‘कथा सम्राट’ प्रेमचंद का आविर्भाव हिंदी साहित्य में एक ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आन्दोलनों का उन्होंने अपने कथा साहित्य द्वारा नेतृत्व भी प्रदान किया और नये भारत के निर्माण की दिशा तय करने का काम भी किया। उस समय गुलाम भारत का विसंगतिमय अस्त-व्यस्त परिदृश्य अंग्रजों की साम्राज्यवादी शोषणकारी नीतियों से अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त हो चुका था। विदेशी शासकों के शोषण और अत्याचार के साथ-साथ ज़मींदारों और महाजनों की क्रूरता के कारण जनसाधारण की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो चुकी थी। 1905 ई. में रूसी क्रांति के पश्चात समस्त एशिया के साथ भारत में भी जनआन्दोलन व विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे थे। ऐसे समय में प्रेमचंद ने ‘सोजे़वतन’ नाम से एक कहानी संग्रह प्रकाशित किया जो देशप्रेम की भावना जगाने वाली कहानियों का संकलन था। यहीं से प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का आरंभ होता है।

पे्रमचंद की कहानियों का रचनाकाल लगभग 30 वर्ष की अवधि में फेला हुआ है। इस बीच उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं। इसके अलावा प्रेमचंद ने उपन्यास, नाटक, निबंध, जीवनी, बाल-साहित्य तथा अनुवाद जैसी विधाओं के क्षेत्रा में भी अतुलनीय काम कियां हिंदी कथा संसार के व्यापक परिदृश्य पर दृष्टि डॉ.लें तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद के आगमन के साथ ही पहली बार भारतीय जीवन की यथार्थ परिस्थितियों को निकट से देखने समझने का प्रयत्न किया गया। साहित्य को सामंती कटघरे से निकाल कर प्रेमचंद में सामान्य जन को अपनी कहानियों का विषय बनाया। प्रत्येक साहित्यकार अपनी समकालीन परिस्थितियों से प्रभावित होता है और प्रेमचंद भी उनसे अछूते नहीं थे। समकालीन जीवन की विषमताओं, कुरीतियोंद्व दलित-पीड़ित, अभावग्रस्त लोगों के जीवन को अपने कथा-जगत का हिस्सा बनाया।

पे्रमचंद का असली नाम नाम धनपत राय था। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। अपनी माता का नाम ‘आनंदीदेवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डॉ.कमुंशी थी। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में अध्यापक हो गए। नौकरी के साथ उन्होंने पढ़ाई भी जारी रखी और 1919 में बी.ए. पास करने के बाद वो शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। माता पिता की मृत्यु छोटी अवस्था में ही हो जाने कारण प्रेमचंद का प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। आर्यसमाज की विचारधारा से वे काफ़ी प्रभावित थेद्व इसी प्रभाव के कारण उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। 1910 में देशभक्ति के विचारों को अभिव्यक्त करने वाली रचना ‘साजेवतन’ के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें चेतावनी दीं उसके बाद वो पे्रमचंद के नाम से लिखने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में वो गंभीर रूप से बीमार पडे़। उनका अन्तिम उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ अधूरा रह गया जिसके बाद में उनके पुत्र ने पूरा किया। बीमारी के चलते 8 अक्तूबर 1936 को उनका निर्धन हो गया।

