कहीं सुना है कि Every girl wants a bad boy, who will be good just for her … and … Every boy wants a good girl who will be bad just for him.

कई बार तौलने की कोशिश की है इन शब्‍दों को अनुभवों के प्रकाश में और सीधे-सादे ढंग से मान लिया कंधे उचकाकर – हां, यही होगा तो – परंतु वाक्‍यों में टकराहट और उसे मान लेने के संतोष की शांति में तब बेचैन अस्थिरता पैदा होती है जब आंखों के सामने ये पंक्तियां पड़ती हैं-

‘‘लड़की चोट खाना बहुत पसंद करती है। वह बिल्‍ली या गिलहरी नहीं है, जिसकी पीठ पर प्‍यार से, धीरे-धीरे अपनी उंगलियां या हथेलियां फिराओ, उसे संभाल-संभाल कर सहलाओ तो वह गुर्र-गुर्र करती लोटम-लोट होगी। लड़की तो वो चीज है, जिसको जितना मारो, जितना कूटो, उसे उतना मजा मिलता है।

लड़की तो असल में ताकत और हिंसा को प्‍यार करती है।’’

वास्‍तव में, जो सच्‍चाई है उसे आज तक बयां नहीं किया गया, सीधी तरह से प्रस्‍तुत ही नहीं किया गया। पुरुषों के समक्ष या कि सदियों से मार खाती और कुटाती-पिसाती स्त्रियों ने कभी जरूरत-गरज और आर्थिक परनिर्भरता के मद्देनजर जबान खोलने या विरोध करने की जुर्रत ही नहीं की – तो पुरुष समाज को ऐसी गलतफहमियां हो गईं।

और इन्‍हीं गलतफहमियों को दूर करने की गरज से आज स्‍त्री-विमर्श का झंडा लहराने लगा है – बहसें गरम हो रही हैं। पुरुषों को समझाने की कोशिश की जा रही है और कहीं न कहीं पुरुष समाज को इस हकीकत से रू-ब-रू कराने की कोशिश की जा रही है कि स्‍त्री विमर्श पुरुष के प्रतिरोध या प्रतिशोध का विमर्श नहीं है। यह पुरुष में एक सहयोगी की भूमिका की तलाश का विमर्श है। धर्म और परंपरा ने स्‍त्री को कमजोर बनाया है और यह धर्म और परंपरा पुरुष प्रधान समाज ने उस पर थोपी है।’’

राहुल की यह सोच और निष्कर्ष कि –

‘‘माधुरी की पीठ नेचुरल है – प्राकृतिक। यह अजब तरह से एक स्‍वदेशी पीठ है, बाकी पीठें सिंथेटिक हैं और विदेशी। इसीलिए उनमें कोई जादू नहीं, राहुल ने निष्कर्ष निकाला। लेकिन उसका दूसरा वह निष्कर्ष ज्‍यादा गंभीर था जिसके अनुसार लड़कियां दरअसल चोट, पीड़ा-हिंसा और ताकत को प्‍यार करती हैं। वे मूर्ख बनाया जाना, उत्‍पी‍ड़ित होना और निर्ममता के साथ अपने भोग लिए जाने को ज्‍यादा पसंद करती हैं। पैमाना बदल गया है। वे छठे-सातवें दशक के शम्‍मी कपूर, ऋषि कपूर, विश्‍वजित या जितेंद्र टाइप के मर्द को नहीं सलमान खान, सन्‍नी देओल या अजय देवगन जैसे माचो या सैडिस्‍ट मर्द के पीछे पागल होती हैं। कितना खतरनाक और हिंसक था ‘डर’ में शाहरुख खान ? फोन कर-कर के पीछा करके और रेप की कोशिश कर के उसने जुही चावला को लस्‍त-पस्‍त, लहू-लुहान कर डाला था। डर के मारे उसकी घिग्‍घी बंध गई थी। लेकिन उसी अर्द्ध विक्षिप्‍त‍ शीजोफ्रेनिक शाहरूख खान के पीछे सारी युनिवर्सिटी की लड़कियां दीवानी थीं।

कुड़ियों को शाहरूख चाहिए, कोई छक्‍का, कृष्ण कन्‍हैया टाइप का हजबैंड छाप गऊ नहीं राहुल इस रहस्‍य को समझ चुका था। इसी के बाद से उसके कमरा नंबर 252 की दीवार की खिड़की में माधुरी दी‍क्षित रहने लगी थी – पिछले चार महीने से।’’

राहुल जैसे आज के लड़के, जिन्‍होंने लड़कियों के बारे में यही निष्कर्ष निकाला है कि वे वास्‍तव में हिंसा और ताकत को पसंद करती हैं – वास्‍तव में उस बाजारवाद जनित और विज्ञापन दाताओं द्वारा तय की जाने वाली परिभाषा है जिसने किसी हद तक हमारे रहन-सहन, हमारी बुद्धि, सोच-समझ और माइंड सेट तक को नए सिरे से डिजाइन किया है – प्रभावित किया है। एक तरफ बाजार और विज्ञापन ने ऐसी खतरनाक ब्‍योरों वाली फिल्‍मों, हिंसक और मानसिक हत्‍या करने वाले पोर्न के माध्‍यम से पुरुषों को एक नया और घटिया किस्‍म का नजरिया देने का प्रयत्‍न किया वहीं उन्‍होंने समाज में स्‍थापित पारंपरिक मूल्‍यों का अपहरण करने की कोशिश भी की क्‍योंकि इन्‍हीं दो स्थितियों में उनके अपने लक्ष्य की सिद्धि निश्चित थी  – तत्‍पश्‍चात स्त्रियों को ग्‍लैमरस वर्ल्‍ड, फैशन शो और मॉडलिंग की चकमक दुनिया दिखाकर फिल्‍मों और विज्ञापन का लोभ देकर उन्‍हें अलग बरगलाने की कोशिश की। राहुल का नजरिया इन्‍हीं नव-निर्मित उपभोक्‍तावादी संस्‍कारों की देन है जो वस्‍तुत: पारंपरिक मूल्‍यों और सांस्‍कृतिक विरासत के ढांचे को तोड़ता हुआ नए सांस्‍कृतिक मूल्‍यों में पनप रहा है। उसका नजरिया, उसके निष्कर्ष, उसके अपने अनुभवों और अपनी सांस्‍कृतिक विरासत तथा पारंपरिक मूल्‍यों पर आधारित नहीं है अपितु उधार की संस्‍कृति का बना-बनाया, रेडीमेड, बाजार में उपलब्‍ध नजरिया है जो बिना किसी मेहनत या मशक्‍कत के रंगीन कलेवर में फिल्‍मों, पोर्न, वेब साइट्स, विज्ञापन और ग्‍लैमर वर्ल्‍ड की तरफ से परोसा जा रहा है, बेचा जा रहा है।

