भोरहरी में उठते ही रंजना खेत से लायी ताजी हरी भिंडियाँ काटने बैठ गयी। रोज सबसे पहला उसका यही काम था। उजाला होते ही सूरज की किरणें भी धीरे-धीरे धरती पर उतरने लगी थी। सामने नीम के पेड़ पर चिड़ियों की टोली ने भी रोज की तरह गीत गाना शुरू कर दिया था। इधर रसोई में पकती चाय की गंध चारों ओर फैल रही थी। रंजना से थोड़ी ही दूर चौकी पर बैठी उसकी चचिया सास और ननद आपस में बतिया रही थी। उनकी बातों से पता चला कि कोई मर गया था। रंजना के हाथ सहज भाव से भिंडी काटने में लगे रहे। अचानक उसका ध्यान टी वी पर आते ऐड पर चला गया जिसमें एक दादी कह रही थीं- ‘मेरी प्यारी पोती को किसी की नजर न लगे’ जवाब में पोती बोली, ‘दादी मुझे किसी की नजर नहीं लगेगी…मेरे चेहरे पर पहले से ही काफी दाग़ है’ फिर सीन बदलता है एक खूबसूरत लड़की कह उठती है, ‘पॉन्ड्स व्हाइट ब्यूटी फेशवाश…सिर्फ सात दिनों में स्पॉट लेस ग्लो…’।

रंजना सोचने लगी कंपनियां भले ही हर प्रकार के दाग मिटाने का दावा करें पर आदमी तो मरने का दाग जनम से ही लेकर आता है। रोज हजारों लोग मरते हैं। मरने की खबर जैसे अब दहशत पैदा नहीं करती। कोई अपनी मौत मरता है…कोई मार दिया जाता है…पर मरते तो सभीं हैं न। टी वी और अखबार तो जैसे मनहूसियत का पिटारा लेकर आते हैं। रोज रोज यही खबर सुन कर लोग इसे बड़ी सहजता से लेते हैं। रंजना भी जैसे अब इसी स्थिति में आ गयी थी।

खैर…थोड़ी ही देर में जीरे, लाल मिर्च के तड़के और सब्जी छौंकने की खुशबू घर में फैल गयी। चौके में सिर पर पल्लू डाले उसकी देवरानी ने रोटी बेलना शुरु किया। रंजना उसे झटपट गर्म तवे पर डालकर फिर आग में फुला-फुला कर बरतन में डालती जाती। आज रोटियां कम बनीं। दुआरे से खबर आयी कि लाश के उठने के बाद ही सास-ससुर लोग खाएंगे।

‘क्या गांव में कोई मर गया है?’ रंजना ने ननद से पूछा। ननद ने हामी भरी और बताया कि एक बूढ़ी अम्मा थीं वो सीढ़ी से गिर गयी। उनकी आंख से एकदम सूझता नहीं था। हाथ से टटोल-टटोलकर काम करती थीं। साथ में उनके बुढ़ऊ थे बस।

बच्चों के बारे में पूछने पर पता चला कि बेटे-बहू, नाती-पोते सालों से शहर में रहते हैं।

‘किसी काम के नहीं बच्चे। जीवन भर उनकी देखभाल करो…उनके पीछे जिंदगी खपा दो..जब शरीर थक जाए तो ये घर में पड़े पुराने समान की तरह छोड़ देते हैं…इनसे अच्छी तो वमिता है जो खुद नौकरी करतीं हैं और अपने लिए जीती हैं। साथ में उनके पति भी खुश हैं। इन बच्चेवालियों की तरह नहीं जो अपना पेट काट काट कर जीते हैं और आखिर में अकेले बिसूरते हैं।…क्या उस घर में इतनी भी जगह नहीं थी कि दो बूढ़े रह सकें।…इससे तो अच्छा कि बेटे बहू, नात रिश्तेदार हों ही न।’ वृद्धों की उपेक्षा पर रंजना उबल पड़ी। पर यह देख कर कि उसकी बातों पर कोई ध्यान न दे रहा वह वापस काम में लग गयी। सलाद काटना, फिर भागकर थाली लगाना…किसी ने खाकर थाली बीच रस्ते में ही रखी है उसे उठाकर बरतन धुलने वाली जगह पर रखना…सबको खिलाना, बरतन धुलना, चौके में झाड़ू लगाकर मिट्टी की जमीन पर पानी छिड़कना…जितना बड़ा घर उतने काम उफ्फ!

दो बजते-बजते समय का पता ही न चला। फिर सारी उठापटक शांत हो जाती। लोग बाग चिलचिलाती दुपहरी में अपने कमरे या दालान में सोने चले जाते। दुपहरी इतनी तेज होती कि पत्ता तक न हिलता। बस बीच बीच में गौरैयों की धीमी टिहकारी सुनाई पड़ जाती। पाँच बजे तक सब कुछ यूं ही थमा रहता। फिर वापस हलचल शुरु। शाम की सब्जी कटने लगी। गाय-बछिया के लिये चूल्हे पर गेहूं का दरदरा आटा पकने लगा। दालान में लहसुन-प्याज के छिलके उड़ने लगे। दोपहर की नींद पूरी कर चुकी चौकी पर बैठी ननद ने फिर सुबह की बात छेड़ दी, ‘अरे…ऊ बूढ़ा जिन्दा रहेन करम काण्ड होवे तक…ओनकर सांस चलत रहेन।’

‘अर्रे… पागल हवे का सब जवन ज़ियते फूंक देहि…?’ चचिया सास ने टोका।

‘हूँ …ऊं… जाइ के जे उहाँ रहल ओसे पुछतु काहे नाहीं…सब कहत रहे जब गंगा नहलाने ले गएन  तब तक खून टपकत रहे। मरल होती त ख़ूनवा जम जात कि नाहीं…कंचनवा क चाची बतावत रहनी कि सांसों मद्धिम – मद्धिम चलत रहे।’

ननद की बातें सुनकर सब्जी की जगह सहसा रंजना का अंगूठा पहसुल पर पड़ गया। अंगूठे से टप टप खून टपकने लगा पर उसे तो जैसे होश ही न था। उसके मन में तेजी से कुछ खदबदाने लगा…एक बूढ़ी, बेबस जीवित चोटिल देह…जिसे चिता पर लिटाने से पहले सारे कर्मकाण्ड किये गए। सारे नात रिश्तेदारों की बुलाहट हुई…देह को गंगा स्नान कराया गया…फूल माला पहनाया गया। सधवा थीं तो टीका सिंदूर भी लगा…बक्से में से ब्याह की पितम्बरी भी निकाल कर ओढ़ाई गयी मगर किसी से इतना न हुआ कि डॉक्टर को बुलाकर या उन्हें ले जा कर जांच करवा लेते कि मर चुकी हैं या जीवित हैं। …खून टपकता बेबस शरीर सारे कर्मकांडों के बाद चिता पर लिटा दिया गया आह!!! आग लगने के बाद जलती लकड़ियों से दबी उनकी बूढ़ी देह कितनी तड़पी होगी…रंजना के कलेजे को काठ मार गया था और उसके अँगूठे से खून टपक रहा था टप… टप… टप।

 

डॉ. मधुलिका बेन पटेल 

सहायक प्राध्यापक

हिन्दी विभाग  

तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय 

 

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