बाप तो उसे उसकी माँ की गोद में ही छोड़कर जाने किस जादूगरनी के साथ कहीं लापता हो गया था। एक माँ का ही सहारा था, वह भी परसों ही पुरानी टीबी की भेंट चढ़ गई थी। पूरी दुनिया में अब वह पूरी तरह से अकेला हो गया था और ठीक ऐसी ही स्थिति में मकान-मालिक ने भी उसके कान में धीरे-से ये बात डाल दी कि, ‘‘जितनी जल्दी हो दीपक, तुम ये मकान खाली कर देना…अगर इसी हफ्ते तुमने ये काम कर दिया तो तुम्हारे पिछले दोनों महीने के किराए को माफ कर दूँगा…।’’
इस असीम दुःख की घड़ी में मकान-किराए की माफी उसे जरा-सा भी सुकून नहीं दे सकी। हाँ, उसके अंतर्मन की पीड़ा को और घनीभूत कर दी।
लेकिन, उसने हिम्मत नहीं हारी। माँ जब तक रही, तब तक अपने कुल के दीपक को पढ़ाने-लिखाने और उसकी अच्छी परवरिश करने के लिए दूसरों के घरों में चौका-चूल्हा करती रही। वह अपनी तमाम गरीबी के बावजूद पढ़ाई-लिखाई के नाम पर उसे जेब-खर्च के लिए हर महीने तीन सौ रुपए दे दिया करती थी। दीपक उसमें से प्रत्येक महीने लगभग सौ रुपए बचा ही लेता था। अभी पिछले ही हफ्ते उसकी माँ को उसके मालिक से पूरे पाँच हजार रुपए मिले थे। उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। उसके पास अभी लगभग बीस हजार रुपए थे।
इस हफ्ते के अंत तक उसे इस मकान को खाली करना था। इसलिए वह जल्दी-से-जल्दी किसी ठौर की तलाश में लग गया। ठौर, माने नौकरी की तलाश। सबसे पहले वह उसी मालिक के पास गया, जहाँ उसकी माँ काम किया करती थी। लेकिन, उसे निराशा हाथ लगी। उसे उस घर के किसी काम का नहीं समझा गया। उस घर में मालिक की उसकी हमउम्र एक बेटी थी, इसलिए उसे और खतरा ही समझा गया।
लगातार काम की तलाश में भटकते रहनेवाले दीपक को जब चारों ओर से निराशा ही हाथ लगी तो उसने इस शहर को ही सदा के लिए छोड़ देने का मन बना लिया। उसने अपने घर के सारे सामान को औने-पौने दाम पर बेच दिया। इसके बदले में उसने चार-पाँच हजार रुपए का और जुगाड़ कर लिया।
उस रात वह सुबह तक लगभग जागता ही रह गया। सारी रात उसके दिमाग में अतीत और वर्तमान के बीच गुत्थम-गुत्थी चलती रही। अंततः उसने भविष्य की अपनी योजनाओं को लगभग मूर्त रूप दे दिया। रात-भर के आत्म-मंथन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि, ‘‘ओह, कल तक मैं कितनी गहरी नींद में सोता रहा…आज ही तो जागा हूँ।’’
इतना सोचते-सोचते जाने कब उसे गहरी नींद आ गई। जब उसकी आँखें खुली, तो उसने पाया कि कोई उसके दरवाजे को बुरी तरह से पीट रहा है। वह जल्दी से उठा और दरवाजे की ओर लपका। किवाड़ खोल कर उसने देखा कि दरवाजे पर अजय खड़ा है। अजय उसके बचपन का दोस्त था। वह भी कभी गरीबी का मारा था और इसी कारण दो पैसे कमाने के लिए अपने ममेरे भाई के साथ दिल्ली चला गया था।
‘‘अबे, अंदर आने के लिए बोलेगा, या…।’’
ये सुनकर दीपक की तंद्रा टूट गई और उसने थोड़ा झेंपते हुए उसे अंदर बुला लिया। अंदर का दृश्य देख कर अजय अचरज में पड़ गया। उसने दीपक से इसका कारण पूछा तो उसने एक ही बैठक में सारी कहानी सुना दी।