यहां राहुल और उन पंक्तियों को पढ़ते वक्‍त वस्‍तुत: हम इस बात को साफ नजरअंदाज कर जाते हैं कि हमारी आत्‍मा और हमारे मानवीय आकार-प्रकार के लिए हिंसा सदा से ही बुरी और त्‍याज्‍य रही है — विशेषत: हमारे भारतीय इतिहास और संस्‍कृति में तो हिंसा को हमेशा से ही बुरा माना जा रहा है फिर भला यह कैसे संभव है कि स्त्रियाँ जो मूलत: एवं स्‍वभावत: भी कोमलता, भावुकता, नाजुकता की प्रतीक हैं – वे हिंसा और ताकत की पूजा करें, उपासना करें। अत: य‍ह साबित-सी बात है कि राहुल जब कहता है कि लड़कियां शीजोफ्रेनिक शाहरुख की दीवानी हैं – तो इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं – एक तो उसका बाजार से अर्जित किया हुआ ‘रेडीमेड’ नजरिया जिसे अपनाने या साबित करने के लिए ज्‍यादा माथापच्‍ची या अनुभव अर्जित करने की मशक्‍कत नहीं करनी पड़ती, दूसरे – कि लड़कियां काफी समझदार हो चुकी हैं और पर्दे के पीछे चल रहे असली और नकली वास्‍तविक और फिल्‍मी का अंतर भली-भांति समझती हैं – अत: वे जिस शाहरुख की दीवानी हैं – वह शीजोफ्रेनिक शाहरुख नहीं, अपितु अपनी प्रेमिका पर जान लुटाने वाला, अपनी प्रेमिका का फूलों से भी अधिक कोमलता से केयर करने वाला, अपनी भावी पत्‍नी के साथ व्रत रखने वाले ‘डी.डी.एल.जी.’ के शाहरुख की दीवानी है – ‘डर’ के शाहरूख की नहीं, अपितु ‘डर’ के पहले दिखाए गए अन्‍य अनेक फिल्‍मों में प्रस्‍तुत किए गए शाहरुख की छवि की दीवानी है – उसकी एक्टिंग की दीवानी है – जूही का रेप करने की कोशिश करने वाले शाहरुख की नहीं वर्ना अगर लड़कियां, वास्‍तव में ताकत और हिंसा को ही चाहतीं तो क्‍या वजह थी कि ‘दुश्‍मन’ के आशुतोष राणा और शक्ति कपूर तथा अमरीश पूरी उनके हीरो नहीं हुए – अगर यही सच होता तो नायकों से ज्‍यादा वे खलनायकों के पीछे दीवानी होतीं।

वैसे, यह बात न राहुल की नजरों से ही और न ही स्‍वयं उदय प्रकाश की नजरों से बची रह पाई है बल्कि अपनी उधार की नजर उतारकर जब राहुल वास्‍तविक प्रेम की नगरी में प्रवेश करता है – सच्‍चे प्रेम का रसपान करता है और खुद इस अनुभव के रास्‍ते से गुजरता है तब उसके ये ओढ़े हुए तथाकथित पूंजीवादी-उपभोक्‍तावादी, बाजारवादी समस्‍त निष्कर्षों और मान्‍यताओं का चोला टूट-फूट कर बिखर जाता है और तब यह साबित हो जाता है कि वास्‍तव में प्‍यार कोमलता का, सहयोग का, आश्‍वासन का, एहसास का नाम है – भोग का, लिप्‍सा का, प्राप्‍त कर लेने या, नोचने-खसोटने और हिंसा या ताकत का प्रदर्शन करने का नहीं। और जिस दिन राहुल की नजरों को एक सच्‍चा नजरिया मिल जाता है, उसे अपना स्‍वयं अर्जित किया हुआ नजरिया और अनुभव प्राप्‍त हो जाता है उसी दिन वह जो पहला काम करता है वह यह कि बाजार द्वारा निर्धारित किए गए और अपने पर थोपे गए सारे पूर्व निर्धारित नियमों को अपने मन से, संस्‍कार से धो-पोंछ कर निकाल फेंकता है।

बाजारवाद द्वारा परोसे गए चेहरे और प्‍यार की पेश की गई परिभाषा भी टूट-फूट जाती है और अचानक ही मोह-भंग हो जाता है राहुल का। यह भी बात साबित हो जाती है कि बाजार प्‍यार और मूल्‍यों से संबंधित नई परिभाषाएं गढ़ सकता है, जबरदस्‍ती उन्‍हें थोप सकता है पर उनमें स्थित मूल भावों को, मूल परिभाषाओं को बदल नहीं सकता। प्‍यार हवस का नहीं, प्‍यार त्‍याग का नाम है और ज्‍यों ही राहुल को अंजली के संसर्ग में इस अनुभूति का एहसास होता है वह स्‍वयं मानो ऊपर से अतिरिक्‍त भार की तरह लादे गए अपने समस्‍त कवच को चकनाचूर कर खुद से अलग कर देता है। वास्‍तव में, आज फिल्‍मों के माध्‍यम से, वेब साइट्स, नेट और मीडिया के माध्‍यम से जो मूल्‍यों की, समाज की, देश की नई परिभाषाएं हम पर थोपी जा रही हैं – वह हमें मानसिक रूप से बरगलाने का काम ही करती है। तभी तो झुंड की झुंड औरतें, स्त्रियां इन थोपी हुई परंपराओं के पीछे आंख मूंदे ही चली जाती हैं – ब्‍यूटी पार्लर के भीतर, फिल्‍मों की ओर ले जाती अनैतिक और भ्रष्टाचारी अंधेरी, गलियों की तरफ और अंतत: एक बहुत बड़े सांसारिक व्‍यापार की तरफ जो संपूर्ण देश को, समाज को, दुनिया को अपने हित, अपने स्‍वार्थ के लिए लील लेना चाहता है, निगल लेना चाहता है।

