बिहार पर्यटन प्राचीन सभ्यता, धर्म, इतिहास और संस्कृति का अनुठा मेल है, जो भारत की पहचान है। यह राज्य भारत के कुछ महान सम्राज्यों जैसे मौर्य, गुप्त और पलस के उदय और उनके पतन का गवाह रहा है। 5वीं से 11वीं सदी के बीच यहाँ विश्व का प्रारंभिक विश्वविद्यालय विकसित हुआ। उसके अवशेष आज भी बिहार पर्यटन के आकर्षणो में से एक हैं। बौद्ध धर्म के कुछ पवित्र स्थल भी इसी राज्य में हैं। हिन्दू धर्म, सिख धर्म और जैन धर्म के कुछ महत्वपूर्ण स्थान भी यहाँ हैं।
बिहार का मतलब ही भ्रमण करना है ऐसे में इस राज्य में धुमक्कड़ों के लिए कई मनोहारी पर्यटन स्थल है जहाँ आकर सैलानी सुन्दरता की दुनिया में खो जाते हैं। कुछ महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक स्थल-
गया-गया एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक सांस्कृतिक स्थल है यहाँ मनु के पौत्र (सुद्युम्न) अर्थात् इला के पुत्र गय ने 100 अश्वमेघ यज्ञ किए। यहाँ पिण्डदान करने से पितरों को अक्षय तृप्ति होती है। श्राद्ध के लिए गया भारतवर्ष में प्रधान है। अश्विन मास का कृष्णपक्ष गया में श्राद्ध का सर्व प्रधान समय है। गया शहर के दक्षिण-पूर्व फाल्गु नदी के पास विष्णुपद का विशाल मंदिर है। जो देखने लायक है। गया का पौराणिक इतिहास बड़ा रोचक है। सूर्य के पौत्र गय के नाम से ही गया शहर बसा। गया जनपद से छः मील दक्षिण निरंजना नदी के तट पर स्थित है। जहाँ बोधिवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ गौतम को बोधि प्राप्त हुई, जिससे वे बुद्ध कहे जाने लगे। बौद्धों का यह पवित्र तीर्थ स्थल है। अशोक ने यहाँ एक बिहार निर्मित कराया। समुद्र गुप्त के शासन काल में सिहल द्वीप के राजा मेघवर्ण ने गुप्त सम्राट की अनुमति से यहाँ एक विहार निर्मित कराया था। 405-11 ई0 में भारत भ्रमण करने वाले चीनी यात्री फहियान ने इस स्थान को जंगलो से घिरा हुआ पाया। 7वीं सदी के आरंभ में इस स्थान पर और संकट उस समय आया जब गौड़ अथवा मध्य बंगाल के राजा शशांक जो बौद्ध धर्म से घृणा करता था पवित्र बोधिवृक्ष को कटवा कर जलवा दिया। बाद में हेगसांग के अनुसार मगध के स्थानीय राजा पूर्णवर्मा द्वारा जिसे अशोक के वंसज कहा जाता है यहाँ दूसरा वृक्ष लगाया गया। इस स्थान की समुचित देख रेख होती है।
राजगीर-राजगीर का प्राचीन नाम गिरिब्रजपुर, कुशाग्रपुर भी मिलते हैं। यह स्थान महाभारत के मगधपति जरासंध की राजधानी था। भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन और भीम यहाँ पधारे थे, और भीम ने जरासंध का वध किया था। यहाँ गौतम ऋषि का आश्रम था। बोधि प्राप्त करके भगवान बुद्ध ने दूसरा व तीसरा चैमास राजगृह में बिताया था। यहि महाकाश्यप की मध्यस्थता में प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी मंडन मिश्र का जन्म भी राजगृह में हुआ था। बैरार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि और चेतक ये पाँच पर्वतों से आच्छादित राजगीर की प्राकृतिक छटा अनुपम है। यहाँ अनेक कुंड और झरने हैं। गिरिब्रज में महाभारत के समय में जरासंघ की राजधानी भी रह चुकी थी बुद्ध ने अपने जीवन का लंबा समय यहाँ बिताया था। राजगीर जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। राजगीर में भगवान महावीर ने भी लंबा समय बिताया था। यह जैन धर्म का लोकप्रिय तीर्थ स्थल है। इस शहर ने पहली बौध परिषद् के रूप में भी कार्य किया। आज के समय में राजगीर बौद्ध धर्म का सबसे प्रमुख धर्म स्थल है। धर्म का केन्द्र होने के अलावा राजगीर एक लोकप्रिय स्वास्थ्य रिसोर्ट भी है। राजगीर के गर्म पानी के तालाबों में त्वचा संबंधी बीमारियां ठीक करने के गुण भी है। सरस्वती कुंड से एक मील दक्षिण-पश्चिम ग्यारह गज लम्बी और साढ़े पाँच गज चैड़ी सोन भंडार की प्रसिद्ध गुफा है। इस गुफा में भोजन करने के उपरान्त भगवान बुद्ध दिन में शयन करते थे। सोन भंडार गुफा से एक मील दूर सत्रपानी गुफा थी जहाँ प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी। मणीनाग तीर्थ (राजगृह) में जाने से हजार गोदान का फल होता है। यह भी कि वदंति है जो मणिनाथ तीर्थ में उत्पन्न हुई वस्तुओं को खाता है उसे सर्प काटने पर विष नहीं चढ़ता। मणिनाग तीर्थ में ही गौतम ऋषि का वन हैं। कहा जाता है कि वहाँ अहिल्याकुंड में स्नान करने से सद्गति प्राप्त होती है।
