सारांश :
प्रसाद एक ऐसे अराधक कवि हैं जिनके जीवन और काव्य का प्राणतत्व है प्रेम और सौंदर्य। दर्शन और चिति की अवधारणा को अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के केंद्र में रखकर इन्होंने प्रेम के मानवीय स्वरूप को इतना व्यापक बना दिया है कि वह अलौकिक तक की यात्रा करता है। प्रेम की व्याप्ति इतनी गहरी और चेतस है कि राष्ट्र धर्म में भी परिवर्तित हो जाती है। इसमें त्याग और बलिदान का स्वरूप मौजूद है। उनकी चेतना में वेदांत का आनंदवादी दर्शन मौजूद है तो वहीं दूसरी तरफ गीता का निष्काम कर्म योग विद्यमान है। मनु के साथ श्रद्धा का जो प्रेम है वह समूची मानवता के कल्याण की चिंता से संवलित है। अतः उनमें समूची मानवता के प्रति प्रेम का निर्वचन छिपा हुआ है।
प्रसाद ने प्रेम की ही भांति सौंदर्य को विस्तृत दायरे में देखने का प्रयास किया। सौंदर्य में जो मांसल अभिव्यक्ति थी, प्रसाद ने उसको आत्म तक पहुंचाने का काम किया। इसलिए प्रसाद की चेतना सहजानुभूति को ग्रहण करती है। इन्हीं भूमिकाओं में प्रसाद का संपूर्ण साहित्य निर्मित हुआ है। उनकी काव्य निर्मिति में प्रेम और सौंदर्य की औदात्रिक संकल्पना के लिए कर्म, इच्छा और बुद्धि का सांमजस्य दिखता है। वही सृष्टि का नियामक तत्व है। उनका काव्य प्रेम के विविध रूपों के आख्यान का काव्य है। इसमें उनकी आत्मा और मर्मानुभूति मौजूद है जो पाठक को उसी चेतना से जोड़ता है। अतः उनकी आत्म-वेदना और काव्य-वेदना में कोई अंतर नहीं रह जाता। प्रेम और सौंदर्य की चेतना कवि प्रसाद को वैश्विक बनाती है। उसकी परिधि स्थानीय होकर भी नई परिधि का निर्माण करती है, जहां समस्त मानवता समाहित हो जाती है। उनकी स्वानुभूतियां सर्वव्यापी होकर सार्वभौमिक हो जाती है। इस प्रकार प्रसाद अपनी संपूर्ण चेतना में प्रेम और सौंदर्य के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इन दोनों ही आयामों को दार्शनिक आधार पर स्थापित किया है।
बीज शब्द
उदात्त प्रेम, राष्ट्रीयता, आनंदवादी दर्शन, रीतिकालीन मांसलता, आत्म-वेदना और काव्य-वेदना, कर्म, इच्छा और बुद्धि, सहजानुभूति, तत्ववादी दर्शन।
परिचय
प्रसाद की काव्य चेतना और उनकी रचना प्रक्रिया का अनिवार्य घटक है प्रेम और सौंदर्य। कहना समीचीन होगा कि किसी भी कवि की चेतना उसके परिवेश और व्यक्तिगत साक्षात्कृत संवेदनाओं और अनुभूतियों से ही बनती है। प्रसाद इससे अछूते नहीं हैं। काशी का परिवेश और पारिवारिक स्थिति ने उनके चेतस का निर्माण किया। बच्चन सिंह [1] के अनुसार पारिवारिक दशा और उनके प्रदेश का प्रभाव उनकी कविता में मंदता का कारण है।
यहां केवल इतना ही संकेत करना चाहता हूं कि प्रसाद की स्वनिर्मिति इसी के इर्द-गिर्द होती है। जीवन में प्रेम के अभाव ने कवि उच्छवास को किस प्रकार से काव्य चेतना के रूप में जीवित किया, देखा जा सकता है-
चिर तृषित कंठ से तृप्त विधुर
वह कौन अकिंचन अति आतुर
अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश
ध्वनि कम्पित करता बारबार [2]
