खाता है। नारी चाहे कितनी भी कठोर उद्यमी क्यों न हो सभी उसकी गलती निकालने और डाँटने में अपना पुरुषत्व सार्थक समझते हैं। बेचारी स्त्री जीविका से हाथ धो बैठने और अन्य कर्मचारियों, परिवार और समाज के सामने प्रतिष्ठा की हानि के डर से आवाज नहीं उठा पाती है। उसका जीवन तलवार की धार पर चलने के समान होता है। इसके अतिरिक्त उसे घरेलू दायित्वों को भी निभाना होता है। कार्यालय में इतना समय व्यतीत करने के कारण उसकी घरेलू जिन्दगी में भी अस्त-व्यस्तता आ जाती है। वह अपने घर के कामों को ठीक ढंग से करने में सक्षम नहीं हो पाती है। उसे खाना बनाने, बच्चों को विद्यालय के लिए तैयार करने, पति व बच्चों के लिए टिफिन तैयार करने और सफाई आदि करने के लिए सुबह जल्दी उठना पड़ता है। इन सब कामों को निपटा कर वह कार्यालय जाने के लिए तैयार होती है। “फिल्म में कविता की स्थिति इस परिप्रेक्ष्य में बेहतर है क्योंकि घर के काम अन्य लोगों द्वारा किए जाते हैं जो कोई और काम नहीं करते।” पश्चिमी देशों की तरह भारत में घरेलू कामों के सामान्यतया पति, पत्नी का हाथ नही बंटाते। कार्यालय से थकी-मांदी घर लौटने पर उसे बच्चों, पति व परिवार वालों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना पड़ता है। खाना बनाना, मेहमानों की तीमारदारी और उस पर भी सदैव खुश दिखाई देना ही भारतीय कामकाजी महिला की जैसे नियति होती है। कार्यस्थल पर तो महिलाएं प्रायः प्रतिदिन निम्नलिखित परिस्थितियों से तो गुजरती ही है:-

  1. कार्यालय में लैंगिक दुर्व्यवहार का भय।
  2. अपने सहकर्मी से पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाना।
  3. कार्यालय में महत्त्वपूर्ण भूमिका न दिये जाना।
  4. प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष तौर पर उन पर मजाक बनाया जाना।
  5. महिलाएँ अधिकांशतः असंगठित क्षेत्र में ही हैं अतः जीवन व्यवसाय इत्यादि की असुरक्षा तथा निम्न वेतन।
  6. नारी के समान्य जैविक कार्यों (मासिक धर्म, मातृत्व इत्यादि) के लिये भी पर्याप्त छुट्टी न मिल पाना।

यदि हम यहां फिल्म की प्रधान नायिका कविता का चरित्र चित्रण करें तो हम उसमें कई परतें पाएंगे जो समस्याओं से घिरी भारत के लगभग हर कामकाजी महिला की जिंदगी से जुड़ी हुई होती है-