वैशाली-बिहार के तिरहुत प्रमंडल का जिला शहर जो विश्व के प्राचीनतम गणतंत्र के रूप में जाना जाता है। यह लिच्छवी क्षत्रियों की राजधानी थी भगवान बुद्ध ने यहाँ कई चैमास वास किया था। यहीं उन्होने महापरिनिर्वाण किया था और भिक्षुओं को अंतिम उपदेश दिया था। बौद्धों की दूसरी संगीति 443 ई0 पूर्व में महात्मा रेवत की अध्यक्षता में यहाँ हुई थी। यहाँ पर आम्रवाटिका थी जिसे आम्रपाली ने भगवान बुद्ध को दान दे दिया था। बसाढ़ पटना के सताईस मील उत्तर में है यहाँ एक पुराने गढ़ के अवशेष है। इसे निश्चल राजा का गढ़ माना जाता है, जिसके नाम पर बसाढ़ का नाम वैशाली पड़ गया। जिस समय भगवान बुद्ध ने अपने आने वाले निर्वाण के समय की घोषणा की और वैशाली छोड़कर जाने लगे तो वहाँ के लिच्छवी निवासी विलाप करते हुए उनके साथ हो लिए। लगभग तीस मील तक वे उनके साथ चले गए। वहाँ बुद्ध ने उनको रोक दिया और योगबल से अपने और उनके बीच एक ऐसी खाई उत्पन्न कर दी जिसे वे पार न कर सके। वहाँ से भगवान बुद्ध ने अपना भिक्षापात्र उन्हें देकर विदा कर दिया। यह स्थान केसरिया है जो बसाढ़ से तीस मील उत्तर-पश्चिम में है। भिक्षापात्र देने के स्थान पर एक टुटा हुआ स्तुप है जिसके पास एक बड़ी खाई देखने योग्य है। वैशाली जिला गुप्त काल में मुहरे बनाने का केन्द्र था। वैशाली का सर्वप्रथम उल्लेख बाल्मिकी रामायण से बालकांड में मिलता है। रामायण के अनुसार महर्षि विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण ने राजा जनक के यहाँ धनुष यज्ञ देखने के लिए सिद्धाश्रम (बक्सर) से प्रस्थान किया था, मार्ग में उन्हे वैशाली मिला था उस समय यह एक दिव्य एवं रमणीक नगर था इसका नाम विशालपुरी था और इसके तत्कालिन राजा सुमति थे। वैशाली में ही जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थकर महावीर का जन्म हुआ था। विश्व को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने वाले महावीर प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद बारह वर्ष वैशाली में रहे थे। यहाँ ब्राहम्ण धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म तीनो का संगम हुआ। वैशाली के साथ भगवान बुद्ध का घनिष्ठ संबंध था। गृह त्याग तथा सन्यास ग्रहण करने के बाद सिद्धार्थ सर्वप्रथम वैशाली आए थे और यहाँ उन्होंने कठोर साधना की थी। इस सभी तथ्यों को देखते हुए वैशाली एक बहुत ही सुन्दर, ऐतिहासिक, धरोहर के रूप में है जो तीर्थ स्थल भी है।
चिरान्द-प्राचीन बिहार का एक अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र सारण जिला का चिरान्द था। यह आधुनिक छपरा से 8 कि0मी0 पूर्व है यह बिहार का एक मात्र ऐतिहासिक स्थल है जहाँ नवपाषाण युग से प्रारंभिक मध्यकाल तक लोगों के निरंतर रहने के प्रमाण मिलते हैं। चिरान्द सरयु नदी के किनारे अवस्थित है। यह आज भी एक महत्वपूर्ण घाट है। यहाँ गंगा, सोन और गंडक के बहुत निकट है इससे इसका व्यापारिक महत्व बढ़ गया है, कहा जाता है कि सारण जनपद के प्राचीन शासक चेरों के नाम पर ही चिरान्द नाम पड़ा। अनुश्रुतियों के अनुसार चेर नामक ने चिरान्द की स्थापना की। कालिदास के रघुवंश से पता चलता है कि चिरान्द का धार्मिक महत्व भी था क्योंकि यह गंगा और घाघरा के संगम पर बसा हुआ है।
1962 ई0 में चिरान्द का उत्खनन हुआ। उत्खनन के फलस्वरूप सांस्कृतिक महत्व के अनेक अवशेष प्राप्त हुए है। नव पाषाणकालिन और धातु-प्रस्तर युगीन अवशेष मिले है, इसमें श्याम चित्रित, मृदभांड, आहत और ढ़ाले गए ताम्र सिक्के धातुओं के उपकरण इत्यादि मिले हैं। ईट की दीवारें मकान बौद्ध मठ आदि भी मिले हैं। नगर निर्माण योजनाबद्ध था। जल के निकास का सुप्रबंध था। इससे स्पष्ट होता है कि चिरान्द में नगरीय सुविधाए उपलब्ध थी। यहाँ मृतकला उद्योग काफी विकसित था। ये सभी अकल्पनीय चीजों को देखने हेतु चिरान्द जाना आवश्यक समझा जाता है। जो देखना दुर्लभ हो।
नालंदा-शिक्षा और ज्ञानविज्ञान के अन्तराष्ट्रीय केन्द्र के रूप में नालंदा मशहूर है। नालंदा स्टेशन से डेढ़ मील दूर प्राचीन भारत के नालंदा विश्वविद्यालय के ध्वंसावशेष विस्तीर्ण भू-भाग को घेरे हुए है। बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र की यह जन्मभूमि थी।
यहाँ का सबसे बड़ा विहार 203 फीट ऊँचा और 164 फीट चैड़ा था। विश्वविद्यालय भवन में व्याख्यान के निमित 7 विशालकाय कक्ष और 700 छोटे-बड़े कक्ष थे। विद्यार्थी छात्रवास में रहते थे। प्रत्येक कोने पर कूपों का निर्माण किया गया था।