लेखन के संदर्भ में प्रेमचंद के विचार उनके अपने साहित्य और सभी के लिए अत्यन्त प्रेरक रहे हैं। स्वयं पे्रमचंद का लेखन उनके विचार का समर्थन करता है “साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। “अपनी कथायात्रा में प्रेमचंद ने भारतीय जन जीवन की सामूहिक चेतना को अभिव्यक्ति दी है। अपने कथा साहित्य में उन्होंने अधिकांशतः ऐसे विषयों को प्रस्तुत किया है जिनका सम्बन्ध आम जनता से दिखता है। वस्तुतः प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में न तो अतीत का ‘गौरव गान किया है ना ही चमचमाते भविष्य की कल्पना। वे बेलौस होकर वर्तमान की समस्याओं का विश्लेषण करते हैं, खासतौर पर भारतीय समाज के आचार-व्यवहार, रहन-सहन, सुख-दुःख को जानने के लिए पेे्रमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया हैद्व किन्तु उनकी दृष्टि समाज के उपेक्षित वर्ग पर अधिक रही है। प्रेमचंद ने यथार्थ की धरती पर आदर्श की स्थापना करने का प्रयत्न किया जिसे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के नाम से अभिहित किया गया है। अपनी साहित्य विकास यात्रा में प्रेमचंद ने जब पाया कि मानवीय मूल्य निरन्तर टूट रहे हैं और वास्तव में हृदय-परिवर्तन होना इतना आसान नहीं है तो ‘कफ़न’ जैसी कहानी में मानव मनोविज्ञान की सच्चाई का यथार्थ चित्रण उनकी कलात्मक श्रेष्ठता का प्रदर्शक बना है। प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं का चित्रण ही उनकी कथावस्तु की विविधता का आधार है। उन्होंने ग्रामीण जीवन, कृषकों की दुर्दशाद्व मज़दूरों और मिल मालिक, जमींदारों, किसानों तथा सामंती व्यवस्था के दुष्प्रभावों और परिणामों को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया है। उनके कथा-साहित्य में किसान के जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारा गया है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और किसान इस व्यवस्था का कत्र्ता धत्र्ता। परन्तु कृषि-व्यवस्था की मुख्य-ध्ुारुी किसान का शोषण और उत्पीड़न किस प्रकार हो रहा है, कैसे जीवन-यापन की माूमूली चीज़ों का भी उसके पास अभाव है इसका चित्रण प्रेमचंद ने किया है। किसानों के शोषक हैं सामंत, महाजन, पुरोहित और वो रीतिरिवाज जो उसे शोषित और प्रताड़ित करते हैं। वह खुद ही अपने खेत में श्रम करके अनाज़ उगाता है और उसे उठाने के समय ज़मीदार अपना हिस्सा ले लेता है, अपनी ज़रूरतें पूरी करने के ऋण लेकर वह महाजनों के चंगुल में फँस जाता है और दूसरी तरफ सामाजिक मान्यताओं के चलते पुरोहितों पंडितों का दबाव भी उस पर बना रहता है। किसान परिवार की संस्कृति को प्रेमचंद ने भारतीय संस्कृति के ऊँचे आदर्शों की भूमि पर अभिव्यक्त किया है। अटूट परिश्रम, व्यक्तिगत सुख-सुविधा का त्याग, छोटे-भाई बहनों की देखभाल, संयुक्त परिवारद्व संतोष, दया, करूणा, बड़प्पन जैसे मानवीय गुणों को प्रेमचंद ने अपनी कहानी का विषय बनाया है। जैसे ‘अलग्योझा’ कहानी में या ‘बडे़ घर की बेटी’ में आर्थिक परेशानियों से लड़ते हुए भी अपने सुख और अहंकार को छोड़कर परिवार की एकता को बनाए रखने का प्रयास दिखाई देता है। ‘अलग्योझा’ प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं का चित्रण ही उनकी कथावस्तु की विविधता का आधार है। उन्होंने ग्रामीण जीवन, कृषकों की दुर्दशा, मज़दूरों और मिल मालिक, जमींदारो, किसानों