नालन्दा पटना से दक्षिण की ओर लगभग 50 मील की दूरी पर है। अत्यन्त प्राचीनकाल से यह बौद्ध धर्म का केन्द्र था, क्योंकि बुद्ध के मुख्य शिष्य सारिपुत्र का जन्म यहीं हुआ था। कहा जाता है अशोक ने भी यहां एक मंदिर बनवाया था, किन्तु विद्या के केन्द्र के रूप में इसका इतिहास लगभग 450 ई- से प्रारम्भ होता है क्योंकि 410 ई- में फाहियान ने नालन्दा की यात्र की थी। किन्तु उसने इस रूप में इसका वर्णन नहीं किया है।[1] अनेक गुप्त राजाओं के प्रोत्साहन से अल्पकाल में ही नालन्दा के महत्व में तेजी से वृद्धि हो गयी। इस काल में भारत में कितनी धार्मिक सहिष्णुता थीं इसका प्रमाण इसी से मिल जायेगा कि नालन्दा में सबसे बड़े बौद्ध विद्यापीठ के विकास, साधन-सामग्री, संकलन आदि के लिए सर्वाधिक दान गुप्त राजाओं ने दिये थे जो भाविक हिन्दू थे। भिक्षु विद्यार्थियों के आवास के लिए ही इन विहारों का निर्माण हुआ था और यहीं वे रहते थे। अब तक ऐसे 13 विहार खुदाई से निकाले जा चुके हैं। किंतु मानचित्र के अवलोकन से विदित होता है कि बिहारों की संख्या इससे भी अधिक थी। विहार कम से कम दो मंजिलें अवश्य थे। इनमें कुछ कमरे ऐसे थे जिनमें एक विद्यार्थी तथा कुछ में दो विद्यार्थी रह सकते थे। प्रत्येक विद्यार्थी के लिए पत्थर की एक चौकी, दीपक और पुस्तकें रखने के लिए एक आला बना हुआ था। उत्खनन में प्रत्येक विहार के प्रांगण में एक कोने पर एक कुआं मिला है। इससे प्रकट होता है कि जल-व्यवस्था की उपेक्षा नहीं की गयी थी। प्रवेशक्रम के अनुसार भिक्षुओं को कमरे दिये जाते थे। कोठरियों का पुनर्वितरण प्रतिवर्ष होता था। विश्वविद्यालय को दान में 200 गांव मिले थे।[2] अतः यहां के विद्यार्थियों के आवास और भोजन की व्यवस्था निःशुल्क करना तय हुआ था। बौद्ध विहारों में नियम था कि सामान्य विद्यार्थियों को निःशुल्क भोजन तथा आवास का प्रबंध तभी किया जाय जब वे विहार को अपना कुछ श्रम दान दें।[3]  सम्भवतः नालन्दा में सामान्य विद्यार्थियों को जो हिन्दू होते थे, भोजन और आवास के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था क्योंकि अनेक हिन्दू दाताओं ने नालन्दा में दान दिये थे।

                     जिस समय इत्सिंङ् (675 ई-) नालन्दा में निवास करता था वहां 3000 विद्यार्थी थे। युवाङ्-च्वाङ् का जीवनी लेखक लिखता है कि सातवीं शताब्दी के मध्य में नालन्दा में विद्यार्थियों की संख्या 10000 रही (पृ- 112) ‘जीवनी’ लेखक कभी भारत नहीं आया था। अतः उसका कथन आंखे देखे ज्ञान पर आधृत न था। उसकी दी हुई संख्या कुछ अतिरंजित प्रतीत होती है क्योंकि यह एक गोलमटोल संख्या है और स्वयं युवाङ्-च्वाङ् इतना ही कहता है कि नालन्दा में कई हजार विद्यार्थी थे। (भाग – 2 पृ- 165) किन्तु इतना तो निश्चित है कि 7वीं शताब्दी के मध्यम में नालन्दा में कम से कम 5000 विद्यार्थी रहते थे।