नालंदा विश्वविद्यालय के पोषण के लिए 200 गाँव दान मे ंप्राप्त थे। नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए कड़े नियम थे। विद्यार्थी को सबसे पहले द्वारपाल से वाद-विवाद करना पड़ता था तथा उसकी शंकाओं का समाधान करना आवश्यक था। उसके प्रश्नों का उत्तर बीस प्रतिशत विद्यार्थी ही दे पाते थे। अपने-अपने विषय के यहाँ अनेक विद्वान थे।
चीनी यात्री इत्सिंग के समय यहाँ के विद्यार्थियों की संख्या 3,000 थी, किन्तु हेन्सांग के समय बढ़कर 10,000 हो गई। यहाँ के शिक्षकों की संख्या 1510 थी। हेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय का कुलपति शीलभद्र था। जो अनेकानेक विषयों में पारंगत था। उसके पहले धर्मपाल यहाँ का कुलपति था। यहाँ विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। चीन, तिब्बत, कोरिया, तुरवार आदि अनेक देशों के विद्यार्थी यहाँ रहकर ज्ञान प्राप्त करते थे।
यहाँ धर्मयज्ञ नामक विशालकाय पुस्तकालय था। इत्सिंग ने स्वयं 400 संस्कृत पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ तैयार की थी, जिसमें लगभग 5 लाख श्लोक थे। रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नामक तीन भवनों से मिलकर भव्य पुस्तकालय का निर्माण हुआ था। जिसमें जिज्ञासु और अध्ययनशील विद्यार्थियों की प्रायः भीड़ लगी रहती थी।
नागार्जुन, बसुबंधु, असंग, धर्मकीर्ति इत्यादि ऐसे ही महाज्ञानी विचारक थे जिन्होंने इसी विश्वविद्यालय से अपने को उन्नत किया था। नालंदा से चार मील पूर्व-दक्षिण आर्य-सारिपुत्र, जो भगवान बुद्ध के दाहिने हाथ कहे जाते है का जन्म हुआ था। आज भी बड़गाँव में 1600 फीट लंबे और 400 फीट चैड़े ईटों के खेड़े में नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष देखे जा सकते है। उसके आस-पास ऊँचें-ऊँचें टीले पुरानी धर्मशालाओं और मंदिरों के चिह्न है। जिस स्थान पर बुध ने तीस मास देवताओं को शिक्षा दी थी वहाँ एक विशाल धर्मशाला बनाई गई है। उसका उजड़ा खेड़ा इस समय 53 फीट ऊँचा और 70 फीट लंबा-चैड़ा है। दूसरे स्थान पर जहाँ भगवान बुद्ध ने चार मास वास किया था। एक भारी विहार बनवा दिया गया था। उसके स्थान पर अब साठ फीट ऊँचा खेड़ा खड़ा है। ह्नेनसांग ने लिखा है कि यहाँ एकताल था, जिसमें नालंदा नाग एक समय में रहा करता था। आजकल जो करगरिया पोखरा कहलाता है यह वही ताल है।
ह्नेनसांग नालंदा में पहली बार 637 ई0 में पहुँचा था और उसने छह वर्ष तक यहाँ अध्ययन किया था। उसकी विद्वता पर मुग्ध होकर नालंदा के विद्वानों ने उसे मोक्षदेव की उपाधि दी थी। नालंदा 7वीं सदी में तथा उसके पश्चात कई सौ वर्ष तक एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था। यहाँ के विद्यार्थियों तथा विद्वानों की मांग एशिया के सभी देशों में थी और उनका सर्वत्र आदर होता था। नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त हेतु विद्या, शब्द-विद्या, चिकित्सा शास्त्र, अर्थवेद तथा सांध्य दर्शन से संबंधित विषय पढ़ाए जाते थे। 1203 ई0 में मुहम्मद बिन बख्तियार खिल्जी के बिहार और बंगाल पर आक्रमण के समय नालंदा को भी उसके प्रकोप का शिकार बनना पड़ा। यहाँ के सभी भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। पुस्तकालय को जलाकर भस्मसात कर दिया गया तथा यहाँ के सात मंजिलें भव्य भवनों को तहस नहस करके खंडहर बना दिया गया।
नालंदा के खंडहरों में विहारों, स्पूतों, मंदिरों तथा मूर्तियों के अनेक अवशेष पाए गए है जो स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित है। अनेक अभिलेख जिनमें ईटों पर अंकित निदानसूत्र तथा प्रतित्य समुत्पादसुत्र जैसे बौद्ध ग्रंथ भी है तथा मिट्टी की मुहरें भी नालंदा में मिली है। यहाँ के महाविहार तथा भिक्षुसंघ की मुद्राएँ भी मिली है।
नालंदा में मूर्तिकला की एक विशिष्ट शैली प्रचलित थी जिस पर सारनाथ कला का काफी प्रभाव था।
पाटलिपुत्र-भारत मे ंबहुत कम ऐसे नगर है जिनका 2500 वर्षो का अटुट इतिहास है। बौद्ध स्रोतों से हम प्राचीन नगर पाटलिपुत्र के बारे में जानकारी प्राप्त करते है।
5वीं सदी ई0 पू0 में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र बन गई। राजधानी का स्थानांतरण अजातशत्रु के प्रपौत्र उदयन ने किया। जैन परंपरा और पुराण से भी इसकी संपुष्टि होती है। मगध साम्राज्य का विस्तार बिंबिसार के शासनकाल से शुरू हो जाता है। लिच्छिवियों की पराजय होती है। नंदों ने पंजाब तक मगध साम्राज्य का विस्तार किया। परंपरा के अनुसार नंदों के शासनकाल में पाटलिपुत्र विभिन्न नामों (पद्मावती, कुसुमपुर, पुष्पपुर, कुसुमध्वज) से पुकारा जाता था।