अजय ने भी अपना फैसला सुना दिया, ‘‘एक हफ्ते की छुट्टी में घर आया हूँ। अपनी बहन के लिए लड़का देखना है। वापसी के समय तुम भी मेरे साथ चलना। अब हम दोनों दिल्ली में ही नौकरी करेंगे और किसी छोकरी की भी तलाश कर लेंगे…।’’
इस पर दोनों मुस्कुरा पड़े।
अजय किसी ठेकेदार के मातहत विभिन्न घरों और दफ्तरों आदि में मारबल बिछाने-लगाने का काम करता था। उसकी टीम में अब दीपक भी शामिल हो गया था। उसकी जरूरतों ने उसे जल्द ही अपने काम में निपुण बना दिया। चूँकि सबों का वेतन मासिक के रूप में नहीं, बल्कि क्षेत्रफल के हिसाब से निर्धारित था इसलिए दीपक की कार्यकुशलता ने उसे जल्द ही आर्थिक दृष्टि से कुछ संपन्न बना दिया था।
अपने ठेकेदार एवं अपनी टीम से जुड़े रहने और प्राप्त सूचना के अनुसार अपने साईट पर जल्द ही पहुँच जाने के लिए दीपक ने एक साईकिल और एक एंड्राईड मोबाईल भी खरीद ली। अजय की मदद से उसने किराए की एक अलग से खोली भी ले ली।
अपनी खोली में दीपक ने अपनी जरूरत के लगभग सारे सामान भर लिए थे। दिन-भर जब वह टूट कर मेहनत करता, तो रात-भर उसे बड़ी गहरी नींद आती। लगभग छह महीने की कड़ी मेहनत और आंशिक सफलता के बाद दीपक को एक बार फिर जीवन में एकरसता सताने लगी। उसे अपनी माँ की याद आने लगी। काफी देर तक उसे याद करने के बाद जब उसकी आँखें छलछलाने लगीं, तब वह उसे अपनी हथेलियों से पोंछने लगा। काफी देर तक शून्य में एकटक ताकते रहने के बाद वह करवट बदल कर सो गया, कल सुबह फिर जागने के लिए…।
कल होकर वह दिन-भर लगभग बुझा-बुझा-सा रहा। अजय ने जब इसका कारण पूछा तो उसने उसे सब कुछ सही-सही बता दिया। अजय ने उसे डाँटते हुए कहा, ‘‘…इसीलिए मैंने तुझे अलग खोली लेने से मना किया था…अकेले में अकेलापन बड़ा डँसता है रे। दो जने साथ हों, तो सुख-दुःख सब बँट जाता है और तब सुख दोगुना हो जाता है जबकि दुःख दो भागों में बँट जाता है।’’
‘‘मगर तेरी खोली में पहले से तुम्हारे रूम-पार्टनर हैं, उसमें मेरी एंट्री उचित नहीं थी अजय। तुम मेरे दोस्त हो, तुम्हें बुरा नहीं लगेगा लेकिन उसे लग सकता है…और फिर मेरी तरह इस दुनिया में और भी लोग पूरी तरह से अकेले होंगे न? उनकी भी एकाकी जिंदगी कभी हँस कर, कभी रोकर और कभी सोकर कट ही रही होगी…।’’ दीपक ने कहा।
‘‘हाँ, कट ही रही होगी…लेकिन इतनी कीमती जिंदगी को ऐसे ही जाया कर देना भी तो समझदारी नहीं है न दीपक। जरा, अपना मोबाईल देना…।’’ और अजय ने दीपक को गूगल, यू ट्यूब, फेसबुक, वाट्सएप्प आदि की ट्रेनिंग देना शुरु कर दिया।
लगभग घंटे-भर के बाद ही दीपक के होठों पर गहरी मुस्कान थी। उसे लगने लगा कि अब उसे शायद उसका अकेलापन नहीं खलेगा…कब समय कट जाएगा, उसे पता भी नहीं चलेगा।
होने भी लगा यही। दिन-भर काम, शाम को घूम-टहल और रात में खाना आदि के बाद घंटे-दो घंटे सोशल मंचों पर इतराने-थिरकने के बाद गहरी नींद में सो जाना-उसकी डेली रूटीन में शामिल हो गया।
हफ्ते-दस दिन ही बीते होंगे कि फेसबुक पर उसके दोस्तों की संख्या पचास के आसपास पहुँच गई जबकि वाट्सएप्प पर चैटिंग के लिए उसकी ऊँगलियाँ कमाल की गति से थिरकने लगीं।

