केदारनाथ सिंह ‘भारतीयता’ के कवि हैं । उनकी कविताओं में एक साथ भारतीय जीवन के विविध पहलू सिमटे मिलते हैं। बदलते भारत के कैनवास के रंगों में, सजधज में आए परिवर्तन केदार जी की कविता के कथ्य तैयार करते हैं। यही कारण है कि वे सबके कवि हैं क्या युवा, क्या वृद्ध। गाँव-शहर सब उनकी कविता में यथार्थता और आत्मीयता के साथ स्थान पाते हैं। उनकी कविता गाँव-शहर के मार्मिक सम्बंध को अभिव्यक्ति देती है।

          उनकी कविता में न भाषा का ओढ़ा हुआ पंडिताऊपन है न ही दुरुह लगने वाले बिम्ब। जिसे सिर्फ अकादमिक जगत बौद्धिक जुगाली के लिए प्रयोग करे। बल्कि केदार जी की कविता हमारे जीवन से सहज प्रतीकों को उठाकर उसके बहाने हमें परिष्कार के लिए रास्ता दिखाती है। केदार जी खुद कहते हैं- ‘‘मैं गाँव का आदमी हूँ और दिल्ली में रहते हुए भी एक क्षण के लिए नहीं भूलता कि मैं गाँव का हूँ। यह गाँव का होना कोई मुहावरा नहीं है, बल्कि इसके विपरित मेरे जीवन की एक लगाव भरी सच्चाई है, जिसे मैं अनेक स्तरों पर जीता हूँ…।’’

          आज जब महानगर और नगरीय सभ्यता गाँवों को और वहाँ के सौन्दर्य को निगलते जा रहा है, उस दौर में अपने अंदर गाँव को समेट कर रखना जिस जीवटता का प्रतीक है, वहीं जीवटता ‘केदार’ जैसा व्यक्तित्व गढ़ती है। समकालीन कविता या फिर साहित्य में जब महानगर और उसका जीवनबोध कथ्य के केन्द्र में हो तो उस दौर में ग्रामीण संस्कृति और संस्कार के स्वर को जिस कवि ने मुखरित किया उनमें केदार जी प्रमुख है-

          ‘‘अन्त में कुदाल के सामने रूककर

          मैंने सोचा कुदाल के बारे में

          सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर

          किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूँ मैं

          पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में।’’

          उपर्युक्त पंक्ति केदार जी की प्रमुख कविता ‘कुदाल’ से ली गयी है। यह कुदाल कुछ और नहीं भारतीय गाँव और ग्रामीण संस्कृति का अपना पक्ष है, जिसे साहित्य में स्थान देना केदार जी जैसे लोगों को आत्मिक संतुष्टि देता है। गाँव जब अपने ही देश में एक तरह से आंतरिक उपनिवेशवाद के शिकार जैसे हो, जब गाँव को शहरों से इसलिए जोड़ा जा रहा हो कि शहरों की जरूरत को पूरा किया जा सके। जब बांध और डैम से डूब रहा हो कोई सूदूर भारतीय कोना और उसके बिजली से जगमगा रहा हो कोई भारतीय महानगर तब जरूरत पड़ती है ‘कुदाल’ जैसे प्रतीकों के बहाने भारतीय गाँव का पक्ष रखा जाए। गाँव महज कच्चा माल और सस्ते मजदूर को उपलब्ध कराने वाले साधन बनकर रह गए हैं। यही कारण है केदार जी लिखते हैं-

          ‘‘काम था

          सो हो चुका

          मिट्टी थी

          सो खुद चुकी है जड़ों तक

          और अब कुदाल है कि चुपचाप चुनौती की तरह

          खड़ी है दरवाजे पर।’’

