स्त्री-जीवन के सच और उसकी नियति से मुठभेड़ करती हुई हिन्दी और बांग्ला के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों को भी हिन्दी सिनेमा ने अपने विस्तृत पटल पर जगह दी है। संस्कृत, उडि़या, तेलुगु, मराठी और उर्दू-साहित्य में बड़े पैमाने पर स्त्री-जीवन की पीड़ा को उद्घाटित करती कृतियाँ हैं। हालाँकि भाषा-ज्ञान की सीमा की वजह से उन तमाम कृतियों और उनपर बनी फिल्मों का समग्र विश्लेषण यहाँ संभव नहीं है। कुछ प्रतिनिधि उदाहरणों के सम्यक विवेचन के जरिए हम इस शोध पत्र में अन्य भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों पर आधारित सिनेमा में स्त्री-सच को तलाशने की कोशिश करेंगे।

              भारतीय चिन्तन परम्परा में ‘काम’ का दर्शन कभी ‘टैबू’ नहीं रहा। यह भारतीय समाज का विलक्षण अंतर्विरोध है कि दर्शन के स्तर पर यहाँ ‘काम’ टैबू नहीं है, किन्तु समाज-व्यवहार के स्तर पर यह सर्वथा वर्जित विषय है। इस तरह के विवादित और वर्जित विषय पर फिल्म-निर्माण का साहस सन् 1984 में शशि कपूर ने किया और गिरीश कर्नाड के निर्देशन में ‘उत्सव’ बनी। दो सौ ईसा पूर्व में शूद्रक द्वारा रचित महाकाव्य ‘मृच्छकटिकम’ पर यह फिल्म आधारित थी। यह उदारवादी दौर से पहले की फिल्म है, इसलिए अपने विषय के लिहाज से यह बेहद ‘बोल्ड’ मानी गई। शंकर नाग, शशि कपूर, रेखा, अमजद खान, अनुराधा पटेल, शेखर सुमन, नीना गुप्ता, अन्नू कपूर आदि के अभिनय से जीवंत हो उठे शूद्रक के पात्र देह,  काम,  प्रेम और वासना के दर्शन को पर्दे पर उतारते हैं। भारत वात्स्यायन की भूमि है, जिसपर कामसूत्र का चिन्तन खिलता-लहलहाता है, जहाँ आज भी खजुराहो मौजूद है। वात्स्यायन के काम-चिन्तन को हल्के-फुल्के ढंग से रखती इस फिल्म में स्त्री की देह और उसके मन की सशक्त उपस्थिति है। प्रेम दुनियावी सीमाओं में नहीं अँटता। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ यहाँ अप्रासंगिक हो जाती है। वसंतसेना और चारूदत्त का प्रेम इन तमाम परिधियों का अतिक्रमण है। वेश्याओं के भी हृदय होते हैं, वहाँ भी प्रेम के फूल खिलते है। वसंतसेना जब यह कहती है- ‘‘मेरे लिए प्रेम की बात सोचना भी मूर्खता है, पर मैं चारूदत के बिना—-’’ तो वह समूची स्त्री-जाति की आकांक्षाओं को ध्वनित कर रही होती है। स्त्री, वेश्या हो या कुलीन, उसे प्रेम का अधिकार सभ्यताओं ने नहीं दिया। स्त्री की आकांक्षित दुनिया में देह, काम और प्रेम बँटा हुआ नहीं है, यह साथ-साथ है, उन्मुक्त है। सिमोन लिखती हैं- ‘‘प्रागैतिहासिक काल में यौन संबंधों पर कोई नियंत्रण नहीं था और स्त्री व पुरुष दोनों के पास चयन का अबाध अधिकार था।’’1  मुक्त काम के भारतीय दर्शन और तमाम सामाजिक वर्जनाओं के बीच काम और प्रेम-संबंधी स्त्री की आकांक्षाओं को लोक-विमर्श में पुनः लाने के लिहाज से यह एक ऐतिहासिक फिल्म है।

