प्रस्तावना– प्रेमचंद और उनका साहित्य हमारी संस्कृति की धरोहर है। प्रेमचंद ने अपने लेखनी में बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि नारी की व्यथा पर केंद्रित की है। इस आलेख में प्रेमचंद द्वारा लिखित हिन्दी उपन्यासों में स्त्री विमर्श पर एक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह एक अनुसंधानमूलक आलेख है। इसमें प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श के आगमन पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण का उल्लेख किया गया है। हिन्दी साहित्य में स्त्रियों के महत्व का भी उल्लेख है। स्त्री विमर्श चिंतन का वह स्वर है जो रुढ़ होती मान्यताओं के खिलाफ आवाज़ उठाता है। यह रुढ़ीवादी मान्यतायों में जकड़ी स्त्रियों का समवेत स्वर है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में बरसों से पुरुष की हुकुमत रही है। जिसकी वजह से पितृसत्तात्मक समाज का मानदंड दोहरा रहा है। उनके मूल्यों और अवधारणाओं में भी विरोधाभास है। यह आलेख उनके अंतर्विरोधों को सामने लाता है साथ ही इस विषय पर विश्व चिंतन को एक ऐसा मुद्दा देता है जो सवर्था उपेक्षित रहा है। स्त्रियों का लंबे समय तक अनेक अधिकारों से वंचित रखा गया है। ऐसे में यह पितृसत्तात्मक परिवार पर सवाल खड़े करता है। आख़िर क्यों स्त्रियों को संस्कारों के नाम पर जकड़ा गया ? आख़िर क्यों वो अपने ख़िलाफ हो रहे अन्यायों के विरोध में आवाज़ नहीं उठा पाई ? क्यों उन्हें एक ऐसे सांचे में ढाल दिया गया जहां वो सजीव होकर भी निर्जीव और मूकदर्शक बनी रही। परिवार संस्था का सबसे मज़बूत स्तंभ होने के बाद भी उन्हें सबसे कमज़ोर आंका गया । मर्यादा के बंधनों में बाधंकर अनुशासित और नियंत्रित जीवन जीना ही उसका ध्येय बना दिया गया। निर्णय लेने का अधिकार भी नहीं दिया गया। महज़ कर्तव्यों को पालन करने वाली मूकदर्शिका बना दिया गया। लेकिन जब स्त्रियां अपनी दयनीय स्थिति पर सवाल-जबाव करने लगी। अपने अधिकारों और कर्तव्यों की बात करने लगी। अपने अस्तित्व को प्रबल रूप से सामने रखने लगी तब पितृसत्तात्मक समाज़ में सवाल उठने लगे। सिमोन द बोउअर के अनुसार “स्त्री पुरुष प्रधान समाज की कृति है। अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए पुरुषों ने उसे जन्म से ही अनेक नियमों के सांचे में ढालता चला गया। जहां उसका व्यक्तित्व दबता चला जाता है” प्रेमचंद ने अपने साहित्य में स्त्रियों द्वारा ना सिर्फ स्त्रियों की वास्तविक स्थिति पर सवाल उठाया बल्कि उसका समाधान भी मुहैया करवाया। हालांकि स्त्रियों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने के लिए कई प्रयास हुए हैं। जिसमें पुरुषों का एक वर्ग भी है जो सामने आया है। लेकिन अभी और भी प्रयास की आवश्यकता है। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की स्थिति काफी बहुत महत्वपूर्ण है।
प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श का अध्ययन
उपन्यासकारों में सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार प्रेमचंद और उनके साहित्य सृजन ने स्त्रियों को अलग ही मुक़ाम दिया। उन्होंने बड़ी शिद्दत से समाज की समस्याएं उजागर की गई है। उनकी कलम ने नारी को कमज़ोर अबला नहीं बनाया बल्कि सबल और सशक्त बनाया।
“बड़ा आश्चर्य होता है कि जिस कोख ने पुरुषों को जनम दिया उस नारी को पुरुषों ने कैसे अबला बना दिया। जो जन्म के लिए भी स्त्री की कोख के लिए मोहताज़ है उन्होंने उस स्त्री को सर्वथा महत्वहीन बना दिया ।”