एक दिन उसने फेसबुक पर एक बड़ी ही खूबसूरत-सी लड़की को देखा तो उसके अंतर्मन में कोई नन्हा-सा बीज आकार लेने लगा। वह उसके प्रोफाइल में ताक-झाँक करने लगा – नाम: शून्या, काम: स्टडी, पेंटिंग, पोएट्री…और पता के बारे में पढ़ कर वह आह्लाद से भर गया। वह उसी के आसपास के इलाके की रहनेवाली थी।
काश, कि उसका मोबाईल नंबर भी होता…फिर भी, दीपक के मन में उसके प्रति आसक्ति बलवती होने लगी। उस दिन वह काफी रात तक उसी के बारे में सोचता रहा। लेकिन अगले ही पल अपने बारे में सोच कर वह फिर मायूस हो गया। उसे लगा कि गाँव के स्कूल से आई.एस-सी. पास ही सही, लेकिन एक दिहाड़ी मजदूर की औकात रख कर उसे ऐसी लड़कियों के बारे में कुछ अधिक नहीं सोचना चाहिए।
अगले दिन उसे कोई काम नहीं था। इसलिए फर्स्ट हाफ तक वह अपने दोस्तों के साथ घूमता-फिरता रहा और गपशप करता रहा। फिर एक होटल में सारे दोस्त खाना खाकर अपनी-अपनी खोली की ओर चले दिए।
आज हाथ में काफी समय होने के कारण दीपक ने पहले अपनी खोली की साफ-सफाई की और फिर अपने कुछ कपड़े भी साफ कर लिए। उसने कुछ देर तक आराम करने के बाद अजय की खोली की ओर जाने का मन बनाया। इसके लिए उसने सोचा कि अपनी इस योजना के बारे में अजय को पहले ही अवगत करा दूँ। यही सोच कर उसने हाथ में मोबाईल उठाया लेकिन उसकी ऊँगलियाँ अजय को फोन करने के बजाय फिर उस लड़की का प्रोफाइल खँगालने लगी और फिर वह उसके अपडेट को चेक करने लगा। ये देख कर उसका जी धक् से कर गया कि उसके फ्रेंडलिस्ट में आज उसका एक म्यूचुअल फ्रेंड भी आ गया है। उसका दोस्त अजय ही उसका म्यूचुअल फ्रेंड था।
एक क्षण के लिए तो दीपक मायूस-सा हो गया लेकिन अगले ही क्षण उसका साहस कुलाँचे मारने लगा कि वह भी अब उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज सकता है। उसने सोचा कि इस तरह के मामले में जल्दबाजी ठीक नहीं है। फ्रेंड रिक्वेस्ट इसे परसों भेजूँगा, कल मैं इसके कुछ पोस्ट पर लाईक और कमेंट करूँगा। लड़की पेंटिंग में रुचि रखती है। इसे पेंटिंग के माध्यम से आकर्षित करने का प्रयास करना होगा। आज मैं अपनी कुछ पेंटिंग बनाऊँगा और फिर उसे पोस्ट करूँगा।
दीपक का मस्तिष्क अब कुछ अलग तरह की योजनाएँ बनाने लगा। जल्द ही पास की दुकान से पेंटिंग्स का कुछ सामान ले आया। साइंस का स्टूडेंट रह चुका था, इसलिए वह चित्रकला में भी निपुण था। दो-तीन घंटे तक कुछ बनाते, मिटाते और फिर बनाते हुए उसने कई सुंदर रेखाचित्र सादे पन्नों पर उकेर दिए…फिर अपने मोबाईल के कैमरे से उसे खींच कर उसने अपने फेसबुक पर धड़ाधड़ पोस्ट करना शुरु कर दिया। लगातार चार चित्र पोस्ट करने के बाद दीपक पाँचवीं तस्वीर पर आकर रुक गया। उस तस्वीर को उसने एक फाईल में दबा कर अलमारी पर रख दिया।
उस चित्र को उसने काफी समय देकर बनाया था। उसके बारे में उसने ये सोच रखा था कि अगर कहीं वह मेरी फेसबुक-मित्र बन गई, तभी मैं इसे पोस्ट करूँगा…अन्यथा, ये यहीं पड़ा रहेगा।
