फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध आँचलिक रचनाकार हैं। ग्रामीण अंचलों से उनके निकट का परिचय है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखनेवाले एक सशक्त कहानीकार के रूप में वे प्रसिद्ध हैं। वे अपने ठेठ ग्रामीण परिवेश और पूरे आँचलिक वितान के साथ हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर उभरते हैं और अपनी रचनात्मकता से समाज एवं साहित्य पर एक प्रभाव पैदा करते हैं। रेणु की कहानियों में गाँव अपनी समग्रता में प्रस्तुत होता है। उनके पात्र भारतीय गाँवों का प्रतिनिधित्व करके पाठकों को उस आँचलिक दुनिया में ले चलते हैं। वे अपने स्थानीय परिवेश के साथ रागात्मक संबन्ध स्थापित करते हैं। लोक जीवन के राग-अनुरागों, उनकी समझ, उनकी संवेदना और विवेक को उन्होंने अत्यंत सजीवता से अपनी रचना में प्रस्तुत किया है। जीवन की विविध – वास्तविक छवियों को आत्मसात करके उन्होंने अपने रचनासंसार को संपन्न किया है। पंचलाईट और पहलवान की ढ़ोलक नामक कहानियाँ गाँव को केन्द्र में रखकर लिखी गयी हैं।

‘पंचलाईट’ नामक कहानी में अंचल अपनी संपूर्ण विशेषताओं सहित पाठकों के सामने प्रस्तुत होता है। महतो टोली के लोगों का जीवन, आचार-व्यवहार, बोलचाल, वेशभूषा आदि को बहुत ही आँचलिक तन्मयता से रेणु ने चित्रित किया है। अंचल के विविध आयामों को गहरी एवं प्रामाणिकता के गंध के साथ वे रचते हैं। कहानी के आरंभ में वे लिखते हैं – ”पिछले पन्द्रह दिनों से दंड – जुरमाने के पैसा जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है, इस बार, रामनवमी के मेले में / गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें है। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पंचायतों में दरी, जाजिम, सतरंजी और पेट्रोमेक्स हैं – पेट्रोमेक्स जिसे गाँववालों पंचलाईट कहते हैं।”1 यह कहानी बिहार के ग्रामीण परिवेश के इर्द-गिर्द घूमती है। उस गाँव के जीवन की संरचना को यह अंश स्पष्ट करता है। गाँव में रहनेवाली विभिन्न जातियाँ अपनी अलग-अलग टोली बनाकर रहती है।

‘पंचलाईट’ को देखने के लिए टोली के सभी बालक, औरतें एवं मर्द इकट्ठा हो गए। सरदार के आदेशानुसार उनकी पत्नी ने जलाने से पहले इसके पूजा-पाठ का प्रबन्ध किया। गाँव के लोगों के मन में ‘पंचलाईट’ के प्रति जो भक्ति भावना है; उसे रेणु ने बहुत ही मार्मिक रूप से दर्शाया है – ”सूरज डूबने के एक घंटा पहले से ही टोली-भर के लोग सरदार के दरवाजे पर आकर जमा हो गए। पंचलैट के सिवा और कोई गप नहीं, कोई दूसरी बात नहीं। औरतों की मंडली में गुलरी काकी गोसाई का गीत गुनगुनाने लगी।”2 गाँववालों का विश्वास है कि मंगल कार्यों की शुरुआत में गोसाई गीत को गाना शुभ सूचक होता है। कई जाति के लोग उस गाँव में साथ रहकर शांतिपूर्ण जीवन बिताते हैं। गाँव की सामाजिक रूपरेखा का परिचय हमें यहाँ मिलता है। गाँव के लोगों के साधारण ढ़ंग का रहन-सहन इस प्रसंग के द्वारा स्पष्ट होता है। गाँववालों के सामने पंचलाईट को जलाने की समस्या खड़ी होती है। गाँववालों के भोलेपन और पेट्रोमैक्स जलाना न आने के कारण दूसरे टोलियों के सामने महतो टोली की हालत हास्यास्पद बन जाती है। एक पिछड़े गाँव के परिवेश के चित्रण के साथ-साथ यहाँ गाँव के लोगों की अशिक्षित हालत का भी वर्णन किया है। दूसरी पंचायत के लोगों की मदद से पंचलाईट को जलाने के लिए महतो टोली वाले बिल्कुल तैयार नहीं थे। बिहार के ग्रामीण भू-भाग की सामाजिक परिस्थितियों का अंकन यहाँ हुआ है। गाँव में लोगों का अलग-अलग टोली बनाना, एक-दूसरे की खिल्ली उड़ाना, झूठी शान-शौकत का दिखावा करना एवं रूढ़िवादिता आदि का चित्रण करके वास्तविक स्थिति का परिचय दिया गया है।