                हिन्दुस्तान में नवजागरण का नेतृत्व बांग्ला के साथ मराठी साहित्य और समाज ने भी किया। जागरण-सुधार काल का एक पिलर यदि बंगाल में है तो दूसरा महाराष्ट्र में। मराठी साहित्य ने आधुनिकता की चेतना को समय से पहचाना और अभिव्यक्त किया है। हिन्दी सिनेमा को मराठी जमीन ने न सिर्फ बसने बढ़ने की जगह दी बल्कि अपने प्रगतिशील साहित्य से भी इसे समृद्ध बनाया। मराठी कृति के सिनेमाई रूपांतरण के क्रम में जो सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है, वह है हंसा वाडेकर की आत्मकथा पर श्याम बेनेगल द्वारा बनाई गई ‘भूमिका’। देवदासी की परंपरा भारत में शताब्दियों से रही है, जिसमें स्त्री को देवताओं की दासी के रूप में मंदिरों में कैद रखा जाता था। पितृसत्ता में पुरुष, देवता की परिभाषा में शामिल हो जाता है और वह हर उस चीज के उपभोग का अधिकारी बन जाता है, जो तथाकथित देवता के हिस्से में है। आधुनिक समाजों में भी यह सच ज्यादा नहीं बदला है। उषा (स्मिता पाटिल) देवदासी समुदाय की एक गायिका की पोती है, जिसे केशव दलवी फिल्मी दुनिया में लेकर आता है। प्रकारांतर से यह फिल्म निम्न और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से सिनेमा की दुनिया में आई स्त्री के शोषण की गाथा भी है। यहाँ न सिर्फ स्त्री की देह, बल्कि उसका हुनर भी पुरुष के उपभोग के लिए है। केशव (अमोल पालेकर) जो उषा से दोगुनी उम्र का है, वह उसके जीवन और हुनर पर एकाधिकार चाहता है, उसे अपने दरवाजे पर बँधी गाय की तरह चारे के बदले दुहना चाहता है। वह उषा से विवाह करता है, ताकि उसकी देह के साथ-साथ उसकी कमाई को भी भोग सके। एक आत्मनिर्भर, मुक्त और खुदमुख्तार स्त्री पुरुष जीवन के भूगोल में नहीं समाती। केशव जो पति कम, अपनी पत्नी का मैनेजर और दलाल अधिक है, सवाल करता है- “तुमने अपना अलग बैंक एकाउंट खोल लिया है और कांन्ट्रैक्ट भी खुद साईन करने लगी हो?”

              इस दासता से मुक्ति की तलाश में स्त्री दूसरे पुरुषों के पास जाती है, किन्तु वहाँ भी उसके वजूद को देह से ज्यादा नहीं आँका जाता। साथी कलाकार राजन (अनंत नाग) और निर्देशक सुनील वर्मा (नसीरुद्दीन शाह) के लिए भी वह मन बहलाने के साधन के ज्यादा नहीं हो पाती। सिनेमा की दुनिया में आज भले ही स्त्रियाँ अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हों, पर ‘मी टू’ कैंपेन से हमने यह जाना है कि वहाँ कितना अंधेरा है, स्त्री को कैसे वहाँ एक देह में रिड्यूस किया जाता रहा है। चकाचौंध से भरी इस दुनिया के सच को जान लेने के बाद उषा इस दुनिया से बहुत दूर चली जाना चाहती है। इसी क्रम में वह पुनः प्रेम करती है विनायक काले से, जो एक व्यवसायी और जमींदार है। किन्तु वहाँ भी उसे पितृसत्ता की जंजीरों में बाँधने की कोशिश होती है। वह घूमने के लिए घर से बाहर निकलना चाहती है, पर उसे जवाब मिलता है- “मेरी दादी इस घर से बाहर कभी नहीं गई, मेरी माँ नहीं गई। यही हमारे परिवार की परंपरा है।“ हाशिए की आबादी को चाहे वह दलित हो या स्त्री, सबसे अधिक परंपरा के नाम पर शोषित किया जाता है और अनादिकाल से चली आ रही इन परंपराओं का निर्माण दरअसल प्रभुत्व स्थापना के क्रम में समाज का ताकतवर वर्ग करता है। उषा इस कैद को स्वीकार नहीं करती वह एक अदद ‘शेल्टर’ के बदले अपने वजूद को ‘अन्या’ के रूप में सीमित नहीं करना चाहती। सिमोन लिखती हैं- “औरत यदि अन्या होना अस्वीकार करे, यदि वह समझौते से मुकरे तो इसका परिणाम होगा पुरुष जाति से जुड़ने के फलस्वरूप परम्परागत रूप से प्राप्त तमाम सुविधाओं का परित्याग।“2