                     नालन्दा केवल विहार मात्र न था। इसकी कीर्ति मुख्यतया विद्या के केन्द्र के रूप में ही थी। युवाङ्-च्वाङ् लिखता है कि विहार में कई हजार भिक्षु हैं। ये सभी उत्कट विद्वान और प्रगाढ़ पंडित हैं। इनमें से कुछ शर्त तो ऐसे हैं जिसका यश दिग्दिगन्त में व्याप्त है। भिक्षु-गण विनय के नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं। ज्ञानार्जन और शास्त्रार्थ में वे अहर्निश तल्लीन रहते हैं। परस्पर के दोषों को भी वे बतला देते हैं। ज्येष्ठ और कनिष्ठ भिक्षु सभी परस्पर एक-दूसरे के दोषों को भी वे बतला देते हैं। ज्येष्ठ और कनिष्ठ भिक्षु सभी परस्पर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। इसीलिए विदेशों से भी विद्यार्थी अपनी शंकाओं के समाधान के निमित्त यहां आते और कृतकृत्य होते हैं। नालन्दा में न पढ़कर भी जो वहां से शिक्षा प्राप्त करने का मिथ्या दावा करते हैं उनका भी समाज में आदर होता है। (भाग – 2, पृ- 165) विश्वविद्यालय के महापंडितों और विवाद-पंडितों के नाम परिसर के उतुंग मुखद्वार पर श्वेताक्षरों में लिखित होता था कि ताकि प्रत्येक आगन्तुक और दर्शनार्थी उनको जान सके।[4]

                     नालन्दा के कुलपति अपने पांडित्य के लिए जितने विख्यात थे उतने ही अपने निर्मल चरित्र व अध्यात्मज्ञान के लिए प्रशंसित। धर्मपाल और चन्द्रपाल जिन्होंने तथागत की शिक्षाओं को सुवासित कर दिया था, गुणमति और स्थिर-मति जिनका पाण्डित्य और कीर्ति सर्वत्र प्रसृत हुई थी, प्रभामित्र – जिन्होंने विवादों में अपने सुस्पष्ट तर्कों की धाक जमा दी थी, जिनमित्र-जिनका संभाषण उच्च स्तर का था, जिनचंद्र जिनका आचरण आदर्शभूत तथा बुद्धि प्रखर थी तथा शीलभद्र, जिनकी सर्वगुण संपन्नता व स्वतंत्र प्रज्ञ विनय के कारण प्रगट नहीं होती थीं – ये सर्व आदर्शाचरणी विद्वान नालंदा की कीर्ति बढ़ा रहे थे।[5] ये विद्वान अध्ययन व अध्यापन से ही संतुष्ट न थे, अपितु इन्होंने अनेक बहुमूल्य ग्रंथ की रचना की थी जिनका उनके समय में ही बहुत प्रचार तथा मान हो गया था। ये उपर्युक्त विद्वान ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए थे। अतः अपने 700 वर्षों के इतिहास में नालन्दा ने कितने ऐसे विद्वान उत्पन्न किये होंगे, उनकी संख्या अवश्य ही बहुत बड़ी होगी। युवाघ्च्वाघ् के समय में इस विद्यापीठ में पाण्डित्य का सामान्य स्तर बहुत ऊँचा था। 5000 (या 100000) भिक्षुओं में 1000 भिक्षु ऐसे थे जो 30 सूत्र-निकायों की व्याख्या कर सकते थे तथा सम्भवतः 10 ऐसे थे जो 50 सूत्र निकायों की व्याख्या कर सकते थे।[6]