  1. सहनशील:- कविता सहनशीलता की साकार मूर्ति है वह जीवन में मिलने वाले हर थपेड़े को मजबूती के साथ सहन कर लेती है। न अपने भाग्य को कोसती है और न ही रोने के लिए कोई कंधा ढ़ूँढ़ती है।
  2. आत्मनिर्भर:- कविता किसी पर निर्भर नही रहना चाहती। वह सुंदर है चाहे तो अपनी सुंदरता का प्रयोग कर वह उसका लाभ अपने स्वार्थ के लिए सरलता से उठा सकती है। पर वह ऐसा कभी नही करती।
  3. चरित्रवान:- कविता भले ही फैशन करती हो परंतु वह अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। बाहरी फैशन को उसने कभी भी अपने पर हावी नहीं होने दिया। भीतर से वह वही भारतीय नारी है जिसके लिए उसकी अस्मिता ही उसके प्राण है। इस कारण समाज में बैठे कामांधों का ये डटकर विरोध करती है।(ई अलंकारा सुळेगारिके माडोक्के अल्ला- यह सजावट वैश्यावृत्ति के लिए नहीं है)
  4. त्याग की भावना से परिपूर्ण:- अपने परिवार के सदस्यों का जीवन ही कविता का सबकुछ है। अपने जीवन की उसे तनिक भी परवाह नहीं है। परंतु उसके त्याग को कोई समझ नहीं पाता। सभी उसपर जिद्दी गुस्सैल अहंकारी होने का लांछन ही लगाते हैं। अपनी बहन के लिए वह अपने प्रेमी का त्याग कर देती है तथा अपनी दूसरी बहन की शादी अपने बास से करवा देती है जिसकी शादी उससे तय की गई होती है। इस प्रकार कविता त्याग की साकार मूर्ति है।(नन्न कर्तव्या मुगियो तनका मधुवे माडोक्के साध्याविल्ला – मेरे कर्तव्यों के निर्वाह हो जाने तक मैं शादी न कर सकूंगी)
  5. नारी सुलभ कोमल भावनाओं से परिपूर्ण:- कविता के मन में नारी सहज प्रेम, क्षमा, दया, करूणा आदि भावनाएँ भी है। पर इन भावनाओं के ऊपर वह जैसे कोई पर्दा सा ओढ़ लेती है क्योंकि यही वे भावनाएँ हैं जिसके कारण पुरूष अपने समक्ष उसे कमजोर होने का एहसास दिलाता है।(नानू हेण्णु मरद कोरडल्ला– मैं भी नारी हूँ कोई लकड़ी का टुकड़ा नहीं)
  6. सच्ची मित्र:- जब कविता की सहेली चंद्रा जब आधुनिकता की होड़ में नित नए पुरूषों से संबंध बनाती है तब कविता उसे समझाती है। जब चंद्रा जीवन में ठोकर खाकर गिर जाती है तो कविता उसे सहारा देकर उसका विवाह करवाती है।
  7. धैर्यशाली:- वह धैर्यशाली है। पिता के घर छोड़कर भाग जाने, भाई के शराबी होने अंधे भाई, विधवा बहन, भाभी व उसके बच्चों से भरा परिवार उसी के दम पर चलता है। वह धैर्यपूर्वक सारे परिवार की जिम्मेदारी निभाती है। उसमें एक ओर तो साहस है वहीं दूसरी ओर करूणा तथा प्रेम की भावना है जिसके कारण वह कर्तव्यनिष्ठ बनकर अपने कर्तव्य का पालन बिना किसी अपेक्षा के करती है। वह यह जानती है कि सभी उससे डरते व घृणा करते हैं परंतु परिवार के भले के लिए वह अपने ऊपर वह बनावटी गुस्सैल मुखौटा सदा लगाए रखती है जिससे परिवार की रक्षा की जा सकें जिसके लिए उसे दूसरों की उलाहना भी स्वीकार्य होती है।

