संस्कृत ,हिन्दी,मराठी ,तमिल ,पंजाबी ,अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं पर समानाधिकार रखने वाले रत्नाकर नराले जी का जन्म महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर में हुआ था । आई.आई.टी.खड़कपुर से अपनी इंजीनियरिंग की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात  स्कालरशिप के तहत ये कनाडा आ गए और रोज़गार मिलने के कारण स्थाई रूप से यहीं के निवासी हो गए । अभियांत्रिकी से संबद्ध नरालेजी की संस्कृत , संस्कृति ,गीता और संगीत क्षेत्र में गहन अभिरुचि है और इसी कारण अपने ज्ञान ,अनुभव और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण इन्हें पुस्तक भारतीजैसी संस्था की स्थापना  करने की प्रेरणा प्राप्त हुई । पुस्तक भारती भारतीय सांस्कृतिक रिसर्च जनरल है,जिसमें कला,संगीत ,भाषा और संस्कृति विषयक शोध कार्य /लेख प्रकाशित किये जाते हैं ।  अपनी संस्था के माध्यम से नराले जी ने हिन्दी और संस्कृत जैसी वैज्ञानिक  भाषा को अधुनातन तकनीक से समृद्ध और समुन्नत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है । भारतीय और विदेशी विद्यार्थियों को संस्कृत सिखाने के उद्देश्य से लिखी गई संस्कृत्त प्राइमर और संस्कृत फॉर इंग्लिश स्पीकिंग पीपल जैसी पुस्तकें बहुत लोकप्रिय और उपादेय सिद्ध हुई हैं । इसी प्रकार गीता ,भारतीय दर्शन और संगीत से संबंधित उनके ग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं । भारत,भारतीयता और संस्कृति के वैश्वीकरण में उल्लेखनीय भूमिका दे रहे रत्नाकर नराले को विदेश मंत्रालय,भारत सरकार द्वारा विश्व हिन्दी सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है ।

  1. पिछले वर्ष मॉरिशस में हुए ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में विश्व हिंदी सम्मान से सम्मानित होने पर आपको हार्दिक बधाई।सबसे पहले आप  पाठकों को ये बताएं कि महाराष्ट्र में जन्म और समस्त शिक्षा-दीक्षा भारत में होने के बावजूद आपका कनाडा आकर बसना किन परिस्थितियों के कारण हुआ और किन कारणों से आपने वहां अपनी स्थायी प्रवास बना लिया ।

रत्नाकर नराले :  नूतन जी , बहुत- बहुत धन्यवाद ,मैं आपके माध्यम से भारत सरकार को धन्यवाद देना चाहता हूँ  कि मुझे इस सम्मान के योग्य समझा गया । मैं आपको और अपने  सभी मित्रों को भी अपने प्रति शुभकामनाओं के लिए आभार व्यक्त करता हूँ । यदि आपकी अनुमति हो,तो ,इस प्रश्न का उत्तर मैं संगीतमय  छंदोबद्ध कविता के माध्यम से देना चाहूंगा  ।

जी अवश्य

रत्नाकर नराले :  मेरा मानना है कि—

    अश्वत्थस्य परं दिव्यं बीजं सूक्ष्ममणोरिवम् ।पतितं यत्रकुत्रापि महावृक्षस्य कारणम् ।।

     पद्मपुष्पं प्रफुल्लति पंकजं यच्च नीरजं ।माया गुणप्रभावस्य तमसोऽपि चकाश्यते ।।

अतः

सूक्ष्म बीज अश्वत्थ का, जिसमें दिव्य कमाल । गिरा जहाँ, बढ़ कर वहीं, बनता वृक्ष विशाल ।।

पुष्प फूलता कमल का, कीचड़ हो या नीर ।    सात्त्विक गुण के ओज से, पार होत कर तीर ।।

माता ने हमको कहा, रहो कहीं भी लाल! ।     संस्कृत-संस्कृति  का रहे, तुमको सदा खयाल ।।

अर्थार्जन करने पढ़ो, यथा बतावे काल ।        संस्कृत-संस्कृति  में रखो, रुचि तुम अटल त्रिकाल ।।

जहाँ बसो, जो भी करो, यह ना जाना भूल ।    उज्ज्वल संस्कृति  भारती, संस्कृत जिसका मूल ।।

राष्ट्र, राष्ट्रभाषा सदा, रहे तुम्हें आदर्श ।    और कृष्ण चिंतन तुम्हें, दे हिरदय में हर्ष ।।

माता ने कुछ सोच कर, बोया था जो बीज।  वही पनप कर बन गया, जीवन सार्थक चीज।।

हम जब छोटे बाल थे, पिता सुनाते गीत।   प्रति दिन सिखलाते हमें, संस्कृत औ संगीत ।।

छंद-राग लेते सदा, हृदय हमारा जीत ।     तभी हमें संगीत से, अरु संस्कृत से प्रीत ।।

सुर मधु तेरी वेणु का, जबसे सुना अनूप।    आस दरस की है लगी, सपनन आ सुर भूप ।।

             चूँकि मैं नागपुर से आता हूँ, मराठी के साथ-साथ हिंदी भी हमारी बोलचाल की भाषा रही। 1956 तक, जब मैं चौदह साल का था, नागपुर मध्यप्रदेश की राजधानी होती थी और हिंदी हमारी बोलचाल की तथा सरकारी भाषा थी। 1956 में Language Reorganization Act आ गया और भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बन गया तत्पश्चात नागपुर महाराष्ट्र में समाविष्ट होकर महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी बन गया। मराठी प्रांतीय भाषा बन गई, फिर भी नागपुर में बोलचाल की भाषा हिंदी ही रही । संस्कृत, मराठी, हिंदी में अभ्यस्त होने से अन्य भाषाओं में भी रुचि बढ़ गई। आई.आई.टी. खड़गपुर में सहभागियों के साथ मुझे पंजाबी, तमिल, गुजराती और उर्दू का ज्ञान होगया । बंगाली तो लिखनी, पढ़नी और बोलनी बहुत अच्छी तरह से आ गई । आई.आई.टी. में फोर्ट्रान और कोबल कंप्यूटर की भाषाओं पर भी प्रभुत्व हो गया था। परिणाम यह हुआ कि Fortran के ज्ञान के कारण मुझे कनाडा की Control Data नामक संस्था से Computer Engneering की डेढ़ साल की Scholarship मिल गई और मैं कनाडा आ गया।

  1. संस्कृत और संगीत के प्रति आपकी रूचि कैसे जागृत हुई ? क्या यह सहज रुझान था, या फिर आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण यह रुझान गहन हुआ ?

