प्रारूप

          भारत एक बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक देश है और भारतीय संस्कृति के निर्माण में जहाँ सामाजिक, राजनीतिक  आन्दोलनों का महत्त्व रहा है वहीं भक्ति आन्दोलन की भूमिका भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। भारतय संस्कृति के विविध रूपों पर इस आन्दोलन की गहरी छाप दिखाई देती है। इस आंदोलन की व्यापकता और स्थायित्व का कारण भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण अतीत की स्मृति है और साथ ही युगीनसमाज और संस्कृति के प्रति सजग चेतना एवं भविष्य की गहरी चिंता भी इसमें निहित है। इस दृष्टि से भक्ति आन्दोलन एक विराट जन सांस्कृतिक आन्दोलन ही नहीं वरन् यह एक व्यापक सामंत विरोधी आन्दोलन भी है क्योंकि इसमें अपने युगीन सामंती समाज के प्रति तीव्र आक्रोश का स्वर सबसे प्रबल है।

          सामंतवाद वस्तुतः एक ऐसी मध्यकालीन शासकीय व्यवस्था रही है जिसे आजादी से पूर्व जमींदारी प्रथा के रूप में भी समझा जा सकता है। इसे व्यापक संदर्भों में विवेचित करते हुए यह कहा जा सकता है कि सामंतवाद का क्षेत्र केवल शासन व्यवस्था या राजनीति तक सीमित नहीं रहा वरन सामंतवादी व्यवस्था में धर्म और व्यापार का भी सामंतीकरण हो गया था। व्यक्ति और समाज के जीवन को संचालित करने वाली तीनों शक्तियों- शासन, धर्म तथा अर्थ व्यवस्था इन सभी पर सामंतवाद का प्रभुत्व स्थापित था। सामंतवाद मुख्यतः भूमि अनुदान परंपरा पर आधारित एक ऐसी शोषक व्यवस्था रही है जिसमें पराधीन किसान वर्ग का शोषण होता है अर्थात् सामंतवाद एक ऐसी शोषक प्रशासनिक व्यवस्था थी जिसमें आमदनी का मुख्य जरिया भूमि होती थी यद्यपि इस भूमि को जोतने-बोने वाले किसान ही होते थे लेकिन वे इस व्यवस्था में अपना श्रम-फल पूरा नहीं पा सकते थे। किसान के श्रम फल का लाभ किसी न किसी रूप में मिलता था सामंत वर्ग को ही। दूसरे शब्दों में कहें तो सामंतवाद एक फलता-फूलता अवकाश भोगी वर्ग था, जो स्वयं को ज्ञानी और शक्तिशाली होने का दंभ भरता था और शेष जन सामान्य या किसान को उसके मूलभूत अधिकारों से भी वंचित रखता था। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक कमजोर वर्ग पर शक्तिशाली वर्ग द्वारा प्रभुत्व जमाना सामंतवाद की प्रमुख विशेषता रही। मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन और कबीर की टकराहट सामंतवाद से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों स्तरों पर हुई।

बीज शब्द- भक्ति आंदोलन, सामंतवाद, कबीर की समांत-विरोधी भूमिका, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कबीर

          मध्ययकालीन सामंतवाद में धार्मिक वर्ग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा, जिसके समक्ष राजदरबार का प्रभाव भी गौण हो जाता था। एक और हिन्दू धर्मावलम्बी पुरोहित तो वहीं मुस्लिम धर्म के काजी और मुल्ला भी सामंतवाद को सुरक्षित कवच प्रदान कर रहे थे। के दामोदरन के अनुसार- ‘‘हिन्दू पुरोहितों की तरह मुसलमान मुल्ला भी समाज में जाति भेदों और वर्ग   विभाजनों को और सुदृढ़  करने में मदद करते थे।’’[1]

          निम्न जातियों और स्त्रियों की दशा इस व्यवस्था में अत्यंत दयनीय थी। भोग और ऐश्वर्यपरक जीवन पद्धति, वासनात्मक प्रदर्शन, सच्चरित्रता का अभाव, आडंबरप्रियता और पाखंडों के साथ-साथ कर्मकांड का महत्त्व आदि अनेक विकृतियों ने सामंतवाद को विकारों के चरम उत्कर्ष तक पहुँचाया। इन्हीं विकारों के विरोध में और मानव एवं समाज परिष्किरण हेतु भक्ति आन्दोलन ने संत कबीर जैसे क्रांतिकारी संत को खड़ा किया। जिन्होंने अपनी वाणी द्वारा सामंती मूल्यों का प्रत्येक रूप में तीव्र विरोध किया।