उदय प्रकाश इस रूपांतर को बड़ी ही खूबसूरती से पेश करते हैं  – वे दूसरों के अनुभव से अर्जित मार्ग अख्तियार करने और खुद से खोजकर रास्‍ता बनाने के  अंतर को भी बड़ी खूबी से पेश करते हैं। वही राहुल जो अब तक फिल्‍मों द्वारा परोसे गए चेहरे में, माधुरी की पीठ पर लगी गुलेल से निकली ऊईयां में अपनी मर्दानगी का सुख ढूंढ़ता था, एक बड़े भ्रमजाल की तरह — धूप पड़ते ही पानी के वाष्प की तरह वह धुधलका उड़ गया था। उदय प्रकाश कहते हैं –

‘‘छह सितंबर को बुधवार था। उस दिन राहुल ने उठते ही, ब्रश करने और फ्रेश होने के पहले, आंखें मींचते हुए पहला काम यह किया कि अपनी रूमाल को पानी से भरे मग में बार-बार डुबाते हुए माधुरी दीक्षित की पीठ को इतना गीला कर डाला कि फेबिकोल ढीला पढ़ गया और कमरा नंबर 252 की खिड़की की कांच से ‘स्‍टार डस्‍ट’ के ‘सेंटर स्‍प्रेड’ में छपा वह चित्र फर्श पर टपक पड़ा।’’  …ओर ऐसा उसने इसलिए किया ताकि …‘‘बिना बायनाक्‍युलर के वह तितली की तरह दूर, धीरे-धीरे तैरते पीले रंग के उस चमकीले धब्‍बे को यहां से स्‍पष्ट  देख सकता था, जिसके प्रगट होते ही उसकी सांसें तेज चलने लगती थी, और शिराओं में बहने वाला रक्‍त रफ्तार पकड़ लेता था।’’

और उसके कानों में उसके अपने हृदय के धड़कनों की आवाज साफ-साफ सुनाई देने लगती थी ।

धक्‍ ……..धक्‍ …………… ! धक्‍ …….. धक्………… !

दि नाइट हैज अ थाउजैंड आईज़,

एंड दि डे बट वन

येट दि लाइट ऑफ दि ब्राइट वर्ल्‍ड डाईज़

विद दि डाइंग सन

दि माइंड हैज थाउजैंड आईज़

एंड दि हार्ट बट वन,

येट दि लाइट ऑफ अ होल लाइफ डाईज़

व्‍हेन लव इज डन।‘

उसने झुक कर नीचे पड़े उस कागज के गीले टुकड़े को उठाया, जिसमें माधुरी दीक्षित का चित्र था और दरवाजे के बाहर रखे डस्‍टबिन में उसे डाल दिया।

अलविदा मिसेज नेने ! बाय…बाय…।’’

इसका बहुत ही खूबसूरत वर्णन – इस बनावटीपन और असलियत का अंतर इस परोसे हुए और अर्जित किए हुए के बीच की विभाजक रेखा को स्‍वयं उदय प्रकाश देखते हैं, दिखाते हैं – ‘‘यह एक ऐसा समय था, जिसकी ज्‍यादातर तारीखों के भीतर किसी तीसरे दर्जे के सड़क छाप, सस्‍ते, घटिया उपन्‍यास या बॉलीवुड की फ्लॉप-हिट फिल्‍मों जैसा टुच्‍चा यथार्थ था, उनकी पटकथा ऐसी थी, जिसमें घटने वाली घटनाओं का कोई तर्क नहीं था, वे संयोगों और तमाम तरह की आकस्मिकताओं से भरी हुई थीं। असंगत, बचकाना, घटिया लेकिन सनसनीख़ेज, हिंसा, ग्‍लैमर, सेक्‍स, साजिश, फूहड़ ‘स्‍पेशल एफेक्‍ट्स’, आंसुओं, चीख-पुकार और दिल को छू लेने वाले ‘सिचुएशंस’ और गानों से भरपूर। लगता था जैसे इस समय की पटकथा किसी संवेदनशील सट्टेबाज़ ने लिखी है, जो हर बार एक नया दांव लगाता है और फिर अपने उसी दांव की परिणति से डरता रहता है।

लेकिन इन्‍हीं तारीखों में कुछ ऐसा भी घट रहा था, जो सुबह-सुबह पत्तियों पर गिरने वाली ओस जैसा शीतल, पारदर्शी और सुंदर था।’’

राहुल जिस नजर से देखता है, अपने ही प्रति शोषण की खिलाफत करता है – वह खुद जातिवाद के खतरनाक प्रभावों से आक्रांत है, किंतु दूसरी ही तरफ, वह अपनी उपभोक्‍तावादी पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति और भाषायी आधुनिकता की जिस नजर का इस्‍तेमाल हिंदी विभाग की लड़कियों को देखने में करता है – वह यह सोचने और समझने पर मजबूर कर देता है कि खुद वर्ण भेद का विरोध करने वाला इस दूसरी जगह पर, दूसरे स्‍तर पर क्‍या स्‍वयं एक दूसरा वर्ग भेद निर्मित नहीं कर रहा है ? यह जो नायक द्वारा स्‍वनिर्मित भेद है उसकी जड़ में आधुनिकता बनाम पुरातनता, अमीरी बनाम गरीबी नहीं है क्‍या ? वर्ना और तो कोई कारण नजर नहीं आता इस उपहास का। अंजाने में किया गया भी नहीं लगता। उदय प्रकाश एक प्रौढ़ लेखक हैं — फिर क्‍या है हिंदी विभाग का और उसकी कुछ कम फैशनपरस्‍त छात्राओं का उपहास ?