                     नालन्दा विश्वविद्यालय में देश के कोने-कोने से प्रवेशार्थियों की बड़ी भीड़ जुटती थी। सुदूर विदेशों के निवासी भी वहां की शिक्षा से लाभान्वित होने के लिए उत्सुक थे। नालन्दा के यश से आकृष्ट होकर आनेवाले चीनी विद्यार्थियों में फाहियान, युवाङ्-च्वाङ् तथा इत्सिङ् मात्र ही न थे अपितु युवाङ्-च्वाङ् और इत्सिङ् के आगमन के मध्य के 30 वर्षों में ही थान-मि_ हुवेन-च्यू, ताऊ-हि, हव-निह, आर्य वर्मन, बुद्ध धर्म ताऊसिघ्, ताघ् तथा हुइ-लू आदि अनेक विद्यार्थी चीन, कोरिया, तिब्बत और तोखारा से नालन्दा में अध्ययनार्थ आये थे। इन्होंने नालन्दा में वर्षों तक अध्ययन किया था तथा अनेक ग्रन्थों की पांडुलिपियों की प्रतिलिपि की थी।[7] प्रविष्ट होनेवाले विद्यार्थियों की योग्यता का स्तर भी स्वभावतया ऊँचा था। विदेशी विद्यार्थियों में अधिकांश विद्यार्थी विषय की कठिनता के कारण शास्त्रार्थ में भाग न ले सकते थे। जो नवीन और प्राचीन विद्या के पंडित भाग लेते थे उनमें 25 फीसदी ही विवाद में विजयी होते थे।[8]

                     नालन्दा के अधिकारियों ने अनुभव कर लिया था कि पुस्तकालय के बिना विहार वैसा ही है जैसे शस्त्रगार के बिना दुर्ग। विभिन्न विज्ञानों के अन्वेषण में रत शतशः अध्यापकों तथा सहस्रों विद्यार्थियों के लाभार्थ नालन्दा विहार में एक विशाल पुस्तकालय था। चीनी विद्वानों के नालन्दा में महीनों टिके रहने के कारण यह भी था कि यहाँ वे बौद्ध आगमों तथा अन्य पुस्तकों की शुद्ध-प्रतिलिपियाँ प्राप्त कर सकते थे। इत्सिघ् ने नालन्दा में 400 संस्कृत पुस्तकों की प्रतिलिपि तैयार की थी जिसमें कम से कम 5 लाख श्लोक रखे होंगे।[9] पुस्तकालय के मोहल्ला का नाम ‘धर्मगंज’ था जो अति महत्वपूर्ण है। तीन विशाल भवनों में जिन्हें ‘रत्न सागर’, ‘रत्नोदधि’ तथा रत्नसंज्ञक कहते थे पुस्तकें रखी हुई थीं।[10] ये नाम सार्थक ही थे।

                     हमने इतः पूर्व देखा है कि नालन्दा के 5000 (सम्भवतः 10000) भिक्षुओं में 1000 भिक्षु कम से कम 20 सूत्र निकायों की व्याख्या कर सकते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि यहां कम से कम 100 अध्यापक थे जो 4000 भिक्षुओं को पढ़ाते थे किन्तु यह संख्या 9000 से अधिक कदापि न थी। इस प्रकार सामान्यतया एक अध्यापक को 9 विद्यार्थियों से अधिक को न पढ़ाना पड़ता था। ऐसी अवस्था में प्रत्येक विद्यार्थी की प्रगति पर पृथक्-पृथक् ध्यान रखना सम्म्भव था। इसलिए यहां अध्यापन अति कार्य-साधक रहा होगा। विद्यापीठ में 8 विशाल व्याख्यान भवन तथा 300 छोटे कमरे थे तथा प्रतिदिन लगभग 100 व्याख्यानों का प्रबंध किया जाता था। विद्वान भिक्षु अध्यापकों का बड़ा आदर था। इन्हें पालकी में आसन दिया जाता था। अध्यापन और व्याख्यानकला के वे विशारद थे। इत्सिङ् ने लिखा है कि मुझे सदा इस बात से बड़ी प्रसन्नता होती है कि मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिला था जो अन्यत्र मैं कभी प्राप्त न कर सकता था।