          भक्ति आन्दोलन सामंती संस्कृति के विरुद्ध जन सांस्कृतिक उत्थान का अखिल भारतीय आन्दोलन था। सर्वप्रथम इस आंदोलन के अंतर्गत भारतीय संस्कृति और साहित्य सामंती बेड़ियों की जकड़ से निकल कर सामंतवाद विरोधी जन संस्कृति की रचनाशीलता की ओर उन्मुख होता हुआ दिखाई देता है। सामंती संस्कृति के दरबारी वातावरण से मुक्त भक्ति काव्यधारा अपनी जनभाषा में जन संस्कृति और जन भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। भक्ति आन्दोलन के साहित्य में यदि सांस्कृतिक चेतना का संबंध भारतीय संस्कृति एवं प्राचीन परंपराओं से है तो उससे कहीं अधिक उसमें अपने युगीन समाज और जन संस्कृति की अभिव्यक्ति भी है। यह साहित्य व्यक्ति एवं समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों की परख करता है। इतना ही नहीं भक्ति आन्दोलन सामंती समाज व्यवस्था और उसकी शोषणपरक विचारधारा के मानव विरोधी रूपों को उजागर करते हुए इसके प्रति विद्रोह के भाव को व्यंजित करता है। ‘सामंती समाज व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह भावना और जन संस्कृति की सृजनशीलता की जैसी अभिव्यक्ति भक्ति काव्य में हुई वैसी भक्ति आन्दोलन से पहले के काव्य में बहुत कम मिलती है।’[2]  लेकिन प्रश्न उठता है कि भक्ति आन्दोलन के साथ ही सामंती समाज व्यवस्था में सदियों से दलित-पीड़ित वर्ग और निम्न जातियों में अपने युगीन समाज व्यवस्था के विरुद्ध रचनात्मक विस्फोट के क्या कारण रहे? और भक्ति आन्दोलन के साथ-साथ सामंत विरोधी जन संस्कृति के उत्थान के क्या कारण थे? क्या कारण था कि जन भाषा के गठन की प्रक्रिया तीव्र हुई तथा इस आन्दोलन में भक्ति काव्य धारा में सामंतवाद विरोधी और मानववादी स्वर विकसित हुए? वस्तुतः इन समस्त प्रश्नों के उत्तर भक्ति आन्दोलन के भक्ति काव्य में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में खोजे जा सकते हैं।

          इसके साथ ही आंदोलन में निम्न जातियों-वर्गों में जातीय निर्माण की प्रक्रिया भी आरंभ हुई जिसे की सामंत विरोधी भूमिका के रूप में समझा जा सकता है। इस अर्थ में भक्ति आन्दोलन एक जातीय आन्दोलन का सांस्कृतिक रूप भी था। जिसमें निम्न जातियों से आए जुलाहे कारीगर, किसान, धुनिया, चमार सब इसे एक अखिल भारतीय जातीय आन्दोलन का रूप दे रहे थे। इन जातियों की संगठित शक्ति ही सामंतवाद के खात्मे का कारण बनी क्योंकि इनके सुखमय जीवन की सबसे बड़ी बाधा सामंतवाद ही थी जिस पर सबसे शक्तिशाली चोट भक्ति आन्दोलन ने की।

          संपूर्ण संत साहित्य सामंतवाद के विरोध का दस्तावेज है जिसमें संतो का लोकधर्म सामंती व्यवस्था को ध्वस्त करता दिखाई देता है। सामंतवाद भूमि पर आधारित व्यवस्था थी तो इसे सुरक्षित रखने में धार्मिक ठेकेदार अर्थात् पुरोहित-मुल्ला-काजी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।

          संतो ने सामंतवाद के गढ़ को गिराने के लिए उसके धार्मिक ‘पिलर’ पर सबसे पहले प्रहार किया। भक्ति आंदोलन से इन निम्न जातियों में यह विश्वास पैदा हुआ कि पुरोहितों-शास्त्रों द्वारा धर्म की मनमानी व्याख्या करने वालों की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि भक्ति आंदोलन की शुरुआत जन साधारण द्वारा सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध अपनी जन सांस्कृतिक आकांक्षाओं को लेकर हुई।, जिसमें संतों की सामंत विरोधी भूमिका सर्वाधिक थी।

