इससे पूर्व प्रकाशित भारतीय लोक और स्त्रीमन की 5 श्रृंखलाओं में भोजपुरी के लोकगीत, खड़ी बोली के लोकगीत, राजस्थानी लोकगीत, हरियाणी लोकगीत व पंजाबी लोकगीत की बेहद्दी में मैंने जहां लोक साहित्य में लोकगीतों पर केन्द्रित कई पहलुओं पर चर्चा की है, तो गुजराती लोकगीत की इस श्रृंखला में हम एक और भिन्न दृष्टि से विचार करने का प्रयस करेंगे और वह है कि लोकगीतों के बीज में प्रतिरोध के मुद्दे की क्या कोई भुमिका है? और यदि है तो वह किन-किन रूपों में आकार ग्रहण करने में सार्थक भूमिका निभा पाई है? अपने से विपरीत और विषम स्थिति के प्रति विद्रोह और उस स्थिति को जन्म देने वाले लोगों के प्रति क्रोध लोक में सर्वथा रहा है। उदाहरण के लिए स्त्रियों के प्रति सामंती नजरिया लगभग हर तरह के समाज में सदैव मौजूद रहा है। आज अनेकों पढ़ी-लिखी और स्वावलंबी महिलाओं को मैने यह कहते पाया कि साारी जिन्दगी यूं ही निकल गई, पहले पिता का अधिपत्य फिर पति का और अन्त में बेटे का मन की कभी कर ही नहीं पाए।

लेकिन इसके ठीक विपरीत लोकगीतों में स्त्री लोक का वह रूप भी सामने आया जिसने उसे एक तरह का बाजार बना दिया। लोकगीतों को बाजार के जरिए एक बड़े पैमाने पर लोगों को सांस्कृतिक उत्पाद के रूप में बेचा जाने लगा और उसके ईर्द-गिर्द धारणा बनायी गई कि आज के लोग की मांग या पसंद यही है । आजकल भोजपुरी के अनेकों गीत प्रचार में आ रहे हैं वे इतने द्विअर्थी और स्त्रियों के प्रति एक खास तरह का भोगवादी दृष्टिकोण लिए हुए है। अपनी सस्ती उत्तेजना के बल पर ही वे जीवित भी है ‘शीला  की जवानी’ और ‘मुन्नी बदनाम हुई’ इसी प्रकार के गीतों का प्रभाव हो सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि लोक के साहित्य को इस प्रकार अधिग्रहित करके और लोकरूचि में विकृत करने के लिए लोक साहित्य के नाम पर बाजार में परोसा जाये। वस्तुतः आज लोक साहित्य की संस्कृति  कें लिए यह सबसे बड़ा खतरा है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक की परिभाषा देते हुए स्पष्ट कहते हैं- लोक शब्द का अर्थ ‘जन-पद‘ या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में परिष्कृृत,रूचि सम्पन्न व सुस्ंकृृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृृत रूचि रखने वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं।‘‘ (लोक साहित्य की भूमिका-कृृष्णदेव उपाध्याय,) इस लोक के दायरे में जल,जंगल,जमीन,श्रम, कला,संस्कृृति व स्त्री प्रमुख हैं।
जहां तक स्त्री का सम्बन्ध हैं, तो सम्पूर्ण विश्व में कुछ गिनती के मातृृसत्तात्मक या मातृृवंशात्मक समूहों को छोड़कर अन्य सभी भागों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है। पितृसत्ता बेबले(1990) के शब्दों में ‘सामाजिक‘क्रियाओं को ऐसी व्यवस्था के रूप् में परिभाषित किया जाता हैं, जिसमें पुरूषों का स्त्रियों पर वर्चस्व रहता है और वे उनका शोषण व उत्पीड़न करते हैं।‘पितृृसत्ता स्त्रियों का हाशियाकरण करती है और उनकी स्थिति कमतर,शोषित,उत्पीड़ित व शक्तिहीन बनाती है। अन्य हाशियाकृृत समुदायों की तरह स्त्रियों की भी जीवन दशाओं, अनुभवों व प्रतिक्रियाओं को लिखित इतिहास की बजाय मौखिक इतिहास के द्वारा कही बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। मौखिक-वाचिक परंपराओं में स्त्री आवाज की गूंज है। मौखिक परंपराओं का अति महत्वपूर्ण अंग है- लोकगित। लोकगित में स्त्री दृृष्टि व सृष्टि है।
जहां तक लोकगीतों के आरंभ होने का प्रश्न है, तो मेरा मानना है कि लोकगीतों के छंद, लय व ताल का आरंभ न केवल ‘ऋगवेद‘ और भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र से अपितु जब से मानव ने रोना और हंसना शुरू किया होगा, तभी से हो गया होगा। जब से मानव -मन में प्रकृति का एहसास हुआ होगा, मनुष्य ने स्वयं के अलावा अन्य के बारे में सोचना शुरू किया होगा, तभी उसके हृृदय के भाव  गीतों के रूप में फूट पड़े होगें। वैसे इतिहास में दर्ज बाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम ग्रामगीतों का उल्लेख हुआ है। इसके बाद प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में इन गीतों की एक सुदीर्ध परंपरा है। जो ‘गाथा सप्तशती’ से लेकर हेमचन्द्र के ब्याकरण में उदाहरणों में पुरूखों से चली आती परम्परा अनुभव के रूप में वर्तमान रहती है। समकालीन समाज इन अनुभवों व जीवन-संघर्षों को काव्यात्मक अनुभूति देता रहता है इस तरह लोकगीतों की एक परंपरा सी चलती रहती हैं।लोकगीतों में दरिद्रता,भुखमरी, अन्याय,स्त्री पराधीनता, दुष्ट शासन, संघर्ष आदि के अलावा प्रेम,उत्सव,आकांक्षा,अभिलाषा के साथ यौन प्रसंग, स्त्री-पुरूष के अंतरसम्बन्ध व इतर सम्बंधों तक की खुली व एक तरह से अशिष्ट कही जाने वाली भाषा में भी निर्बाध अभिव्यक्ति है।
लोकगीतों में इस चेतना के दो प्रमुख कारण हैं। एक तो यह किसी के आश्रय में उत्पन्न नहीं होती,बल्कि हृदय की स्वाभाविक अनुभूति से उत्पन्न होती है। अतः प्रायोजित नहीं होती। दूसरे किसी के अधीन न होने के कारण इनमें एक तरह का निजत्व भरा स्वाभिमान भरा होता है। लोकगीतों में इस स्वतः स्फूर्त ओज के बारे में कुछ यूं कहा गया है-‘