          ‘नये विकास मॉडल’ की यही सच्चाई है वह तब तक ही किसी को पनाह देता है जब तक जिसकी जरूरत है। गाँव का व्यक्ति शहर में आकर कारखानों और फैक्ट्रियों में काम करता है परन्तु जब उसका काम खत्म हो जाता है तब वह रह जाता है- उपेक्षित, नजरअंदाज, पिण्ड मात्र। देश के उत्पादन का साधन वह कभी रहा इसका भान न उसे होने दिया जाता है न ही व्यवस्था में बैठे लोगें इसे महसूस करने की जहमत उठाते है। यहाँ तक की परिवार में भी आप अपने समय के साथ ‘मिसफिट’ हो सकते हैं। ‘चीफ की दावत’ हो या ‘जगदम्बा’ बाबू गाँव आ रहे हैं, में प्रमुख पात्र ‘कुदाल’ से ज्यादा कुछ नहीं है।

          एक समय कुदाल भारतीय परिवार का अनिवार्य हिस्सा था परन्तु अब यहाँ उसके लिए जगह नहीं है। वह हर जगह ‘मिसफिट’ है। पीढ़ी और संस्कृति में बदलाव ने ‘फैशन’ के ‘ट्रैंड’ में जो बदलाव किया है उसने आत्मीयता के जगह लाभ-हानि और ‘संबंधों’ की जगह ‘व्यापार’ को स्थापित कर दिया। यही कारण है कि ‘कुदाल’ से घर का संतुलन बिगड़ रहा है-

          ‘‘ड्राइगरूम कैसा रहेगा-

          मैं सोचता हूँ

          न सही कुदाल

          एक अलंकार ही सही

          यदि वहाँ रह सकती है नागफनी

          तो कुदाल क्यों नहीं?

          पर नहीं मेरे मन ने कहा

          कुदाल नहीं रह सकती है ड्राइंग रूम में

          इससे घर का संतुलन बिगड़ सकता है’’

          यह संतुलन बिगड़ने का ‘डर’ किस परिस्थिति की उपज है। या फिर जो संतुलन हम ‘नागफनी’ को ड्राइंगरूम में रखकर बना रहे हैं उससे क्या वास्तव में ‘संतुलन’ की स्थिति बन रही है? यहाँ संतुलन शब्द उसी अर्थ को व्यक्त करता है जो निराला के यहाँ ‘श्रेष्ठ मानव’ शब्द के अन्दर छुपे निकृष्टता से व्यक्त हुयी है। जो कुदाल, माँ-बाप, संस्कृति हमारे जड़ों को उर्वर और विकास योग्य मिट्टी देती है, जो कुदाल हमारे जीवन के उबड़-खाबड़ धरातल को समतल बनाती है, वही कुदाल उपेक्षित है। उसी के लिए जगह नहीं है हमारे जीवन में, घर में या फिर हमारे नए सौंदर्य-बोध में।

          ‘कुदाल’ एक साथ यहाँ भारतीय संस्कारों, गाँवों और हमारे परिवारों के बुजुर्गों के प्रतीक के रूप में आया है। जिस प्रकार कुदाल आज बदले सौंदर्य अभिरूचि में ‘मिसफिट’ है उसी प्रकार भारत के विकसित स्वरूप की कल्पना में ‘गाँव’ उपेक्षित है। तो परिवार में जिनकी विरासत पर हम पल रहे वह बुजुर्ग भी आज हमारे लिए ‘गैर-जरूरी’ वस्तु की भांति हो गए हैं। कुदाल बदले सांस्कृतिक परिवेश में जिस उपेक्षा की शिकार है वह भारतीय जीवन पद्धति पर एक प्रश्न है। यह प्रश्न जितना स्थूल है उतना ही सूक्ष्म, जितना यह कुदाल के अस्तित्व का प्रश्न है उतना ही हमारे जीवन और अन्तर्मन का प्रश्न है। हमारे निर्माण की प्रक्रिया का प्रश्न है-

          ‘‘पर सवाल अब भी वही था

          वहीं जहाँ उसे रखकर चला गया था माली

          मेरे लिए मेरी सदी का सबसे कठिन सवाल

          कि क्या हो- अब क्या हो कुदाल को।’’