              श्याम बेनेगल की इस फिल्म के अंत या इसके निष्कर्ष को लेकर दो तरह के मत हो सकते हैं। एक जगह से देखने पर फिल्म के अंत में उषा एक कमजोर और समझौता करती हुई स्त्री के रूप में दिखाई देती है। अगर उसे विनायक के यहाँ से लौटकर अपने पति के यहाँ ही आना था, फिर उसके जीवन के अब तक के संघर्षों का क्या मतलब रह जाता है। लेकिन मुझे लगता है कि यह निष्कर्ष एकांगी है और 1977 की एक स्त्री से अतिरिक्त क्रांतिकारिता की अपेक्षा इसमें है। पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक और कुछ हद तक आज के संदर्भों में भी भारतीय स्त्री न तो पूर्णतः मुक्त है, न ही पति और परिवार के बगैर उसकी सहज स्वीकार्यता है। इस तरह श्याम बेनेगल ने 1977 में फिल्म का अंत जिस बिन्दु पर दिखाया है वह यथार्थवादी है न कि आदर्शवादी।

              उर्दू साहित्य ने भी हिन्दी सिनेमा को सींचने, बढ़ाने-खिलाने में बड़ी भूमिका निभायी है। इस भाषा के रचनाकारों ने सिनेमा को कालजयी गीत, गजले और संवाद दिए हैं। साथ ही उर्दू-कथा साहित्य पर कुछ बेहतरीन फिल्में भी बनी हैं, जो विशेष रूप से स्त्री जीवन और स्त्री-संवेदनाओं के बीहड़ में जाती है। इस लिहाज से दो कृतियों पर बनी फिल्मों का जिक्र यहाँ जरूरी है। पहली है मिर्जा हादी रुसवा की कृति ‘उमराव जान अदा’ और उस पर 1981 में मुजफ्फर अली द्वारा बनायी फिल्म ‘उमराव जान’। दूसरी है गुलाम हसन अब्बास की लघुकथा ‘आनंदी’, जिस पर श्याम बेनेगल ने सन् 1983 में ‘मंडी’ बनाई।

              एक स्त्री के ‘स्त्री’ होने में जो पीड़ा शामिल है, जो उसके वजूद से बद्ध है, उस पीड़ा की कथा है- ‘उमराव जान’। मुजफ्फर अली द्वारा रचा गया यह एक अद्भुत क्राफ्रट है, जिसमें स्त्री की पीड़ा को शिद्दत से उभारा गया है। यह निर्देशक अपने परिवेश के प्रति बेहद सजग और यथार्थवादी है। ‘उमराव जान’ में वाजिद अली शाह के जमाने का लखनऊ पर्दे पर जी उठता है। अपने भूगोल की उसकी एक-एक ईंट उसके हर रंग, हर दर्द, हर टीस, हर पीड़ा की बेजोड़ समझ है मुजफ्फर अली में। “हिन्दी सिनेमा की यथार्थवादी परंपरा जो महबूब खान और बिमल रॉय से परवान चढ़ी, ‘पाकीजा’ ओर ‘उमराव जान’ उसकी बेहतरीन कडि़याँ हैं।“3 स्त्री प्रेम के सफर की सनातन मुसाफिर है, उसका सफर कभी खत्म नहीं होता क्योंकि मंजिल कभी मिलती नहीं है। फैजाबाद की अमीरन लखनऊ की उमराव जान बना दी जाती है, यह उसका चयन नहीं है, उसकी नियति है। कोठे पर रहने वाली स्त्रियों के बारे में भारतीय समाज में जो नैरेटिव है, मुजफ्फर अली उसे तोड़ते-बदलते हैं। उनका हृदय भी धड़कता है और स्त्री-जीवन की पीड़ा उनके हिस्से भी बराबर आती है। वह नवाब सुल्तान से प्रेम करती है, जिसके बज़्म में नवाब साहब को ‘ये जमीं चाँद से बेहतर नजर आती है।’ पर पारिवारिक दबाव और सामाजिक मान-मर्यादा के कोड़े की पहली चोट में यह प्रेम बिखर जाता है। पितृसत्ता पुरुष को सिखाती है कि उसकी सामाजिक मर्यादा उसकी सबसे बड़ी थाती है। नवाब साहब के छोड़ देने के बाद भीतर तक टूटी उमराव को फैज़ अली के कंधे का सहारा मिलता है, जो एक डाकू है और एक मुठभेड़ में उसकी हत्या हो जाती है। मिर्जा हादी ने अपनी रचना में स्त्री और पुरुष के मनोभावों के बुनियादी अंतर को स्पष्ट कर दिया है। स्त्री को प्रेम करने के लिए एक ऐसा पुरुष चाहिए जो उसकी भावनाओं को अपने आगोश में समेटने में सक्षम हो, जो उसे टूटकर चाहे, बस ऐसा एक पुरुष। किन्तु पुरुष को प्रेम करने के लिए टूटकर चाहने वाली स्त्री के अलावा उसकी जाति, उसका धर्म, उसकी सामाजिक मर्यादा और न जाने क्या-क्या चाहिए होता है।

