भिखारी ठाकुर रचित ‘बिदेसिया’ भोजपुरी बोली में लिखा गया लोकप्रिय गीति-नाट्य है। इस कृति की लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रदर्शन के बाद भिखारी ठाकुर भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में ‘बिदेसिया’ उपनाम से सुविख्यात हो गए। उनकी कृतियों में संस्कृति, संस्कार, सामाजिक समस्या के साथ ही सामाजिक जागरण का संदेश दिया गया है।
‘बिदेसिया’ में चार प्रमुख पात्र हैं, जिनको लेकर इस सम्पूर्ण नाटक को रचा गया है। (1) बिदेसी, (2) प्यारी सुन्दरी, (3) बटोही, (4) अन्य स्त्राी। नाटक की मूल कथा संक्षेप में इस प्रकार है – बिदेसी (पति) गौना के बाद विदा कराके अपनी पत्नी प्यारी सुन्दरी को घर लाता है। पति-पत्नी अभी दोनों ही गौना के शुभ और रंगीन वस्त्र में हैं। उनके पैर का महावर अभी छूटा भी नहीं है। तभी अचानक बिदेसी को कलकत्ता जाने की धुन सवार हो गई। नई ब्याहता पत्नी के लाख मनुहार करने पर भी बिदेसी पत्नी को तरह-तरह के प्रलोभन देकर गाँव-घर और बिसूरती ब्याहता को छोड़ कर कमाने के लिए शहर चला गया। कलकत्ता में जाकर कुछ रूपया कमाने के बाद बिदेसी शहर के चमक-दमक में अपना घर, अपनी पत्नी सबकुछ भूलकर वहीं का होकर रह गया। बिदेसी वहाँ एक अन्य स्त्री के साथ गृहस्थी बसा लेता है। दूसरी औरत से उसके दो बच्चे भी हैं।
गाँव में प्यारी सुन्दरी पति की प्रतीक्षा में रो-रोकर बेहाल है। एक दिन एक बुजुर्ग बटोही को देख कर प्यारी सुन्दरी उनके गन्तव्य स्थान के विषय में पूछती है। बटोही के द्वारा यह बताने पर कि वह कलकत्ता जा रहे हैं, प्यारी सुन्दरी उनसे अपना सारा दुःख सुनाती है और अपने स्वामी का रूप-रंग बताते हुए बटोही से उनको ढू्ूँढ़ लाने की प्रार्थना करती है। बटोही कलकत्ता जा कर बिदेसी को ढू्ूँढ़ लेते हैं। वे बिदेसी को समझा-बुझाकर घर लौटने के लिए राजी कर देते हैं। बिदेसी दूसरी स्त्राी को छोड़ कर अपने घर-गाँव लौट आता है। बिदेसी के गाँव लौटने के पश्चात दूसरी स्त्री भी अपने दोनों बच्चों के साथ बिदेसी के घर का पता पूछते-पूछते पहुँच जाती है। प्यारी सुन्दरी पति को पाकर धन्य हो गई और उपहार-स्वरूप सौत तथा दो बच्चे भी उसकी झोली में डाल दिए गए। इस प्रकार अन्त में पूरा परिवार मिल जाता है। प्रकट में ऐसा प्रतीत होता है कि नाटक सुखान्त है। किन्तु, नाटक पढ़ने के बाद उसके अलिखित और अघोषित प्रश्न मस्तिष्क को मथने लगते हैं। इस पुरूष-प्रधन समाज में क्यों, क्या और कब तक सारी मर्यादा के निर्वाह की जिम्मेदारी स्त्री पर थोपी जाती रहेगी? स्त्री को ही कब तक हर बार त्याग की मूर्ति बनना पड़ेगा? स्त्री-पुरूष सम्बन्ध में स्त्री चाहे पत्नी के रूप में हो अथवा प्रेयसी के रूप में , कब तक छली जाती रहेगी? इस विषय में सबसे पीड़ादायक पहलू है – पुरूष द्वारा छली गई स्त्री को अन्त में समाज द्वारा अपशब्दों से नवाज़ा जाता है ( रचनाकार ने दूसरी स्त्री के लिए जो शब्द प्रयुक्त किया है, सभ्य और शिष्ट समाज में वह एक भद्दी गाली है )।
बिदेसी के परदेस चले जाने पर प्यारी सुन्दरी कहती है –
तूरि दिहलन पति-पत्नी नतवा ए सजनी।
हमरा घोटात नइखे कनवाँ भर अनवाँ ए सजनी।
x x x
चाभत होइहे मगही पानवाँ ए सजनी।
पत्नी प्यारी सुन्दरी जो कुछ ही दिन पूर्व ब्याह कर ससुराल आई है, अभी गाँव-घर के कोनों से भी परिचित नहीे हो पाई, पति-पत्नी के रिश्ते की गरिमा और मर्यादा को समझ रही है। बिदेसी के परदेस-गमन के पश्चात वह अकेली ही ससुराल के चौखट के भीतर रहकर अपना दायित्व निभा रही है। बिदेसी पति-पत्नी के पवित्रा बन्धन को तोड़कर अपने तन-मन के सुख में डूबा हुआ है। विरहणी पत्नी दुःख में अन्न का एक कण भी कंठ से नीचे नहीं उतार पा रही है।
पियऊ का बियोग में प्रान छुटि जाई,
हमरे सिरवे बीतत बा, ना दोसरा का बुझाई।
पति के वियोग में पत्नी प्यारी सुन्दरी के प्राण निकलना चाहते हैं । प्यारी सुन्दरी कहती है कि पति-वियोग का यह दुःख जो मेरे ऊपर बीत रहा है उसे कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता। विरह की जिस ज्वाला में प्यारी सुन्दरी जल रही है, उसकी आँच बिदेसी को क्यों नहीं लगती? इतना ही नहीं गाँव के मनचलों से वह अपने सतीत्व को भी बचाती है। गाँव का कथित देवर भाँंति-भाँति के प्रलोभनों के द्वारा प्यारी सुन्दरी को रिझाने का प्रयास करता है –