वास्‍तव में नजर उनकी नहीं राहुल की है जो एक तरफ तो हिंदी भाषा की तरफ़ आर्गेनिक केमिस्‍ट्री की लाइन छोड़कर आया है अत: अंग्रेजी भाषा और वहां के माहौल का उस पर प्रभाव निश्चित तौर पर है, ऐसे में हिंदी विभाग की निम्‍न वर्ग की लड़कियों का पहनावा-ओढ़ावा तो उसे अजीब लगता ही है, वह यह भी सिद्ध करता हुआ-सा जान पड़ता है कि ये ज्ञान और समझदारी के मामले में ही नहीं, आधुनिकता और फैशन के नाम पर भी कितने पिछड़े हुए हैं। थोड़ा और जूम करके देखा जाए तो वास्‍तव में उपहास उनकी गरीबी और उनके पिछड़ेपन का नहीं उड़ाया गया है – आज आधुनिकता और उपभोक्‍तावाद तथा विज्ञापनजनित बाजारवाद ने लोगों को सीधे तौर पर अमीर और गरीब, दो वर्गों में विभक्‍त कर दिया है। बाजार सिर्फ हमारे लिए कॉसमेटिक्‍स और फैशन ईजाद ही नहीं करता बल्कि फैशन, पहनावे और रहन-सहन का मानदंड भी वह हमारे लिए स्‍वयं ही निर्मित करता है। वही यह डिसाइड भी करता है कि कौन किस स्‍तर तक आधुनिक है और कौन पिछड़ा हुआ। अत: उन मानदंडों को ही सच्‍चाई और युग का तकाजा मानकर आजकल के युवक-युवती बेहिसाब तरीके से उसे ही फौलो करने की कोशिश करते हैं। पर जो बात सबकी नजर से छुपी रह जाती है वह यह कि ये सारे मानदंड, ये सारी कसौटियां बाजारवाद और विज्ञापनवाद तथा मुनाफाखोरी को ही सिद्ध करने के लिए निर्मित किए जाते हैं। किंतु जानकर या अंजाने में भी हमारा समूचा भारतीय युग इसे ही अकाट्य सत्‍य मानकर उस रंग-बिरंगे कपड़े पहने अद्भुत बीन बजानेवाले के पीछे बेसुध और आंख मूंद कर चलते जाने वाले चूहों की तरह भागता जाता है जिसे अंतत: खड्डे  में गिर जाना है – खैर, तो बाजारवाद जो भी मानदंड तय करता है, वह वास्‍तव में अपने मुनाफे की दर को दृष्टि में रखकर करता है और मुनाफे के लिए ही करता है। वस्‍तुत: पैसा ही उसका अंतिम टारगेट होता है अत: जिसके पास पैसा है वे तो इन्‍हें शब्‍दश: फौलो कर लेते हैं परंतु उनका क्‍या जो इन हसरतों से तो लबालब भरे हुए हैं किंतु धन से जिनकी जेबें खाली हैं, जिन तक मीडिया लंगड़ाते-खड़खड़ाते पहुंच तो गया है किंतु सभ्‍यता का पीछा करने की सूझबूझ और समझदारी जिनमें नहीं है ? हसरतें तो हैं ही, जमाने के साथ रेस में हिस्‍सेदारी करने की तलब भी और रंगबिरंगे सपनों को पूरा करने की ललक भी। अभाव जब उन्‍हें विज्ञापनों की दुनिया नहीं देती तो भी वे कहीं न कहीं अपने सपनों के लिए बाजार ढूंढ़ ही लेते हैं क्‍योंकि बाजार जहां एक तरफ ओरिजिनल मार्केट क्रिएट करता है — वहीं वह ऐसे हाशिये पर पनप रहे सपनों में भी अपने लिए मुनाफा और गुंजाइश ढूंढ़ता हुआ अभावों का बाजार क्रिएट करता है – डुप्‍लीकेट मार्केट का जहां उन्‍हीं विज्ञापनों की नकल और सपनों की नकल बेची जाती है सस्‍ते में, सस्‍ते सपनों के लिए जिन्‍हें पूरा करने से अभावग्रस्‍त लोग भी सपनों को पूरा करने की संतुष्टि प्राप्‍त कर लेते हैं और बाजार तो अपने रास्‍त तय करता ही है। तो समाज के हर तबके की अपने तरीके से दलाली और किसी भी तरीके से किसी भी कीमत पर फैशनपरस्‍ती की गुलामी चाहे वह मजाक की हद तक ही क्‍यों न हो – उदयप्रकाश इस नजरिये का ही उपहास करते हैं – प्रहसन बनाते हैं। चूंकि हिंदी विभाग में अक्‍सर ऐसे ही बच्‍चे प्रवेश लेते हैं जिन्‍हें किसी भी अन्‍य विभाग में प्रवेश पाने की कोई उम्‍मीद नहीं है, जो सदा से उपेक्षित‍ रहे हैं आधारभूत अधिकारों और बेहतरीन प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा से अछूते – पिछड़े वर्ग, पिछड़े समाज को छूते और समाज की तमाम रूढ़ियों, जड़ताओं और ग्रस्‍तताओं से संपूर्णत: सिर से पांव तक ढंके हुए समाज की नई रोशनी, नए ज्ञान और तकनीक तथा फैशन परस्‍ती की आधुनिक चकाचौंध से कोसों दूर – तो ऐसे में अकारण अंजाने ही हिंदी विभाग  ही शिकार बन गया है। वस्‍तुत: हिंदी विभाग निशाने पर नहीं – निशाने पर है वह अमीरी, वह शोषण, वह चकाचौंध और उससे आर-पार की लड़ाई लड़ती हुई गरीबी, अंधकार, पिछड़ापन और दो विपरीत दिशाओं के अनमेल मेल से उपजी विडंबना। हिंदी विभाग की इन लड़कियों का वर्णन करते हुए उदय प्रकाश लिखते हैं – ‘‘विधाता गहरे असमंजस, ऊब और थकान के हाल में रहा होगा जब उसने हिंदी डिपार्टमेंट की इन कन्‍याओं की रचना की। वह इस सृष्टि के किसी अन्‍य प्राणी को बनाना चाहता रहा होगा, मसलन नील गाय, जिराफ़, हिप्‍पोपोटेमस, घडि़याल, हाथी, मेढ़क, कछुए या घोड़े इत्‍यादि लेकिन उकताहट में आखि़र में उसने इन्‍हें बना डाला था। वे दु:खी, कुंद, अज़ीब और मानवीय आकार-प्रकार के समस्‍त नियमों का अपवाद सिद्ध होने के लिए बनी थीं। अपने-अपने घरों से खाना बांधकर लातीं और पीरियड्स के बीच के गैप में सबसे छुपकर झुंड में ही खाती थीं। एक दिन उन सबको झुंड में पी-एच. डी. करनी थी और फिर एक दिन अलग-अलग निज घर-बार बसाना था। लेंकिन वे अक्‍सर चहकती हुई हँसती थी। ऐसे में उनकी आँखें चमकदार हो जातीं, दांत निकल आते और वे दुपट्टे या साड़ी का पल्‍लू अपने मुँह की ओर लाने की कोशिश करतीं। उन्‍हें देखकर लगता कि जैसे अभी भी ‘उड़न-खैटोला’, ‘अनमोल घड़ी’, ‘बावरे नैन’ और ‘बरसात’ जैसी फिल्‍मों का जमाना चल रहा है। इनमें जो सबसे आधुनिक होतीं, वे पट्टी से खरीदी गयी सस्‍ती जींस की रेडीमेड पैंट के साथ कोई भी अनमैचिंग टॉप या शर्ट पहन लेतीं और तमिल फिल्‍मों की एक्‍स्‍ट्रा  नज़र आतीं, या फिर अधिक से अधिक ‘मेरा साया’ फिल्‍म की हीरोइन साधना, जिसके जूड़े के भीतर स्‍टेनलेस स्‍टील का गिलास औंधा छुपा हुआ होता था। और वैसे ही लड़के। राहुल हिंदी विभाग में उसी तरह था, जैसे किसी टाइम मशीन ने उसे किसी और समय और स्‍पेस में पहुँचा दिया हो।’’