तिरस्कृत अर्थ के समान चेतना वाला कवि प्रेम के अभाव में निर्मित होता है। और यही भाव प्रसाद की समूची रचना प्रक्रिया में दिखता है। प्रेम का नया आवर्तित स्वरुप इनके काव्य चेतस का हिस्सा बनता है। प्रेम वास्तव में एक सत्ता है जो बार-बार मनुष्य की चेतना को कसता है। और जिसे कसता है उसमें स्वाधीन रहने की चेतना का विकास करता है। वह मनुष्य की स्वतंत्रता और स्वत्व का पैरोकार बनता है। प्रसाद इस मायने में अपने समकालीन कवियों की चेतना से बिल्कुल अलग दिखते हैं। प्रेम के साथ सौंदर्य की सत्ता सहज ही निर्मित हो जाती है। इसलिए दोनों अन्योन्याश्रिता होती हैं। उनकी कविता में दोनों ही आयाम अपने स्वरूप और विस्तार के साथ मौजूद हैं।
जयशंकर प्रसाद के जीवन और काव्य का प्राणतत्व है प्रेम और सौंदर्य। या ऐसा भी कहा जा सकता है कि उनका पूरा साहित्य इसी चेतना से आत्म स्फूर्त है। शैव दर्शन और चिति की अवधारणा को अपने दर्शन का केंद्र बनाकर इन्होंने प्रेम के मानवीय स्वरूप को इतना व्यापक बना दिया है कि वह अलौकिक तक की यात्रा करता है। वे मानवीय सीमाओं को जोड़कर एक नई परिधि बनाते हैं, जहां चेतना अखंड विकसने लगती है और नए सरोकारों के साथ जुड़ जाती हैं। इसीलिए वह राष्ट्रप्रेम में भी परिवर्तित हो जाती है। यह प्रेम का घनीभूत स्वरूप है।
प्रसाद के प्रेम निरूपण में त्याग और बलिदान का स्वरूप मौजूद है। उनकी चेतना में वेदांत का आनंदवादी दर्शन मौजूद है तो वहीं दूसरी तरफ गीता का निष्काम कर्म योग विद्यमान है। यही कारण है कि इनका प्रेम दर्शन और सौंदर्य भाव दोनों ही अपने समय के संकोच से मुक्त होकर दैवत्य को धारण कर लेते हैं, जिसके कारण प्रेम इहलौकिक हो जाता है। चेतस में बैठा प्रेम वह भाव है, जिसमें हृदयों का सगुंफन होता है। इसलिए प्रसाद कहते हैं कि प्रेम में देह की सत्ता गौण हो जाती है और आत्म की सत्ता प्रतिष्ठित हो जाती है और दोनों एक दूसरे में खोकर अपनी अपनी अहं सत्ता का विलयन कर देते हैं। इसीलिए तो मनु के साथ श्रद्धा का जो प्रेम है वह समूची मानवता के कल्याण की चिंता से संवलित है। अतः उनमें समूची मानवता के प्रति प्रेम का निर्वचन छिपा हुआ है। इसके लिए उन्होंने तमाम विरोधी प्रवृत्तियों का संश्लेष किया है जो एकत्व में विलीन होकर अपने आदर्श रूप को प्राप्त करती हैं। प्रेम और उससे संवलित सौंदर्य हमेशा श्रद्धा और विश्वास की धुरी पर चलायमान होता है। प्रसाद ने इन दोनों के बीच समरसता की स्थिति को रखकर प्रेम का नया क्षितिज खोल दिया। यह उनके समय का युगांतकारी परिवर्तन था।
जयशंकर प्रसाद की चेतना में प्रेम और सौंदर्य के साथ काम का समावेश दिखाई देता है इसलिए कहा कि ‘काम से महिमामंडित श्रेय’ है प्रेम। यही सृष्टि की समूची क्रियात्मक घटनाओं का प्रेरक है। उसमें योगदान करने वाला है। इस अर्थ में भी प्रसाद की चेतना को समझा जा सकता है।
प्रसाद को पढ़ने पर ऐसा आभास होता है कि उनके मनस में प्रेम ही संस्कृति का वैशिष्ट्य है। वही सृष्टि का नियामक तत्व है। इसलिए प्रसाद जब जब भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, प्रेम आंतरिक लय के रूप में अपने ताने-बाने के साथ मौजूद रहता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि उनका काव्य अनेक रूपों के आख्यान का काव्य है। इसमें उनकी आत्मा और मर्मानुभूति मौजूद है जो पाठक को उसी चेतना से