प्रेमचंद की लेखनी में स्त्रियां पारिवारिक और राजनीतिक दोनों ही क्षेत्रों में सशक्त किरदार अदा करती हैं। प्रेमचंद स्त्रियों को चाहरदीवारी में कैद नहीं करते उन्हें घर से बाहर भी निकालते हैं और चहारदीवारी के अंदर भी उनकी महत्ता को स्थापित करते हैं। कर्मभूमि उनके सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है। कर्मभूमि भारत की राजनीतिक स्थिति पर लिखी गई उपन्यास है। जिसने लोकप्रियता के नए आयाम गढ़े। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने भारत में अग्रेज़ी शासन के विरोध में पुरुषों के साथ-साथ महिला को भी खड़ा किया है। उन्होंने नारी को केवल कोमलांगी और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति नहीं माना है अपितु उसे कर्मठ और पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने वाली संघर्षशील महिला का स्थान दिया है। कहानी की स्त्री पात्र सुखदा सुख-सुविधा में पली हुई सभ्य सुशिक्षित महिला है, लेकिन वह इन गुणों से अपने पति को मोहपाश में नहीं बांध पाती जबकि साधारण सूरत वाली कर्मठ नारी नायक अमरकांत को प्रभावित करती है और जब सुखदा अपनी इस दिनचर्या को छोड़ सामान्य स्त्री बन जाती है तो वह आत्मशक्ति से परिपूर्ण व्यक्तित्व के साथ उभरती है । जो समाज कल्याण के लिए जेल जाने से भी गुरेज़ नहीं करती और इसमें स्वयं को झोंकने वाली प्रभावशाली व्यक्तित्व बन जाती है। सुखदा का घर परिवार की ज़िम्मेदारियों को निभाना, पति का साथ ना होते हुए भी बाहर नौकरी करना, लोकहित के कार्य करना, स्वतंत्रता आंदोलन में पुरुषों के साथ जेल जाना स्त्री के चारित्रिक विषेशता का सशक्त उदाहरण है। राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रेमचंद युगीन नारियों की दखल थी। गबन की जालपा और रंगभूमि की सोफिया अपनी वैचारिक दृढता की कहानी स्वंय कहती हैं। गबन में जालपा एक ओर अपने पति पर सबकुछ न्योछावर करने वाली पत्नी का किरदार निभाती हैं तो दूसरी ओर उसका क्रांतिकारी रूप देखकर आश्चर्य होता है। जालपा सबल चरित्र का अनुपम उदाहरण है जो बिना झगड़े तत्परता और बहादुरी से ज़िंदगी की जद्दोज़हद से जूझती है। वह अपनी समझ से रास्ता चुनती है। रीति-रिवाज और रुढ़ीवादी संस्कारों को नकारते हुए ज्ञान के उद्दात रुप को अपनाती है। गबन के पैसे से मिला चंदहार उसे स्वीकार नहीं लेकिन पति का साथ भी कभी नहीं छोड़ती है। जालपा का यह रूप सहज ही बता रहा है कि प्रेमचंद की दृष्टि में स्त्रियों कितनी सशक्त हैं। रंगभूमि की सोफिया का किरदार प्रेमचंद ने काफी दबंग रखा है। रंगभूमि में तत्कालीन संपूर्ण भारत के जनमानस की व्यथा-कथा को चित्रित किया गया है। यह कालजयी कृतियों में गिनी जाती है। जिसमें नौकरशाही के साथ- साथ पूंजीवाद के साथ जनसंघर्ष के तांडव, सत्य अहिंसा के प्रति आग्रह को चित्रित किया गया है। ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा दुर्दशा का भयावह चित्रण है। मुंशी जी ने इस उपन्यास में देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को आधार बनाया है, जिसमें सोफिया एक ऐसी नारी है जो राजनीति में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है। । प्रेमचंद की यह नारी पात्र बहुत ही ख़ूबसूरत है जो धर्म पर विश्वास करती है लेकिन धार्मिक अंधविश्वासों को नकार देती है। वह धर्म , त्याग और सद्वविचार का अवतार है जो प्रमुखता से अपने विचार रखती है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों नें सामाजिक विषयवस्तु को उभारा है। जिसमें नारियों को अहम किरदार दिए गए हैं। राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में उनकी नायिकाओं ने अपनी छाप छोड़ी है। संघर्षरत और मेहनतकश नारियां उनके उपन्यासों की जान है।
“जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है लेकिन यदि नारी में यह गुण आ जाए तो वो कुलटा बन जाती है।”