रत्नाकर नराले :  जैसी कि माता-पिता ने हमें सीख दी थी, विद्यालयीन-विश्वविद्यालयीन पढ़ाई करते समय भी हमने साथ -साथ व्यक्तिगत संस्कृताभ्यास की परिपाटी कभी भी नहीं छोड़ी। संस्कृत जब हृदय में बस गई तब संस्कृत का अतुलनीय व्याकरण और छंदशास्त्र के प्रति  रुझान ये दो खास विशेषताएँ हमें सर्वाधिक प्रभावित करने लगी। एक तरफ संस्कृत व्याकरण की गहनता, उसके गणितीय एवं रासायनिक गुणधर्म, उसकी असीम शब्दसंपदा और दूसरी तरफ अनुष्टुप, वसंततिलका, शिखरिणी, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित, भुजंगप्रयात आदि छंदों की मनोरमता और असावरी, खमाज, मालकोस, पीलू, काफी, यमन, देस, दरबारी, भीमपलासी, भैरवी, वृंदावनी आदि मनोरंजक रागों की मधुरता हमें प्रभावित करती रही। और संगीत और संस्कृत के प्रति हमारा अनुराग निरंतर गहरा होता गया ।

  1. कनाडा में रहकर भी आपने संस्कृत के प्रति अपनी रुचि और लगाव को कैसे बनाए रखा ? इस क्षेत्र में अपने कुछ उल्लेखनीय कार्य हमारे साथ साझा कीजिये ।

रत्नाकर नराले :   कनाडा निवास में, जहाँ मैं रहता था वहाँ संस्कृत और हिंदी की कक्षाएँ चलाने का प्रयास किया। हिंदी सीखने वाले तो कम मगर संस्कृत सीखने के लिए कई गोरे लोग उत्सुक थे। संस्कृत, गीता और संगीत की कक्षाएँ अच्छी तरह से चल पड़ी। सफलता के अति निकट होकर अनजाने में ही मैं यहाँ स्थायी होने लगा।

जैसा मैंने आपको बताया था कि मुझे कनाडा की Control Data नामक संस्था से Computer Engneering की डेढ़ साल की छात्रवृत्ति मिली थी। छात्रवृत्ति के बाद सौभाग्यवश मुझे उसी संस्था में Part time job मिल गई। फिर Canadian National Railways में permanant job मिली और एक साल के बाद Honeywell Computers में Field Engineer की, जहाँ मैं 15 साल रत रहा। उसके उपरान्त मैंने 1991 मेंने वह भी संस्था छोड़ कर अपने कंप्यूटर्स बनाने की संस्था खड़ी करके गैरसरकारी स्वतंत्र काम आरंभ कर दिया ताकि मैं वहीं संस्कृत-हिंदी-गीता-संगीत की कक्षाएँ बड़े पैमाने पर चला सकूँ। इस गैरसरकारी संस्था का नाम आगे चल कर सरकारी पंजीकृत रूप में पुस्तक भारती (Book-India) हो गया। इस पवित्र कार्य में सबसे अहम मोड़ अगले वर्ष मिला जब मुझे (अब स्वर्गीय) श्री जगदीश चंद्र शारदा शास्त्री जी ने 1993 में मुझे हिंदू इंस्टिट्यूट का प्रधानाचार्य और संस्कृत-हिंदी-गीता-संगीत शिक्षा का काम सौंप दिया। मैं दो संस्थाएँ चलाने लगा। इससे संबंधित  अब थोड़ा सा पूर्ववृत्तांत देखिए।

  1969 में गैर-सरकारी रूप में हमने प्रवासी-भारतीय और मारीशस, ट्रिनीडाड, टोबैगो, गुयाना, सुरीनाम, फिजी आदि के भारतीय मूल के मगर अंग्रेज़ी-भाषी डायस्पोरा लोगों में भारतीय दूत बन कर हिन्दी-संस्कृत व भारतीय संस्कृति प्रसारित करने का बीड़ा उठाया।  उस ज़माने में कंप्यूटर वगैरह अस्तित्व में न होने के कारण हम हस्तलिखित या टंकलिखित उपलब्ध अंग्रेज़ी टाईप राइटर पर ही रोमन-अंग्रेज़ी माध्यम में शैक्षणिक सामग्री की साइक्लेस्टाइल या ब्लूप्रिंट माध्यम से अच्छी पुस्तकें स्वयं हाथ ही से बना कर हिन्दी, संस्कृत व गीता की कक्षाएँ चलाने लगे। फिर झेराक्स तंत्र आ गया और कार्य गति उन्नत हो गई। हमारी पुस्तकें लोकप्रिय होने लगी। फिर भी टाईप राइटर ही एकमेव साधन उपलब्ध होने से काम सीमित और असंतोष जनक होता था मगर कोई पर्याय नहीं था।

  धीरे धीरे आई।बी।एम। के कंप्यूटर्स, डेटा-प्रोसेसिंग और सी।डी। रॉम उपलब्ध हुई और कार्यक्षमता को सीमा न रही। हमने पब्लिशिंग-कॉपीराइट और अन्य सेवाएँ आरंभ करके हिन्दी-संस्कृत डेटा-प्रॉसेसिंग पर्सनल कंप्यूटर्स बनाने शुरू कर दिये। हिन्दी-संस्कृत-मराठी, तमिल, पंजाबी, उर्दू के सुंदर फॉण्ट बना कर, उन भाषाओं के अनुपम चार्ट  बना कर काम को प्रभावशाली एवं प्रेक्षणीय कर दिया और हिन्दी के साथ संस्कृत व संस्कृति का प्रचार तेज़ कर दिया। हमारे अभिकल्पित फोनेटिकली कलर-कोडेड चार्टस् प्राथमिक छात्रों के लिए अमूल्य देन हो गई। कई क्रियाशील संस्थाओं ने इन चार्टस् के बड़े बड़े पोस्टर बनवा कर हिंदी तथा संस्कृत के प्रारंभिक विद्यार्थियों के लिए कक्षाओं में लगा दिए और उनका लाभ उठाने लगे। और फिर हमारी हिंदी संभाषण की सी।ड़ी। निकली जिसने हिंदी शिक्षा विभाग में चार चाँद लगा दिये।

 

गंभीरता व गहराई से पारिष्कृत हिंदी और संस्कृत सीखने वालों के लिए इनसे अच्छा तकनिकी साधन और कोई नहीं था न है। ये केवल रंगीन चार्टस् मात्र नहीं बल्कि व्याकरणबद्ध फोनेटिक पथ-दर्शक गुरु थे। ये अनमोल साधन मूल स्वर, संयुक्त स्वर, अर्ध व्यंजन, मृदु व्यंजन, कठोर व्यंजन, अनुनासिक व्यंजन, महाप्राण व्यंजन, वर्ग व्यंजन, अवर्ग व्यंजन, संयुक्त व्यंजन, व्यंजनाकार वर्गीकरण वर्णोच्चार के इंद्रियस्थान, आदि का स्पष्टीकरण व विज्ञान, भिन्न भिन्न रंगों के माध्यम से विद्यार्थियों को दिखाते हैं, सिखाते हैं। इनकी प्रशंसा विश्व के चारों कोनों से होने लगी और पुस्तक भारती का नाम कनाडा से विश्व में श्रुत हो गया।

इसके अतिरिक्त हमारे द्वारा बनाए हुए “सरस्वती” और “रत्नाकर” नामक देवनागरी, हिंदी, संस्कृत, मराठी, (तमिळ, उर्दू और गुरुमुखी) टी।टी।एफ फॉण्टस् इतने सुंदर और आसान थे कि कनाडा के कई अखबार, मीडिया संस्थाएँ, लेखक  और हमारी सभी पुस्तकें इन्हीं उत्कृष्ट फॉण्टस् का प्रयोग करने लगे। हमारे फॉण्टस् सर्वश्रेष्ठ होने का कारण था, बनाते समय हमने यह पूर्णरूप से ध्यान में रखा कि, फॉण्ट के अक्षर, अनुस्वार, विरामादि विधान और मात्रा के चिह्न छोटे आकार में भी स्पष्ट, साफ और लिखने-पढ़ने में आसान होना चाहिए। प्रत्येक अक्षर का आकार सुंदर, कलायुक्त और शानदार होना आवश्यक है। विशेष रूप से, मात्राएँ साफ़ सुथरी और अलंकृत होनी चाहिए। फॉण्ट न बहुत गाढ़ा, न अधिक पतला हो। अतः हमारे रत्नाकर देवनागरी फॉण्ट के बारे में कॅलगरी से Sunny Bass  जी लिखते हैं, “Hello Ratnakarji, the your font is really nice and clear, probably the nicest one I have ever seen।”  परिणामतः, पद्मभूषण डॉ। मोटूरी सत्यनारायण पुरस्कार के सर्वप्रथम निजेता प्रो। हरिशंकर आदेश की संगीत पुस्तकों के लिए आदेश फॉण्ट, हिंदी टाइम्स मीडिया के लिए राकेश फॉण्ट, हिंदी एब्राड के लिए गणेश फॉण्ट, हिंदी चेतना के लिए एसटी फॉण्ट, हिंदू इंस्टीट्यूट के लिए शारदा फॉण्ट, पं। रूडी के लिए कनाडा फॉण्ट, साज-ओ-आवाज अकादमी के लिए संगीत फॉण्ट, आदि बनाकर कई संस्थाओं को संस्कृति प्रसार की विशेष सेवाएँ प्रदान कीं ।