…और कमाल हो गया। अगले दिन दीपक ने देखा कि उसके पोस्ट किए चारों चित्रों पर शून्या का ‘लाईक’ आ गया था। इसके साथ ही किसी पर ‘नाईस’, किसी पर ‘सुंदर’ तो किसी पर उसके ‘सुपर्ब’ के कमेंट भी आ चुके थे। दीपक ने उसके सारे ‘लाईक’ और ‘कमेंट’ का स्क्रीन शॉट निकाल लिए…इसके साथ ही उसने और देर न की और उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया। ऐसा करते हुए उसकी धड़कनें तीव्र से तीव्रतर हो गईं थीं। वह बार-बार आत्म-समीक्षा कर रहा था कि कहीं उसने जल्दबाजी तो नहीं कर दी। कुछ क्षण के बाद उसने अपनी फिक्र को झटक दिया। अब वह अपना हर काम छोड़ कर अपने मोबाईल के स्क्रीन को इस आस में घंटों निहारने लगा कि उसका भेजा हुआ रिक्वेस्ट जाने कब एक्सेप्ट हो जाए…
उसने उस रात न तो वाट्सएप्प चलाया, न यू ट्यूब पर गया और न ही किसी को काॅल किया। इस बीच उसके विभिन्न दोस्तों के और अजय के चार-पाँच काॅल आ चुके थे लेकिन उसने किसी को रिसीव नहीं किया। वह बस अपने मोबाईल के स्क्रीन को लगातार ताकता रहा…
उसे स्वयं ये लग रहा था कि वह पागल हो गया है। उसकी दिनचर्या अस्त-व्यस्त-सी हो गई थी। दूसरे शब्दों में कहें कि वह किसी साधक-सा हो गया। वह अब कोई भी कार्य करता लेकिन उसकी नजरें मोबाईल पर ही टिकी रहतीं। वह काम पर जाता, तो बार-बार अपनी जेब में रखे मोबाईल को ये सोच कर निकाल-निकाल कर देख लेता कि उसके द्वारा भेजे गए फ्रेंड रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट कर लेने का कोई नोटिफिकेशन तो नहीं आ गया।
लगातार तीन दिनों तक जब उसे रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लेने का किसी प्रकार का कोई संकेत नहीं मिला तो उसने एक और चित्र बना कर पोस्ट कर दिया। इस चित्र में उसने एक ऐसे लड़के का चित्र बनाया था, जो पूनम के चाँद के समक्ष याचक की तरह दोनों हथेलियाँ फैला कर बड़े ही दीन भाव से खड़ा था।
इस चित्र पर उसके मित्र अजय के साथ-साथ जाने-अनजाने कई लोगों का ‘लाईक’ और ‘नाईस’ का कमेंट मिला, लेकिन शून्या की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। दो दिन और बीत गए। अब दीपक पूरी तरह से निराश हो गया था।
अब वह अपने-आप को समझाते हुए इस पागलपन से दूर होने के लिए योजनाएँ बनाने लगा। उसने तय किया कि आज शाम अजय के यहाँ जाना है और अब तक की सारी शिकायतों को दूर कर देना है। पिछले कई दिनों से वह किसी से ढंग से मिल नहीं पाया था और न ही किसी से टेलीफोनिक तौर पर भी बतिया पाया था।
कुछ ही देर में वह अपने दोस्तों से मिलने के लिए खुद को तैयार करने लगा। पूरी तरह से तैयार होकर बाहर निकलने से पहले उसने एक आखिरी बार अपने मोबाईल पर नजर डाली तो उसका दिल खुशी से ‘धक्’ से करके रह गया। उसका रिक्वेस्ट एक्सेप्ट हो गया था…तभी उसकी नजर मैसेज बॉक्स के नोटिफिकेशन पर गई, वहाँ उसे एक मैसेज के होने का संकेत मिल रहा था। उसने मैसेज बॉक्स खोला तो उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं।