          भक्ति आलोचन में सामंतवाद को जड़मूल उखाड़ने हेतु भक्त कवियों में तुलसी, सूर, मीरा एवं संत कबीर की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही, जिन्होंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामंतवाद की प्रत्येक स्तर पर उसकी जड़े हिलाई।

          सामंतवाद के विरोध में संतो का स्वर बहुत प्रखर रहा है और उनमें भी संत कबीर ने सामंतवाद के संरक्षकों यानि धर्म ध्वजियों को खूब खरी-खोटी सुनाई। यही कारण है कि कबीर साहित्य में व्यंग्य का विशेष स्थान है। जिनमें इन सामंतों और धर्माधिकारियों को लक्षित किया गया है। कबीर में इस रोष का चरम रूप देखा जा सकता है। कबीर शोषण पर आधारित सामंती व्यवस्था के साथ-साथ इस व्यवस्था को मजबूत करनी वाली धार्मिक रूढ़ियों-पाखंडों पर तीव्र प्रहार करते हैं। कबीर के काव्य का मुख्य आधार ही सामंती शोषक प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण और उसके प्रति विद्रोह है।

          कबीर एक ओर व्यक्तिगत जीवन में सत्य, सादगी, संयम को महत्व देते हैं तो सामाजिक जीवन में सदाचार, दया, प्रेम पर बल देते हैं। उनके अनुसार ये केवल मानवीय व्यक्तित्व को संपन्न करने वाले गुण ही नहीं, वरन ये सामंत विरोधी भोग विलास पूर्ण जीवन पद्धति के संदर्भ में भी देखे जा सकते हैं। कबीर काव्य सामंतवाद को प्रत्येक स्तर पर चुनौती देता है तथा अपने युगीन समाज के यथार्थ चित्र अंकित कर उसकी तीव्र आलोचना करता है। कबीर का काव्य सामंती व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने की भरपूर कोशिश करता है। इस अर्थ में कबीर सामंती आतंक के विरुद्ध एक निर्भय योद्धा के रूप में उपस्थित हैं। जिन्होंने सामंतवाद का प्रत्येक स्तर पर खुलकर विद्रोह किया।

          कबीर की कविता तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक विद्वेष और ऊँच-नीच के भेद-भाव की आलोचना करती हैं क्योंकि कबीर को ज्ञान था कि सामंती व्यवस्था का पुष्ट आधार धर्म ही है। धर्म एक ऐसी अफीम की गोली थी जिससे जनता को सहज ही सुलाया जा सकता था, कबीर की तीव्र दृष्टि इसे पहचान कर धार्मिक व्यवस्था पर अपना प्रहार करती है जो शोषण परक सामंतवाद को अपना आश्रय प्रदान कर इसे पुष्पित-पल्लिवत कर रही थी।

          इन धार्मिक नेताओं में पुरोहित, ब्राह्मण, काजी, मुल्ला सभी का प्रभुत्व था, जो मिलकर सामंती व्यवस्था का समर्थन करते थे और इस प्रचलित व्यवस्था को स्वीकारने एवं बनाये – बचाये रखते हेतु जन सामान्य को मानसिक रूप से तैयार भी करते थे। निश्चित रूप से ब्राह्मणों-पुरोहितों की यह भूमिका सामंत वर्ग के लिए हितकर थी और यह वर्ग अपने लोभ-लालच के कारण सामंत वर्ग का प्रबल समर्थक अर्थात् जन सामान्य के शोषण में यह भी बराबर का सहायक था। कबीर साहित्य में इन धर्माधिकारियों के प्रति तीव्र आक्रोश और विरोध को इस संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। वे इन ब्राह्मणों को सीधे-सीधे संबोधित करते हुए कहते हैं-

          तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना।

          तैं सब माँगे भूपति राजा, मोरे राम धियाना।।[3]

          यह वर्ग ईश्वर के पीछे नहीं वरन सामंत वर्ग के पीछे लगा रहता है, उसकी खुशामद करता है और इसके बदले तरह-तरह के अनुदान प्राप्त करता है।

          लगभग यही स्थिति मुस्लिम समाज में काजी-मुल्ला आदि धार्मिक नेताओं की भी रही। मध्यकाल में इन धार्मिक नेताओं की भूमिका को रेखांकित करते हुए के. दामोदरन का वक्तव्य उल्लेखनीय है। ‘धार्मिक रूढ़िवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले उल्मा, काजी और मुल्ला लोग शोषण और उत्पीड़न पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थन करने और उसे न्यायसंगत ठहराने के लिए कुरान के सिद्धांतों का दुरुपयोग कर रहे थे।’[4]