उदय प्रकाश बड़ी ही स्‍पष्टता  से कहते हैं कि राहुल अंजली के बारे में यही सोचता है कि वह वास्‍तव में खूबसूरत है या ‍उसकी खूबसूरत देह के भीतर भी उन्‍हीं की आत्‍मा है जिनकी आत्‍मा देशी घी, अचार, एकादशीव्रत, सत्‍संग, छौंक-बघार, होम-साइंस, मुंबइया सिनेमा और भावुक उपन्‍यासों की रासायनिक क्रिया द्वारा निर्मित होती है?

यह भी सोचने की बात है कि ‘पीली छतरी वाली लड़की’ में यद्यपि नायक-नायिका हिंदी विभाग से ही मिलते हैं पूरी कथावस्‍तु में वर्णन भी हिंदी विभाग का ही होता है तथापि नायक-नायिका मूलत: हिंदी विभाग से ही लिए गए हैं बल्कि अकस्‍मात संयोगों के माध्‍यम से दोनों को इस विभाग तक घसीटा गया है – कारण भी उल्‍लेखनीय है कि अगर अंजली को जोंडिस न हुआ होता और एक्‍जाम में उसके पेपर्स न खराब हुए होते तो उसका एडमीशन कहीं और हुआ होता। और उस दिन अगर वह भुट्टा खाने हिंदी विभाग में न आई होती तो राहुल भी अपने एंथ्रोपोलॉजी में हेाता। तो कया एक बोल्‍ड, साहसी, विद्रोही और आधुनिक बतकहियों तथा साहसिक कदमों से भरपूर प्रेम कहानी के नायक-नायिका को हिंदी विभाग से सीधे-सीधे लेने में उदय प्रकाश को संकोच था। या उनका मानना था कि ऐस ऊबाऊ, पुराने जमाने में अब भी जीने वाले हिंदी विभाग के लड़के-लड़कियां इतनी खूबसूरत, आधुनिक साहसिक प्रेम कथा का निर्माण नहीं कर सकते – अप्रासंगिक होते या अविश्‍वसनीय और इसलिए चूंकि वर्णन करने के लिए उन्‍होंने दोनों को दो अलग संदर्भों से चुना है और हिंदी विभाग में घसीट कर ले आए हैं तथापि उनका बैकग्राउंड बड़ी  ही खूबसूरती से कुछ अत्‍याधुनिक पुट देकर बुना है ताकि कथ्‍य में आगे चलकर वे बोल्‍ड सीन, उनकी रसभरी प्रेम कथा, उनके छुप-छुपकर मिल सकने और एक-दूसरे को भरपूर प्रेम कर सकने का चित्रण कर पाते जो उन्‍होंने आगे के पन्‍नों में किया है कदाचित हिंदी विभाग के इन उड़न  खटोला, अनमोल घड़ी, बावरे नैन और बरसात जैसी फिल्‍मों के जमाने जैसे नायक नायिकाओं को लेने पर सफल नहीं होता, विश्‍वसनीय नहीं होता।

ये हिंदी विभाग के छात्र क्‍या इतने आउटडेटेड हैं कि न प्‍यार कर सकते हैं न ही समझ सकते हैं। कहानी में एक जगह अंजली के साथ लड़कियों का और राहुल का झुंड अपने दोस्‍तों के साथ एक-दूसरे को पार कर रहा था। ऐसे में अंजली बड़ी चालाकी से सबकी नजर बचाकर राहुल को चिकोटी काट लेती है। किसी को पता भी नहीं चलता।

और मानो सारे दृश्‍य के प्रत्‍यक्ष गवाह उदय प्रकाश टिप्‍पणी देते हुए कहते हैं – ‘‘अगर हेमंत बरूआ, कार्तिकेय, या ओ.पी. होते तो फौरन भांप जाते कि अभी-अभी यहां कुछ हुआ है। लेकिन राहुल के साथ तो हिंदी साहित्‍, एम. ए. प्रीवियस के साथी थे’’ और उनकी कुछ समझ में नहीं आया।