उसने देखा कि उसके याचक के श्वेत-श्याम चित्र के बदले में शून्या ने पूरा एक रंगीन चित्र बना कर भेजा था। वह चित्र दीपक के चित्र का हू-ब-हू नकल था, फर्क केवल इतना था कि शून्या ने चाँद की जगह एक खूबसूरत-सी चाँदनी को बना दिया था, जो अपने एक मुस्कुराते हुए-से प्रतिबिंब को याचक की दोनों हथेलियों पर अपने दोनों हाथों से रख रही थी।
याचक के दोनों हाथों पर चाँदनी के द्वारा अपने प्रतिबिंब के रखे जाने और फेसबुक पर उसके रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट कर लिए जाने को दीपक ने जोड़ कर देखा तो उसे लगने लगा कि उसके श्वेत-श्याम चित्र के बदले में शून्या ने रंगीन चित्र नहीं भेजा है बल्कि उसके श्वेत-श्याम जीवन को इंद्रधनुशी रंगों से भर दिया है। ऐसा सोच-सोच कर वह खुद को खुशकिस्मत समझने लगा। फेसबुक पर उसके फ्रेंड-लिस्ट में शून्या एकमात्र गर्लफ्रेंड थी, बाकी उसके ब्वायफ्रेंड ही थे।
अब उसे ये लगने लगा कि फेसबुक की ही नहीं बल्कि उसकी खोली की शून्यता को भी शून्या ने अपनी उपस्थिति से भर दिया। अब वह फेसबुक पर बहुत सोच-समझ कर कोई पोस्ट करता कि कहीं किसी बात पर वह रूठ कर उसे अनफ्रेंड न कर दे।
शून्या से फेसबुक-मात्र की मित्रता से दीपक के जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन आने लगा। अब अपने काम से वापस लौटने के बाद वह दोस्तों को तो कम समय देने लगा लेकिन चित्रकारी में पूरा ध्यान देने लगा। आज उसने उस पाँचवें चित्र में रंग भरना शुरु कर दिया, जिसे उसने ये सोच कर बनाया था कि शून्या से मित्रता के बाद ही उसे पोस्ट करना है। उसने वैसा ही किया। उसमें पूरी तन्मयता से रंग भरने के बाद उसे पोस्ट कर दिया। इस चित्र में एक श्वेत-श्याम लड़का अपने गले में हल्के सुनहले रंग का एक हार पहने हुए था और उसके लॉकेट की जगह एक वृत था। उस वृत के बीच में हल्के लाल रंग में ‘शून्य’ लिखा हुआ था।
अभी दो ही घंटे बीते होंगे कि दीपक के मैसेज बॉक्स में शून्या ने उसके बनाए चित्र को उसे वापस पोस्ट कर दिया। अपने चित्र को वापस देख कर दीपक थोड़ा आषंकित-सा हो गया। उसे लगा कि कहीं उसके इस दुस्साहस से शून्या नाराज तो नहीं हो गई। फिर भी, उसने अपने चित्र को पूरे स्क्रीन पर बड़ा करके एक बार फिर से देखा। उसने देखा कि उस चित्र के ठीक नीचे कोने में एक छोटी-सी कविता टाईप की हुई थी। लिखा हुआ था:
आपने रंगहीन चित्र भेजा
मैंने उसे रंगीन बना दिया
आपने मगर मुझ शून्या से
क्यों आकार हटा दिया…?

यों आकार हटा कर आपने
फिर भी बेकार नहीं किया
मैं शून्य ही हूँ, जो निज
स्वप्न कभी साकार नहीं किया

इस बार प्रत्युत्तर में दीपक ने कोई चित्र नहीं भेजा बल्कि उसके मैसेज बॉक्स में ही उसने भी एक कविता-सी ही लिखने का प्रयास किया:
पूरा ‘शून्या’ लिखते समय
सच कहूँ, मैं डर गया था
और चित्र भेजते वक्त मेरा
दिल डर से भर गया था
लगा था, कहीं आप मेरे
दुस्साहस से नाराज न हो जाएँ
कल जाने क्या हो, लेकिन
मुझसे आप आज न खो जाएँ
शून्या ने लिखा:
शून्य को पाना क्या…?
और उसका खोना क्या?
उसके खो जाने पर हँसना
और फिर रोना क्या…?