तथा सामंती व्यवस्था के दुष्प्रभावों और परिणामों को अपने कथासाहित्य का विषय बनाया है। उनके कथा-साहित्य में किसान के जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारा गया है। भारत एक कृषि-प्रधान देश है और किसान इस व्यवस्था का कत्र्ता धत्र्ता। परन्तु कृषि-व्यवस्था की मुख्य -धुरी किसान का शोषण और उत्पीड़न किस प्रकार हो रहा है, कैसे जीवन यापन की मामूली चीज़ों का भी उसके पास अभाव है इसका चित्रण पे्रमचंद ने किया है। किसानों के शोषक है सामंतद्व महाजन, पुरोहित और वो रीतिरिवाज जो उसे शोषित और प्रताड़ित करते हैं। वह खुद ही अपने खेत में श्रम करके अनाज़ उगाता है और उसे उठाने के समय ज़मींदार अपना हिस्सा ले लेता है, अपनी ज़रूरतें पूरी करने के ऋण लेकर वह महाजनों के चंगुल में फत्रस जाता है और दूसरी तरफ सामाजिक मान्यताओं के चलते पुरोहितों पंडितों का दबाव भी उस पर बना रहता है। किसान परिवार की संस्कृति को प्रेमचंद ने भारतीय संस्कृति के ऊँचे आदर्शों की भूमि पर अभिव्यक्त किया है। अटूट परिश्रम, व्यक्तिगत सुख-सुविधा का त्याग, छोटे-भाई बहनों की देखभाल, संयुक्त परिवार, संतोष, दया, करूणा, बड़प्पन जैसे मानवीय गुणों को प्रेमचंद ने अपनी कहानी का विषय बनाया है। जैसे ‘अलग्योझा’ कहानी में या ‘बडे़ घर की बेटी’ में आर्थिक परेशानियों से लड़ते हुए भी अपने सुख और अहंकार को छोड़कर परिवार की एकता को बनाए रखने का प्रयास दिखाई देता है। ‘अलग्योझा’ कहानी में मोला ‘पहली स्त्री के मर जाने के बाद’ पन्ना से शादी कर लेता है और दस वर्ष के रग्धू के जीवन की कठिनाइयाँ शुरू हो जाती हैं। परन्तु भोला की मृत्यु पन्ना और उसके बच्चों को रग्धू पर निर्भर कर देंती है। रग्धू की पत्नी इस व्यवस्था को तोड़कर अपनी गृहस्थी अलग कर लेती है। परन्तु एक बार फिर स्थितियाँ बदलती हैं रग्धू की मृत्यु मुलिया को अनाथ बना जाती है ऐसे में बदलती हैं रग्धू की मृत्यु मुलिया को अनाथ बना जाती है ऐसे में केदार उसे न केवल सहारा देता है बल्कि सबकी सहमति से अपनी विधवा और बच्चों वाली भाभी से विवाह भी कर लेता है। इस प्रकार कहानी अलगाव पर नही वरन् संयुक्त परिवार के विचार की पुनस्र्थापना पर समाप्त होती है। प्रेमचंद ने कृषक जीवन में संयुक्त परिवार की ज़रूरत का बहुत भावपूण अंकन इ कहानी में किया है। ‘बडे़घर की बेटी’ में भी परिवार के टूटने की स्थिति के बीच एकता बनी रहने की परिस्थितियों का बड़ा मार्मिक चित्रण प्रेमचंद ने किया है।

नैतिक भावबोध और मानवीय भावनाओं को जगाने वाली कहानियों से प्रेमचंद का कथा साहित्य भरा पड़ा है। ‘पंचपरमेश्वर’ कहानी में न्याय करने वाले पंच। ‘ईदगाह’ में बूढ़ी दारी के हाथ जलने की चिंता करने वाला बालक हामिद जो सारे बच्चों को मौज-मस्ती करते देख कर भी उन चीज़ों की ओर आकृर्षित नहीं होता और चिमरा खरीद लेता है। यही नहीं व अपनी अद्भुत तर्कबुद्धि से सारे बच्चों को प्रभावित भी करता है। ‘बूढ़ी काकी’ भी मनुष्य की निम्न और उच्च प्रवृत्तियों को एक साथ जाग्रत करने वाली कहानी है। बुजुर्गों की उपेक्षा का मार्मिक चित्र प्रेमचंद ने खींचा है परन्तु झूठी पत्तलों से उठाकर भोजन खाती काकी उसके भतीजे की बहू के मन में ईश्वर का भय उत्पन्न कर देती है। वह अपने बच्चों के सुख की कामना करते हुए स्वयं अपने हाथ से परस कर काकी को भोजन कराती है। इसी प्रकार ‘बडे़ भाईसाहब’ कहानी छोटे भाई से बुद्धि में कमज़ोर होते हुए भी आयु में बड़े होने की जिम्मेदारी को निभाने की कहानी है।