मौर्यो के शासनकाल में पाटलिपुत्र का गौरवमय इतिहास शुरू होता है। चंद्रगुप्त मौर्य ने न केवल नंदों का विनाश किया बल्कि मौर्य वंश का सुदृढ़ीकरण भी किया। 300 ई0 पू0 के पाटलिपुत्र का सजीव विवरण मेगास्थनीज की कृति इंडिका से प्राप्त होता है।
पुरातत्वविदों ने पटना और इसके आस-पास के कई क्षेत्रों में उत्खनन किया है। कुम्हरार के उत्खनन से अशोक के स्तंभकार महल, अशोक के स्तंभ, सिक्के, मनोरंजक कला-कृतियाँ इत्यादि मिली है। 1913-15 ई0 में स्पूनर ने कुम्हरार के उत्खनन के फलस्वरूप मौर्य राजप्रसाद के अवशेषों का पता लगाया। 1951-56 ई0 में काशी प्रसाद जायसवाल शोध-संस्थान ने भी इस स्थल का नियमित उत्खनन कराया। उत्खनन से पता चला है कि सोन नदी से जुड़ी एक नहर राज प्रसाद को जोड़ती थी। नाव से आनेवाले विशिष्ट अतिथि इसी नहर से राजप्रसाद पहुँचते थे। राजमहल के पूर्व में अगमकुआँ था।
मौर्य साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ पाटलिपुत्र की संपन्नता भी बढ़ी। प्रारंभिक बौद्ध परंपरा के अनुसार अशोक के शासनकाल में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। पाटलिपुत्र का आर्थिक महत्व भी था। यह व्यापारिक केन्द्र था। अशोक के शासनकाल महान गणितज्ञ आर्यभट्ट यही रहते थे।
शेरशाह के शासनकाल (1540-45 ई0) में पटना का भाग्योदय हुआ। उसने इसके सामरिक महत्व से प्रभावित होकर इसकी किलेबंदी का आदेश दे दिया। इसका विकास शुरू हुआ और बिहारशरीफ के स्थान पर पटना बिहार की राजधानी बन गया।
औरंगजेब का प्रपौत्र अजीम पटना का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने 1704 ई0 में सम्राट की इजाजत से पटना का नाम बदलकर अपने नाम पर आजीमाबाद रख दिया। आजीमाबाद से सिक्के भी ढाले जाने लगे।
12 दिसंबर 1911 ई0 को बिहार और उड़ीसा नामक नए प्रांत का का निर्माण किया गया। पटना इसकी राजधानी बनी। 1916 ई0 में हार्डिज ने पटना उच्च न्यायालय का उद्घाटन किया। 1917 ई0 में पटना विश्वविद्यालय का विधान तैयार किया गया।
कई माइने में पटना अग्रदूत रहा है। पहले पहल यहीं विज्ञान एवं तकनीकी की उच्च शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान की गई। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी के अखबार निकलने लगे। यह सांप्रदायिक सौहार्द का केन्द्र रहा है। 1974 ई0 में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का उद्घोष यहीं से किया।
सोनपुर-प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा से लगने वाले बिहार के सारण और वैशाली जिले की सीमा पर अवस्थित विश्वप्रसिद्ध एवं एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला सोनपुर मेला है। यह मेला भले ही पशु मेला के नाम से विख्यात है लेकिन इस मेले की खासियत यह है कि यहाँ सूई से लेकर हाथी तक की खरीदारी आप कर सकते हैं। इस मेले की 5-6 कि0मी0 के वृहद क्षेत्रफल में फैला यह मेला हरिहर क्षेत्र मेला और छत्तर मेला के नाम से भी जाना जाता है। हर साल कात्र्तिक पूर्णिमा के स्नान के साथ यह मेला शुरू हो जाता है और एक महीने तक चलता है। यहाँ मेले से जुड़े तमाम आयोजन होते है। इस मेले में अफगान, ईरान, ईराक जैसे देशों के लोग पशुओं की खरीदारी करने आया करते हैं। कहाँ जाता है कि चन्द्र गुप्त मौर्य ने भी इसी मेले से बैल, घोड़े, हाथी और हथियारों की खरीदारी की थी। 1857 की लड़ाई के लिए बाबू वीर कुंवर सिंह ने भी यही से अरबी घोड़े, हाथी और हथियारों का संग्रह किया था। अब भी यह मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है। देश-विदेश के लोग अब भी इसके आकर्षण से बच नहीं पाते है और यहाँ खिचें चले आते हैं। हर साल यहाँ विदेशी सैलानियों का जमावरा लग जाता है तथा कई देशो से विदेशी घुमने तथा खरीदारी करने आते है। संदर्भ (1) उत्तर वैदिक काल से शुरू हुआ था सोनपुर मेला (2) मुस्कान विखेरती सोनपुर की सामुदायिक पुलिस (3) यहाँ हुई थी ‘गज और ग्राह’ की लड़ाई भगवान