जोड़ता है। अतः उनकी आत्म-वेदना और काव्य-वेदना में कोई अंतर नहीं रह जाता। प्रसाद की कविताओं में जहां एक और प्रेम और ऐश्वर्य के विभिन्न स्वरूप दिखते हैं, वहीं दूसरी ओर स्वप्न भंग और हृदय की द्रावक अवस्था का परिचय मिलता है। यह दोनों ही छोर प्रसाद के काव्य जगत के तनाव का निर्माण करते हैं। यही प्रसाद की कविता के पृष्ठतनाव हैं जहां उनका आत्म बिल्कुल स्वस्थ रूप में दिखाई देता है। प्रेमी हृदय की पुकार, यौवन का हर्षनाद, सौंदर्य और प्रेम की अतृप्तावस्था का वर्णन इसी बात का प्रमाण है। प्रसाद जैसा कवि ही प्रेम के मनोविज्ञान को इस प्रकार से अभिव्यक्त कर सकता है-
मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप।
शिथिल हुआ जाता ह्रदय, जैसे अपने आप।। [3]
प्रेम में संयोग का अपना महत्व है। वह एक अलौकिक घटना है जहां आत्म से आत्म का परिचय प्रगाढ़ होता है, जिसके कारण आनंद और उल्लास की प्राप्ति होती है। प्रकृति भी उसमें सहयोगी भूमिका का निर्माण करती है। इस प्रकार उसमें एक सौभाग्य और सुख का अनुभव होता है-
मिल गए प्रियतम हमारे मिल गए
यह अलख जीवन सफल अब हो गया
कौन कहता है जगत है दुखमय
यह सरस संसार सुख का सिंधु है। [4]
इस आलोक में जीवन का दुखमय स्वरूप भी सुखमय प्रतीत होने लगता है। सुख के स्वप्न का मनोविज्ञान मौजूद है। तो जिस संसार को दुख की खान बताया गया, वह भी उसके लिए सुख का सागर बन जाता है। तब वह प्रेम के सांयोगिक पक्ष के लिए किसी भी प्रकार की बाधा की कल्पना नहीं करता। यह प्रेम की सत्ता, जहां बाधा आने पर, और भी निर्मल होने लगता है-
इस एकांत सृजन में कोई कुछ बाधा मत डालो
जो कुछ अपने से सुंदर है दे देने दो इनको।। [5]
तो प्रसाद के समूचे काव्य में यही चेतना मौजूद है। यही सुंदर चिति का निर्माण करता है। प्रेम का ऐसा दार्शनिक स्वरूप इनकी काव्यगत चेतना की पृष्ठभूमि है। यही उनकी चेतना जगत में अनुराग पैदा करता है और इतिहास की पहचान को भी सुनिश्चित करता है। प्रसाद की इतिहास दृष्टि अपने समय के रचनाकारों में अलहदा है।
तो प्रेम और सौंदर्य की चेतना कवि प्रसाद को वैश्विक बनाती है। उसकी परिधि स्थानीय होकर भी नई परिधि का निर्माण करती है, जहां समस्त मानवता समाहित हो जाती है। इनकी स्वानुभूतियां सर्वव्यापी होकर सार्वभौमिक हो जाती है। अतः वह कहते हैं कि-
किंतु न परिमित करो प्रेम
सौहार्द विश्वव्यापी कर दो। [6]
प्रेम की सक्रियता और प्रांजल बन जाता है। उसके कारण सौंदर्य का औदात्त और अधिक विस्तृत हो जाता है। सौंदर्य के चार आयाम हैं और वे चारों आयाम प्रसाद की कविता में अपने पूर्ण स्वरूप और संरचना के साथ घुले मिले हैं। इन्होंने जहां शरीर के सौंदर्य का चित्रण किया है वहां रीतिकालीन देह का आभास नहीं होता बल्कि वह दार्शनिक और अध्यात्मिक चेतना से नि:सृत दिखता है।
अवयव की दृढ़ मांसपेशियां
ऊर्जास्वित था वीर्य अपार।[7]
और जहां स्त्री सौंदर्य की बात है, वहां उपमान और कल्पना विधान एक दूसरे से इतने संश्लिष्ट होकर जीवंत हो उठते हैं कि दोनों का पार्थक्य नजर नहीं आता।
चंचला स्नान कर आवे
चंद्रिका पर्व में जैसी।
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी। [8]