                     नालन्दा विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम बहुत ही विस्तृत था और वहां सभी दर्शन पढ़ाये जाते थे। यह विहार महायान बौद्धों का था, किन्तु प्रतिद्वन्द्वी हीनयान की भी पुस्तकें यहां पढ़ायी जाती थी। अतः पालि का अध्ययन अनिवार्य था क्योंकि अधिकांश हीनयान ग्रंथ पालि में ही हैं। यहां नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग और धर्मकीर्ति आदि महायान के आचार्यों के ग्रंथों का विशेष रूपेण अध्ययन-अध्यापन अवश्य होता रहा होगा। किन्तु हमें यह न समझना चाहिए कि यहां का पाठ्यक्रम इस अर्थ में साम्प्रदायिक था कि यहां हिन्दू विषयों की पढ़ाई की व्यवस्था न थी। सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि व्याकरण, न्याय और साहित्य, हिन्दू और बौद्ध सबके अध्ययन के विषय थे तथा इस काल में बौद्ध और हिन्दू धर्म और दर्शन इतने परस्पर संबद्ध हो चुके थे कि विवादानुरागी विद्वानों के लिए ही नहीं, अपितु सत्यान्वेषी के लिए भी एक के बिना दूसरे का अध्ययन असम्भव था। स्वयं बौद्धों ने लिखा है कि नालन्दा में अन्य फुटकल विषयों के अतिरिक्त तीन वेदों, वेदान्त और सांख्य दर्शन का भी अध्यापन होता था।[11] फुटकल विषयों का तात्पर्य सम्भवतः धर्मशास्त्र, पुराण, ज्योतिष आदि से था। हिन्दू और बौद्ध दोनों इन्हें बहुत महत्व देते थे। चिकित्साशास्त्र जिसका उल्लेख बौद्ध आगमों में भी हुआ है – भी यहाँ पढ़ाया जाता था।

                     सम्पूर्ण प्रबन्ध का प्रधान लिपिक नियामक भिक्षु – महास्थाविर होता था, जिसके सहायतार्थ दो परिषदें रहती थीं, प्रथम शिक्षा सम्बन्धी कार्यों के लिए तथा द्वितीय सामान्य प्रबन्ध के लिए। इन परिषदों की कार्य प्रणाली तथा जगदल्ल बिहार (बंगाल के राजा रामपाल ने अपनी राजधानी रामावती में इसका निर्माण कराया था) प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठ थे जहां से बौद्धधर्म देश-देशान्तरों में प्रचारित हो रहा था। यदि हमारा यह अनुमान अनुचित न होगा कि उन दिनों जब बौद्धधर्म इस देश में उन्नति पर था यहां के कम से कम 10 प्रतिशत बिहार आधुनिक डिग्री कॉलेजों के स्तर के विद्यापीठ अवश्य रहे होंगे। इस प्रकार विद्या और शिक्षा की उन्नति में बौद्ध धर्म की बहुत बड़ी देन है।[12]

          चिकित्साशास्त्र की शिक्षा:

                     निस्संदेह औषधि-विज्ञान भारत में बहुत प्राचीन है। वैदिक साहित्य में क्षत पूरण में अश्विनों की चमत्कारिक प्रतिभा का वर्णन आया है। अश्विन् मूलतः मानव राजकुमार ही थे किन्तु कृतज्ञ आर्य-संतति ने उन्हें देवता का पद दे दिया। सिकन्दर के साथियों ने सर्पदंश की चिकित्सा में भारतीयों की अद्भुत प्रतिभा की प्रशंसा की है। इससे ज्ञात होता है कि ई- पू- की चौथी शताब्दी में चिकित्साशास्त्र भारत में काफी विकसित हो गया था। तक्षशिला के शल्य-चिकित्सा के विद्यार्थी कपाल में गहरे घाव की भी शल्य चिकित्सा कर सकते थे और आंतों के उथल-पुथल को ठीक करते थे।