सीतामढ़ी- सीतामढ़ी भारत के मिथिला का प्रमुख शहर हैं जो पौराणिक अख्यानों में सीता की जन्मस्थली के रूप में उल्लिखित है। त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिन्दू तीर्थ-स्थल बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। सीता के जन्म के कारण इस नगर का नाम पहले सीतामड़ई, फिर सीतामही और कालांतर में सीतामढ़ी पड़ा। यह शहर लक्ष्मना नदी के तट पर अवस्थित है। रामायण काल में यह मिथिला राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था। 1908 ई0 में यह मुजफ्फरपुर जिला का हिस्सा बना। स्वतंत्रता के पश्चात् 11 दिसम्बर 1972 को इसे स्वतंत्र जिला का दर्जा प्राप्त हुआ त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिन्दू तीर्थ स्थलों में से एक हैं। वत्र्तमान समय में यह तिरहुत कमिश्नरी के अन्तर्गत बिहार राज्य का एक जिला मुख्यालय और प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। सीतामढ़ी पौराणिक आख्यानों में त्रेतायुगीन शहर के रूप में वर्णित है। त्रेता युग में राजा जनक की पुत्री तथा भगवान श्रीराम की पत्नी देवी सीता का जन्म पुरैना में हुआ था। पौराणिक मान्यता के अनुसार मिथिला एक बार दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। पुरोहितों एवं पंडितो ने मिथिला के राजा जनक को अपने क्षेत्र की सीमा में हल चलाने की सलाह दी। कहते हैं कि सीतामढ़ी के पुरैना नामक स्थान पर जब राजा जनक ने खेत में हल जोता था, तो उस समय धरती से सीता का जन्म हुआ था। सीता जी के जन्म के कारण इस नगर का नाम सीतामढ़ी पड़ा। ऐसी जनश्रुति है कि सीता जी के प्रकाष्टय स्थल पर उनके विवाह पश्चात् राजा जनक ने भगवान राम और जानकी की प्रतिमा लगवायी थी। लगभग 500 वर्ष पूर्व अयोध्या के एक संत बीरबल दास ने ईश्वरीय प्रेरणा पाकर उन प्रतिमाओं को खोजा और उनका नियमित पूजन आरंभ हुआ। यह स्थान आज जानकी कुंड के नाम से जाना जाता है। वृहद विष्णु पुराण के वर्णानुसारसम्राट जनक की हल-कर्षण-यज्ञ-भूमि तथा उर्बिजा सीता के अवर्तीण होने का स्थान है। रामचरितमानस के बालकाण्ड में ऐसा उल्लेखित है कि राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा के लिए ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारिच को बिना फल वाले बाण से मारकर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसो की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुष यज्ञ हेतु राजा जनक के निमंत्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनी की स्त्री अहिल्या का उद्धार किया, जो अहिल्या स्थान के नाम से जाना जाता है। मिथिला में राजा जनक की पुत्री सीता जिन्हें कि जानकी के नाम से भी जाना जाता है का स्वयंवर का भी आयोजन था जहाँ कि जनक प्रतिज्ञा के अनुसार शिव धनुष को तोड़ कर राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरू वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुधन का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम सीता के विवाह के उपलक्ष्य में अगहन विवाह पंचमी को सीतामढ़ी में प्रतिवर्ष सोनपुर के बाद सबसे बड़ा पशुमेला लगता है। इसी प्रकार जमाता राम के सम्मान में भी यह चैत्र राम नवमी को बड़ा पशु मेला लगता है। यह जनकपुर स्थान कई दृष्टि से ऐतिहासिक है यहाँ सालोभर विदेशी सैलानी घुमने के लिए आते रहते है। सीमामढ़ी के प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर उर्बीजा कुंड, पुरौना और जानकी कुंड हलेश्वर स्थान, पंथ पाकड़, बगही मठ, देवकुली, गोरौल शरीफ, जनकपुर इत्यादि प्रमुख है।
सासाराम – शेरशाह सूरी भारत में जन्मे पठान थे जिसने हुमायूँ को हराकर उत्तर भारत में सूरी सम्राज्य स्थापित किया था। शेरशाह सूरी ने पहले बाबर के लिए एक सैनिक के रूप में काम किया था। जिन्होंने उन्हें पदोन्नति कर सेनापति बनाया और फिर बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया। 1531 में जब हुमायूँ कहीं सुदूर अभियान पर थे तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश स्थापित किया था। सन् 1539 में शेरशाह को चैसा की लड़ाई में हुमायूँ का सामना करना पड़ा जिसे शेरशाह ने जीत लिया 1540 ई0 में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना सम्राज्य स्थापित कर दिया। एक शानदार रणनीतिकार, शेरशाह ने खुद को सक्ष्म सेनापति के साथ ही एक प्रतिमाशाली प्रशासक भी साबित किया। शेरशाह का जन्म सासाराम शहर में हुआ था। उनका असली नाम फरीद खाँ था। पर वो शेरशाह के रूप में जाने जाते थे क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर कम उम्र में अकेले ही एक शेर को मारा था। पहला रूपया शेरशाह के शासन में जारी हुआ था जो आज के रूपया के अग्रहुत है। पाकिस्तान, भारत, नेपाल, श्रीलंका इंडोनेशिया, मारीशस, मालदीव, सेशेल्स में राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है। गैं्रड ट्रंक रोड का निर्माण जो उस समय सड़क-ए-आजम या सड़क बादशाही के नाम से जानी जाती थी शेरशाह ने ही करवाया था। शेरशाह ने अपने जीवनकाल में ही अपने मकबरे का काम शुरू करवा दिया था। उनका गृह नगर सासाराम स्थित उनका मकबरा एक कृत्रिम झील से घिरा हुआ है। यह मकबरा हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना है। इतिहासकार कानूनगो के अनुसार शेरशाह के मकबरे को देखकर ऐसा लगता है कि वह अन्दर से हिन्दू और बाहर से मुस्लिम थे। शेरशाह सूरी का मकबरा ऐतिहासिक स्थल है जो विश्वविख्यात है तथा यहाँ सैलानी देश विदेश से घुमने के लिए आते रहते है।