प्रसाद ने अपने आसपास से तो प्रभाव ग्रहण किया है बल्कि उन्होंने अपनी परंपरा को जिया है। जैसे तुलसीदास ने कहा था कि ‘सुंदरता कहं सुंदर करई’ का प्रभाव भी इनकी सौंदर्य दृष्टि पर खूब पड़ा है-
लावण्या शैल राई सा
जिस पर वारी बलिहारी,
उस कमनीयता कला की
सुषमा थी प्यारी प्यारी।[9]
तो इस सौंदर्य का प्रभाव इतना मारक है कि इससे बचा नहीं जा सकता है, वह दुर्निवार है-
सौंदर्य सुधा बलिहारी
चुगता चकोर अंगारे।[10]
कामायनी में श्रद्धा का सौंदर्य इसी प्रभाव को अभिव्यक्त करता है, एक विशेष आकर्षण उत्पन्न होता है। एक ऐसी चित्रावली का निर्माण होता है कि हम उसमें अपने आप को अनुसिक्त पाते हैं-
नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखिला अंग
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघवन बीच गुलाबी रंग। [11]
इसी प्रकार आत्म का सौंदर्य भी प्रसाद के साहित्य में केंद्रवर्ती है। जब तक आत्मा का सौंदर्य ठीक नहीं होगा, समुची चेतना पंकिल रहेगी। इसलिए कहा कि-
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
एक लंबी काया उन्मुक्त। [12]
यहॉ हृदय की अनुकृति ही उसकी कायात्मक सौंदर्य की धुरी है।
प्रसाद की चेतना का एक हिस्सा प्रकृति में रमता है। वास्तव में भारतीय संस्कृति और समाज प्रकृति पूजक है। प्रकृति जीवन का पर्याय है। जीवन का हिस्सा है। इसलिए प्रसाद की कविताओं में सौंदर्य अपने दार्शनिक स्वरूप में विद्यमान है। यदि प्रकृति का कोई कोई रूप सौंदर्य हृदय को प्रभावित करता है तो बाद में उसकी अनुपस्थिति की जो कसक उभरती है उसी से प्रसाद की प्रकृति चेतना का अनुमान लगाया जा सकता है-
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे
जब सावन घन सघन बरसते,
इन आंखों की छाया भर थे।[13]
इसी प्रकार कलात्मक सौंदर्य की भी अभिव्यक्ति प्रसाद की काव्य चेतना में दिखती है। कलात्मक सौंदर्य कहने का अभिप्राय भाषा की विदग्ध स्थिति से है। कवि का कलात्मक सौंदर्य ही उसकी रचना प्रक्रिया की कसौटी होता है। इसी में उसका काव्य सौंदर्य दिखता है-
पगली, हां संभाल ले,
कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल
देख बिखरती है मणि राजी,
अरी उठा बेसुध चंचल।[14]
इन पंक्तियों में प्रसाद की वाक विदग्धता देखी जा सकती है, जिसके कारण प्रेम के साथ बार-बार जिस सौंदर्य को उसके अनुवर्ती आधार के रूप में देखा जा रहा है, दरअसल भारतीय संस्कृति में उसका स्वरूप चिरंतन रूप से विद्यमान है। सत्यम् शिवम् और सुंदरम की आदि चिंतन प्रक्रिया में सौंदर्य का महत्वपूर्ण योग है। यह सौंदर्य आनंद का सहवर्ती है। प्रसाद ने प्रेम की ही भांति सौंदर्य को विस्तृत दायरे में देखने का प्रयास किया। इनका मानना था कि दृष्टिगोचर जगत का घटक जब मनोवैज्ञानिक स्रोत से जुड़ जाता है और कल्पना से मंडित हो जाता है तो वह उदात्त सौंदर्य से पूरित हो जाता है, जिसकी परिणति आध्यात्मिक भाव में हो जाती है। प्रसाद ने अपने युग के अनुरूप इस सौंदर्य दृष्टि का विकास किया। प्रत्येक युग की अपनी सौंदर्य दृष्टि होती है। प्रसाद ने भी ‘प्रतिभिज्ञान’ दर्शन और तत्ववादी दर्शन को आधार बनाकर अपनी सौंदर्य दृष्टि का विकास किया।