गोदान में उद्ध़त ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नज़रिया प्रस्तुत करती है। गोदान की धनिया सशक्त इरादे की निडर और धैर्यवान महिला है। जो यथासंभव और स्थितिवश विरोध और विद्रोह करती है। दूसरी नारी पात्र झुनिया सामाजिक नियमों को चुनौती देती है, प्यार के बाद शादी का फैसला करती है। वह इतनी मज़बूत है कि ख़ुद सास-ससुर से अपनी शादी की बात करती है। यहां वह पुरुषों से ज्यादा हिम्मती और मज़बूत है। वह ताड़ी पीकर आए गोबर से मार भी खाती है वह भी तब जब वो गर्भावस्था में थी। फिर भी हड़ताल में घायल हुए गोबर की जी-जान से सेवा भी करती हैं। गोदान का यह किरदार सामाजिक भी है और मर्यादित भी।
जहां एक ओर आदर्शवादिता को ओढ़े ग्राम्य समाज किसान वर्ग लड़ते- लड़ते ही मर जाता है। वहां उनकी औरतें रोते- कलपते जिंदगी की दुश्वारियों से समझौता करते सारी जिंदगी काट देती है। वो इन दुश्वारियों को अपनी किस्मत मान कर हर हाल में संतोष से रह लेती हैं। प्रेमचंद इस उपन्यास के अंतिम दृश्य में अपनी लेखनी से साक्षात सच्चाई प्रस्तुत कर देते हैं। “ महाराज घर ना गाय है ना बछिया ना पैसा, यही पैसे हैं । यही इनका गोदान यही और पछाड़ खाकर गिर पड़ती है। “किसान वर्ग के तकलीफ का या चित्रण मार्मिक दृश्य पैदा कर देता है । पढ़ने वालों को उनकी पीड़ा का गहन अनुभव होता है। इस कथा में धनिया एक गरीब किसान की पत्नी है जो परिवार की खुशी के लिए जी-जान से लगी रहती है। धनिया सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर अपनी सशक्त छाप छोड़ती है। सेवासदन की नारी पात्र सुमन सामाजिक विडंबना और आडबंरो को तोड़कर नारी स्वाधीनता की शुरूआत करती है। सुमन एक ऐसा चरित्र है जो बेमेल विवाह और दहेज प्रताड़ना की शिकार है। उसका चरित्र आदर्शवाद से ज्यादा यथार्थवाद के रूप में पाठकों के सामने आता है। सामाजिक और पारिवारिक विसंगति की शिकार सुमन पति की प्रताड़ना से परेशान होकर घर छोड़ देती है। कहानी में तमाम विपरित परिस्थितियों से जूझते हुए भी अपनी सशक्त छाप छोड़ जाती है।
प्रेमचंद युगीन समाज में नारी पूर्णतया पुरुषों के अधीन थी। यह वह काल था जब पति की मृत्यू हो जाने पर नारी का अस्तित्व नकार दिया जाता था। उसे जायदाद से बेदखल कर दिया जाता था। उस दौर में विधवा होते ही स्त्री अपने अधिकारों से भी वंचित हो जाती थी । विधवा समस्या को मुंशी जी अपने कई उपन्यासों में प्रमुखता से उठाया है। गबन में विधवा रतन कहती है। “ ना जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था कि, पति के मरते ही हिन्दु नारी इस प्रकार स्वत्व-वंचिता हो जाती है। “ वैधव्य के कई उदाहरण उनके उपन्यास में है। जिसके चलते नारी आश्रय विहीन हो जाती है। आर्थिक मामलों से वंचित होकर निराश्रय जीवन जीती हैं। जिसकी वजह से उन्हें अपनी अनेक इच्छाओं को मारना पड़ता है। वरदान में वृजरानी विधवा है लेकिन प्रेम के लिए तरसते मन को प्रताप से प्यार हो जाता है । लेकिन वो प्रताप से विवाह नहीं कर सकती। प्रतिज्ञा में पूर्णा सौंदर्य की मूर्ति होते हुए भी वैधव्य को नसीब समझ कर कृष्ण की भक्ति में लीन हो जाती है। पति की मौत के बाद धर्मावलंबियों और पोंगा पंडितों द्वारा औरत की अस्मिता से खेले जाने का दुखद चित्रण है। गायत्री रासलीला में फंस कर रह जाती है। वहीं धुनिया और स्वामिनी अपने मनमुताबिक विवाह कर संतुष्ट जीवन जीती हैं। प्रतिज्ञा में पूनर्विवाह का तारतम्य रच कर भी किसी पात्र द्वारा प्रेमचंद ऐसा संभव नहीं करा पाए।। पूर्णा को वनिता आश्रम भेज दिया जाता है। जाहिर है प्रेमचंद यह फैसला समाज पर छोड़ना चाहते थे । उनके उपन्यासों में कल्याणी रतन , रेणुका देवी ऐसी विधवाएं हैं जिन्हे वैधव्य से शिकायत नहीं है। विरंजन (वरदान),गायत्री (प्रेमाश्रय), बागेश्वरी (कायाकल्प), कल्याणी (निर्मला), रतन (गबन) और रेणुका देवी (कर्मभूमि) ऐसी स्त्री पात्र हैं जिन्होंने विधवा जीवन स्वीकार करते हुए उन्हें जिया और मर्यादा का पालन किया।