              उमराव को बस प्रेम चाहिए, अपनत्व चाहिए, पर क्या हमारी सभ्यता ने प्रेम और अपनापन को स्त्री के हिस्से में रखा है? यह कृति युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता के बीच सबसे अधिक पीड़ित पक्ष के रूप में भी स्त्री को देखने की प्रस्तावना करती है। युद्ध की त्रासदियाँ सबसे अधिक स्त्री के हिस्से में आती है। ब्रिटिश आक्रमण के बाद उमराव और उसके कोठे की स्त्रियाँ शरणार्थी के रूप में रहने को मजबूर हो जाती है। इसी क्रम में वह अपने जन्मस्थान फैजाबाद पहुँचती है, जहाँ से उसे बचपन में उठा लिया गया था। किन्तु वहाँ भी उमराव के भीतर की अमीरन को कोई स्वीकारने वाला नहीं। माँ रोकना चाहती है उसे, पर भाई उसे कभी नहीं लौटने को कहकर मुँह मोड़ लेता है। अमीरन फिर से कोठे पर पहुँच जाती है। इस फिल्म ने बेहद संजीदगी से यह सवाल उठाया गया है कि स्त्री का अपना कोई घर क्यों नहीं? उसकी नियति पर उसका अपना अधिकार क्यों नहीं? उसके हिस्से में प्रेम क्यों नहीं? इन सवालों के बीच पसरे दर्द को समेटती मुजफ्रफर अली की ‘उमराव जान’ निस्संदेह हिन्दी सिनेमा की एक मास्टर पीस है।

              मुजफ्रफर अली की ‘उमराव जान’ और श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ में दो समानताएँ हैं, दोनों फिल्में उर्दू की साहित्यिक कृतियों पर बनी है और दोनों में कोठे पर रहने वाली स्त्रियों के जीवन को पर्दे पर उकेरने की कोशिश की गई है। किन्तु दोनों फिल्मों के टेक्शचर में बुनियादी अंतर है। ‘उमराव जान’ में सन् 1840 की पृष्ठभूमि को रखा गया है जब नवाबों के लखनऊ में तवायफ़ें सिर्फ यौनकर्मी नहीं थी, उन्हें कलाकार का दर्जा प्राप्त था। 1983 में बनी ‘मंडी’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में इन स्त्रियों को वेश्याओं में रिड्यूस किए जाने की कथा है। कोठे की तवायफें शहर की जरूरत है लेकिन शहरों में इनके लिए जगह नहीं।

              श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में कोठे के जीवन का प्रामाणिक चित्रण किया है। यह फिल्म, जिसे ‘आर्ट सिनेमा’ के दायरे में रखकर देखा जाता है,  इसमें फिल्मी कुछ भी नहीं है। यह शहर के शरीफों और कोठे की वेश्याओं की जिन्दगी के बीचोबीच गुजरती है। शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, अन्नू कपूर और अमरीश पुरी के अभिनय ने इस फिल्म को कालजयी बनाया है। एक यथार्थवादी निर्देशक के रुप में श्याम बेनेगल यहाँ अपनी सृजनात्मकता के चरम पर पहुँचते हैं।