          कबीर साहित्य का अध्ययन-मनन करने से स्पष्ट होता है कि ये सभी धर्माधिकारी साधारण जनता को जागरण से रोकते थे, जिसका कारण था इनकी स्वार्थ सिद्धि। विद्रोही प्रवृत्ति के कबीर को भला यह कैसे सहन हो सकता था? जो सदैव जागने की बात करते हैं उसे धर्म की मीठी गोली भला कैसे सुला सकती है? उनका साहित्य सोने का और सुलाने का नहीं वरन् जागने और जगाने का है। वे काजी को संबोधित करते हुए कहते हैं-

                     पढ़ि लै काजी बंग निवाजा,

                     एक मसीति दसौ दरवाजा।।[5]

          वे इन काजी-मुल्ला के प्रभाव से दूर रहने की बात करते हैं-

                     पंडित मुल्ला जो लिखि दिया।

                     छाडि चले हम कछु न लिया।।[6]

          कबीर का उद्देश्य रूढ़िवादी पंडित और मुल्ला के अंधविश्वासों से जन सामान्य को मुक्ति दिलाना रहा है। इसकी चर्चा उनके साहित्य में पर्याप्त रूप में की गई है जो सामंती व्यवस्था की घिसी-पिटी रूढ़ियों के प्रति विद्रोह ही हैं। यह सर्वविदित है कि कबीर इस शोषकारी व्यवस्था के भुक्त-भोगी थे इसीलिए उन्होंने सामंतवाद के इन झूठे वकीलों पर तीव्र प्रहार किया और जन साधारण को सामाजिक जकडन और अगतिशीलता से बाहर निकालने का प्रयास किया।

          कबीर ने सामंतवाद की प्रत्येक प्रवृत्ति का जमकर विरोध किया। उन्होंने सामंतवाद की पोषक जाति-प्रथा के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई। दरअसल कबीर का सबसे अधिक आक्रोश सामंती व्यवस्था में पनपे संप्रदाय और वर्ग विभेद पर है इसका प्रमुख कारण था उनकी जातिगत पीड़ा। इसीलिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा को अस्वीकार करते हुए व्यंग्य किया-

          हिंदू तुरक कहाँ ते आये किन एह राह चलाई। [7]

                              अथवा 

          जो पै करता बरण विचारै, तौ जनमत तीनि डाँडि किन सारै।।

          जे तू बाँभन बभनी जाया तो आँन बाँट है काहे न आया।

          जे तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।[8]

          कबीर के अनुसार सभी एक ही मिट्टी से बने है तो जातिगत भेद-भाव कैसा? यह भेद केवल सामंती व्यवस्था में पोषक धर्म के ठेकेदारों द्वारा सांमती व्यवस्था हेतु बनाया गया है वास्तव में सभी एक ही ज्योति से उत्पन्न हुए हैं-

                     एक बूंद एकै मलमूतर, एक चाँम एक गूदा।

                     एक जोति थै सब उतपनां, कौन बाँम्हन कौन सूदा।।[9]

          जातिगत समानता की यह अवधारणा तत्कालीन सामंती समाज के लिए क्रांतिकारी कदम था। यह उनकी भक्ति का प्रबल जनवादी तत्त्व है जो सामंत वर्ग के खिलाफ जाता है-

                    राजा, राणा, राव,  छत्रपति, जरि भये भसम कै कूरौ रे।

                    सबथैं नीकौ संत मंडलिया, हरि भगतनि कौ भेरौ रे।।[10]

          यहाँ राजा, राणा, राव एवं छत्रपत्रि शब्द सामंत वर्ग का प्रतीक है। उनके स्थलों पर कबीर सामंतवादी व्यवस्था की विसंगतियों को रखांकित करते हुए जन सामान्य की आर्थिक स्थिति का भी उल्लेख करते है-

          इहु धन मेरे हरि को नाऊँ, गंठिन बाँधै बेचिन खाऊँ।

          नाउँ मेरे खेती नाउँ मेरी बारी, भगति करौ जन सरन तुमारी।।[11]

          कबीर की एकमात्र पूँजी ईश्वर भक्ति है इसीलिए कृषि पर आधारित सामंती समाज को वे काल की वास्तविकता का बोध कराते हैं-