महतो टोली का एक व्यक्ति पंचलाईट जलाना जानता है, उसका नाम है – गोधन। पर वह जाति से बहिष्कृत है। गोधन अशिक्षित तो है, पर वह एक विवेकी युवक है। गाँव की लड़की ‘मुनरी’ के प्रति प्रेम की दृष्टि रखने के कारण पंचों ने उसे बिरादरी से बहिष्कृत किया था। जाति की प्रतिष्ठा का प्रश्न चुनौती का रूप धारण करने के कारण, मुनरी के कहे अनुसार गोधन को पंचायत ने बुलाने का निश्चय किया। इस प्रसंग में यह संवाद महत्वपूर्ण बनता है – ”सरदार ने दीवान की ओर देखा और दीवान ने पंचों की ओर। पंचों ने एकमत होकर हुक्का-पानी बंद किया है। सलीमा का गीत गाकर आँख का इशारा मारनेवाले गोधन से गाँव – भर के लोग नाराज़ थे। सरदार ने कहा, जाति की बन्दिश क्या, जबकि जाति की इज्जत पानी में बही जा रही है।”3 गोधन पंचलाईट को स्पिरिट के अभाव में गरी के तेल से जलाता है। इस प्रकार गोधन पर लगे सारे प्रतिबन्ध दृट जाते हैं एवं उसे मनोनुकूल आचरण की स्वतंत्रता भी मिलती है। अंत में पंचलाईट की रोशनी में पूरा गाँव उत्सव मनाता है। ”रेणु के यहाँ बहुत ही सामान्य जीवन जीनेवाले लोगों की आत्मीयता और संवेदनशीलता के जो दृश्य हैं, वे लोक के समृद्ध होने के जीते जागते प्रमाण है।”4 पंचलाईट नामक यह कहानी इसी भावना को खींचती है। रेणु ने ‘पंचलाईट’ को एक प्रतीक के रूप में चित्रित किया है जो पूरे गाँव में प्रेम की रोशनी फैलाने का कार्य करता है।

‘पहलवान की ढोलक’ कहानी भी गाँव के धरातल पर लिखी गई है। प्रकृति का मानवीकरण करने के साथ-साथ गाँव की विडंबनात्मक हालत को प्रस्तुत किया है। कहानी का आरंभ महामारी से ग्रस्त गाँव की विभीषिका से होता है – ”जाड़े का दिन। अमावस्या की रात – ठंढी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयार्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बाँस – फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अंधेरा और निस्तबधता।”5 कहानी के इस अंश से गाँव की विपन्नता के साथ-साथ महामारी से पीड़ित गाँव की भयावहता को भी अंकित किया है।

लुट्टन सिंह इस कहानी का प्रमुख पात्र है। लुट्टन सिंह की जीवनगाथा को चित्रित करने के साथ-साथ गाँव की वास्तविकता को भी प्रस्तुत कहानी दर्ज करती है। उसने महामारी से डरे हुए लोगों को ढोलक बजाकर बीमारी से लड़ने की ताकत प्रदान की। उसके माता-पिता का देहाँत उसके बचपन में ही हुआ था। उसका पालन-पोषण उसकी विधवा सास ने किया था। सास पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए उसने पहलवानी शुरू की। अपने शरीर को मज़बूत बनाना चाहा। मज़बूत शरीर में ही स्वस्थ मज़बूत मन रह सकता है। इसी मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को आधार बनाकर वह गाँव में पहलवानी करने लगा। कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ ने लुट्टन सिंह में एक नई ऊर्जा एवं साहस प्रदान किया। ढोल की आवाज़ और लुट्टन सिंह के दाँव-पेंच में अद्भुत तालमेल होता था। पहलवान ने ढ़ोल को गुरु बनाकर शिक्षा दी। उसके जीवन के उतार – चढ़ावों को ढ़ोलक ध्वनि से बहुत सामंजस्य था।

पूरे गाँव के लोगों में ढ़ोलक की आवाज़ ने शक्ति भर दी थी। ढ़ोल बजाकर पहलवान ने ग्रामीण जनता को जीने की कला सिखाई। मलेरिया और हैजे की त्रासदी से जूझते हुए ग्रामीणों को ढ़ोलक की आवाज़ संजीवनी शक्ति की तरह मौत से लड़ने की प्रेरणा देती थी। सूर्यास्त होते ही सारे गाँव में मातम छा जाता था। महामारी ने सारे गाँव को बुरी तरह प्रभावित किया था। बच्चे, जवान एवं बूढ़े लोगों की मरने की खबर गाँव में आग की तरह फैल जाती थी। सारा गाँव श्मशान घाट बन चुका था। गाँव की इस बदहाली में केवल लुट्टन सिंह की ढ़ोलक ही लोगों में प्राण फूँकती थी – ”रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी – सिर्फ पहलवान की ढ़ोलक। संध्या से प्रातः काल तक एक ही गती से बजती रहती।”6 इस ढ़ोलक की आवाज़ से बूढ़े-बच्चे जवानों की शक्तिहीन आँखों में साहस की लहर दौड़ती थीं। रात की विभीषिका और सन्नाटे को कम करने के लिए ढ़ोलक की ध्वनि चुनौती का रूप धारण करती थी।