मीडिया
बिहार में पत्रकारिता के इतिहास की कहानी नीचे में विस्तार से वर्णित है। इसमें स्याह से स्याही का संघर्ष आनंद पटवर्धन का जेपी आंदोलन पर बना वृŸाचित्र ‘वेव्स आॅफ रिवोल्यूशन (क्रांति की लहरें) का विशद विवरण, धनबाद पत्रकार उत्पीड़न कांड और मुट्ठी से सरकती रेत पहली बार प्रकाश में आ रहे है।
परिशिष्ट को संदर्भ की दृष्टि से समृद्ध किया गया हैं, जिसमें आम आदमी के साथ पत्रकारों और शोधार्थियों को समझने के लिए व्यापक संदर्भ मिलें। पिछले दो दशक में मीडिया में आए बदलाव की चर्चा भी इसमें है।
भारतीय मिडिया
भारत में संचार माध्यम (मीडिया) के अन्तर्गत टेलीविजन रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ तथा अंतरजार्तीय पृष्ट आदि है। अधिकांश मीडिया निजी हाथों में है और बड़ी बड़ी कम्पनियों द्वारा नियंत्रित है। भारत में 70,000 से अधिक समाचार पत्र हैं, 690 उपग्रह चैनेल है (जिसमें से 80 हजार चैनेल है।) आज भारत विश्व का सबसे बड़ा समाचार पत्र का बाजार है। प्रतिदिन 10 करोड़ प्रतियाँ बिक्ती है।
भारत में मीडिया का विकास तीन चरणों में हुआ। पहले दौरे की नींव उन्नीसवीं सदी के उस समय पड़ी जब औपनिवेशिक आधुनिकता के संसर्ग और औपनिवेशिक हुकूमत के खिलाफ असंतोष की अंतर्विरोधी छाया में हमारे सार्वजनिक जीवन की रूपरेखा बन रही थी। इस प्रक्रिया के तहत मीडिया दो ध्रुर्वों में बँट गया। उसका एक हिस्सा औपनिवेशिक शासन का समर्थक निकला, और दूसरे हिस्से ने स्वतंत्रता का झण्डा बुलंद करने वालें का साथ दिया। राष्ट्रवाद बनाम उपनिवेशवाद का यह दौर 1947 तक चलता रहा। इस बीच अंग्रेजी के साथ साथ भारतीय भाषाओं में पत्र – पत्रिकाओं के प्रकाशन की समृद्ध परम्परा पड़ी और अंग्रेजो के नियंत्रण में रेडियो प्रसारण की शुरूआत हुई। दूसरा दौर आजादी मिलने के साथ प्रारम्भ हुआ और अस्सी के दशक तक चला। इस लम्बी अवधि में मीडिया के प्रसार और गुणवŸाा में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई।
नब्बे के दशक में भूमण्डलीकरण के आगमन के साथ तीसरे दौरे की शुरूआत हुई जो आज तक जारी है। यह राष्ट्र-निर्माण और जन-राजनिति के प्रचलित मुहावरे में हुए आमूल-चूल परिवर्तन का समय था जिसके कारण मीडिया की शक्ल-सूरत और रूझानों में भारी तब्दीलियाँ आयी टीवी और रेडियो पर सरकारी जकड़ ढ़ीली पड़ी। निजी क्षेत्र में चैबीस घंटे चलने वाले उपग्रहीय टीवी चैनलों और एफएम रेडियो चैनलो का बहुत तेजी से प्रसार हुआ। बढ़ती हुई साक्ष्रता और निरंतर जारी आधुनिकीकरण के तहत भारतीय भाषाओं के मीडिया ने अंग्रेजी-मीडिया को प्रसार और लोकप्रियता में बहुत पीछे दिया। मीडिया का कुल आकार अभूतपूर्ण ढं़ग से बढ़ा। नयी मीडिया प्रौधोगिकियों का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। महज दस साल के भीतर-भीतर भारत में भी लगभग वही स्थिति बन गयी जिसे पश्चिम में मीडियास्फेयर कहा जाता है।
प्रथम चरण
भारत में मीडिया के विकास के पहले चरण को तीन हिस्सों में बाँट कर समझा जा सकता है। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में ईसाई मिशनरी धार्मिक साहित्य का प्रकाशन करने के लिए भारत में प्रिंटिग प्रेस ला चुके थे। भारत का पहला अखबार बंगाल गजट भी 29 जनवरी 1780 को एक अंग्रेज जेम्स आॅगस्टस हिक्की ने निकाला। चूँकि हिक्की इस साप्ताहिक के जरिये भारत में ब्रिटिश समुदाय के अंतर्विरोधों को कटाक्ष भरी भाषा मे व्यक्त करते थे, इसलिए जल्दी ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल में अखबार का प्रकाशन बंद हो गया। हिकी के बाद किसी अंग्रेज ने औपनिवेशिक हितों पर चोट करने वाला प्रकाशन नहीं किया।