          अपनी जड़ों से कटा हुआ आज का आदमी, जिस अलगाव की भावना से जी रहा- उसी का परिणाम है यह सवाल। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन और बुद्धि और हृदय के बीच असंतुलन का परिणाम है उसके मन में उठने वाला यह विरोधाभास। जिसके कारण एक तरफ तो वह कुदाल के ‘अजब अड़बंग-सी धूलभरी धज’ पर आकर्षित होता है तो दूसरी तरफ उसके मन में चलता है-

          ‘‘कि तभी ख्याल आया

          उसे क्यों न छिपा दूँ

          पलंग के नीचे के अंधेर में’’

          यह अन्तर्विरोध, उहापोह और तनाव इस जीवन पद्धति की नियति बन गयी है। इसी नियति से संघर्ष के कवि हैं केदारनाथ सिंह। उनकी कविता भारतीय जीवन-बोध के परिष्कार और संस्कार की कविता है। बिम्ब के माध्यम से हमारे अन्तर्मन की गुत्थियों को हमारे नजरों के सामने कैनवास पर उतार देना केदार जी की खूबी है। अपने मन के जिन भावनाओं को हम दबाकर, दूर भागने की कोशिश करते हैं उन्हीं भावनाओं को अभिव्यक्ति देती है केदार जी की कविताएँ।

          कवि केदारनाथ सिंह भलीभांति जानते हैं कि परिस्थिति कैसी भी हो भारतीय जीवन बोध जिस जीवटता के लिए जाना जाता है उसके मूल में ‘कुदाल’ ही है। आज यह भले उपेक्षित, निष्कासित और निर्वासित हो परन्तु यह स्थित बहुत दिनों तक नहीं रह सकती। आएगा ऐसा समय भी जब कुदाल को घर में जगह मिलेगी, भारत का विकास गांव की अपनी शर्तो पर होगा, किसान, मजदूर सिर्फ साधन की भांति उपयोग के बाद फेकें नहीं जाएंगे, ‘चीफ की दावत’ की माँ और ‘जगदम्बा बाबू गाँव आ रहे है’ के सेवानिवृत्त बुजुर्गो को घर में जगह मिलेगी। उनको उनका स्थान देकर ही हम सही संतुलन पा सकते हैं। वरन जिस तथाकथित संतुलन की वकालत आज हम करते जा रहे वह हमें मौलिकता से दूर उस कृत्रिम जगत के सजधज में ले जाकर छोड़ रहा है जहाँ हम स्वयं सजावट के लिए उपयोगी वस्तु है, उस सजावट के उपभोगकर्ता नहीं। मनुष्य को जीवन के इस कृत्रिमताबोध से बचना चाहिए। अपनी मौलिकता को बचाना ही ‘भारतीयता’ को बचाना होगा।

          विशिष्ट प्रयोग यह है कि कविता में अंधेरे के साथ कुदाल का कद बढ़ता जा रहा है। यहाँ अंधेरा उस स्थिति का सूचक है जो हमारे जीवन में हमारे विकास के लिए एक ‘ओट’ या ‘आड़’ का काम करता है। अगर यह अंधेरा नहीं रहेगा तो कुदाल के दुश्मन इस बढ़ते हुए कद को परख कर अपने साजिशों को और तीव्र कर सकते हैं। परन्तु कवि की भी भारतीय भावनाओं को यह दृढ़ विश्वास है कि अंधकार के साथ बढ़ा यह कद आने वाले उजाले में अपने अस्तित्व के लिए, अपनी जगह के लिए और अपनी अस्मिता के लिए सुदृढ़ता से खड़ा होगा-

          ‘‘क्योंकि अंधेरा बढ़ता जा रहा था,

          और अंधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था

          कुदाल का कद

          और अब उसे दरवाजे पर छोड़ना

          खतरनाक था’’

          इस प्रकार ‘कुदाल’ कविता के माध्यम से केदार जी ने जो यथार्थ हमारे सामने उपस्थित किया, उससे टकराकर ही हम बदलते वक्त के साथ संतुलन स्थाापित कर सकते हैं। यही संतुलन ही हमारी जीवंतता और मौलिकता को बचाए रखेगी।

 

बीरज पाण्डेय
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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