तो क्‍या यह उपहास अति की हद तक नहीं है … ? पिछड़ापन, अशिक्षा, गरीबी, मजबूरी विश्‍वसनीय है, संभव है पर यह तो संभव नहीं कि इनके जीवन में प्‍यार भी नहीं प्‍यार की समझ भी नहीं और प्‍यार को समझने की सरल बुद्धि भी नहीं – क्‍या यह कपट या प्रेम नहीं है जो या तो खुद निर्मित किया गया है पर हमारे सामने निर्मित किया जा रहा है – जो भी वे यह सर्वथा भ्रमात्‍मक एवं अग्राह्य अविश्‍वसनीय है।

यह भले माना जा सकता है कि आधुनिकता के नाम पर जो छिछली असंवेदना और खोखली है बेबाकी है वह इनमें नहीं है इनमें वह लाज या लिहाज अभी भी शेष है जिसके तहत ये ओ.पी. और और दोस्‍तों की तरह साफ-साफ कुछ कहते नहीं जान कर भी अंजान बन जाते हैं परंतु यह कहना कि वे कुछ समझते ही नहीं हास्‍यास्‍पद प्रतीत होता है। उपभोक्‍तावादजनित वस्‍तुएं उपलब्‍ध न हों पर समझ बुद्ध और योग तो जन-जन के अस्तित्‍व तक पहुंच चुका है। इससे अब विरले ही अछूते हैं यह सब कुछ ऐसे भी आधुनिकता की ही विरासत नहीं है सिर्फ प्‍यार के नाम पर भोग, हवस, छिछलापन आधुनिकता की देन या प्रसार हो सकता है पर प्रेम सदा से या और है यह कोई नई चीज नहीं है। प्रेमी-प्रमिकाओं का आपस में प्रेमालाप इशारों-इशारों में बातचीत  आज से नहीं आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और उससे भी पहले संस्‍कृत प्राकृत में भी प्राप्‍त है परंतु यह कहीं नहीं सुना कि इसकी परिभाषा, या इसकी भा षा किसी एक खास वर्ग के लिए ही ग्राह्य है और खास वर्ग के लिए अग्राह्य  बल्कि मेरे हिसाब से तो यही एक भाषा है जिसमें भाषा, धन, स्‍तर या कुछ भी बाधा नहीं बनती ओर जो सबके लिए समान रूप से ग्राह्य होती है जिसकी नजर में अमीर, गरीब, अनपढ़  शिक्षित, भले-बुरे सभी एक समान होते हैं।

खैर, हर बनाए गए या थोपे गए ‘डेफिनिशन’ से परे जब राहुल को प्‍यार होता है, तभी वह जान पाता है कि वास्‍तव में स्‍त्री क्‍या है ? प्‍यार क्‍या है ? वह क्‍या चाहती है ? और तभी उसे यह भी समझ आता है कि वास्‍तव में बाजार ने किस प्रकार हमारी सोच, हमारी बुद्धि, विचार शक्ति को भी हैक कर लिया है। अंजली के साथ वह अब पुरानी सभी रेडिमेड भाषाओं से परे एक नई भाषा सीखता है, उसे अनुभूत करता है, अपनी अभिव्‍यक्ति करता है और हर दिन इस नई भाषा के नए शब्‍द, नई बनती-बिगड़ती-उभरती पहेलियों से आश्‍चर्यचकित होता जाता है। राहुल सोचता है – मैं तो फिट महसूस कर रहा हूं। उदय प्रकाश कहते हैं – ‘’ यह एक नई भाषा थी, जिसे उन्‍होंने अपने-अपने जीवन में पहली बार जाना था। इस भाषा के वाक्‍य अलग थे। उनका सिंटैक्‍स भिन्‍न था। वे उसके अनोखे व्‍याकरण को धीरे-घीरे, हर रोज़ सीख रहे थे। यह सीखना इतने आश्‍चर्यों, सुखों, कौतुकों और सांस तक को रोक देने वाली बेचैनियों से भरा था कि वे उन पलों में अवाक्, हतप्रभ और अवसन्‍न रह जाते। वह अनुभव उनकी चेतना और देह को अपने इंद्रजाल मे बांध कर जड़ कर देता और उन्‍हें लेता इस समूचे ब्रह्मांड में वे दोनों, बिल्‍कुल अकेले हैं।

इस भाषा में ऐसे शब्‍द थे, जिनका ध्‍वनियों में उच्‍चारण नहीं होता था। उनको लिखने के लिए लिपियों की, वर्ण की जरूरत नहीं थी। यह एक ऐसी भाषा थी, जिसके भीतर विद्युत और चुंबकीय तरंगें थीं। इलेक्‍ट्रो मैग्‍नेटिक करेंट्स। इस भाषा में कोई भी अभिव्‍यक्ति एक-दूसरे को छूकर ही संभव होती थी। और ऐसा करते ही अचानक जैसे किसी सम्‍मोहक ऊर्जा से भरी किसी तेज़ आंधी या प्रचंड नदी में उनका शरीर अवसन्‍न होकर तिनके-पत्‍ते-सा उड़ने-बहने लगता था। असहाय।’’

पूरी की पूरी ‘पीली छतरी वाली लड़की  एक लंबी कहानी अपने साथ सिर्फ राहुल और अंजली की कहानी लेकर नहीं चलता बल्कि एक बोझिल, छोटी-सी प्रेम कहानी के समानांतर चलते समाज की विद्रुपताओं को चित्रित करता है।

एक तरफ जहां राहुल और अंजली के संदर्भ में उदय प्रकाश कहते हैं – ‘‘ कितनी विचित्र थी ये तारीखें, जिनमें एक तितली ने तीस सेकेंड्स के भीतर-भीतर एक अनोखे जादू द्वारा छतरी का रूप धारण कर लिया था और अब सारी दुनिया को चकम देते हुए राहुल की समूची चेतना और अस्तित्‍व को अपने नीचे घेरती जा रही थी…’’