यह कहानी बड़प्पन निभाने की विषम परिस्थितियों को उद्घाटित करती है। ‘दो बैलों की कथा’ एक ओर कृषक जीवन के अभावों की कथा हैं तो दूसरी ओर जानवरों में भी सम्वेदनशीलता और अपनेपन की भावाना होती हैं इसका अत्यन्त भावपूर्ण चित्रण इस कहानी में हुआ है। ‘कफ़्न’ कहानी प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों की कड़ी में अत्यंत महत्वपूर्ण है। घीसू और माधव दोनों पेट की भूख से मज़बूर हैं इसलिए मरने वाली के नाम पर ‘कफ़न’ के लिए जो पैसा माँग कर लाते हैं उससे बढ़िया खाने-पीनेका इंतजाम करके घीसू माधव से कहता है, “खूब खा और आशीर्वाद दे, जिसकी कमाई है वो तो मर गई, उसे रोएं-रोएं से आशीर्वाद दे, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं।” वस्तुतः आदर्श और नैतिक मूल्य तभी तक जीवित रहते हैं जब पेट भरा हो अन्यथा सभी प्रकार की चेतना का लोप हो जाता है। यह कहानी सच में सारी चेतना को झकझोरने वाली कहानी है। प्रेमचंद की ऐसी बहुत सी कहानियाँ है जो अनेक स्तर पर विषय-वस्तु और कथ्य की दृष्टि से हमें प्रभावित करती हैं। दलितों, स्त्रियों, ग्रामीणों, बेरोज़गारों, शिक्षितों आदि सभी के जीवन का प्रतिनिधित्व प्रेमचंद के कथा साहित्य में हुआ है।

प्रेमचंद की कहानियों में आने वाले पात्र भी पर्याप्त भिन्नता लिए हुए हैं और मानव चरित्र के वैविध्य का स्थापित करते हैं। उनकी कहानी के कथ्य से जुड़ कर प्रत्येक पात्र स्वयं अपने चरित्र का विकास करता और नए-नए रूपों को गढ़ता दिखाई देता है। प्रेमचंद के पात्र इतने स्वभाविक रूप से विकसित हुए हैं कि उनमें लेखक के प्रयास जनित कृत्रिमता कहीं दिखाई नहीं देती है। प्रेमचंद ने स्वयं मानव चरित्र की जटिलता पर प्रकाश डॉ.लते हुए कहा है,” मानवीय चरित्र इतना जटिल है कि बुरे से बुरा आदमी भी देवता हो जाता है और अच्छे से अच्छा आदमी पशु। पर वास्तव में मानव स्थितियों के हाथ का खिलौना आदमी पशु। पर वास्तव में मानव स्थितियों के हाथ का खिलौना मात्र है अर्थात् मानव चित्रण की यह जटिलता स्थितियों की जटिलता का प्रतिबिम्ब है।” इसी सिद्धान्त पर चलते हुए प्रेमचंद के चरित्र घटनाओं के घात-प्रतिघात से निकले हुए, विभिन्न भावों से प्रभावित होते हैं तथा अलग-अलग परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। ये सभी पात्र प्रेमचंद के निजी अनुभव की उपज हैं। प्रेमचंद ने स्वयं अभावों के बहुत नज़दीक से देखा था, ग्रामीण जिंदगी के साथ उनका स्वयं बहुत निकट का संबंध रहा इसीलिए इन सभी पात्रों को रचते समय उनके अपने अनुभवों ने चरित्रों को जीवन्तता प्रदान की। प्रेमचंद के स्वयं के शब्दों मेंद्व ‘वह उन्हीं पात्रों का सफल चित्रण कर सकता है जिनसे वह निजी अनुभव से परिचित है।’ प्रेमचंद के पात्रों की निर्मिति समकालीन जीवन सत्यों से हुई हैं इसीलिए भिन्न-वर्गों और क्षेत्रों से चुने गए पात्र जैसेमज़दूर, किसान, ज़मीदार, दलित महाजन, शहरी-ग्रामीण बुढे़-जवान, स्त्री-पुरूष आदि आपसी संबंधोंद्व संघर्षों, मन-स्थितियों परिस्थितियों, समस्याओं आदि का बहुत आत्मीय अभिव्यक्ति करने में समर्थ हुए हैं। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से प्रमेचंद की कहानियों के पात्र बाह्य अथवा स्थूल व्यक्तित्व के स्थान पर चरित्र का आंतरिक विशिष्टताओं पर आधृत हैं।