एक बार ढ़ोलक की आवाज़ लुट्टन सिंह को पंजाबी पहलवान चाँद सिंह को कुश्ती में हराने के लिए सहायक बनी। कुश्ती में जीतने के कारण राजा साहब ने उसे पुरस्कृत किया और दरबार में सदा के लिए रख लिया। इस प्रकार लुट्टन सिंह की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। ढ़ोल बजा-बजाकर ही वह अपने अखाड़े में बच्चों और लड़कों को कुश्ती की सीख देते थे। कुश्ती या दंगल पहले लोगों और राजाओं का प्रिया शौक था। पहलवानों को राजाओं के द्वारा विशेष सम्मान प्राप्त होता था। राजा के दरबार में रहते हुए उसके पन्द्रह वर्ष बीत गए। उसके बाद राजा की मृत्यु हुई तो राजकुमार ने पहलवान एवं उसके बेटों को राजदरबार से दूर कर दिया। विवश होकर लुट्टन सिंह गाँव लौट आया और गाँव में मज़दूरी करके जीवन बिताने लगा।

गाँव में बीमारी, सूखा, एवं अकाल का वातावरण व्याप्त था। इस महामारी के फैलाव के कारण लुट्टन सिंह के दोनों बेटों की मृत्यु हुई। इन बेटों की मृत्यु के दुःख से बचने के लिए लुट्टन सिंह ने ढ़ोलक बजाई – ”रात में फिर पहलवान की ढ़ोलक की आवाज़, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गयी। संतप्त पिता-माताओं ने कहा – दोनों पहलवान बेटे मर गए। पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है।”7 ढ़ोलक के सहारे पाँच दिन तक लुट्टन सिंह बेटों की मृत्यु के दुःख को सहता रहा। उसके बाद उसकी भी मृत्यु हुई। ढ़ोल उसके संपूर्ण जीवन यात्रा में जीवन साथी के रूप में, जीवन का संबल बना हुआ था।

प्रस्तुत कहानी कला और जीवन के गहरे संबन्ध को स्पष्ट करती है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। कला जीवन को जीने का ढ़ंग सिखाती है। इससे व्यक्ति का जीवन आनंदमय बन जाता है। कला जीवन की प्राण शक्ति है। इस कहानी में कलाकार के निष्ठा भाव, मेहनत एवं समर्पण से युक्त भाव को महत्वपूर्ण रूप में व्यक्त किया है। व्यवस्था के बदलने के साथ लोककला एवं कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की दुविधात्मक सच्चाई यहाँ साबित होती है। कला व्यक्ति के मन में बसी हुई स्वार्थ, धर्म, भाषा और जाति की सीमाऐं मिटाकर मानव मन को विस्तृत एवं व्यापक बना देती है। कहानी के अंत में पुरानी और नई व्यवस्था के टकराव से उत्पन्न समस्या उत्पन्न होती है। पुरानी व्यवस्था में राजदरबार लोक कलाकारों को संरक्षण प्रदान करता था। पर नई व्यवस्था लोक कलाकार को हाशिएकृत बना देती है।

रेणु की कहानियाँ ग्राम जीवन के चित्र को चित्रित करती हैं। यह दोनों कहानियाँ यथार्थ अनुभूति एवं धार्मिक संवेदनशीलता के उत्कृष्ट नमूने बन जाती हैं। ”ग्राम्य – जीवन में जो नवीन मूल्य आ रहे हैं, और प्रगतिशीलता के चिह्न छिपे पड़े हैं, उन्हें उभारने का रेणु ने विशेष रूप से प्रयत्न किया है।”8 उत्तराधुनिक समय में भी कुछ गाँव और जातियाँ पिछड़ी हुई हैं। ऐसे वर्गों की प्रगति एवं विकास के लिए ग्राम सुधार की भावना बहुत ही आवश्यक सिद्ध होती है। रेणु की कहानियाँ इसी लक्ष्य की पूर्तिकरण के लिए मार्गदर्शन देती हैं। कल्याणकारी भावना को संगुफित करने हेतु रेणु की कहानियाँ वर्तमान समय में भी अनुकूल वातावरण को सजाती हैं।

संदर्भ ग्रंथ –

  1. फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली – पृ. 193
  2. वही
  3. वही – पृ. 195
  4. सूरज पालीवाल – कथा विवेचन का आलोक – पृ. 70
  5. फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली – पृ. 25
  6. वही – पृ. 26
  7. वही – पृ. 27
  8. कुमार कृष्ण – कहानी के नए प्रतिमान – पृ. 100
डॉ. प्रिया ए.
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, के.जी. कॉलेज
पाम्पाडी, कोट्टयम, केरल

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