‘नाहीं बिरहा कर खेती भइया,
नहीं बिरहा फरे डाढ़।
बिरहा बसेले हिरिदिया में रमा,
जब उमगेले तब गांब।

किसी परिस्थिति का व्यक्ति-विशेष के मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका स्वाभाविक उदाहरण लोकगीत ही है। विशेषकर स्त्रियां अपने संघर्षों को लोकगीतों के माध्यम से न केवल जीवित रखती हैंं, बल्कि विरोधी पर अचूक निशाना भी साधती हैंं। इसलिए यह धारणा एकांगी होगी कि लोकगीतों में सिर्फ उल्लास और पर्व का ही वर्णन है। उत्कृष्ट विचार और निकृष्ट व्यवहार दोनों साथ-साथ चलते हैं। सामान्य जीवन में सास के सामने प्रत्युत्तर का भी साहस न करने वाली बहु लोकगीत में-

‘कोठे उपर कोठरी, मैं उसपे रेल चला दूंगी।
जे मेरी सासु तू कुछ बोली, निच्चे पटक दे
मारूंगी।
जैसे दुःसाहस की परिकल्पना कर लेती है। अपने मायके से मिली सौगातों को-
‘ ये मेरा झुमका, मायके तै आया।
इन्नै तै हात न लगाना दूूंगी।‘

कहकर प्रतिकार का उद्घाटन जोरदार ढंग से करने मे समर्थ है।

‘‘छत पे सोया ता बहनोई
मैं तन्नै समझ कै-सो गई
मन्नै राणा जी माफ करना
गल्ती म्हारे से हो गई।”
पति से इतर पुरूष-यथा बहनोई,देवर,जीता,आदि के साथ हास-परिहास व चुहल बाजी स्वीकृत सी है। दूसरी ओर ‘सासुल पनिया कैसे जाऊ रसीले दोऊ नैना ‘कहकर अपनी सास को ही परपुरूष के आकर्षित होने के प्रति सचेत करती है। भाभी अपनी ननद न घर मत कहियो जाय रसीले दोउ नैना‘- यह है भारतीय लोक। जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, उसकी कमी लोक में बिल्कुल नही हैं। प्रेम-संबंधों की स्वीकारोक्ति का ये साहस ,ये रंग भारतीय लोक के अलावा कहीं नहीं। लोकगीतों से पता चलता है कि नारी की स्वाधीन चेतना की जीत हमेशा से जीवित रही है।
लोक से जुड़ी तमाम चीजें विलुप्त हो रही हैं। अब लोकगीतों या विवाह के गीतों या विवाह के गीतों को भी फिल्मी धुनों पर गाया-बजाया जा रहा है। पुरानी पीढ़ी के खत्म होने से ये गीत व कलायें भी खत्म होता जा रही है। मिडिया ये चैनलों पर दिखाया जाने वाला लो तो उस तरह लोक है ही नहीं। यू लोक का लोकतांन्त्रिक प्रथम अनिवार्याता है,क्योंकि साहित्य का जहां कोई न कोई रचयिता अवश्य होता है, वहां यह लोक गान सर्वप्रथम किसके मंुह से निकला, इसका पता ही नहीं। फिर यदि एक गीत किसी स्त्री ने गाया, दूसरी ने सुना और सुनकर आधा-अधूरा अपनी तरह से दूसरी जगह गाया, तो परिवर्तन तो गीत कि प्रकृति में ही समा गया। इसकिलए लोकगीतों पर कोई अपना कापीराइट भी नही दिखा सकता है कि यह लोकगित उसने लिखा, इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि अनेकों जच्चा,बन्ने,बनड़ी, भजन व गीत आदि ऐसे हैं जो भोजपुरी,खड़ी बोली,राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी आदि अनेकों बोलियों और भाषाओं में समान रूप से अपने-अपने निजी उच्चारणों के साथ गाये बजाये जाते है। इन्हें बाज सहेजकर रखना नितान्त अनिवार्य है।

डाॅ मंजु तॅवर
एसो0 प्रोफेसर
सत्यवती कालेज(सांध्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय

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