दूसरी तरफ.. ‘’इन्‍हीं तारीखों में वह खाऊ, तुंदियल, भोगी अमीर, कामुक, लुच्‍चा, मोटा आदमी भी मौजूद था, अपने बाजार और अपनी सत्‍ता के साथ और वे ‘क्रिटर्स’ भी, जिनकी हिंसा, लूट, अनैतिकता और व्‍यभिचार के कारण आज का समूचा यथार्थ लहू-लुहान था।‘’

समूचे कथानक का भाव यही है कि आज के पूंजीवाद ने यद्यपि समाज के मूल्‍यगत और भावगत कोमल मूल्‍यों का अपहरण कर लिया है, प्रेम जैसे निहायत ही कोमल मसले भी बाजारपन धारण कर चुके हैं तथापि इस कालिया और भयंकरता के साये में प्रेम पहले भी जिंदा था, और आज भी सांसे ले रहा है। जहां एक तरफ हजारों-लाखों बेरोजगार रोज नई-नई तरकीबों से रातों-रात अमीर होने के सपने देखते थे – ‘’यह वह समय था जब इंडिया के बाजारों में तरह-तरह के परफ्यूम, कॉस्‍मेटिक्‍स, सॉफ्ट ड्रिंक्‍स, इलेक्ट्रिकल और इलेक्‍ट्रॉनिक गजेट्स, वाशिंग मशीन, सेलुलर फोन, डिजिटल टीवी, हैंडी कैम अंटे पड़े थे। हर हफ्ते आधा दर्जन कारों के नये मॉडल सामने आ रहे थे। दिल्‍ली में मैक्‍डोनल, केसीएफ और निरूलाज़ के सैकड़ों ईटिंग ज्‍वायंट्स खुल रहे थे। राजधानी और दूसरे बड़े शहरों में नाइट क्‍लब्‍स खुल गए थे, जहां रात में अधनंगी मॉडल्‍स व्हिस्‍की और वाइन बेचती थीं और जहां मंत्रियों-नौकरशाहों और अपराधियों की संतानें ऐश करती थीं, देशी-विदेशी सट्टेबाज खुले आम लोगों में जुए और लाटरी की लत डालकर उन्‍हें करोड़पति और दस करोड़पति बनाने का स्‍वप्‍न दिखा रहे थे। एक दिन में इस देश के मंत्री और नौकरशाह जितने का लंच कर जाते थे, सिर्फ उतने रुपयों से सारे गांवों में पीने का पानी, स्‍कूलों में अध्‍यापक और ब्‍लैकबोर्ड, खेतों और घरों में बिजली और झुग्‍गी–झोपडि़यों में रहने वालों के लिए हगने-मूतने का शौचालय लग सकता था।

लेकिन ऐसा सोचने वाला हर शख्‍स पिछड़ा हुआ, दकियानूस और किसी अजायबघर का ओरंग-उटांग मान लिया गया था। हर ऐसा सोचने वाले आदमी को लात मारकर इस व्‍यवस्‍था ने किसी ‘जंकयार्ड’ में धकेल दिया था या ‘खतरनाक सिरफिरा’ मानकर हर तरह से उसे खत्‍म करने की कोशिश की जा रही थी।

संसद और विधान सभाओं में हिस्‍ट्री शीटर्स, हत्‍यारे, तस्‍कर, विदेशी कंपनियों के दलाल, जमाखोर और नंबर दो की कमाई करने वाले बेईमान भर गये थे। पांच सितारा होटल गुलज़ार थे। वहां शराब की नदियां बह रही थीं। नदियां, पहाड़, जंगल, खेत-खलिहान, खनिज, अयस्‍क, औरत, बच्‍चे, ऐतिहासिक स्‍मारक, ईमान, धर्म, हवा, नदी, समुद्र स‍बकी नीलामी हो रही थी। प्रधानमंत्री जेल जा रहे थे। मुख्‍यमंत्रियों पर गबन, ठगी और भ्रष्‍टाचार के मुकदमें चल रहे थे। जज रिश्‍वत खा रहा था। पुलिस अपराधियों से मिल गई थी और इक्‍कीसवीं सदी की दहलीज की हर तारीख निर्दोष और ईमानदार और न्‍याय मांगते हिंदुस्‍तानियों के खून में लिथड़ी हुई थी।

अंग्रेजों ने एक जलियांवाला बाग कांड किया था, अब हर रोज दर्जनों ऐसे कांड हो रहे थे। राम का झंडा उठाकर रावण की हरामी संतानों ने समूचे यथार्थ पर अपना शासन जमा लिया था।…लेकिन इसी बीहड़-उजाड़ समय की किसी पत्‍ती पर ओस की कुछ ठंडी, पारदर्शी और निर्दोष बूंदें भी गिरती रहती थीं, जिनकी नमी से जीवन कभी-कभार हरा हो जाया करता था।’’

वह राहुल जो एक तरफ धीरे-धीरे प्रेम की नई भाषा सीख रहा है, हर दिन प्रेम की नई-नई अनूभूतियों से विभोर हो रहा है, वहीं दूसरी ओर होस्‍टेल में रह रहे विभिन्‍न प्रकार की घटनाओं, सापाम की आत्‍महत्‍या, छीनताई, शोषण, अत्‍याचार गुंडागर्दी, यूनिवर्सिटी प्रशासन की मिलीभगत, जातिवाद का परचम आदि मतीडिया चीजें हमें भीतर तक परेशान कर रही है भयभीत कर रही हैं उस पर से क्रिटर्स अब सक्रिय हो गए थे राहुल की आर्थिक हालत बिगड़ती जा रही थी, ट्यूशन का काम जैसे ही मिलता था, दो-चार दिनों में ही कोई न कोई वहां जाकर उसक बारे में ऐसी सूचना दे आता था, कि उसे मना कर दिया जाता था। मेस का बिल दो महीने से नहीं भरा जा सका था। टूथपेस्‍ट बहुत कम बचा था। आजकल वह कपड़े धोने के लिए ओ. पी. से साबुन मांग रहा था। राहुल ऐसी विपरीत परिस्थितियों में ही सोचता है कि – ‘‘कैसे समय में उसके जीवन में आया है यह प्‍यार। उसके जीवन का यह पहला अनोखा, जादू भरा अनुभव ! वह पीली तितली बार-बार इस समय के अंधेरे और कोहरे में खो जाती थी।’’