उपसंहार

 इस प्रकार हम पाते हैं कि भारत में हर एक कामकाजी महिला चाहे वह किसी भी स्थान से संबंध रखती हो उसे एक जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। चाहे हम कितनी भी डींगे हाँक ले कि समाज आगे बढ़ चुका है, नारी सफलता के चरम पर पहुँच चुकी है। तो ये सब केवल कोरी बाते ही कहलाएंगी क्योंकि अधिकांश परिप्रेक्ष्यों में नारियों की स्थिति अब भी वहीं है। आज भी उसके अपमान, तिरस्कार, बलात्कार जैसी समस्याएं जस की तस बनी हुई है। इस संबंध में एक ओर महिलाओं को जागरूक होना चाहिए तथा दूसरी ओर पुरूषों को भी महिलाओं को समान दर्जा प्रदान करना चाहिए क्योंकि वह उससे कम नही अपितु उसकी पूरक है वो गाड़ी का वहीं दूसरा पहिया है जिसका एक पहिया पुरूष है जिसके बिना समाज की कल्पना कर पाना असंभव है। हमारे देश की आबादी का लगभग आधा भाग महिलाएँ है। संविधान इन्हें पुरूषों के समान अधिकार प्रदान करता है किंतु अनेक पूर्वाग्रहों तथा लिंग-भेद के कारण महिलाओं को शोषण व हिंसा का शिकार होना पड़ता है। पुरूष कई बार आसानी से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है परंतु नारी भावनाओं का बहता स्रोत है वह हर हाल में अपनी जिम्मेदारी निभाती ही आई है। पिता के घर के झंझटों से मुक्त होने के लिए घर छोड़कर भाग जाने पर भी कविता अपना कर्तव्य नहीं भूलती है और अकेले ही समाज के झंझावातों के बीच परिवार का दायित्व संभालती है। कई बार पिता के न होने पर वह अकेले ही माता व पिता की भूमिका बखूबी अदा करती है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को केवल भोग की वस्तु माना जाता है।

“समाज में आज कई जगह बदलाव भी देखने को मिलता है। जो समाज कल तक महिला की कमाई को अनुचित मानता था आज पति-पत्नी दोनों मिलकर घर चलाते हैं जो समाज के लिए एक सुंदर संकेत है। परंतु कई कामकाजी महिलाएं आज भी आर्थिक रूप से पुरूषों से मुक्त नहीं हैं क्योंकि वे परिवार की अर्थव्यवस्था में योगदान तो करती है परंतु अपनी इच्छानुसार व्यय करने के लिए स्वतंत्र नहीं होती।” वह बाहर की नौकरी के साथ घर में भी खपती है। भारत का सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य कामकाजी महिलाओं को उचित व्यवसायिक वातावरण उपलब्ध नहीं करता। अतः यह मेरा सुझाव है कि सार्वजनिक व निजी प्रतिष्ठानों में महिला सुरक्षा और आत्म-सम्मान से जुड़ी आधारभूत प्रणाली का विकास किया जाये तथा संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के व्यवसायिक संतुष्टि हेतु उन्हें श्रम के अनुकूल वेतन मिलना चाहिए। कामकाजी महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक सुधार क्रियान्वित किए जाने चाहिए। महिलाओं पर कार्यस्थल पर हुए किसी भी प्रकार के उत्पीड़न को दूर करने व उसकी व्यथा के निवारण के समुचित प्रबंध किए जाने चाहिए।

           बेंकीयल्ली अरळिद हुवू की नायिका कविता समाज के हर उस कामकाजी युवती का प्रतिबिंब है, जो घर की आवश्यकताओं के लिए घर से बाहर निकलकर समाज में सम्मानपूर्वक काम करना चाहती है। यद्यपि उसे समाज में कई प्रकार के कंटकों से जूझना पड़ता है पर वह उनसे डरती नहीं अपितु उनसे डटकर लोहा लेती है और समाज की उन सब महिलाओं के लिए आदर्श बनती है जो सोचती हैं कि नारी केवल पुरूष के सहारे ही रह सकती है। इन सबके साथ वह अपने भीतर व्याप्त नारी के दया, ममता, करूणा, सहनशीलता, प्रेम आदि जैसे महानतम गुणों को अपने से कभी दूर नहीं होने देती।

संदर्भ ग्रंथ सूची –

  1. डॉ. प्रमिला कपूर, 1996, कामकाजी भारतीय नारी, राजपाल एंड सन्स प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. वर्मा अंजली, 2009, भारत में कार्यशील महिलाएं, ओमेगा पब्लिकेशन नई दिल्ली।
  3. सिंह वी. एन., 2010, आधुनिकता एवं महिला सशक्तिकरण, रावत पब्लिकेशन, जयपुर।
किरण अय्यर वी.
कनिष्ठ अनुवाद अधिकारी
सीमाशुल्क गृह, कोचिन,केरल

 

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