          क्या खेती क्या लेवा देवी परपंच झूठ गुमाना।

          कहि कबीर ते अंत विभूते आया काल निदाना।।[12]   

          सामंत वर्ग के मिथ्याचरण पर कबीर क्षुब्ध हैं। वे सीधे प्रहार करते हुए कहते है-

                     ए भूपति सब दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा।[13]

          दूसरी ओर सामंती समाज में उच्च एवं निम्न वर्ग के बीच गहरी खाई थी और मध्यकाल में यह कितनी गहरी थी इसका अनुमान कबीर साहित्य में प्रत्यक्षतः दिखाई देता है। यह भेद धन-संपत्ति और जाति दोनों आधारों पर रहा है इस तथ्य को के. दामोदरन अपने वक्तव्य में उद्घाटित करते हुए कहते हैं- ‘सामंतवाद ने ग्राम समुदाय के अंदर सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ाया और उसे न्यायसंगत ठहराया, साथ ही ऊँच और नीचे के भेद को भी मजबूत किया।’[14] यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऊँच-नीच का भेदभाव सामंतवाद की प्रमुख विशेषता है। कबीर साहित्य इसे सर्वत्र अस्वीकारते हुए भेद मानने वाले को पशु की संज्ञा देते हैं-

          जब लगि ऊँच नीच करि जाना, ते पसुवा भूले भ्रम नाना।[15]

          कबीर आर्थिक एवं सामाजिक वैषम्य के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं-

                     ऊंकार आदि है मूला, राजा परजा एकहि सूला।[16]

          यह  भिन्नता ईश्वर प्रदत्त नहीं वरन् सामंत वर्ग की देन है कबीर इस तथ्य को समझते हुए कहते हैं-

                     काहू दीन्हां पाट पटंबर काहू पलंग निवारा।।

                     काहू गरी गूदरी नॉही काहू सेज पयारा।।[17]

          दरअसल यह भेद तत्कालीन सामंती समाज में कुल की श्रेष्ठता का भी प्रतीक था। इस व्यवस्था में कुलाभिमान बहुत अधिक था जबकि अधिकांश संत थे निम्न कुल के। इसीलिए रामविलास शर्मा कहते हैं- ‘सामंती व्यवस्था में कौन कितना कुलीन है, शाही घराने से किसका कितना निकट या दूर का संबंध है, ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण थे।’[18]

          कबीर साहित्य में कुल की परम्परागत धारणा का पूर्णतः खंडन मिलता है वे ऐसे लोगों को फटकारते हुए कहते हैं-

                     ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणी ऊँच न होइ।

                     सोवन कलस सुरे भरया, साधूँ निंद्या सोइ।।[19]

          कबीर इस धारणा का कड़े स्वर में विरोध करते हुए कर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं।

          सामंती व्यवस्था में विलासिता, आडंबर या प्रदर्शन प्रियता, फिजूलखर्ची अपने पूर्ण वैभव पर थी। इस व्यवस्था में यह विडम्बना रही कि इसमें एक ओर विलासिता में डूबा हुआ सामंतवर्ग है जो दूसरी ओर भयंकर गरीबी के शिकार, भूखे अधनंगे लोग। कबीर ने इन भोग विलास के नद में डूबे सामंतों पर जमकर प्रहार किया-

                     ऊँचे भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ।

                     ताते भली मधूकरी संत संग गुन गइ।।[20]

          कनक-कामिनी सामंतो की विलासिता के साधन है। कबीर इनकी विलासप्रियता पर कटाक्ष करते हुए भिक्षा जीवी संतों को उनसे श्रेष्ठ बताते हैं।

          ऐशों आराम के नशे में चूर सामंतो को संबोधित करते हुए वे इस झूठे वैभव को निरर्थक बताते हैं-

                    कहै कबीर मदन के माते हिरदै देखु बिचारी।

                    तुम घर लाख, कोटि अस्व हस्ती हम घर एक मुरारी।।[21]

          सामंतों की अहं प्रवृत्ति पर कबीर ने खूब प्रहार किया। वस्तुतः अहंकार का संबंध व्यक्ति की सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति से है और जो लोग इस स्थिति से नीचे थे उन्हें किस चीज का अहंकार होगा। शोषित वर्ग की यही स्थिति सामंतवाद में थी। संत कबीर सामंतों की अहं भावना का विरोध करते हुए कहते हैं-