भउजी काहे रोवत बाड़ू चुप रह भइया परदेस गइलन,
तू हमरा से रूपया, गहना, कपड़ा जे कुछ खोज हम देब।
यहाँ गाँव के मनचले देवर के रूप में पुरूष की यौवन-लोलुप-दृष्टि दिखाई देती है। इस बहाने से रचनाकार ने सती के सतीत्व को भी परखा है। प्यारी सुन्दरी अपने चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देती हुई देवर को दो टूक जवाब देती है –
प्यारी के मन लागल बाटे जहंवा बाड़न राम।
माड़ो में सत बंध्न भइल बा कहत भिखारी हजाम।।
हिन्दू विवाह की रस्म में विवाह-मण्डप में दुल्हा-दुल्हन अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लेते हैं। ये सात फेरे सात जन्मों के बंधन हैं। लेकिन इस सातबंधन में क्या दुल्हन ही बांधी जाती है? दुल्हा सभी बंधनों से मुक्त रखा जाता है? प्यारी सुन्दरी को इस सातबंधन की सुदृढ़ता और पवित्रता का अहसास है। पति की लंबी अनुपस्थिति में भी वह विवाह-मण्डप में लिए गए सात फेरे की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती है। जो बंधन प्यारी सुन्दरी को बांधे रखता है, वही बंधन बिदेसी के लिए अर्थहीन क्यों हो गया?
बटोही के समझाने पर बिदेसी अपने गाँव प्यारी सुन्दरी के पास लौटने के लिए आतुर हो जाता है। दूसरी स्त्राी बिदेसी को जाने नहीं देना चाहती क्योंकि अब बिदेसी से ही उसका भी घर-संसार है, दो बच्चे भी हैं। वह बिदेसी से कहती है –
पिया पिरतिया लगाई के, दूर देस मत जाहू।
कहे भिखारी भीख मांगि के लाइब, तुम खाहू।
किन्तु, बिदेसी को इस स्त्री का प्रेम और उससे पैदा हुए दो बच्चे भी रोक नहीं पाए। बिदेसी स्वार्थी पति, धूर्त प्रेमी तथा गैर-जिम्मेदार पिता साबित होता है। विवाहित बिदेसी परदेस जाकर, कुछ रूपया-पैसा कमाने के पश्चात अपने इन्द्रिय सुख के लिए दूसरी स्त्री के साथ घर बसा लेता है। रचनाकार जो कि समाज के विचार का प्रतिनिधित्व करता है, पुरूष के उच्छृंखलता को नजरअंदाज करता है और दूसरी स्त्री को बड़ी सहजता से पूरे नाटक में जिस शब्द द्वारा सम्बोधित करता है, वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक है। मनचले देवर के माध्यम से प्यारी सुन्दरी के सतीत्व की भी परीक्षा ली गई है अर्थात्, पति की अनुपस्थिति में पत्नी को भी शक के दायरे में रखा गया है। अकेली स्त्री के चरित्र की ठेकेदारी समाज अपने ऊपर ले लेता है। पति (बिदेसी) के घर लौटने पर पत्नी (प्यारी सुंदरी) पति के साथ ही उसकी प्रेयसी और उसके दो बच्चों को सहने के लिए बाध्य है।
भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ में ऐसी स्त्रियों के पुनर्संयोजन के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, जिन्हें समाज घृणित दृष्टि से देखता है। किन्तु यहाँ प्रश्न दूसरे तरह का है। एक ही घर में दो स्त्रियां, एक पुरूष के साथ साँझा करने के लिए लाचार हैं। ऐसी स्थिति में दोनों ही स्त्रियां क्या संतुष्ट और खुश रही होंगी? दोनों स्त्रियों की बेचैनी का अंदाज रचनाकार अथवा समाज को क्यों नहीं है? दो स्त्रियों के बीच पुरूष बेदाग और सभी आरोपों से मुक्त है। उसके जीवन में पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री का होना सहज तथा परिस्थितिजन्य है। ‘बिदेसिया’ में रचनाकार ने समाज के पुरूष-प्रधान विकृत मानसिकता को स्थापित किया है।
संदर्भ :
1- बिहार जिला गजटियर : सारण, बिहार : अधीक्षक, सचिवालय मुद्रणालय, 1960
2- भिखारी ठाकुर रचनावली : भाग – 1, क़ुतुबपुर (सारण) : लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम, 1979
3- द्विवेदी, भगवती प्रसाद, भिखारी ठाकुर : भोजपुरी के भारतेंदु , इलाहाबाद : आशु प्रकाशन, 2000
4- शांडिल्य, राजेश्वरी, भोजपुरी लोकगीत में गीती तत्व, पटना : भोजपुरी संस्थान, 2001
5- त्रिपाठी, शैलजा, On the Shakespeare of Bhojpuri (भोजपुरी के शेक्सपियर पर), दि हिंदू , 16 जून, 2012