फिर 1989 में वर्ल्ड-वाइड-वेब इंटरनेट आगया। हमारी वेब साइट बन गई और उस पर हिन्दी-संस्कृत के प्रचार-प्रसार हेतु विना मूल्य आन-लाइन शिक्षा की विशेष सुविधा की। विश्व के सभी हिन्दी-संस्कृत प्रेमियों के लिये निःशुल्क पाठ उपलब्ध किये गये। इस अहम सुविधा का लाभ दुनिया की सभी दिशाओं से अनगिनत लोग उठाने लगे । इस कदम से हमारा नाम और काम अन्यान्य देशों में फैल गया।

10 जनवरी 1991 पर पुस्तक भारती को कनाडा का सरकारी पंजीकरण  प्राप्त हुआ। हिंदी के व्याकरण, वाक्य विन्यास, देवनागरी वर्ण विज्ञान, गीता ज्ञान आदि अहम विषयों पर पुस्तक भारती का अनूठा संशोधन हिंदी(संस्कृत) स्कालर्स और अध्यापकों के लिए दिलचस्प तथा चिंतनीय सामग्री है, जिसकी पाठकों ने भूरि भूरि सराहना की है। जनवरी 10, 2006 में पुस्तक भारती को Library and Archives of Govt. of Canada की ओर से ISBN पंजीकरण मिल गया और ISBN इशू करने का अधिकार प्राप्त हो गया। तब से पुस्तक भारती भारतीय संस्कृति के विश्व प्रचार व प्रसार के लिये संशोधन आधारित उत्तमोत्तम  साहित्य, बिना किसी शोर-शराबे के, सेवावृत्ति से प्रकाशित कर रही है। आज तक पुस्तक भारती ने लगभग 60 पुस्तकें प्रकाशित की  हैं। इस पावन कार्य में लगे पुस्तक भारती ने अब तक भारतीय संस्कृति की हजारों पुस्तकें बेच कर अनगिनत प्रवासी-आप्रवासी जनों को भारतीय संस्कृति के ज्ञान से सन्नद्ध किया है।

  1. कनाडा में रहकर आपने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए किस तरह से अपना योगदान दिया ?

रत्नाकर नराले :  कनाडा में गत 50 वर्षों से रहते हुए विश्व स्तर पर संस्कृत भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार कार्य में समर्पित प्रवासी भारतीय साहित्यकार बनकर हम अंग्रेज़ी भाषा व पाश्चात्य संस्कृति के विश्वव्यापी प्रसार को टक्कर देने के लिए कनाडा से संस्कृत के विश्व में प्रभावी लेखन-प्रकाशन व प्रचार-विस्तार कर रहे हैं। कहते हैं  न, लोहे को लोहा ही काटता है, तो उसी कहावत के आधार पर अंग्रेज़ी भाषा के विश्वव्यापी  प्रचंड विस्तार का ही लाभ उठा कर, अंग्रेज़ी को ही माध्यम बना कर, उसी का सामना करके, उसी से लोहा लेने के लिये, इस महाभाग ने गत अर्धशतक के दीर्घकाल से कनाडा में रहकर अखिल विश्व में संस्कृत के फलदायी बीज बोकर हजारों अंग्रेज़ी बोलने वाले शिशुओं को और हजारोंहजारों अंग्रेज़ी बुजुर्ग नर-नारियों को संस्कृत प्रेमी बनाकर भारत प्रेमी बना दिया है, साथ-साथ ही भारतीय एवं विदेशी बाल-वयस्क लोगों को प्रशिक्षण परक पुस्तकों के लेखन-प्रकाशन-वितरण कार्य द्वारा लंबी अवधि से संस्कृत-संचयन श्रृंखला में जोड़ते आ रहे हैं । टोरंटो में हमने संस्कृत विद्या परिषद संस्था की स्थापना करके उसके अध्यक्ष बनकर संस्कृत प्रेमियों के लिए 1997 से 2005 तक  संस्कृत व्याख्यानमाला चलाई।

       हम एक हाथ से स्वलिखित संस्कृत साहित्य का ज्ञान-विज्ञान प्रदान करके संस्कृत जानने वालों के हित का कार्य कर रहे थे, और दूसरे हाथ से विदेशों में निवासी प्रवासी-भारतीय और मारीशस, ट्रिनीडैड, टोबैगो, गुयाना, सुरीनाम, फिजी आदि के भारतीय मूल के मगर अंग्रेज़ी-भाषी डायस्पोरा लोगों को उन्हीं की वोलचाल की अंग्रेज़ी भाषा में संस्कृत-हिंदी के लेखन-पठन-संभाषण की शिक्षा देकर संस्कृति के प्रति प्रेम बढ़ा रहे थे। हमारा योगदान था – संस्कृत न जानने वालों में कक्षाओं, पुस्तकों, लेखों और ई-बुक, ई-पत्रिका, इंटरनेट ऑन-लाइन-लेशन आदि सेवाओं के द्वारा संस्कृत के बीज बो-बो कर भारतीय-अभारतीय लोगों को संस्कृत के साथ-साथ भारतीय संस्कृति, संस्कार व शास्त्र का ज्ञान देना, कलाएँ सिखाना, जागृत करना और विश्व को चिरस्थायी लाभ प्रदान करना। इस ध्येय से लगभग गत 20 साल से वे संस्कृत लिखना-पढ़ना-बोलना सिखाना, काव्य-छंद-राग का ज्ञान उपलब्ध करना, संस्कृत-संस्कार-संस्कृति-संगीत प्रसारित करना, गीता-रामायणादि सांस्कृतिक विषयों पर नयी-नयी प्रणालियाँ खोज कर संशोधनयुक्त उत्तमोत्तम पुस्तकें प्रकाशित करना और भारतीय समाज के लिये अक्षय, अक्षर, अमर, अविनाशी दिव्य कर्म प्रदान करना।

5.पुस्तक भारती आपकी महत्वपूर्ण पत्रिका है । इस योजना के प्रमुख उद्देश और उपलब्धियां कौन-कौन सी रहीं?