                     ‘सब मदियाते कोई न जाग’[22]

                                         अथवा

                     कबीर कहा गरबियो, ऊँचे देखि अवास।[23]

          सामंत वर्ग परजीवी रहा है वह स्वयं श्रम नहीं करता वरन वह निम्न वर्ग के श्रम पर आश्रित था। कबीर एक गृहस्थ संत है जो श्रम को महत्त्व देते हैं। इसके साथ ही कबीर कर्म सिद्धान्त का भी विरोध करते है जिसकी मान्यतानुसार व्यक्ति पूर्व जन्मों के कारण इस जन्म में और परलोक में स्वर्ग नरक का अधिकारी होता हे। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपनी स्थिति के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। इसका प्रयोग शोषण मूलक सामंती व्यवस्था को बनाए- बचाये रखने के लिए किया गया। यह सिद्धान्त सामाजिक शोषण एवं उत्पीड़न को न्यायसंगत ठहराता था और जाति प्रथा का समर्थन करता था। निम्न या शूद्र जाति के कष्टों का कारण उसके पूर्वजन्म के कर्म है। अतः इस निम्न वर्ग की अपनी आर्थिक-सामाजिक दीन-हीन स्थिति के प्रति विरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि सारे कष्ट अपने कर्मो का ही फल हैं। इस वर्ग द्वारा अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकारते हुए विरोध दर्ज न करना सामंती व्यवस्था के हित में था। ‘इस तरह के सिद्धान्त मानवपीड़ा और अन्यायों के सामाजिक और आर्थिक कारणों की ओर से जनता का ध्यान हटाते थे और उनमें अपने भाग्य के प्रति उदासीनता और निस्संगता की भावना पैदा करते थे।’[24]

          लेकिन कबीर स्पष्टतः उद्घोषणा करते हैं-

          चलन चलन सब को कहत है नां जानौ बैकुंठ कहाँ है।

          जोजन एक प्रमिति नहीं जानैं, बातन ही बैकुंठ बखानै।।[25]

                     X                  X                             X

           ना हम नरक लोक को जाते, ना हम सुर्ग सिधारे हों। [26]

          कबीर शोषण पर आधारित सामंती शिकंजे को पूरी तरह तोड़ते हैं क्योंकि सामंतवाद के पोषक तत्त्वों में कर्मकाण्ड यानि स्वर्ग-नरक की धारणा भी सामंती व्यवस्था को सुरक्षा प्रदान करती थी। कर्मकाण्ड वास्तव में पुरोहितों के धंधे थे, उनकी दुकाने थी जिससे वे साधारण जनता को भरमाते रहते थे।

          कबीर साहित्य में शास्त्रों का विरोध की इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है ब्राह्मणों ने वेद-शास्त्रों एवं अन्य पवित्र ग्रंथों का उपयोग सामंती वर्गों के अधिकारों को सुरक्षित रखने हेतु किया अतः कबीर में पोथी ज्ञान के समक्ष आँखिन देखी पर अधिक बल है-

                     पोथी पढि-पढि जग मुवा पंडित भया न कोइ ।

                     एकै आखर पीव का, पढै सो पंडित होइ ।।[27]

          सामंती व्यवस्था के शोषण को धार्मिक रूप देकर ब्राह्मणों-पुरोहितों द्वारा इसे न्याय संगत ठहराने के लिए शास्त्रों की मनमानी व्याख्या की गई, कबीर का विरोध शास्त्रों पर नहीं वरन उसकी सामंतों के हितानुकूल व्याख्या को लेकर है। सामंतों की ऐय्याशी और विषय वासना की प्रवृत्तियों में उनका परनारी गमन भी शामिल है।

          यद्यपि सामंतों की अनेक पत्नियाँ हुआ करती थीं फिर भी उनके लिए नारी केवल उपभोग की वस्तु ही थी। जिसे धन-दौलत से खरीदा जा सकता था अतः वेश्यालयों को सामंती व्यवस्था में खूब फलने-फूलने का अवसर मिला।

                     पर नारी पर सुंदरी विरला बंचै कोइ ।[28]

          इसके अतिरिक्त कबीर सामंती व्यवस्था की कथनी-करनी के अंतर को भी रेखांकित करते हैं, जो सामंतवाद की एक प्रमुख प्रवृत्ति रही है। कबीर इस वर्ग को लक्ष्य करके इनके कथनी-करनी के अंतर को स्पष्ट करते हुए इन लोगों को (सामंतों) को भौंकने वाला कुत्ता तक कह डालते हैं। क्योंकि बड़े-बड़े उपदेश देने का क्या लाभ जब उन्हें क्रियान्वित ही न किया जाए-

                     जैसी मुख तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं

                     मानिष नहीं ते स्वान गति, बांध्या जमपुर जाँहि।।[29]

          इसके अतिरिक्त कबीर ने सामंतों की धन संग्रह प्रवृत्ति एवं तृष्णा पर भी व्यंग्य करते हुए इसे निरर्थक बताया है और उसके स्थान पर संतोष प्रवृत्ति अपनाने का आग्रह किया है क्योंकि इस संसार से कोई भी व्यक्ति अंत समय में कुछ साथ लेकर नहीं जाता-

                     कबीर सो धन संचिए, जो आगे कूँ होई।

                     सीस चढाए पोटली, ले जात न देख्या कोई।।[30]

          वस्तुतः कबीर काव्य सामंतविरोधी मूल्यों का अभूतपर्व दस्तावेज है। उनका लोक धर्म भी सामंत विरोधी है। इसी लोकधर्म को वाणी देने हेतु उन्होंने संस्कृत के स्थान पर जनभाषा का प्रयोग किया।

          यहाँ विचारणीय है कि जिस सामंती व्यवस्था का कबीर ने प्रत्येक स्तर पर विरोध किया वह आज भी अपने परिवर्तित रूप में मौजूद है। उसके शोषण और उत्पीड़न के ‘tool’ बदल जरूर गए हैं किन्तु वे और अधिक मारक शक्ति के साथ उभर कर आए हैं। सामंतवाद का आधार यद्यपि भूमि था और शोषित वर्ग था किसान-काश्तकार। आज पूंजी और पूंजीवाद है तथा शोषित वर्ग है मजदूर लेकिन शोषण का केन्द्र वही जन साधारण है। अतः कबीर की सामंत विरोधी भूमिका की आज भी अत्यंत प्रासंगिकता है। कबीर केवल मध्यकाल तक ही सीमित नहीं वरन् जब तक शोषण पर आधारित व्यवस्थाएँ रहेंगी (जो कि सदैव रही है) तब तक कबीर थे, हैं और रहेंगे ।

 संदर्भ ग्रंथ –

[1] भारतीय चिंतन परंपरा- के. दामोदरन, पृष्ठ 306

[2] वैष्णव भक्ति आंदोलन का अध्ययन- मलिक मोहम्मद, पृष्ठ 280

[3] कबीर ग्रंथावली- श्याम सुंदर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, 25वां संस्करण, पृष्ठ 128

[4] भारतीय चिंतन परंपरा- पृष्ठ 317

[5] कबीर ग्रंथावली- श्याम सुंदरदास, पृष्ठ 83

[6] वही, पृष्ठ 206

[7] वही, पृष्ठ 254

[8] वही, पृष्ठ 79

[9] वही, पृष्ठ 82

[10] वही, पृष्ठ 89

[11] वही, पृष्ठ 205

[12] वही, पृष्ठ 205

[13] वही, पृष्ठ 211

[14] भारतीय चिंतन परंपरा- के. दामोदरन, पृष्ठ 308

[15] कबीर ग्रंथावली- श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 84

[16] वही, पृष्ठ 185

[17] वही, पृष्ठ 210

[18] भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ 325

[19] कबीर ग्रंथावली- श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 37 ( कुसंगति कौ अंग)

[20] वही, पृष्ठ 189

[21] वही, पृष्ठ 201

[22] वही, पृष्ठ 163

[23] वही, पृष्ठ 16, (चितावणी कौ अंग)

[24] भारतीय चिंतन परंपरा- के. दामोदरन, पृष्ठ 219,220

[25] कबीर ग्रंथावली-श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 75

[26] कबीर-हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 214

[27] कबीर ग्रंथावली- श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 30 (कथणी बिना करणीं कौ अंग)

[28] वही, पृष्ठ 30 (कामी नर कौ अंग)

[29] वही, पृष्ठ 28 (करणीं ‘बिना कथणी’ कौ अंग)

[30] वही, पृष्ठ 26 (माया कौ अंग)

डॉ. कमलेश कुमारी
सहायक प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
शहीद भगत सिंह कॉलेज
दिल्ली, विश्वविद्यालय

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