आर्थिक निर्भरता ने स्त्रियों को समाज में गुलाम बना दिया। वो अपनी छोटी-छोटी जरुरतों के लिए भी मोहताज़ बनी रहीं। मंगलसूत्र में प्रेमचंद ने नारी की इस व्यथा का दिखाया है। नायक संतकुमार अपनी पत्नी से कहते हैं कि “जो स्त्री पुरुष पर अवलंबित हो उसे पुरुष की हुकुमत माननी पड़ेगी । जिसपर नारी पात्र का जवाब है कि अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूं तो तुम भी मेरे आश्रित हो। मैं जितना काम तुम्हारे घर में करती हूं उतना अगर किसी दूसरे घर में करुं तो अपनी निर्वाह कर सकती हूं। तब जो कमाउंगी वो मेरा होगा बोलो। मैं चाहे प्राण दे दूं मेरा किसी चीज़ पर अधिकार नहीं । तुम जब चाहो मुझे निकाल सकते हो।“ यह संवाद नारी की स्थिति और और उसका विरोध बयान करता है।
अपनी रचनाओं में प्रेमचंद ने सर्वथा स्त्री के आर्थिक स्वतंत्रता एवं विकास के पक्षधर रहे हैं। लेकिन उन्होंने भारतीय मूल्यों को कभी भी नहीं नकारा है। वे पश्चिम सभ्यता के अनुकरण को नकारते थे। पाश्चात्य देशों की स्वछंदता उन्हें रास नहीं आती थी। पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण की जो भावना भारत के कुछ उच्च शिक्षित नारियों में आ रही थी। प्रेमचंद उसे चिंता का विषय मानते थे। भारतीयता उनके दिल में बसती थी। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने स्त्री विमर्श पर खुलकर और ज़ोरदार क़लम चलाई है। उन्होंने स्त्री को पुरुष की साथी माना है जो तत्कालीन समाज में भी प्रासंगिक है। कायाकल्प में नायक की स्त्री पूछती है “नारी के लिए पुरुष सेवा से बढकर और विलास, भोग या श्रृंगार नहीं है परंतु कौन कह सकता है कि नारी का यह त्याग उसकी सेवा भाव ही आज उसके अपमान का कारण नहीं हो रहा है?” अपने उपन्यासों में प्रेमचंद ने स्त्रियों के आर्थिक स्वतंत्रता के रास्तों को सुगम किया है। प्रेमचंद ने आदर्शवाद का साथ भी कभी नहीं छोड़ा। वे पात्रों के चरित्र-चित्रण में आदर्शवाद को अहम मानते हुए तात्कालिन परिस्थिति को रखते थे।
प्रेमचंद का मानना था कि सामाजिक नियम स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान है। किसी भी कार्य के लिए यदि सहभागिता समान है तो परिणाम में भी बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहीए। पुरुष सच्चरित देवता बन जाए और स्त्री कलंकनी ऐसा नहीं हो सकता। सच्चा प्रेम ग़लत राह पर चल पड़ी स्त्री में भी सुधार ला सकता है। इस मनोवैज्ञानिक स्थिति को मुंशी जी अपने पात्रों के माध्यम से सामने लेकर आए। गबन की वेश्या जोहरा और गोदान की तितलीनुमा सोसाइटी लेडी मिस मालती ऐसी ही स्त्रियां हैं। वेश्यावृति पर उनकी भावनाएं कोमल रही हैं। उनकी अवधारणा थी कि वेश्यावृति को अपनाने वाली महिलाएं समाज से ठुकराई गई हैं। मजबूरी में ही कोई भी स्त्री ये पेशा अपनाती है। सेवासदन इसका स्पष्ट उदाहरण है। सेवासदन में सुमन दहेज और पति द्वारा प्रताड़ित होने के बाद अपने आप को वेष्यावृति की आग में झोंक देती है। सेवासदन में बैंक के बाबू और समाज सुधारक विट्ठल दास से वेश्यावृति अपनाने की बात पर कहती है “ मैं जानती हूं कि मैने अत्यंत निकृष्ठ काम किया है, लेकिन मैं विवश थी। इसके सिवाय मेरे लिए कोई रास्ता ना था। मेरे मन में बस यही चिंता रहती है कि आदर कैसे मिले। “ यहां प्रेमचंद यह तथ्य उजागर करते हैं कि निम्न से निम्न कार्य करने वाला भी आदर चाहता है” स्त्रियों को भी सम्मान मिलना चाहिए।