रत्नाकर नराले : 

हमारे संपादन में पुस्तक भारती कनाडा की ISSN (2562-6086) प्राप्त  पत्रिका है। पुस्तक भारती रिसर्च जर्नल (www।pustak-bharati-canada।com)। कनाडा की एकमात्र भारतीय सांस्कृतिक रिसर्च जर्नल है। पुस्तक भारती की रिसर्च जर्नल और भारत सौरभ नामक द्वितीय पत्रिका संस्कृत, हिंदी, भारतीय कला, संगीत एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु प्रकाशित होती हैं। इस पत्रिका में केवल यथोचित संदर्भ, आरेख और छायाचित्र के साथ लिखे हुए उच्चस्तरीय शोधपरक, ज्ञानपरक अथवा नाविन्यपूर्ण गद्य/पद्य आलेख ही प्रकाशित होते हैं।

इसके कार्यकारी मंडल में भारत और कनाडा के अतिरिक्त विश्व के 20 से अधिक देशों से विश्वविद्यालयीन  वाइस-चांसलर्स, प्रोफेसर्स, डीन्स तथा अन्यान्य दिग्गज महाभाग संलग्न हैं। यह ई-पत्रिका इंटरनेट के माध्यम से कनाडा, भारत और सारे विश्व के जनसमाज को वाङ्मयीन सेवा दे रही है और उसकी पाठक संख्या 2 लाख से उन्नत हो गई है।

  1. आप अपनी कुछ बहुमूल्य संस्कृत शिक्षा व संस्कृति संबंधी प्रकाशित पुस्तकों के बारे में बताना चाहेंगे?

रत्नाकर नराले : जी ,मैंने बहुत सारे ग्रन्थ लिखे हैं,जिनमें से कुछ के बारे में संक्षेप में आपको बताता हूँ ।

 “रत्नाकर रचितं गीतोपनिषद् महाकाव्यम् (ISBN 9781897416853) –श्री व्यास महामुनि के बाद, श्रीगीता का पूर्णतया अनुष्टुप श्लोक छंद में रत्नाकर रचित गीतोपनिषद् विश्व का सर्व प्रथम और अकेला मनोरम गीताज्ञान श्लोक सागर है।  इस गीतोपनिषद् के 1447 अनुष्टुप श्लोक हैं ।श्री व्यास महामुनि की श्रीमद्भगवद्गीता 30 से अधिक विविध संस्कृत छंदों में लिखी गई है, परंतु प्रस्तुत गीतोपनिषद् 100% केवल अनुष्टुभ् छंद में ही पूर्णतया संगीत सुरों के साथ लिखी है।  श्रीमद्भगवद्गीता की सविस्तार पार्श्वभूमि और इतिहास के साथ लिखी हुई यह विश्व की सर्वप्रथम गीता आवृत्ति है।  गीता में जो कर्म, अकर्म, विकर्म, निष्कर्म, निष्काम कर्म, धर्म, अधर्म, स्वधर्म, परधर्म, कार्य, अकार्य, योग, योगी, भोग, भोगी, भूत, पुरुष, प्रकृति, गुण, द्वंद्व, ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा, सांख्य, बुद्धि, त्याग, त्यागी, ज्ञान, आज्ञान, आदि संज्ञाएँ अन्यान्य आती हैं उन सभी की व्याख्या सहित सविस्तार सुगम समाधान करना।  गीता में जो श्रीकृष्ण के 301 नाम-विशेषण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आते हैं उनका सोदाहरण विवरण करना, जो कि अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता। इन सभी विशेषताओं को समझते हुए नागपुर के कालीदास संस्कृत विश्वविद्यालय ने जनवरी, 2020 में इस महाकाव्य की चार प्रतियाँ, पंजीकरण फॉर्म और दस्तावेज आदि डी. लिट. की उपाधि के लिए स्वीकार कर लिए हैं।

इसके अतिरिक्त तीन-खंडों वाली गीता एज शी इज इन कृष्णाज ओन वर्डस् (ISBN-9781897416563, 978189741650, 9781897416693)  बेजोड़ संस्कृत प्रकाशन है। इसमें गीता के प्रत्येक संस्कृत शब्द का पूर्वोक्त नियमों के अनुसार सामासिक विच्छेद एवं संधि-विग्रह करके मूल धातु तक वैयाकरणीय विश्लेषण दिखाकर श्लोक के प्रत्येक शब्द का अन्य शब्दों के साथ लिंग, वचन, विभक्ति, कालवाची संबंध स्पष्ट किया है। और फिर, प्रत्येक शब्द का अर्थ व पर्यायवाची अर्थ समझाकर श्लोक को गहनार्थ गोचर किया है। प्रचलित असमंजसता, भ्रम, गलतफहमियाँ, अबोधता आदि दूर करने के लिए स्थान-स्थान पर टिप्पणियाँ देकर श्लोक विषय सुस्पष्ट किया गया है। यह कहा जा सकता है कि गीता के संजीदा छात्र, अध्यापक, प्रेमी, स्कॉलर, स्वामी, सभी के लिए यह आजीवन अभ्यास के लिए अनंत संस्कृत ज्ञान कोषागार है। इसकी टिप्पणियों मात्र में ही जितना संशोधनात्मक ज्ञान-विज्ञान भरा है उतना सविस्तर गहन ज्ञान किसी समूचे पुस्तक में भी नहीं पाया जा सकता। टिप्पणियों के अतिरिक्त इस ग्रंथ का ज्ञान तो सर्वतोपरी नूतन और अप्रतिम है ही, यह एक संग्रहणीय ग्रंथ है।

गीता पठनम् (ISBN 978-1-897416-19-8, 978-1-897416-20-4) नियमित रूप से गीता का अध्ययन, पठन करने वाले संस्कृत प्रेमियों के लिए खास लिखी हुई दो खंड में  प्रकाशित पुस्तकें हैं गीता पठनम् गाते पढ़ते समय गीता के श्लोकों के उचित यति स्थान पर विराम की दृष्टि से श्लोक लिखकर यहाँ प्रस्तुति की गई है । देवनागरी न जानने वाले आप्रवासी जनों की सुविधा के लिए ओंग्रेजी ट्रांसलिटरेशन द्वारा गीता के श्लोकों को अंग्रेजी स्क्रिप्ट में दिखाया गया है। मंदिरों के भक्त जनों के लिए विदेशों में यह पुस्तकें विशेष लोकप्रिय हैं।

750 पृष्ठ वाला अनुपम संस्कृत टीचर आल-इन-वन (ISBN 9781897416679) संस्कृत सीखने, सिखाने एवं लिखने वालों के लिए अभूतपूर्व ज्ञान भंडार  हैं। संस्कृत के बुनियादी छात्र से लेकर पीएचडी तक के सभी छात्रों और संस्कृत प्रेमियों के लिए अति उपयुक्त और अनिवार्य इस पुस्तक में ऐसे कई अहम पाठ हैं, ऐसे कई अनूठे प्रतिपादन हैं, ऐसे आविष्कार हैं, ऐसे नूतन प्रत्यय हैं, कि जो अन्य किसी एक पुस्तक में नहीं पाए जाते। विभिन्न विभक्ति प्रयोग की परिपूर्ण विशाल तालिका, क्रियापद प्रयोग की प्रक्रियाएँ, आदि के पाठ इस पुस्तक की असाधारण एवं अतुलनीय विशेषताएँ हैं।

 अखिल विश्व में लोकप्रिय 675 पृष्ठ वाला अद्वितीय महाकोश “संस्कृत व्याकरण व संदर्भ पुस्तक (ISBN 9781897416686) का भी मैं उल्लेख करना चाहूंगा । संस्कृत के विद्यार्थियों और स्कालर्स के लिए इस ग्रंथ में अति उपयुक्त और अनिवार्य वाले ऐसे कई अहम पाठ हैं, ऐसे कई अनूठे प्रतिपादन हैं, ऐसे आविष्कार हैं, ऐसे नूतन बिंदु हैं, ऐसी सामग्रियां है कि जो अन्य किसी भी एक पुस्तक में नहीं पायी जा सकती है। 2200 संस्कृत धातु का वैयाकरणिक कोष, पिंगल छंदशास्त्र का बृहत छंदसूत्र सागर, विभिन्न विभक्ति प्रयोग की परिपूर्ण विशाल तालिका, क्रियापद प्रयोग की प्रक्रियाएँ व फ्लोचार्ट, आदि के विस्तृत खंड इस पुस्तक की असाधारण एवं अतुलनीय विशेषताएँ हैं। यह संस्कृत की महत्वपूर्ण मूल्यातीत पुस्तक है।