दीपक महसूस कर रहा था कि और कुछ हो या न हो लेकिन शून्या से इस आभासी ही सही, मित्रता के कारण उसकी चित्रकला के साथ-साथ जाने कैसे अंतर्मन की काव्य-कला एवं सटीक प्रत्युत्तर देने की वाक्-कला का उसे अच्छा अभ्यास हो गया है। हालाँकि, इस बार उसे बड़ी माथापच्ची के बाद भी कोई काव्यात्मक प्रत्युत्तर समझ में नहीं आ सका। फलतः उसने गद्यात्मक उत्तर देना ही ठीक समझा।
उसने लिखा, ‘‘शून्या जी, मेरे चित्र मेरे प्रतिबिंब थे। मेरा संपूर्ण जीवन कल तक सचमुच श्वेत-श्याम ही था…लेकिन, आपसे मेरी मित्रता क्या हुई, सचमुच मेरे जीवन में रंग भर गया। आपसे हुई मित्रता के कारण ही अब मैं चित्रकार हो गया, कवि हो गया, फिलासफर हो गया…इतना ही नहीं, मेरी दृष्टि और मेरा दृष्टिकोण अब बदल गया है। इस तरह मुझमें आशा की किरण भर कर आप स्वयं निराशा-भरी बातें करती हैं, तो मेरा मन आहत हो जाता है…मुझे विष्वास है कि आज के बाद आप ऐसी बातें नहीं करेंगी…।’’
इस पर शून्या का कोई जवाब नहीं आया।
दीपक ने फिर लिखा, ‘‘क्यों, क्या हुआ…आपने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया?’’
शून्या के तरफ से मोबाईल का पटल फिर भी काफी देर तक शून्य से भरा रहा।
इस बार दीपक ने साधिकार लिखा, ‘‘शून्या जी, आपको कोई जवाब देना है या नहीं…?’’
‘‘नहीं’’ इस बार शून्या का तुरंत जवाब आ गया।
‘‘क्यों’’ दीपक ने पूछा।
‘‘…क्योंकि, मैं बोल नहीं सकती।’’
‘‘लेकिन, यहाँ बोलना कहाँ है…लिखना है। वह भी अपनी ऊँगलियों को मोबाईल के बटन पर केवल नचाना है…और आपसे इतना भी नहीं हो पा रहा है?’’ दीपक ने उसे उत्तर देने के लिए उकसाने की गरज से कहा।
‘‘दीपक जी, मुझसे यही नहीं हो पा रहा है। मोबाईल पर ऊँगलियों को नचाने की बात छोड़िए, मुझे आपको और नचाना नहीं आ पा रहा है…मैं…मैं बोल नहीं सकती दीपक जी…।’’
और फिर पटल पर काफी देर तक चुप्पी रही। दीपक की आँखें बार-बार शून्या की पंक्तियों से वाक्यार्थ, काव्यार्थ और भावार्थ निकालने की कोशिश कर रही थी लेकिन हर बार वह असफल हो जा रही थी।
उससे इतनी बातें हो जाने के बाद दीपक के मन के तार आपस में उलझ गए-से जान पड़ रहे थे। वह उसके नाम को बार-बार बुदबुदा रहा था और फिर आज की पूरी चैटिंग की समीक्षा में खुद को उलझा रहा था लेकिन उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उस रात वह बहुत अस्त-व्यस्त-सा किसी तरह सो पाया।
सुबह जागा और किसी तरह तैयार होकर अपने साईट पर जाने के लिए निकल गया। आज दिन-भर उसने मोबाईल को हाथ नहीं लगाया। लेकिन, दोपहर के भोजन के ठीक तुरंत बाद अजय का फोन आ गया, ‘‘साले, कहाँ गायब रहता है बे। अपने अजय को भूल गया क्या? आज शाम को वहीं फुच्चन के ढाबे पर मिलो, तब तेरी खबर लेते हैं…आज जरूर मिलना है।’’
लेकिन, वह शाम को अजय से नहीं मिल पाया। उसका मन कुछ बोझिल-सा लग रहा था। आज वह खाना भी बाहर नहीं खा पाया बल्कि पैक करवा कर खोली में ही ले आया। हालाँकि, उसका मन बार-बार फेसबुक खोलने को हो रहा था लेकिन वह अपने मन को बार-बार मार रहा था। आज बड़ी दिनों के बाद वह कान में हेडफोन डाल कर कुछ फिल्मी गजलें सुनता रहा…और कुछ देर के बाद निद्रामग्न हो गया।