निर्मला वो किरदार है जिसने बेमेल विवाह और दहेज दोनो को झेला । निर्मला में 15 साल की बालिका निर्मला का विवाह 45 साल के तोताराम से हो जाता है। विषम परिस्थितियों और मानसिक द्वंद को झेलते-झेलते निर्मला अपनी ज़िदगी बिता देती है। यहां अयोग्य वर होते हुए भी खानदान के नाम पर निर्मला की शादी कर दी जाती है मानो खानदान का अच्छा होना ही सबकुछ है। वर की योग्यता मायने नहीं रखती। सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों के लिए वह खोखले आदर्शो को निभाती चली जाती है।
निष्कर्ष: प्रेमचंद ने अपने साहित्य में नारी के कई रूपों को दिखाया । भूतकाल और वर्तमान काल की मुश्किल परिस्थियों के साथ-साथ उन्होंने भविष्य को भी काफी आगे तक देखा है। उनके नारी पात्र स्त्री विमर्श का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत कर करते हैं। उनके युग में नारी कई अधिकारों से वंचित थी। ये वो दौर था जब शारिरिक , सुंदरता,निर्बलता और उनके दैविय गुणों का महिमा मंडन कर स्त्री को घर के अंदर कैद कर दिया गया। परिवार पर पुरुषों ने अपना वर्चस्व क़ायम रखा। स्त्रियों को परावलंबी और मूकदर्शिका बना दिया। ऐसे में उनकी स्थिति गिरते-गिरते ग़ुलाम जैसी हो गई। आर्थिक निर्भरता ने उनसे पारिवारिक निर्णय लेने का अधिकार छीन लिया। जहां देवी पूजिता होनी चाहिए थी वहां नारी शोषित , अपमानित बना दी गई। इस स्थिति को सुधारने के लिए प्रेमचंद ने साहित्य का सहारा लिया। प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श की स्थिति काफी मज़बूत है। युग द्रष्टा और युग स्रष्टा प्रेमचंद ने स्त्री को पुरूष से ऊपर माना है। उनके उपन्यासों में स्त्री पात्र महज़ कल्पना नहीं है बल्कि तात्कालिन युग की जीती-जागती तस्वीर है। उनके उपन्यासों की नारी पात्रों ने बेमेल विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि कई समस्याओं को झेला है, जीया है, विरोध में स्वर मुखर किए हैं। अनमेल विवाह में स्त्रियों का अपमानित होना, नौकरानियों से निम्नतर व्यवहार यहां तक की समाज में बेटियां बोझ मानी गई ।इन सब कुरुतियों को प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में दिखाया है। इन कुरूतियों को दूर करने के लिए उन्हे नारी का आत्मनिर्भर होना स्वीकार है। उनके उपन्यासों में महिला पात्र, माता , विधवा , प्रेमिका, परिणीता, मेहनतकश, समाजसेविका जैसे कई रूपों में अमिट छाप छोड़ती है।
“आज हिंदुस्तान नारी को क्रांतिकारी बनाने के लिए जिस सशक्त दौर से गुजर रहा है और जिस स्त्री विमर्श की बातें जोर-शोर से हर मंच पर उठाई जाती है उसे प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके हैं । प्रेमचंद के साहित्य की नारी महज नारी नही है। वह इस भौतिक जगत से कहीं उपर उठकर शक्ति का रूप धारण कर लेती है। जिसके समावर्णन को पढ़कर ऐसा लगता है कि मानो समाज में उसने ही संतुलन क़ायम रखा है।“
संदर्भ सामग्री सूची –
1. सिमोन, वी. (1949), द सेकेंड सेक्स, फ्रांस।
2. दास, आर (2016) , अनभाई.कम।
3. प्रेमचंद गोदान (1936), गोदान इलाहाबाद: हंस प्रकाशन।
4. गबन, गोदान इलाहाबाद: हंस प्रकाशन।
5. मंगलसूत्र अप्रकाशित , इलाहाबाद: हंस प्रकाशन।
6. गोयनका, के. के. 1962, प्रेमचंद कहानी रचनावली (खण्ड तीन) नई दिल्ली : साहित्य अकादमी।
7. खेतान, पी. (1990), स्त्री उपेक्षिता, हिन्द पॉकेट बुक्स
8, उपन्यासकार प्रेमचंद, लेख प्रेमचंद , और उनकी नायिकाएं, डॉ सुरेश सिंहा
सीमा सिंह
सहायक प्रोफेसर–हिंदी
रमाबाई अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय
गजरौला, अमरोहा