                     औषधि-विज्ञान की शिक्षा प्रायः अध्यापक अपने ही उत्तरदायित्व पर देता था। विद्यार्थी के भरती के समय एक विशेष संस्कार होता था। संस्कृत का ज्ञान विद्यार्थी के लिए आवश्यक था, क्योंकि आयुर्वेद की अधिकांश पुस्तकें संस्कृत में ही थीं। रटंत-विद्या निन्द्य समझी जाती थी। सुश्रुत ने ऐसे रट्टू पंडितों की तुलना गधे से की है, जो भार तो ढोते हैं पर यह नहीं जानते कि वे कौन सी वस्तु ढो रहे हैं। विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन दिया जाता था। चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थियों को शिक्षा में शल्यतंत्र व औषधि-निर्माण का ज्ञान अवश्य कराया जाता था। कठिन विषयों की चर्चा भी हमेशा विद्यालय में शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में हमें पर्याप्त बातें ज्ञात हैं। नौसिखुओं को तरबूज, खीरे और लौकी, अलाबु आदि पर विभिन्न औजार पकड़ना व चलाना सिखाया जाता था। मृत पशुओं के शवों पर धमनियों का छेद कैसे किया जा सकता है वह दिखाया जाता था। रक्तस्राव के लिए छोटे से छोटे घाव का प्रात्यक्षिक तने हुए केशावृत: चमड़े पर किया जाता था। जखम की सिलाई पतले चमड़े की सिलाई से सिखाई जाती थी और उस पर पट्टी लगाने का अभ्यास भंसे के मानव पुतलों के संहार से किया जाता था। इसके बाद विद्यार्थी को धीरे-धीरे वाण को शरीर से निकालना, फोड़े धोना, सड़े हुए भाग को चाकू से निकालना इत्यादि का प्रात्यक्षिक अभ्यास कराया जाता था। घाव कैसे सुखाया जाता है इसका भी प्रदर्शन किया जाता था। वमन व शौच कराना, बस्ती देना इत्यादि का अभ्यास भी सभी विद्यार्थी करते थे। शवच्छेद के द्वारा विद्यार्थी के ज्ञान को पूर्ण करने के लिए जोर देते हुए सुश्रुत कहते हैं कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से कोई शरीर रचना का पूर्ण ज्ञाता नहीं हो सकता। शव को पानी में सड़ाकर विद्यार्थियों को शवच्छेद करना पड़ता था तब वे मांस-पेशियों, धमनियों, हड्डियों तथा भीतरी अंगों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। शरीर रचना विज्ञान की जो शिक्षा इस प्रकार दी जाती थी वह तत्कालीन अन्य देशों की अपेक्षा उच्च श्रेणी की होती थी। खेद है कि कालान्तर में शवच्छेद बन्द हो गया। फलस्वरूप शल्यतंत्र की प्रगति रूक गयी। फिर भी शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में तक्षशिला अग्रणी था।[13]

                     शल्य चिकित्सा तथा औषधि-प्रदान की प्रायोगिक शिक्षा विद्यार्थी अपने आचार्य के साथ रहकर भी प्राप्त करते थे। कभी-कभी तो विद्यालयों के साथ चिकित्सालय भी सम्बद्ध होते थे। पाटलिपुत्र जैसे-जैसे बड़े-बड़े नगरों में विशाल चिकित्सालय थे। विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए इनका उपयोग अवश्य होता रहा होगा। भारतीय चिकित्सालयों का संघटन अवश्य ही उत्तम था क्योंकि 8वीं शताब्दी में अब्बासी खलीफाओं ने अपने देश में चिकित्सालयों का संघटन करने के लिए भारतीय चिकित्सकों को बुलाया था। खेद की बात है कि फाहियान ने पाटलिपुत्र में जिन चिकित्सालयों को देखा था उनके बारे में उसने कुछ विशेष विवरण नहीं छोड़ा है। यदि फाहियान ने यह विवरण लिखे होते तो निश्चय ही हमें पांचवीं शताब्दी के भारतीय चिकित्सा प्रबंध तथा तत्कालीन औषधि-विज्ञान की शिक्षण पद्धति के सम्बन्ध में अनेक उपयोगी बातें ज्ञात होती।