अगले दिन वह काम करके वापस लौटने के बाद अपनी खोली के बजाय सीधे पार्क की ओर चल दिया। आज उसे बिल्कुल षांत और एकांत लेकिन किसी खुली जगह की जरूरत महसूस हो रही थी। रास्ते में उसने चित्रकारी का कुछ सामान खरीद लिया। उसने पूरा मन बना लिया था कि आज बादलों की ओट में छिपे एक चाँद की तस्वीर बनानी है, जिसे एक लड़का अपने हाथ में पानी से भरे थाल को लेकर बैठा है और उसमें चाँद की परछाईं को देख कर आसमान के चाँद को पा लेने का भ्रम पाल रखा है।
अचानक उसके अंतर्मन में इस दृश्य से जुड़ी एक कविता कुलबुलाने लगी। अपने मन में अंकुरित कविता उससे कहीं विस्मृत नहीं हो जाए, ये सोच कर उसने अपने कदम जल्दी-जल्दी पार्क की ओर बढ़ा दिए।
पार्क की भीड़ से दूर एक झुरमुट से सटे सिमेंट की एक कुर्सी पर वह पसर गया और अपने मोबाईल के मैसेज बॉक्स में अपनी कविता को एक शीर्षक देकर टाईप करने लगा:
आखिरी उम्मीद
थाल में पानी लिया
चाँद की परछाई देखी

सोचा,
मैंने चाँद को पा लिया
उसे छूने की कोशिश की
पानी में लहरें उठीं

और,
मेरा चाँद कहीं खो गया

मैंने लहरों के
षांत होने की प्रतीक्षा की
तभी ठोकर लगी

और,
चाँद मिलने की मेरी
आखिरी उम्मीद भी
कहीं खो गई…
दीपक ने अपनी कविता में अभी आखिरी डॉट ही दिया था कि उसके कानों में उस झुरमुट से किसी हलचल की आवाज सुनाई दी। उसने तुरंत पीछे मुड़ कर देखा…वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया।
सामने शून्या थी-थोड़ी अस्त-व्यस्त और आक्रामक। साथ में, उसका दोस्त अजय भी था-थोड़ा अव्यवस्थित, क्रोधित और क्षुब्ध-सा। उन दोनों ने भी दीपक को देख लिया था। अजय थोड़ा लज्जित हुआ जबकि शून्या थोड़ी आशान्वित। वह शायद दीपक को पहचान चुकी थी और इसीलिए थोड़ी हर्षमिश्रित बदहवासी से दीपक की ओर लपकी।
दीपक उस माजरे को समझने की कोशिश कर रहा था। तभी शून्या उसके पास आकर कातर-भाव से उससे लिपट गई, जैसे वह उससे सुरक्षा की माँग कर रही हो।
अजय थोड़ा झेंपता हुआ-सा दीपक से कहने लगा, ‘‘अ…देखो, ये मेरी गर्लफ्रेंड है और हमदोनों यहाँ लगभग रोज ही मिलते हैं…आज किसी बात पर हमारा झगड़ा हो गया…बस।’’
इस बात को सुन कर शून्या और भी आक्रामक हो गई और उसके पास पहुँच कर उसने उसे एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। फिर तुरंत ही उसने दीपक की जेब से उसकी कलम निकाल ली और उसके हाथ से कागज झटक कर जल्दी-जल्दी कुछ लिखने लगी, ‘‘दीपक जी, मैं इसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं…बस, फेसबुक फ्रेंड हूँ। आज से पहले हम कभी नहीं मिले थे, आज पहली बार मिली हूँ। इससे मेरी कभी-कभी चैटिंग होती थी। आज इसने मुझे यहाँ पर मिलने के लिए बुलाया था…मैं यहाँ आई और ये मेरी वाक्षून्यता का फायदा उठा कर मेरे साथ बदतमीजी करने लगा…।’’
वह लिखती जा रही थी और रोती जा रही थी। फिर उसने जो कुछ बताया, उससे दीपक के मन मे अजय के प्रति घनघोर घृणा का भाव भर गया जबकि उस शून्या के प्रति अगाध प्रेम का भाव उमड़ आया।
शून्या ने बताया कि वह दूसरों के घरों में काम करनेवाली एक विधवा महिला की महत्त्वाकांक्षी बेटी है, जो एक छोटे-से प्राईवेट स्कूल में कंप्यूटर-टाईपिस्ट का काम करती है और खुद की पढ़ाई भी करती है।