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में कलकŸाा के पास श्रीरामपुर के मिशनरियों ने और तीसरे दशक में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक मासिक और द्वेमासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पत्रकारिता के जरिये यह दो दृष्टिकोणों का टकराव था। श्रीरामपुर के मिशनरी भारतीय परम्परा को निम्नतर साबित करते हुए ईसायत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे जबकि राजा राममोहन राय की भूमिका हिंदू धर्म और भारतीय समाज के आंतरिक आलोचक की यदि वे परम्परा के उन रूपों की आलोचना कर रहे थे जो आधुनिकता के प्रति सहज नहीं थे।
समाज सुधार के प्रश्न पर व्यक्त होने वाला मीडिया का यह द्वि-ध्रुवीय चरित्र आगे चल कर औपनिवेशिक बनाम राष्ट्रीय के स्पष्ट विरोधभास में विकसित हो गया और 1947 में सŸाा के हस्तांतरण तक कायम रहा। तीस के दशक तक अंग्रेजी के ऐसे अखबारों की संख्या बढ़ती रही जिनका उद्देश्य अंग्रेजों के शासन की तरफदारी करना था। इनका स्वमित्व भी अंग्रेजों के हाथ में ही था। 1861 में बम्बई के तीन अखबारों का विलय करके टाइम्स आॅफ इण्डिया की स्थापना भी ब्रिटिश हितों की सेवा करने के लिए राॅबर्ट नाइट ने की थी।
1849 में गिरीश चंद्र घोष ने पहला बंगाला रिकाॅर्डर नाम से ऐसा पहला अखबार निकाला जिसका स्वामित्व भारतीय हाथों में था। 1853 में इसका नाम बदल कर ‘हिंदु पैट्रियट’ हो गया। हरिश्चंद्र मुखर्जी के पराक्रमी सम्पादन में निकलने वाले इस पत्र ने विभिन्न प्रश्नो पर ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना की परम्परा का सुत्रपात किया। सदी के अंत तक एक तरफ तो उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय नेतृत्व का आधार बन चुका था, और दूसरी ओर स्वाधीनता की कामना का संचार करने के लिए सारे देश में विभिन्न भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा था। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ब्रिटिश शासन को आड़े हाथों लेने में कतई नहीं चूकती थी। इसी कारण 1878 में अंग्रेजो ने वरनाकुलर प्रेस एक्ट बनाया ताकि अपनी आलोचना करनेवाले प्रेस का मुँह बंद कर सकें। इसका भारत और ब्रिटेन में जमकर विरोध हुआ। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ जिसकी गतिविधियाँ उतरोत्तर मुखर राष्ट्रवाद की तरफ झुकती चली गई। भारतीय भाषाओं के प्रेस ने भी इसी रूझान के साथ ताल में ताल मिला कर अपना विकास किया। मीडिया के लिहाज से बीसवीं सदी को एक उल्लेखनीय विरासर मिली जिसके तहत तिलक गोखले दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मदनमोहन मालवीय और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। बीस के दशक में गाँधी के दिशा-निर्देश में कांग्रेस एक जनआन्दोलन में बदल गयी। स्वयं गाँधी ने राष्ट्रीय पत्रकारिता में तीन-तीन अखबार निकाल कर योगदान दिया।
मीडिया-संस्कृति का यह द्विभाजन भाषाई आधार पर ही और आगे बढ़ा। राष्ट्रीय भावनाओं का पक्ष लेने वाले अंग्रेजी के अखबारों की संख्या गिनी-चुनी ही रह गयी। अंग्रेजी के बाकी अखबार अंग्रेजो के पिट्ठू बन गये। भारतीय भाषाओं के अखबारों ने खुल कर उपनिवेशवाद विरोधी आवाज उठानी शुरूकर दी। अंग्रेज समर्थक अखबारों के पत्रकारों के वेतन और सुविधाओं का स्तर भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन आदि से बहुत अच्छा था। ब्रिटिश समर्थक अखबारों को खूब विज्ञापन मिलते थे और उसके लिए संसाधनों की कोई कमी न थी। उपनिवेशवाद विरोधी अखबारों का पूँजी-आधार कमजोर था। बहरहाल, अंग्रेजी पत्रकारिता के महत्व को देखते हुए जल्दी ही मालवीय मुहम्मद अली, ऐनी बेसेंट मोतीलाल नेहरू आदि ने राष्ट्रवादी विचारों वालें अंग्रेजी अखबारों (लीडर काॅमरेड, मद्रास स्टेंडर्ड, न्यूज, इंडिपेंडेंट, सिंध आब्जर्वन) की शुरूआत की। दिल्ली से 1923 में कांगे्रस का समर्थन करने वाले भारतीय पूँजीपति धनश्याम दास बिड़ला ने द हिन्दुस्तान टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया। 1938 में जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेजी के राष्ट्रवादी अखबार नेशनल हैरल्ड की स्थापना की।
1826 में कलकत्ता से जुगल किशोर सुुकुल ने उदते मार्तण्ड नामक पहला हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित किया था। हिंदी मीउिया ने अपनी दावेदारी बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेश की जब गणेश शंकर विधार्थी ने प्रताप, बालमुकुंद गुप्त और अम्बिका शरण वाजपेयी ने भारत मित्र, महेशचंद्र अग्रवाल ने विश्वमित्र और शिवप्रसाद गुप्त ने आज की स्थापना की। एक तरह से यह हिंदी-प्रेस की शुरूआत थी। इसी दौरान उर्दू-प्रेस की नींव पड़ी। अब्दुल कलाम आजाद ने अल-हिलाल और अल-बिलाग का प्रकाशन शुरू किया महम्मद अली ने हमदर्द का। लखनऊ से हकीकत लाहौर से प्रताप और मिलाप और दिल्ली से तेज का प्रकाशन होने लगा। बांग्ला में संख्या नायक बसुमती, हितबादी नबशक्ति, आनंद बाजार पत्रिका जुगांतर कृषक और नबाजुग जैसे प्रकाशन अपने-अपने दृष्टिकोणों से उपनिवेशवाद विरोधी अभियान में भागीदारी कर रहे थें।