                     आयुर्वेद की शिक्षा कितने समय में समाप्त होती थी, उसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं। इस संबंध में चरक और सुश्रुत भी मौन हैं। बुद्ध के समय में तक्षशिला में आयुर्वेद का पाठ्य-क्रम काफी दीर्घ था, क्योंकि उनके चिकित्सक जीवक को 7 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण कर लेने पर भी उनके आचार्य ने बड़ी अनिच्छा से ही घर लौटने की अनुमति दी थी। चरक ने लिखा है कि आयुर्वेद के सभी अंगों में कोई वास्तविक पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता। इससे भी यह प्रकट होता है कि आयुर्वेद का शिक्षाकाल दीर्घ रहा होगा। हमारा अनुमान है कि इस विषय में दक्षता प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को कम से कम 8 वर्ष अध्ययन अवश्य करना पड़ता रहा होगा। चरक[14] और सुश्रुत[15] का कथन है कि अयोग्य चिकित्सकों को चिकित्सा की अनुमति देना अनुचित है। इस कथन से अनुमान है कि शिक्षा की समाप्ति पर परीक्षा होती रही होगी। शुक्र ने भी लिखा है कि अनुमति-पत्र प्राप्त किये बिना चिकित्सा का व्यवसाय न करना चाहिए।[16] किन्तु खेद है कि हमारे ग्रंथों में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि सरकार किन परिस्थितियों में किन्हें चिकित्सा का व्यवसाय करने की अनुमति देती थी। सम्भवतः व्यवसाय का अनुमति-पत्र उन्हें ही मिलता था जो अपनी पाठ्य-समाप्ति के संबंध में राजकीय चिकित्सालयों के प्रधान, विद्यार्थियों के आचार्य या किसी प्रसिद्ध चिकित्सक का प्रमाण-पत्र उपस्थित करते थे।

                     आयुर्वेद के स्नातकों को व्यवसाय में उच्च नैतिकता के पालन का उपदेश दिया जाता था।[17] उन्हें सम्पूर्ण जगत के कष्ट के निवारण का व्रत लेना पड़ता था। उन्हें सम्पूर्ण मानव समाज के हित का यत्न करना पड़ता था। चाहे उनके जीवन पर ही क्यों न आ बने उन्हें किसी रोगी को मध्य में न त्यागने का उपदेश किया जाता था। साथ ही समावर्तन के अवसर पर उन्हें यह भी व्रत दिलाया जाता था कि वे आजीवन अध्ययन में निरत रहेंगे।

                     ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में उपरि लिखित उपदेश का पालन पर्याप्त मात्र में होता था। प्राचीनकाल में चिकित्सा के लिए सर्वदा भारत की ख्याति बनी रही। प्राचीन भारतीय चिकित्सक मोतियाबिन्द, अंडवृद्धि, विद्रधि तथा भ्रूणों की चिकित्सा शल्य से कर लेते थे।[18]

                     अरब और मेसोपोटामिया में वहां के विद्यार्थियों को शिक्षा देने तथा चिकित्सालयों और संघटन करने के लिए उनकी आवश्यकता पड़ती थी। खलीफा हारून के तक्षशिला में हिन्दू चिकित्सा और औषधि-निर्माण पद्धति के अध्ययनार्थ अपने देश से विद्यार्थी भेजे थे। उसने 20 भारतीय चिकित्सकों को अपने राज्य में चिकित्सालयों के संघटन तथा अरबी में हिन्दू-ग्रन्थों के अनुवाद के लिए बगदाद बुलाया था। इनमें मनका (माणिक्य) सर्वप्रमुख थे। सुल्तान हारून किसी रोग से पीड़ित थे। जब अरब चिकित्सक उन्हें स्वस्थ न कर सकें तो आप बगदाद बुलाये गये। आपने सुल्तान को चंगा कर दिया था। सुल्तान ने आपको राजकीय चिकित्सालयों के संगठन तथा अरबी में संस्कृत के वैद्यक ग्रन्थों के अनुवाद के लिए इन्हें रोक लिया था।[19] अरब चिकित्सा पद्धति अनेक रूपों में भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति की ऋणी है।