उसने ये भी बताया कि अब तक बने कुल बत्तीस फेसबुक फ्रेण्ड्स में से वह केवल एक सहेली के अलावे इसी अजय और दीपक के साथ चैटिंग करती थी। अजय से मात्र दोस्ती थी जबकि दीपक के प्रति वह मन-ही-मन आसक्त होने लगी थी। ये आसक्ति और चरम पर न पहुँच जाए और उस चरमावस्था पर पहुँच कर दीपक को ये बात जान कर ठेस न पहुँच जाए कि शून्या वास्तव में वाक्षून्य है…शून्या, दीपक से दूरी बनाने लगी।
शून्या सारी बातें कागज पर उतारती रही और दीपक के दिल में उतरती रही। दीपक ने उस कागज पर अपना हाथ रख दिया और उसे और आगे लिखने से रोक दिया।
वह उससे कहने लगा, ‘‘शून्या जी, इस अजय को आप थोड़ा-सा जानती हैं, लेकिन मैं इसे आपसे बहुत अधिक जानता हूँ क्योंकि ये मेरा दोस्त है। मैं इस पूरी दुनिया में बिल्कुल अकेला हूँ…मैं अनाथ और असहाय था, तब इस अजय ने ही मुझे सहारा देकर किसी लायक बनाया। यही कारण है कि आज जहाँ मैं इसके इस हरकत से निहायत ही नफरत करता हूँ, वहीं इसके नाम से और इसके वजूद से असीम प्यार भी करता हूँ…इसके साथ ही, ये भी सही है कि मेरे नीरस और बंजर जीवन में आपके प्रति आसक्ति ने मुझे जीने की एक वजह दे दी। आप मेरी प्रेरणा हैं। अब मैं भी चाहता हूँ कि मैं भी कोई ढंग का काम करूँ और खुद की आगे की पढ़ाई करूँ…आपसे मित्रता क्या हुई मेरे जीवन की एकरसता में सरसता का संचार हो गया। शून्या जी, मैं अपने दोस्त से भी प्यार करता हूँ और आपसे भी प्यार करता हूँ…बहुत प्यार…।’’
शून्या ने फिर लिखना शुरु कर दिया, ‘‘लेकिन दीपक जी, मैं आपके प्यार के लायक नहीं हूँ…मैं एक विधवा और लाचार महिला की गँूगी बेटी हूँ।’’
दीपक ने उसके हाथ से कागज छीन लिया और उसे टुकड़े-टुकड़े में फाड़ कर शून्या से मुखातिब हो गया, ‘‘शून्या जी, मेरी भी माँ दूसरों के घरों में काम करती थी…आपकी माँ तो अभी जीवित हैं, मेरी तो वो भी नहीं है। और रही बात लायक होने की, तो मैंने कहीं पढ़ा था कि यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते…इसलिए अब सारी बातें समाप्त…मुझे लगता है कि अब हमें तेरी माँ से मिल लेना चाहिए और अपना एक घर बना और बसा लेना चाहिए, जहाँ तुम अपनी किताबें पढ़ती रहना और मैं भी पढ़ता रहूँगा तेरा चेहरा, ये जो तेरा फेस-बुक है…। और, मैं जो तुम्हें कहूँ-शून्या जी, तो तुम मुझे कह लेना-सुनो जी…। ’’
‘आप’ से ‘तुम’ के रूप में अपने लिए संबोधन पाकर और भविष्य की रंगीन योजनाओं को सुन कर शून्या शरमाती हुई दीपक से लिपट गई।
दीपक अजय से मुखातिब हुआ, ‘‘अजय, एक बार मुझे सहारा देकर तू ने मेरे माँ-बाप की जगह ले ली थी…आज भी मैं तुझे अपना गार्जियन ही समझता हूँ…मैं तुझे भी नहीं छोड़ सकता अजय…अब, तुझे भी कुछ कहना है तो जल्दी से कह दे…या फिर रहने दे…।’’
अजय स्वयं को बड़ा लज्जित-सा महसूस कर रहा था। वह दीपक और शून्या के सिर पर बड़े प्यार से हाथ रखते हुए बस इतना ही कहा पाया, ‘‘मेरी शुभकामनाएँ तुम दोनों के साथ है…।’’

डॉ. गोपाल निर्दोश
‘सी. पी. निवास’, मालगोदाम,
नवादा,बिहार

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