सौंदर्य में जो मांसल अभिव्यक्ति थी, प्रसाद ने उसको आत्म तक पहुंचाने का काम किया। इसलिए प्रसाद की चेतना सहजानुभूति को ग्रहण करती है और काम तथा सौंदर्य की इन्ही भूमिकाओं में प्रसाद का संपूर्ण साहित्य और उनकी समूची साहित्यिक चेतना बनी है जिसके दो छोर हैं- प्रेम और सौंदर्य।
जयशंकर प्रसाद के काव्य में कर्म, इच्छा और बुद्धि का भी समावेश मिलता है। महान कार्यों की निष्पत्ति बिना इसके संभव नहीं है। इसलिए मेरी समझ यह कहती है कि प्रसाद के काव्य निर्मिति में कर्म, इच्छा और बुद्धि के समन्वय का मनोविज्ञान काम करता है। आप मनु, श्रद्धा और इड़ा के त्रिकोण से सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि जिनकी परिणति में ‘मानव’ अपने शुद्ध अंतःकरण और सच्ची अनुभूति के साथ दिखता होता है। मानव का गौरव इसी अर्थ में होना चाहिए।
निष्कर्ष
अपनी संपूर्ण चेतना में प्रेम और सौंदर्य के कवि प्रसाद ने दोनों ही आयामों को दार्शनिक आधार पर स्थापित किया है। अपनी परंपरा, इतिहास, संस्कृति और पौराणिक आख्यानों से अपनी चेतना का निर्माण करते हुए प्रसाद ने रीतिकालीन प्रेम और सौंदर्य से अलग हटकर औदात्त और वैश्विक रूप में दिखाया है। समय के महत्व और समस्या को समझते हुए नया अर्थ दिया है। समग्रत: हम कह सकते हैं कि प्रसाद की काव्य चेतना और रचना प्रक्रिया एक विशेष धरातल पर संचरित होती है, जिसमें भारतीय संस्कृति का उच्चतम स्वरूप दिखता है इस उच्चतम स्वरूप में प्रेम और सौंदर्य की बड़ी भूमिका है। यही कारण है कि प्रसाद ने अपने समकालीन रचनाकारों से अलग हटकर साहित्य की,जगत की,आत्म की, प्रकृति की, मानवीय संबंधों की समझ को विकसित किया। गौतम बुद्ध की चेतना ने जिस प्रेम का संचार किया था, दुख से बाहर निकलने के लिए जिस आदर्श को मूल्य के रूप में स्थापित किया था, प्रसाद ने भी वही कार्य किया। करुणा और प्रेम को उसी अंदाज में अपनी साहित्य यात्रा का पथिक बनाया। इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि ये पुनराख्यान के कवि हैं।
आधार ग्रंथ सूची –
[1] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास
[2] प्रसाद, मुझको ना मिला रे कभी प्यार
[3] प्रसाद, चंद्रगुप्त
[4] डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी, काव्यायन,
[5] प्रसाद, लहर
[6] प्रसाद, प्रेम पथिक
[7] प्रसाद, कामायनी
[8] प्रसाद, आंसू
संदर्भ ग्रंथ सूची –
[1] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास पृ. सं. 334
[2] जयशंकर प्रसाद, मुझको ना मिला रे कभी प्यार, पृ. सं. 8
[3] जयशंकर प्रसाद, चंद्रगुप्त, पृ. सं.156
[4] डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी, काव्याायन, पृ. सं. 57
[5] जयशंकर प्रसाद, लहर, पृ. सं. 26
[6] जयशंकर प्रसाद, प्रेम पथिक, पृ. सं. 24
[7] जयशंकर प्रसाद, कामायनी, (चिंता सर्ग) पृ. सं. 1
[8] जयशंकर प्रसाद, आंसू, पृ. सं.24
[9]जयशंकर प्रसाद, आंसू, पृ. सं. 20
[10] जयशंकर प्रसाद, आंसू, पृ. सं. 43,
[11] जयशंकर प्रसाद, कामायनी (श्रद्धा सर्ग) पृ. सं.10
[12] वही, पृ. सं.10
[13] जयशंकर प्रसाद, लहर, पृ. सं. 3
[14] डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी, काव्यायन, पृ. सं. 61