                     10वीं शताब्दी तक आयुर्वेद की शिक्षा नालन्दा में पर्याप्त समृद्ध थी। आयुर्वेद के चिकित्सक औषधि विज्ञान के क्षेत्र में अन्यत्र होनेवाले आविष्कारों के संपर्क में थे तथा स्वयं चिकित्सा के लिए नयी लाभकर दवाओं के शोध करते थे। मध्यकाल में पारा, अफीम और अन्य धातुओं के पदार्थों का उपयोग प्रारंभ किया गया। किन्तु शवच्छेद बंद होने तथा तत्पश्चात् ही शल्य चिकित्सा में ह्रास होने से पद्धति की बड़ी हानि हुई। सांस्कारिक शुद्धि की भावना दृढ़तर होने से शव-स्पर्श त्याज्य समझा जाने लगा तथा शवच्छेद क्रमशः बंद हो गया। इससे शल्य चिकित्सा को गहरा धक्का लगा और क्रमशः वह समाप्त हो गयी। चिकित्सक को गंदी बीमारियों से ग्रस्त तथा मृत-प्राय रोगियों को स्पर्श करना पड़ता था। अतः उनका व्यवसाय ही हेय समझा जाने लगा। पूर्वकाल में जहां अश्विनों और धन्वन्तरी को देव-पद दिया गया और उन्हीं चिकित्सकों को साथ भेजना करना प्रायश्चित के योग्य माना जाने लगा। पुराणों ने यहां तक कह डाला कि चिकित्सक अम्बा दासी में उत्पन्न गालव ऋषि के अवैध पुत्र के वंशज हैं। यद्यपि इस काल में भी यदा कदा राजा की ओर से चिकित्सकों को भूमिदान मिल जाता था पर सम्पूर्ण समाज में चिकित्सक का व्यवसाय हेय समझा जाता था। अतः इसकी कार्यक्षमता तथा प्रगति पर विपरीत प्रभाव अवश्य पड़ा होगा।[20]

                     तक्षशिला एवं नालन्दा में पशु-चिकित्सा-विज्ञान का विकास अत्यन्त प्राचीन काल में हो गया था। शालिहोत्र इसके जन्मदाता माने जाते हैं। पाण्डव भाइयों में नकुल और सहदेव उसके विशेषज्ञ कहे जाते हैं। ई- पू- तीसरी शताब्दी में तक्षशिला में पशु-चिकित्सक इतनी पर्याप्त मात्र में थे कि अशोक ने जब देश भर में पशु-चिकित्सालय खोले तो उन्होंने इन्हें संभाल लिया। सैनिक अधिकारी घोड़े और हाथियों की चिकित्सा के लिए इन्हें नियुक्त करते थे। (अर्थ- 2-30-2) इन विषयों पर पुस्तकें भी थीं।[21] किन्तु पशु-चिकित्सा को शिक्षा के लिए किसी विद्यालय का कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है।

कुल मिलाकर, नालन्दा विश्वविद्यालय अपने दौर के सभी श्रेष्ठ ग्रन्थों में प्रमुखतया अभिचित्रित हुआ था। बौद्ध ग्रन्थों में जिस भाति उक्त विश्वविद्यालय का सन्दर्भ मिलता है, वह अत्यधिक प्रामाणिक, सुस्पष्ट और सम्यक कोटि के चित्र -रूप में विद्यमान है।