    अंग्रेज़ी जिनकी बोलचाल की प्रथम भाषा है उन प्रथमिक छात्रो को ध्यान में रखते हुए खास लिखी हुई संस्कृत प्राइमर (ISBN 978-1-897416-55-6 संस्कृत की सुलभतम पुस्तक है। संस्कृत प्राइमर मूलभूत संस्कृत वर्णमाला से प्रारंभ करके, प्रत्येक अक्षर का उच्चारण और लेखन शैली, शब्द रचना, लिखना-पढ़ना, शब्दार्थ ग्रहण के अभ्यास करते हुए संस्कृत वाक्य बनाना सिखाया गया है। संस्कृत सुभाषितों के साथ विभक्ति विचार और काल विचार समझाया है। अंग्रेज़ी भाषियों की सुविधा के लिए इस पुस्तक का प्रत्येक संस्कृत शब्द अंग्रेज़ी ट्रांसलिटरेशन द्वारा दुबारा दिखाया गया है ताकि छात्र को संदेह नहीं रहे। जिन छात्रों ने संस्कृत शीघ्र अवगत कर ली, उनके लिए आगे बढ़ने के लिए संस्कृत माध्यमिक स्तर के अभ्यास भी इसी पुस्तक में समाविष्ट किए गए हैं। इस पुस्तक में पूछे हुए सभी प्रश्नों के उत्तर भी सहायता हेतु दे कर, पुस्तक को परिपूर्ण किया गया हैं।

 

 संस्कृत फॉर इंग्लिश स्पीकिंग पीपल (ISBN 978-1-897416-74-7 colour coded)

अंग्रेज़ी जिनकी बोलचाल की प्रथम भाषा है उन प्रथमिक से उच्च शिक्षार्थियों को ध्यान में रखते हुए लिखी हुई संस्कृत की बहुत लोकप्रिय रंग युक्त पुस्तक है संस्कृत फॉर इंग्लिश स्पीकिंग पीपल। कनाडा और अमरीकी छात्रों की मूलभूत संस्कृत वर्णमाला से प्रारंभ करके, प्रत्येक अक्षर का उच्चारण और लेखन शैली, शब्द रचना, लिखना-पढ़ना, शब्दार्थ ग्रहण के अभ्यास करते हुए संस्कृत वाक्य बनाना सिखाया गया है। संस्कृत सुभाषितों के साथ विभक्ति विचार और काल विचार समझाया है। अंग्रेज़ी भाषियों की सुविधा के लिए इस पुस्तक का प्रत्येक संस्कृत शब्द अंग्रेज़ी ट्रांसलिटरेशन द्वारा निभिन्न रंग से दिखाया है ताकि ठात्र को संदेह नहीं रहे। इस पुस्तक में पूछे हुए सभी प्रशनों के उत्तर भी सहायता हेतु दे कर पुस्तक को परिपूर्ण किया हैं। रंगों के माध्यम से यह पुस्तक विशेश सुगन व प्रभावी लगती है।

गीता शब्दकोश एवं अनुक्रमणी (ISBN 9781897416648) महत्प्रयास से बनाया गया गीताभ्यास का यह एकमात्र शब्दकोश संस्कृत जगत के लिए अहम ग्रंथ है जिसका कोई पर्याय नहीं है। गीता द्वारा संस्कृत और संस्कृत द्नारा गीता सीखने-सिखाने वालों के लिए यह अत्युत्तम साधन है। संस्कृत व्याकरण का ऐसा कोई पहलू नहीं जो इस पुस्तक में आया न हो। गीता का कौनसा शब्द सर्वप्रथम कहाँ आया है, और कितनी बार आया है, गीता के किसी भी शब्द का पर्यायवाची शब्द क्या है, गीता के किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति क्या है, उसका व्याकरण क्या है, आदि समस्याऔं का समाधान यहाँ है। गीता के सभी श्लोक अनुक्रम के अनुसार संदर्भ के लिए दिए गए है। इस ज्ञान भंडार का लाभ अनेक लेखक, जिज्ञासु, गीताप्रेमी, प्रवचनकार, अध्यापक, प्राध्यापक, स्वामीजन उठा रहे है।

आसन-पातंजल-योग-दर्शनम् (Yoga Sutras of Patanjali with Asanas ISBN 9781897416884)-संस्कृत के ज्ञान के बिना पातंजलि के योग-सूत्र को गहनता एवं आध्यात्मिक दृष्टि से समझना कठिन है। योगाश्रमों का यह निष्कर्ष ध्यान में रखते हुए योगाभ्यास करने वाले छात्रों के लिए यह पुस्तक तांत्रिक रीति से संपन्न की गई है। पातंजलि के चारों अध्याय 80 शीर्षों में विभाजित करके विषयों को समझाया गया है। पातंजलि सूत्रों में छिपी हुई सभी व्याख्याऔं को अलग से स्थापित करके स्पष्ट किया है। सभी सूत्रों का अनुक्रम संस्कृत व अग्रेज़ी क्रमानुसार दिया है। प्रत्येक सूत्र का प्रत्येक शब्द विभाजित करके अंग्रेज़ी ट्रांसलिटरेशन के साथ अर्थ के साथ दिखाया है। यही मुद्दा विदेशी छात्रों के लिए सबसे अहम होता है। इस पुस्तक में योगासनों का अभ्यास भी रंगीन छवियों के साथ दिखाया है, जिनको मुख्य पृष्ठ पर किनारी के रूप में सुंदरता हेतु सजाया है। योग छात्रों के लिए पुस्तक का यह खंड भी बहुत उपयुक्त है और पसंदीदा भी है।

  1. संस्कृत के अतिरिक्त आप कुछ महत्वपूर्ण हिंदी-संगीत ग्रंथों के बारे में भी बताइए ?

डॉ. रत्नाकर नराले : मेरे कुछ महत्वपूर्ण हिंदी-संगीत ग्रंथ इस प्रकार हैं- दो खंडों वाला संगीत श्री-कृष्ण-रामायण (ISBN 9781897416822, 9781897416815),यह इतिहास रचने वाली, छन्द-राग-स्वरलिपी बद्ध यह कविता विश्व की सबसे बृहत् हिंदी कविता है। लगभग 2000 पृष्ठ का यह बृहत् ग्रंथ हिंदी वाङ्मय की पराकाष्ठा है। 20% संस्कृत और 80% हिंदी में लिखी हुई यह राग व छंदशास्त्र कि मंगल कविता-सरिता 100% संगीत से भरी है। भारतीय संस्कृति का व गीत-संगीत-काव्य विषय का ऐसा शायद ही कोई पहलू होगा जो इस ग्रंथ में सुंदरता से प्रस्तुत न किया गया हो। इस पुरस्कार प्राप्त काव्य को भारत के कई पद्म-विभूषित रथी-महारथियों के शुभ आशीर्वाद लब्ध हैं। दस वर्षों के परिश्रम के फलस्वरूप इस महाकाव्य के बारे में मेरठ विश्वविद्यालय की विदुषी प्रो. सुशीला देवी जी ने लिखा है, “काव्य ऐसा न था न होगा कभी । महाकाव्य परम्परा में नवरसों युक्त विभिन्न छन्दों व संगीतात्मक गीतों की सुरलिपि से सुसज्जित संगीत-श्रीकृष्ण-रामायण एक अद्भुत विलक्षण संगीत-लिपिबद्ध ग्रंथ है जिसमें प्रेरक, शिक्षाप्रद तथा नैतिक लघु कथाएँ और उपकथाएँ विभिन्न दृष्टान्तों के साथ प्रस्तुत की गईं हैं । इसमें कहीं भगवान श्रीकृष्ण की अलौकिक बाल क्रीड़ाओं की झाँकी मन को सम्मोहित करती है, कहीं भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर के रूप में अर्जुन की भाँति किंकर्तव्य विमूढ़ मानव को ज्ञान, कर्म व भक्ति का संदेश देकर उस की सोई अन्तर्चेतना को जगाते हैं । कहीं मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पुरुषार्थ की आदर्श कथाएँ मानव जीवन का आदर्श प्रस्तुत करती हैं, तो कहीं श्रीरामभक्त हनुमान की श्रद्धा, निष्ठा व स्वामीभक्ति का त्रिवेणी संगम भक्ति रस में अवगाहन करा देता है, तो कहीं राधा और सीता के दैवी रूप । इस कविता को चौपाई, दोहे, छन्द, श्लोक व मौलिक स्वरबद्ध गीतों से सज़ाया गया है । इसके अतिरिक्त संगीत गीता दोहावली, संगीत रामायण दोहावली  (ISBN 9781897416860, 978-1897416938) बालकृष्ण दोहावली, नंद किशोर दोहावली (978-1897416945, 978-1897416952) उल्लेखनीय हैं ।