कमल कीचड़ में ही खिलता है – प्‍यार भी हमेशा से विरोधी शक्तियों का शिकार रहा ही है। परंतु राहुल को लगता है मानो उसी के प्‍यार में बाधाएं हैं — जाति की बाधाएं, कुलशील की बाधाएं, संसार की बाधाएं, मर्यादा संस्‍कार और वे समस्‍त दीवारें जिसने उसमें और अंजलि में प्‍यार के रहते भी भेद उत्‍पन्‍न कर दिया है। कई जगह ये दीवारें इतनी सख्‍त और भय उत्‍पन्‍न करने वाली हैं कि राहुल के हृदय में प्‍यार का रंग फीका पड़ने लगता है – अंजली को वह अंजली या अपने प्‍यार के नहीं, बल्कि ब्राह्मण जाति के रावण के हरामी औलादों की पताका के रूप में देखने और सोचने पर मजबूर हो जाता है और इन्‍हीं मनोदशाओं में वे पहली बार अंजली के साथ सहवास करता है। हार्दिक और शारीरिक सुख तथा संभोम ने उन आंतरिक एवं अंतरिम क्षणों में भी उस पर ऐसी ही मनोदशाएं हावी हो जाती हैं – अपनी जाति का संस्‍कार, अपनी जाति का अपमान, वर्षों से, सदियों से दबी-कुचली जातियों की प्रति हंसा की इच्‍छा हावी हो जाती है ओर वह प्‍यार करने वाले इंसान से – राहुल से ‘’ अंजली के शरीर पर लदा हुआ बनैला जानवर बन गया था – हिंसक पशु।

ध्‍यान देने की बात है कि ज्‍यों ही राहुल के मन में अपने जातिगत प्रतिशोध और अंजली के जाति के घृणा  का भाव पैदा होता है त्‍योंही उसके अपने अनुभूत क्षण छू हो जाते हैं और तुरंत उसके मन पर बाजार द्वारा थोपे गए वे समस्‍त मूल्‍य और संस्‍कार हावी होने लगते हैं जिन्‍हें वह प्‍यार की कोमल भावधारा में बहते हुए त्‍याग चुका थ। वह वापस सोच रहा था – ‘’मैं एक तेुदुआ हूं। ‘अ पैंथर।’ राहुल के हाथ उसकी जींस की जिप को खोल चुके थे।

तेंदुए ने पूरे बनैलेपन के साथ अपने शिकार पर हमला कर दिया था। अंजली ने विरोध छोड़ दिया था। वह किसी चौंकी हुई हिरणी की आंखों से अपने ऊपर लदे जानवर को देख रही थी। लड़कियां हिंसा पसंद करती हैं न ?…उन्‍हें शाहरुख खान चाहिए… है न ? वो ‘डर’ वाला शाहरुख खान ? या वो सलमान खान, जो हिरण खाता है ब्‍लैक्‍ बक ?’’

तो क्‍या जातिवचाद बाजार को और बाजार जातिवाद को सहारा देते हैं, उन्‍हें पनपने में, उगाने-उपजाने में सहयोग करते हैं। या एक के फलने-फूलने में ही दूसरे की खैर है। परंतु इस समस्‍त क्रिया कलाप में अंतत: स्‍त्री वहां से आ जाती है उसकी भूमिका क्‍या है और क्‍यों है ? शासक पुरुष, शोषक पुरुष, शोषित पुरुष, जाति पुरुष की मर्यादा पुरुष की तो बदला भला एक स्‍त्री से क्‍यों ? क्‍यों बाजार के लिए, उसके फायदे के लिए उसका सबसे बड़ा निशाना एक स्‍त्री ही है।

क्‍या प्रेम का अपने-आप में कोई मूल्‍य नहीं है ? शारीरिक प्रेम सिर्फ प्रतिशोध है किसी एक जाति का दूसरी जाति से उसका आपसी प्रेम कोई ताल्‍लुक नहीं। अगर उस खास क्षणों में राहुल के मन में ये हिंसक वृत्तियां उत्‍पन्‍न नहीं होतीं – प्रतिशोध का हिंसक ख्‍याल उत्‍पन्‍न नहीं होता तो क्‍या तब वो अंजली से शारीरिक संबंध नहीं बनाता … और सबसे बड़ी खास बात या अहम प्रश्‍न ये है कि जिस मन:स्थिति में राहुल ने अंजली से संबंध बनाया – किसी भी स्‍त्री के लिए वह किसी भी हाल में सुखकर नहीं हो सकता फिर अंजली के मुख पर भला क्‍यों स्मित मुस्‍कान छा जाती है। तो क्‍या वह सिर्फ शरीर की ही भूखी है वास्‍तव में… क्या वास्‍तव में राहुल सिर्फ उसकी हवस पूरा करने का माध्‍यम है सेक्‍स ट्वाय है ? ये ऐसा इसीलिए कह रही हूं क्‍योंकि स्‍त्री और पुरुष के प्‍यार में पुरुष के लिए स्‍त्री का शरीर सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण होता है। और उससे भी अधिक उसका समर्पण परंतु एक स्‍त्री के लिए कभी भी किसी भी हाल में पुरुष के साथ संबंध में पुरुष का स्‍त्री के प्रति उसकी भावनाएं, मन:स्थिति और स्‍त्री का स्‍वाभिमान खास अहमियत रखते हैं। कोई भी स्‍त्री पैरों की जूती तले अपने लिए शारीरिक सुख प्राप्‍त नही करना चाहेगी और यह कतई उसे सुख या संतुष्टि प्रदान नहीं कर सकता – अपनी बात के समर्थन में मैं अपनी बात पंक्तियों पर खत्‍म करना चाहूंगी – जहाँ से मैंने आलेख शुरू किया था-

Every girl wants a bad boy, who will be good just for her…and…

Every boy wants a good girl who will be bad just for him.

 

डॉ. मीनाक्षी सिंह
कोलकाता 

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