संदर्भ –       

[1] तारानाथ के अनुसार नागार्जुन के शिष्य आर्थवेद नालन्दा में आचार्य थे। यदि यह बात सच सिद्ध हो जाय तो नालन्दा का इतिहास कुछ और शताब्दियों पूर्व से प्रारम्भ होगा। नागार्जुन और आर्थवेद की पहचान तथा उनके समय का निर्णय अभी नहीं हो सका है। बसुकृत, इंडियन टीचर्स, पृ- 108-109

[2] इत्सिंङ् ने यह संख्या दी है जो यहां दस वर्ष रह चुका है। युवाङ्च्वाङ् के जीवनी लेखक ने 100 गांव ही बतलाये है। हो सकता है कि बीच इस अवधि में ये नये गांव मिले हैं।

[3] इत्सिंङ् पृ- 106 मध्यकालीन ईसाई गिरिजाघरों में जो ईसाई धर्म में दीक्षित होना चाहते थे उन्हें निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। सामान्य जनता को अपने बच्चों की शिक्षा के लिए स्वेच्छा से कुल शुल्क देना पड़ता था। ग्रेव कृत ‘एक इतिहास’ पृ- 31

[4] इत्सिंङ्, पृ- 176

[5] वैटर्स, पृ- 165

[6] जीवनी, पृ- 112

[7] वही, भूमिका पृ- 27-36

[8] वैटर्स, 2, पृ- 165

[9] इत्सिंङ्, पृ- 1

[10] विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑफ इंडियन लॉजिक, पृ- 5

[11] लाइफ, पृ- 112

[12] सुश्रुत – सूत्रस्थान अध्याय – 9

[13] सुश्रुत – शरीरस्थान, पृ- 5-49

[14] सूत्रस्थान 29-8

[15] वही 3-52, 10-3

[16] वही 1-304

[17] देखिए परिशिष्ट

[18] सीता को भय था कि रावण मुझे मारकर मेरे शव का भेदन उसी प्रकार करेगा जैसे एक शल्यकृन्त गर्भस्थ  का करता है:-

                                    तस्मिन्ननागच्छति लोकनाथे गर्भस्थ अन्तोरिव शल्यकृन्तः।

                                    नूनं ममांगान्यचिरादनार्थः शस्रौः सितैश्छेत्स्यति मानवेन्द्रः।।

                        चेतना शून्य करने तथा कीटाणुओं को मारने की विधि के ज्ञान न रहने के कारण शल्यतंत्र की प्रगति अवरूद्ध हो रही थी। चेतना शून्य करने के लिए शराब दी जाती थी। भोजप्रबंध में चेतना शून्य करने की एक औषधि का भी वर्णन आया है जिसे ‘‘मोहचूर्ण’’ कहा है किन्तु वह अश्विनों की आश्चर्यजनक क्रियाओं के प्रसंग में वर्णित हुआ है। अतः हम इसके ज्ञान का प्रयोग के सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं हैं:-

[19] नकवीकृत अरब और भारत के सम्बन्ध, पृ- (103-23)। अलबरूनी – भूमिका पृ- 31 सलेह बिन बहल तथा दहल (धनवन्तरि?) मनका के दो साथी थे। वे भी उनके साथ बगदाद गये थे।

[20] मिताक्षरा के एक प्रासंगिक उद्धरण से पता चलता है कि 12वीं शताब्दी में आयुर्वेद की शिक्षा 8 नहीं 4 वर्ष की होती थी। अंतेवासी गुरोगृहं वर्षचतुष्टय आयुर्वेदशिल्प-शिक्षार्थ त्वद्गृहे वसामीति याज्ञ- पर मिता- टीका 2-184

[21] जयदत्त का अश्ववैधक, नकुल की अश्वचिकित्सा तथा पंचकाव्य का हस्तत्यायुवेर्दक इस विषय की महत्वपूर्ण पोथियां हैं। अपने वर्तमान रूप में इनमें कुछ तो 800 ई- से प्राचीन नहीं हैं पर इस क्षेत्र में पूर्वकाल में पुस्तक अवश्य रही होगी जो अब लुप्त हो चुकी है।

 

            अंशु कुमारी

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *