जब संत काव्यधारा की बात चलती है तो हमारे सामने कबीर, रैदास आदि पुरुष संतों की छवि उभरकर आती है। हिन्दी साहित्य के अधिकांश आलोचकों ने संत साहित्य की आलोचना करते समय अपनी आलोचना का विषय पुरुष संतों की रचनाओं के इर्द- गिर्द ही रखा है। प्रमुख साहित्य इतिहासकारों ने भी नारी संतों को अपने इतिहास ग्रन्थों में उचित स्थान नहीं दिया। नारी संतों में केवल मीराबाई का ही वैशिष्ट्य स्वीकार किया गया है तथा उनका उचित मूल्यांकन हिन्दी आलोचकों द्वारा हुआ है।
कुछ आलोचकों जैसे सावित्री सिन्हा, बलदेव वंशी, सुमन राजे इत्यादि ने नारी संतों की रचनाओं का उचित मूल्यांकन कर उनकी रचना की विशेषताओं से पाठकों को अवगत कराया है। संत नारियों ने संत गुरुओं के संग- साथ में तथा स्वतंत्र रहकर भी अपनी साधना से, सृजन एवं रचना- कर्म से तथा सक्रिय रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों में दिशा- दर्शी उदाहरण- आदर्श स्थापित किए हैं।
नारी संतों की अधिकतर रचनायें गुरु के महत्त्व की स्थापना तथा अपने आराध्य की प्राप्ति के लिए उनकी विकलता के विषयों पर ही मिलती हैं। परंतु इनके साथ- साथ उनकी सामाजिक चेतना भी इन रचनाओं में मुखर होती है।
मध्यकालीन कवयित्रियों में प्रमुख स्थान रखने वाली मीरा अपनी विद्रोही प्रवृत्ति के कारण जानी जाती हैं। उन्होंने सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीति का विरोध करते हुए अपने पति की मृत्यु के बाद सती होना स्वीकार नहीं किया। वे कहती हैं-

“जग सुहाग मिथ्या रे, सजणी होवां हो मिट जासी।
गिरधर गास्यां, सती न होस्या मन मोहयो धनमाणीं॥”

मध्ययुगीन समाज में सती होने से इन्कार करना निश्चय ही एक साहसी कदम था।
ज़्यादातर संत कवियों ने साधना के मार्ग में नारी को बाधक ही माना है। स्त्री संतों के भी नारी संबंधी विचार कुछ इसी प्रकार के हैं। पार्वतीबाई ने अपने पदों में नारी में रुचि न रखनेवाले को और धन- यौवन में लीन न होने वाले को श्रेष्ठ पुरुष माना है। उन्होंने कहा है-

“धन जोबन की करे न आस,
चित ना राखे कामिनी पास
नाद बिन्दु जाके घट करे,
ताकी सेवा पार्वती करे।”

डॉ. सावित्री सिन्हा ने संत कवयित्री पार्वतीबाई के पद में नारी- निंदा देख उचित ही कहा है- “यह वह अवस्था है, जब कामिनी ही कामिनी के संपर्क का विरोध करते हुए नहीं हिचकती थी। पार्वतीबाई की रचनाएँ भी इस काल में उन्हीं अपवादों में से हैं।”
इसी प्रकार संत सहजोबाई की रचनाओं में भी नारी निन्दा देखने को मिलती है। उनका कथन है कि साधु ‘कनक’ और ‘बाला’ को छोड़कर चलते हैं-

“तन मन मेटें खेद सब, तज उपाधि की चाल।
सहजो साधु राम के, तजें कनक अरु बाल॥”

नारी संतों ने निर्गुण और सगुण भक्ति के समन्वय की बात की है। वे इन दोनों भक्ति पद्धतियों में किसी भेद को नहीं मानती हैं। सहजोबाई ने ब्रह्म के निराकार और साकार रूपों में सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है-

“निर्गुन सो सर्गुन भये, भक्त उधारनहार।
सहजो को दंडौत है, ताकूँ बारम्बार॥”

नारी संतों ने समाज में व्याप्त धार्मिक द्वेष को भी दूर करने का प्रयास किया। संत ताज बीबी ने मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्ति में ‘हिंदुआनी’ होने की घोषणा की-

“सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम
दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।
देवपूजा ठानी हौ निवाज हूँ भुलनी तजे।
कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं।

श्यामल सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये
तेरे नेह दाग में निदाग ह्वै रहूँगी मैं
नन्द के कुमार क़ुरबान ताणी सूरत पै
हौं तो तुरकानी हिंदुआनी ह्वै रहूँगी मैं।”

उनका यह कदम इस विचार का समर्थन करता है कि किसी मनुष्य का धर्म जन्म के आधार पर निर्धारित नहीं होना चाहिए। मनुष्य चाहे तो अपनी इच्छा से धर्म चुन सकता है। धर्म एक व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए।
इसी प्रकार संत इंद्रामती ने अपने पति प्राणनाथ को धामी संप्रदाय की स्थापना में सहयोग दिया। यह संप्रदाय हिन्दू, मुस्लिम तथा अन्य धर्मों की मान्यताओं को एक साथ लेकर चलता था।
नारी संतों ने जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव का विरोध किया है। संत कमाली अस्पृश्यता और ऊँच- नीच का विरोध करते हुए कहती हैं-

“सूता ओढ़न सूता पहरण,
सिर सूतन का भारा जी।
मड का जनेऊ काढ दे बिरामण,
यह भी सूत मारा जी॥
X X X
हाथ धोय कर करी रे राई ,
खूब करी अद्दताई जी।
उड़ मखिया भोजन पर बैठी,
डूब गई पंडताई जी॥”

समाज में व्याप्त अंधविश्वास तथा धार्मिक बाह्याडंबरों का नारी संतों ने खंडन किया है। ईश्वर प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा पर जाने के बाह्याडंबर का विरोध करते हुए संत बहिणाबाई अपना मत इस प्रकार व्यक्त करती हैं-

“अन्न दीयो तब या
रसि नहि देवन पूजो भाव
तीरथ यात्रा कछु नहीं जोड़ी
कहा भयो नवलाव।”

समाज से लोभ- लालच, छल- कपट आदि बुराइयों को दूर करने का आह्वान संत कवयित्रियाँ अपने पदों के माध्यम से करती हैं। संत आंभाबाई लोभ तथा मोह का परित्याग करके भजन करने के लिए कहती हैं-

“मोह रयो लपटाय लोभ वश पड़ गया।
जोड़्या पांच पचीस उठै घर गाड़िया॥
तेरो संगी नाम स्वारथी लोग है।
सुण संता की सीख भजन कर जोग॥”

दयाबाई के अनुसार सच्चे साधु वही हैं जो अहंकार को मारकर अपने लक्ष्य प्रभु- प्रेम को प्राप्त कर लेते हैं-

“जो पग धरत तो दृढ़ धरत पग पाछे नहिं देत।
अहंकार कूं मार करि राम रूप जस लेत।”

अतः अहंकार किसी भी व्यक्ति के लक्ष्य प्राप्ति में बाधक है।
नारी संतों ने अपनी रचनाओं में केवल उपदेश नहीं दिया है, बल्कि अपने विचारों को अपने जीवन में उतारकर उनकी व्यवहारिकता का भी प्रमाण प्रस्तुत किया है। संत कवयित्रियों की नारी विषयक कुछ मान्यताओं को निंदनीय कहा जा सकता है, परंतु मध्यकालीन विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में इन संतों का अपनी रचना के माध्यम से अपनी आवाज मुखर करना प्रशंसनीय है।

 

ज्योत्स्ना नारायण
शोधार्थी
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

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