  1. आपको अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मान मिल चुके हैं,
    कुछ इनके बारे में भी बताइए :

रत्नाकर नराले :  पुस्तक भारती के अध्यक्ष एवं हिंदु इंस्टिट्यूट के प्रधानाचार्य के नाते मुझे नवंबर 12, 2017 पर कनाडा के 150 वर्षगाँठ के शानदार समारोह में “हिंदु-रत्न” उपाधि प्रदान की गई । हमारे गत 25-वर्ष के असीम शैक्षणिक एवं साहित्यिक योगदान व भारतीय संस्कृति-भाषा-कला और संगीत के बहुमुल्य प्रचार-प्रसार के अथक प्रयास से आज पुस्तक भारती और हमारे नाम कनाडा के इतिहास में अमर होगए हैं। इसके साथ ही ,जैसा आपको भी ज्ञात है कि हमें विदेश मंत्रालय भारत सरकार की ओर से 11-वें महान विश्वहिंदीसम्मेलन समारोह में आदरणीय विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज जी के शुभ हस्त से अगस्त 20, 2018 पर दिव्य “विश्व हिंदी सन्मान” प्रदान किया गया। हमारी 50 वर्षों की अथक विश्व हिंदी प्रशिक्षण सेवा, शैक्षणिक प्रकाशन व अद्वितीय “संगीत श्री-कृष्णायन व श्री-रामायण” महाकाव्य इस वरदान के लिए अहम थे ।

  1. आपने अन्य भाषा-भाषियों को संस्कृत सिखाने के लिए कई पुस्तकें लिखीं हैं जो अत्यंत वैज्ञानिक और अधिगम की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं।पाठकों की ओर से इन पुस्तकों के प्रति आपको किस प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलीं ?

रत्नाकर नराले :  प्रिय नूतन जी, आपकी अटूट अभिरुचि और रोचक प्रश्न के लिए धन्यवाद। आपने सही कहा था, हम भारतीयों की ऐसी निम्न मानसिकता है कि जब तक विदेशी ज्ञानी/अज्ञानी की मुहर नहीं लग जाती तब तक वह काम गौरवान्वित नहीं होता, फिर वह काम कितना भी अच्छा क्यों न हो और किसी भी विषय पर क्यों न हो। इस खूबी का मुझे भी सदा ही दुख रहा है। मुझे तो यह विचारधारा गुलामी लगती है। मेरी उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ पुस्तकें भी आरंभ में अंग्रेजी लेखकों की पुस्तकों से  अवर मानी जाती थी मगर समय के साथ हमारी पुस्तके उत्तम समीक्षा प्राप्त होकर धीरे धीरे अब अमेजोन पर छा गई हैं और किसी भी विदेशी पुस्तक से हलकी नहीं गिनी जाती। मुझे पाठकों के सन्देश बराबर मिलते रहते हैं,जिनमें वे इन पुस्तकों को अपने लिए बहुत उपयोगी बताते हैं ।सौभाग्यवश आपने पुनः इस विषय को संबोधित किया अतः कुछ संदर्भ के उदाहरण दे रहा हूँ।

भारत के विद्वान् साहित्यकार डॉ. कमल किशोर गोयनका जी ने मेरी पुस्तकों पर अपनी टिप्पणी लिखी थी -प्रिय श्री नराले जी ,निश्चय ही आपने बहुत काम किया है और अभी बहुत करना भी है। आपमें भारत और हिंदी एवं अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा है, संकल्प है और यही कारण है कि आप वर्षों से यह महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। आपके पास भारत मन है तथा संगठन है और कुछ करने की बेचैनी है। ईश्वर आपके साथ है और मुझे विश्वास है कि आप जीवन पर्यन्त यह पवित्र काम करते रहेंगे। शुभकामनाओं के साथ।

इसी प्रकार दो और पाठकों की  प्रतिक्रियाएं मैं आपके लिए दे रहा हूँ । अंगारी वाड्यार की टिप्पणी देखिये : Sanskrit Teacher All-in-One is an outstanding book for learning Sanskrit, and I want to congratulate Professor Ratnakar Narale (PRN) for this superb contribution and gift to Sanskrit lovers. Maharashtrians have the tradition of great scholarship in Sanskrit, and it is not surprising that PRN has authored this gem of a book. I am 77 now, and I am relearning Sanskrit, and I am deeply grateful to PRN for making this relearning process both easy and very pleasurable.

इसी प्रकार कविकुल गुरु कालिदास ,संस्कृत विश्व विद्यालय के कुलपति श्रीनिवास वाराखेडी के मेरे ग्रन्थ गीतोपनिषद पर विचार मेरे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक हैं :

I am overwhelmed to see your magnum opus Geetopanishad। Its really a gigantic work। Living in CA for 50 years, your love, passion and commitment for Indian knowledge heritage and culture are laudable। Your knowledge of music has wonderfully reflected in the compositions on Ramayana. I have kept your compositions of Ramayana for reading on my table in my residence and later I will send them to KKSU library for preservation. I will be happy to forward them to a suitable recognition in near future, in consultation with Prof। Penna Madhusudan ji.

  1. आजकल अकसर ये कहा और सुना जा रहा है कि संस्कृत मृतभाषा हो गई है।उसका सामान्य जन जीवन में न तो कोई विशेष उपयोग है और न ही उसका उपयोग करने वाले व्यक्ति ही दिखाई पड़ते हैं।इस प्रकार के वातावरण में लोगों के मन में संस्कृत के प्रति रुचि और प्रेम को कैसे जागृत किया जा सकता है?

रत्नाकर नराले :  मैं आपकी इस बत से पूर्णतया सहमत हूँ नूतन जी । मैं जब भी किसी से सुनता हूँ कि संस्कृत मृतभाषा है, तो मैं बिना हिचक के उसे कहता हूँ कि संस्कृत मृत भाषा नहीं है। आपकी सोच मृत होगई है। पिछले बीस वर्ष से, जबसे अटल विहारी वाजपेयी जी भारत के प्रधानमंत्री बने, और उन्होंने श्री चमू कृष्ण शास्त्री जी की अध्यक्षता में संस्कृत भारती को राजमान्यता दी, तबसे संस्कृत का लौकिक ओहदा बढ़ रहा है। मैं जब 2004 में श्री चमू कृष्ण शास्त्री जी के अनुरोध पर एक महीने के लिए संस्कृत भारती, दिल्ली में था, तब अपनी आखों से मैंने सर्व सामान्य अनगिनत लोगें को मातृभाषावत् संस्कृत में संभाषण करते हुए गौरव के साथ देखा है। और देखा कि संस्कृत भारती के मासिक छात्रों में सारे भारतवर्ष में कई हजार लोग प्रतिमास संस्कृत बोलचाल सीख रहे हैं। कुछ ग्राम तो ऐसे हो गए हैं कि जहाँ सभी संस्कृत बोलते हैं अब संस्कृत एक जीवित एवं उभरती भाषा हो रही है, हो गई है। तभी से फिर कनाडा लौटकर हमने पुस्तक भारती संस्थान के प्रधानाचार्य रह कर, संस्कृत भारती के ही तात्त्विक छत्र के नीचे, अक्षरशः हजारों शिशु से वृद्ध छात्रों को संस्कृत लिखनी, बोलनी सिखाई है और विविध विद्यालयों और संस्थाओं द्वारा उन्नत क्षमता से पढ़ा रहे हैं, कार्य बढ़ाते रहेंगे।

  1. संस्कृत भाषा देव वाणी और समस्त भारतीय भाषाओं की जननी मानी जाती है। संस्कृत और विभिन्न भारतीय भाषाओं के अंतरसंबंध को आप किस तरह देखते हैं?

रत्नाकर नराले :  संस्कृत और विभिन्न भारतीय भाषाओं का अंतरसंबंध हम माता-कन्या के रूप में देखते हैं। भारत की ऐसी कोई भाषा नहीं है जो संस्कृत से न निकली हो और जिसका व्याकरण, शब्द संपदा और विन्यास संस्कृत पर निर्भर नहीं हो। जब मैंने तमिल और उर्दू सीखने की पुस्तके लिखीं उनमें यह मुद्दा सोदाहरण स्पष्ट किया है। पुनश्च, माना जाता है कि तमिल भाषा संस्कृतेतर है मगर इसमें सचाई कम और वाद अधिक है । यह कोई बेवजह का संयोग नहीं हो सकता कि देवनागरी वर्णमाला और तमिल वर्णमाला के स्वर तथा व्यंजन बिलकुल उसी क्रम और वर्गानुसार हो । भले ही उच्चारण की दृष्टि से तमिल में देवनागरी से कम व्यंजन और अधिक स्वर हों। तमिल का व्याकरण और वाक्य विन्यास भी हुबहू देवनागरी की तरह ही हो यह भी आकस्मिकता नहीं हो सकती। दो भाषाओं में किसी न किसी प्रकार का सनातन संपर्क अवश्य ही था। उसी भांति  हमारी पुस्तक में यह भी कहा गया है कि संस्कृत ही उर्दू की नानी है।  उर्दू कोई अलग भाषा नहीं परंतु फारसी अथवा अरबी लीपि में लिखी हुई हिंदी है जिसमें अरबी-फारसी शब्द संपदा की प्रचुरता है। उर्दू भाषा हिंदी व्याकरण पर ही आधारित है, जो कि संस्कृत से हिंदी को मिला है।

  1. जर्मन भाषाविद ग्रिम का ध्वनि परिवर्तन का सिद्धांत भी इस बात को सिद्ध करता है कि विश्व की समस्त भाषाओं की उत्पत्ति का उत्स किसी न किसी रूप में एक दूसरे से जुड़ा होगा। रूसी तथा अन्य विदेशी भाषाओं में भी संस्कृत से मिलती जुलती शब्दावली पर्याप्त मात्रा में है। इस बारे में आपका क्या विचार है?

रत्नाकर नराले :  संस्कृत  और विभिन्न योरोपियन भाषाओं के बारे में जनसमुदाय के डी. एन.ए. के आधार पर हमने लिखे हुए एक रिसर्च पेपर में (Indo-Aryan ans Slavic Linguistiv and Generic Affinities by Joseph Skulj, JC। Sharda, Dnejina Sonnina and Ratnakar Narale; Presented t the sixth International Topical Conference, Origina of Europeans in Ljubliana, Slovenia, June 6-7, 2008) यह सह सबूत साबित किया है कि अभ्यास के लिए ली हुई छह भाषाओं में लगभग 30% शब्द संपदा संस्कृत मूल की ही है। संस्कृत मंत्र-तंत्र पूजा पाठ की ही भाषा नहीं है मगर मंत्र-तंत्र में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है। उससे अधिक अहम प्रयोग निघंटु, शब्दकोश, स्मृतियाँ, गणित, बहुविध विज्ञान, आदि में पाया जाता है और कई शास्त्रज्ञों का योगदान जिसकी नींव है।

  1. संस्कृत में लिखा लगभग 96 प्रतिशत साहित्य ज्योतिष,आयुर्वेद,नक्षत्र, रसायन ,गणित ,रस शास्त्र जैसे वैज्ञानिक, तार्किक और शास्त्रीय ग्रंथों पर आधारित है।फिर भी लोग संस्कृत को मंत्र -तंत्र और पूजा पाठ की ही भाषा मानकर बैठे हैं?इस प्रकार की अज्ञानता का क्या कारण है और इसे कैसे दूर किया जा सकता है?  

रत्नाकर नराले :  मंत्र-तंत्र में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है लेकिन संस्कृत मात्र मंत्र-तंत्र पूजा पाठ की ही भाषा नहीं है । उससे अधिक अहम प्रयोग निघंटु, शब्दकोश, स्मृतियाँ, गणित, बहुविध विज्ञान,ज्योतिष,आयुर्वेद,योग साहित्य ,शास्त्र,अलंकार शास्त्र ,पिंगल शास्त्र आदि भी उपलब्ध हैं जो आज भी समस्त विश्व के लिए उपयोगी और प्रासंगिक है ।

रत्नाकर जी,आपने संस्कृत, संस्कृति और गीता आदि विषयक महत्वपूर्ण जानकारियाँ हमारे साथ साझा किन,आपका बहुत –बहुत धन्यवाद ।

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परिचय

डॉ. रत्नाकर नराले

प्रो. हिन्दी, रायर्सन विश्वविद्यालय, टोरंटो कनाडा (50 वर्ष से अधिक कनाडा निवासी)

शैक्षणिक :   बी. एस्-सी. (नागपुर विश्वविद्यालय),

            एम. एस्-सी. (पुणे विश्वविद्यालय),

            पीएच.डी. (आई. आई. टी. खड़गपुर),

            पीएच.डी. (कालीदास संस्कृत विश्वविद्यालय, नागपुर).

औद्योगिक :  प्रो. हिन्दी, रायर्सन विश्वविद्यालय, टोरंटो कनाडा (2008 से)

            पूर्ववर्ती प्रो. हिन्दी, यार्क विश्वविद्यालय, टोरंटो कनाडा

            पूर्ववर्ती प्रो. हिन्दी, टोरंटो विश्वविद्यालय, टोरंटो कनाडा

            अध्यापक हिन्दी, टोरंटो स्कूलबार्ड, टोरंटो कनाडा

            अध्यापक संस्कृत, टोरंटो स्कूलबार्ड, टोरंटो कनाडा

            अध्यक्ष, संस्कृत हिन्दी रिसर्च इन्स्टिट्यूट, टोरंटो, कनाडा

            अध्यक्ष, पुस्तक भारती, टोरंटो, कनाडा

            प्रधानानार्य, हिंदु इन्स्टिट्यूट, टोरंटो, कनाडा (1995 से)

            प्रमुख संपादक, पुस्तक भारती रिसर्च जर्नल, त्रैमासिक, टोरंटो, कनाडा

            मुख्य संपादक, भारत-सौरभ त्रैमासिक, टोरंटो, कनाडा

पुरस्कार :    “संगीतकार” उपाधि, दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 2019

            विश्व हिंदी सम्मान” भारतीय विदेश मंत्रालय (मारीशस 2018)

            “सरस्वती सम्मान” हिंदी राइटर्स गिल्ड, टोरंटो. कनाडा, 2018

            “कला वारिधि सम्मान” अखिल विश्व हिंदी समिति, टोरंटो. कनाडा, 2018

            “हिन्दू रत्न” पुरस्कार, कनाडा के 150वी-जयंती महोत्सव पर, 2017

            “संस्कृताचार्य” उपाधि, कालीदास संस्कृत विश्वविद्यालय, नागपुर, 2014

            “गीता वाचस्पति” उपाधि, वेदव्यास प्रतिस्थान, पुणे, 2013

रुची :         काव्य, प्रकाशन, संगीत, चित्रकला

भाषा ज्ञान  :  हिन्दी, संस्कृत, मराठी, बंगाली, पंजाबी, तमिल, उर्दू, अंग्रेज़ी, फ्रेंच

प्रकाशन : 

रत्नाकर नराले लिखित कुछ मुख्य पुस्तकें : (books available on www. Amazon.com)

हिन्दी महाकाव्य

  1. बालकृष्ण दोहावली, महाकाव्य(ISBN 978-1-897416-94-5) (2019)
  2. नंदकिशोर दोहावली, महाकाव्य(ISBN 978-1-897416-95-2) (2019)
  3. गीता दोहावली, महाकाव्य(ISBN 9781897416860) (2017)
  4. रामायण दोहावली, महाकाव्य(ISBN 978-1-897416-93-8) (2019)
  5. संगीत श्रीकृष्णायन, महाकाव्य(ISBN 9781897416822) (2017)
  6. संगीत श्रीरामायण, महाकाव्य(ISBN 9781897416815) (2017)

हिन्दी पुस्तकें :

  1. गीता का शब्दकोश और अनुक्रमणी(ISBN 9781897416648) (2014)
  2. गीता दर्शन(ISBN 9781897416693) (2014)
  3. हिंदी शिक्षक(ISBN 9781897416754) (2015)
  4. नयी संगीत रोशनी(ISBN 9781897416402) (2013)
  5. 5.  संगीत श्रीकृष्णरामायण के गिने-चुने पुष्प(ISBN 978-1-897416-02-0) (2017)
  6. संगीत श्री-सत्यनारायण व्रत कथा(ISBN 9781897416839) (2016)
  7. Hindi Teacher for English Speaking People (ISBN 9781897416617)(2014)
  8. Hindi Teacher for Hindu Children (ISBN 9781897416754)(2015)

संस्कृत पुस्तकें : 

  1. रत्नाकर-रचितं गीतोपनिषद्महाकाव्यम् (संस्कृत) (ISBN 9781897416723) (2015)
  2. पातंजल-योगदर्शन-दीपिका(ISBN 9781897416532)(2014)
  3. Sanskrit Teacher All-in-One(ISBN 9781897416679) (2014)
  4. Sanskrit Grammar and Reference Book(ISBN 9781897416488) (2013)
  5. Sanskrit Primer(ISBN 9781897416556) (2014)
  6. Gita as She Is, in Krishna’s Own words,Vol.(ISBN 9781897416563)(2013)
  7. Gita as She Is, in Krishna’s Own words,Vol.II(ISBN 9781897416501)(2013)
  8. Gita as She Is,in Krishna’s Own Words,Vol.III-SBN 9781897416501(2013)
  9. गीता ज्ञन कोश (ISBN 978-1897416150)

पाठ्य पुस्तकें : 

  1. Gurumukhi Teacher  ਗੁਰਮੁਖੀ ਟੀਚਰ (ISBN 9781897416761) (2015)
  2. Tamil Teacher தமிழ் சிரியர் (ISBN 9781897416587) (2014)
  3. Urdu Teacher اردو استاد  (ISBN 9781897416662) (2014)
  4. Flipped English Dictionary (ISBN 9781897416624) (2014)

 भारत से बाहर विदेश निवासी प्रवासी-भारतीय और मारीशस, ट्रिनीडैड, टोबैगो, गुयाना, सुरीनाम, फिजी आदि के भारतीय मूल के मगर अंग्रेज़ी-भाषी डायस्पोरा लोगों में हिन्दी व भारतीय संस्कृति प्रसारित करने का बीड़ा प्रो. रत्नाकर नराले ने 1970 में उठा लिया और तब से आज तक वे हजारों अहिंदी छात्रों में हिंदी के बीज बो चुके हैं और उन बीजों के वृक्ष आगे अनगिनत फैलते जारहे हैं.

संपर्क :

पता- 180 Torresdate Ave.,

           Toronto, Ontaria, M2R 3E4;

     मोबाइल- +1-416-739-8004

     ईमेलmarale@yahoo.ca

 

साक्षात्कारकर्ता

डॉ नूतन पांडेय

जन्म स्थान:आगरा,उत्तर प्रदेश

शिक्षा:पी एच .डी .

तीन विषयों में एम. ए. (हिंदी,भाषाविज्ञान, रूसी भाषा एवं साहित्य)

शोधकार्य : हिंदी और रूसी भाषा के विधेय पदबंधों का व्यतिरेकी अध्ययन।

अंग्रेजी,संस्कृत रूसी और बांग्ला भाषाओं का ज्ञान

कार्य अनुभव :

भारतीय उच्चायोग,मॉरिशस में द्वितीय सचिव( भाषा एवं संस्कृति) के रूप में  2014-2019 तक नियुक्ति।

संप्रति – केंद्रीय हिंदी निदेशालय,मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सहायक निदेशक पद ।

प्रकाशन : 8 पुस्तकें प्रकाशित , देश-विदेश की पत्र पत्रिकाओं में सौ से अधिक शोध आलेख तथा कविताएं प्रकाशित, राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सहभागिता।

प्रकाशित पुस्तकें-

1.हिंदी और रूसी भाषा के क्रिया पदबंधों का व्यतिरेकी विश्लेषण

2.चरवाहे की बेटी तथा अन्य लोककथाएं, रूसी भाषा से अनूदित

3.हिंदी व्याकरण (कक्षा एक से पांच तक)

4 मॉरिशसीय हिंदी नाट्य साहित्य और सोमदत्त बखोरी

  1. मॉरिशस: नींव से निर्माण तक
  2. मॉरिशस लेखक रामदेव धुरंधर की रचनाशीलता
  3. विश्व के हिन्दी साहित्यकारों से संवाद (प्रकाशनाधीन)
  4. मॉरिशसीय हिंदी ; विविध पक्ष

पुरस्कार :

  1. “मॉरिशस: नींव से निर्माण तक ” पुस्तक पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का विद्यापति कोकिल सर्जना पुरस्कार 2018

2.उदभव सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था द्वारा ‘राष्ट्रीय मानवसेवा सम्मान 2020’

3.हिंदी प्रचारिणी सभा,आर्य सभा,ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट,राजपूत गहलोत महासभा ,महात्मा गांधी संस्थान  आदि विभिन्न संस्थाओं द्वारा उत्कृष्ट सेवाओं के लिए समय-समय पर सम्मानित।

4.ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय उच्चायोग, मॉरीशस तथा शिक्षा मंत्रालय, मॉरिशस द्वारा  प्रशस्ति पत्र .

साक्षात्कार कर्ता
डॉ दीपक पाण्डेय
सहायक निदेशक
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार
नई दिल्ली

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