द्वितीय चरण
एक तरफ तो अंग्रेजो द्वारा लगायी गयी पाबंदियाँ प्रभावी नहीं रह गयाी और दूसरी तरफ ब्रिटिश शासन की पैरोकारी करने वाले ज्यादातर अखबारों का स्वामित्व भारतीयों के हाथ में चल गया। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह था कि मीडिया ने राजनीति नेतृत्व के साथ हाथ में चल गया। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था कि मीडिया ने राजनीतिक नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना शुरू किया। मीडिया के विकास का यह दूसरा चरण अस्सी के दशक तक जारी रहा।
स्वतंत्र भारत में सरकार को गिराने या बदनाम करने में प्रेस ने कई रूचि नहीं दिखाई। लेकिन साथ ही वह सत्ता का ताबेदार बनने के लिए तैयार नहीं था। उसका रवैया रेडिया-प्रसारण करने वाली ‘अकाशवाणी’ पूरी तरह से सरकार के हाथ में थी। 1959 में ‘शिक्षात्मक उद्देश्यों से शुरू हुए टेलिविजन (दूर दर्शन) की प्रोग्रमिंग की जिम्मेदारी भी रेडियो को थमा दी गयी थी। इसके विपरीत शुरू से ही निजी क्षेत्र के स्वामित्व में विकसित हुए प्रेस ने सरकार सतारूढ़ कांग्रेस, विपक्षी दलों और अधिकारीतंत्र को बार-बार स्व-परिभाषित राष्ट्र-हित की कसौटी पर कस कर देखा।
तृतीय चरण
नब्बे के दशक में कदम रखने के साथ ही भारतीय मीडिया को बहुत बडी हद तक बदली हुई दुनिया का साक्षात्कार करना पड़ा। इस परिवर्तन के केन्द्र में 1990-91 की तीन परिघंटनाएँ थी: मण्डल आयोग की सिफारिशों से निकली राजनीति मंदिर आदोलन की राजनीति और भूमण्डलीकरण के तहत होने वाले आर्थिक सुधार। इन तीनों ने मिल कर सर्वाजनिक जीवन के वामोमुख रूझानों को नेपथ्य मे धकेल दिया और दझिणपंथी लहजा मंच पर आ गया। यही वह क्षण था जब सरकार ने प्रसारण के क्षेत्र में खुला आकाश की नीति अपनानी शुरू की। नब्बे के दशक में उसने न केवल प्रसार भारती निगम बना कर अकाशवाणी और दूरदर्शन को एक हद तक स्वायत्ता दी, बल्कि स्वदेशी निजी पूँजी और विदेशी पूँजी को प्रसारण के क्षेत्र में कदम रखने की अनुमति भी दी। प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को प्रवेश करने का रास्ता खोलने में उसे कुछ वक्त लगा लेकिन इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उसने यह फैसला भी ले लिया। मीडिया अब पहले की तरह सिंगल-सेक्टर यानी मुद्रण-प्रधान नहीं रह गया। उपभोक्ता-क्रांति के कारण विज्ञापन से होने वाली आमदनी में कई गुण बढ़ोत्तरी हुई जिससे हर तरह के मीडिया के लिया विस्तार हेतु पूँजी की कोई कमी नहीं रह गयी। सेटेलाइट टीवी पहले के बिल टीवी के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचा जो प्रोधोगिकी और उधमशीलता की दुष्टी से स्थानीय पहलकदमी और प्रतिभा का असाधारण नमूना था। इसके बाद आयी डीटीएच प्रौधोगिकी जिसने समाचार प्रसारण और मनोरंजन की दुनिया को पूरी तरह से बदल डाला। एफएम रेडियो चैनलों की कामयाबी से रेडियों का माध्यम मोटर वाहनों से आकृति नागर संस्कृति का एक पर्याय बन गया। 1995 में भारत में इंटरनेट की शुरूआत हुई और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत तक बडी संख्या में लोगों के निजी और व्यावसायिक जीवन का एक अहम हिस्सा नेट के जरियें संसाधित होने लगा। नयी मीडिया प्रौधोगिकियों ने अपने उपभोक्तओं को ‘कनर्जेस’ का उपहार दिया जो जादू की डिबिया की तरह हाथ में थमें मोबाईल फोन के जरिये उन तक पहुँचने लगा। इनत माम पहलुओं ने मिल कर मीडिया का दायरा इतना बड़ा और विविध बना दिया की उसके आगोश में सार्वजनिक जीवन के अधिकतर आयाम आ गये।

सन्दर्भ:-
1. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी (1986), समाचारपत्रों का इतिहास ज्ञानमण्डल, वाराणसी।
२. हिरण्यमय कार्लेकर (2002) ‘द मीडिया: इवोल्यूशन रोल ऐंड रिस्पांसिबिलिटी’।
3. एन0 एन0 वोहरा और स्त्यसाथी भाट्टाचार्य (सम्पा), लुकिंग बैंक: इण्डिय इन ट्वेंटयथ सेंचुरी एनबीटी और आईआईसी नयी दिल्ली।
४. मोहित मोइत्रा (1993), हिस्ट्री आफ जर्नलिजम, नेशनल बुक एजेंसी, कोलकता।

 

डॉ. सुशील कुमार

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