              ‘मंडी’ में श्याम बेनेगल ने बहुत बारीकी से इस तथ्य को पकड़ा है कि कोठा किस प्रकार शहर के बड़े और शरीफ लोगों के बड़प्पन ओर शराफत को बचाता है, उनके भीतर की गंदगी को समेटकर। शहर की नैतिकता और शराफत को बचाए रखने में कोठे की एक बड़ी भूमिका है। किन्तु नैतिकता के ही नाम पर शांति देवी जैसी औरतें कोठे को उठाकर शहर से बाहर फिंकवा देती है। शहरी सभ्यता के इस नैतिक चाबुक के सामने मजबूत और आत्मविश्वास से भरी हुई रुक्मणी बाई भी असहाय नजर आती है। देह-व्यापार में झोंकी गई स्त्री वास्तव में हमारे समाज की सबसे कमजोर इकाई है। समाज-संरचना के इस तथ्य का विश्लेषण करते हुए लुइज ब्राउन ने लिखा है- “दुनिया भर में देह-व्यापार के निकृष्टतम रुपों को झेलने वाले लोग हैं, जो जटिल, बहुआयामी समाज-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं। वे स्त्रियाँ हैं, वे गरीब समुदायों के गरीब परिवारों की सदस्य हैं, वे निकृष्ट मानी गई नस्लों और जातीय अल्पसंख्यकों की सदस्य हैं। उन्हें अपमानित, शोषित किया जाता है, उनमें से कुछ को यौन-दासता में धकेल दिया जाता है— क्योंकि वे समाज के सबसे कमजोर लोग हैं।“4

              ‘मंडी’ में श्याम बेनेगल ने स्त्री की कैद के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी उभारा है। कोठे पर पैदा हुई और उसी की चारदीवारी में युवा हुई जीनत उस तोते की तरह है, जिसे पिंजड़े की आदत डराती है आजाद होने से। वह फकीर से कहती है- “पिंजड़े के बगरै जिन्दा रह सकता है?” फकीर जवाब देता है- “उड़ने की कोशिश में अपनी पहचान पा जाए शायद।“ फ़कीर का यह वाक्य दरअसल लेखक गुलाम हसन अब्बास और निर्देशक श्याम बेनेगल का आह्वान है कि इस दुनिया की तमाम औरतें अपने पिंजड़े को तोड़ दें। लेकिन मुक्ति के इस सफर में औरत का अकेलापन इसलिए भी और बड़ा हो जाता है क्योंकि उन्हें अपनी ही जाति का साथ नहीं मिलता। दुनिया भर की स्त्रियाँ अगर एक जाति के रूप में संगठित हो जाएँ तो दासता की बेडियाँ जल्दी टूटेंगी। लेकिन ऐसा होता नहीं। अपने निजी स्वार्थों के कारण जीनत के कोठे की लड़कियाँ उसके खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। स्त्री-जाति में संगठन के इस अभाव को रेखांकित करते हुए सिमोन लिखती हैं- “स्त्री कहीं भी झुंड बनाकर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का आधा हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित है, एक काला आदमी अपने रंग से, पर स्त्री घरों, अलग-अलग वर्गों एवं भिन्न-भिन्न जातियों में बिखरी हुई हैं।“5

              इस विश्लेषण के पश्चात् हम यह कह सकते हैं कि साहित्य ने हिन्दी सिनेमा को समृद्ध बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। बाँग्ला, संस्कृत, उडि़या, उर्दू आदि भाषाओं के ‘टेक्स्ट’ ने सिनेमा को यथार्थवादी कथानक दिए, उसे जमीनी हकीकत के करीब पहुँचाया। खास तौर से स्त्री-जीवन के बीहड़ में सिनेमा को ले जाने में इन कृतियों की भूमिका उल्लेखनीय है। साहित्य, सिनेमा से हजारों वर्ष पुराना है, जीवन के अधिक करीब है, इसलिए विधा  के रूप में अधिक जेनुइन है। जब साहित्य का कंटेंट सिनेमा की विधा  से टकराता है तो उसे भी वह जेनुइन बनाता है। इस शोध-पत्र में साहित्यिक कृतियों पर बनी जिन फिल्मों की चर्चा की गई है, उन फिल्मों ने स्त्री-अस्मिता और जीवन के सबसे शाश्वत और सबसे प्रासंगिक सवालों को संबोधित किया है।

संदर्भ-सूची

  1. सिमोन द बोउआर, स्त्री-उपेक्षिता, हिन्दी पॉकेट बुक्स,  पृ- 14
  2. सिमोन द बोउआर, स्त्री उपेक्षिता, हिन्दी पॉकेट बुक्स, पृ- 26
  3. प्रहलाद अग्रवाल (सं-), हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, 2009, पृ- 394
  4. लुइज ब्राउन, यौन दासियाँ: एशिया का सेक्स बाजार, पृ- 13, अनुवाद – कल्पना वर्मा
  5. सिमोन द बोउआर, स्त्री-उपेक्षिता, हिन्दी पॉकेट बुक्स, पृ- 19

मनीषा अरोड़ा

शोधार्थी

जामिया मिल्लिया इस्लामिया

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