कहानी कला के संदर्भ में यदि प्रेमचंद को अन्य विशिष्टताओं को देखें तो उनकी कहानियाँ उद्देश्य, संवाद, देशकाल, वातावरण आदिकी कसौटी पर खरी उतरती हैं। लेखन के प्रति पे्रमचंद का दृष्टिकोण मानवादी था, वास्तव में कलात्मकता से अधिक प्रेमचंद का ध्यान दीन, दुखी, शोषित लोगों की स्थिति को सुधारने या उनके कल्याण का उपाय करने की ओर जाता था। इसी मानवतावाद की भूमि पर आरूढ़ होकर प्रेमचंद ने अपनी कहानियों को सोद्देश्य बनाया है। चाहे ‘नामक का दारोगा’ मे ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता का संदेश देना हो या ‘शंतरंज के खिलाड़ियों’ द्वारा देश प्रेम और देश के हितों के लिए न लड़ने वाले शतरंज के दोनों खिलाडियों द्वारा मोहरों के लिए तलवारों निकाल लेना में जो व्यंग्य हैं वह देशभक्ति का संदेश देता है। ‘नाश’ कहानी में ईश्वरीप्रसाद पर अपने मित्र की अमीरी का उपभोग करते समय शानो शौकत का जो नशा चढ़ता है उस दिखावटी अमीरी पर भी पे्रमचंद ग्रामीण किसान के माध्यम से चोट करते है ‘डब्बे में चढ़ पावत नाहीं तो पे इतना गुमान।” वास्तव में यह पे्रमचंद द्वारा अमीरों का विलासिता पर कटाक्ष है। विधवा विवाह, छूआछूत का विरोध, बुजुर्गों का सम्मान करना पंच के पद पर बैठकर अन्याय न करना, संयुक्त परिवार आदि ऐसे अनेक विचारों को जन-जन तक पहुँचाना प्रेमचंद की कहानियों का उद्देश्य रहा है। प्रेमचंद की कहानियों अपने देशकाल तथा समकालीन वातावरण की उपज हैं। धर्म, समाज, परिवार, ग्रामीण और शहरी जीवन, घर, कृषि, व उद्योग-धधों के साथ मेलों का दृश्य, खेतों, नहरों, हलचलाते किसान, पेंड़, पौधे, फसलें, बड़ी-बड़ी हवेलियों के दृश्य आदि उनकी कहानियों की विषयवस्ुतु के साथ जुड़कर अत्यन्त प्रभावशाली हो जाते हैं।उनकी कहानी के संवाद अत्यन्त नाटकीय बन पड़े है। वैसे भी कहानी के विकासद्व चरित्र के उद्घाटन, घटनाओं के चित्रण आदि में संवादों की विशिष्ट भूमिका रहती है। कहाने के संक्षिप्त कलेवर में संवाद सारगर्मत्व लाने में सहायता करते हैं। वर्णन के स्थान पर संवाद ही कहानी में गतिशीलता का तत्व उत्पन्न करते हैं। इस दृष्टि प्रेमचंद की कहानियों में संवादों का अत्यन्त सफल प्रयोग दृष्टिगत होता है।

‘प्रेमचंद के साहित्य पर विचार करते हुए उन्हें ‘कलम का सिपाही’ कह कर पुकारा जाता है। प्रेमचंद भाषा को राष्ट्र और समाज की बुनियाद मानते थे। इसीलिए वे अंगे्रज़ी के विरोधी थे। उन्होंने स्वयं कहा है, “हमारी पराधीनता का सबसे अपमानजनक सबसे व्यापक, सबसे कठोर अंग अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व है।” “जुबान की गुलामी ही असली गुलामी है।” यही कारण है कि प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में उसी भाषा को अपनाया जो हिंदुस्तान के लाखों लोगों की भाषा है। आरंभ में उन्होेंने उर्दू भाषा में कहानियाँ लिखी पर बाद में सरल, सहज हिंदी भाषा को ही अपने साहित्य का आधार बनाया उनकी भाषा साधारण लोगों की बोलचाल की हिंदी थी। उसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, फारसी, संस्कृत और कभी-कभी अंग्रेजी आदि शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है जो भावों और विचारों के अनुकूल है। उनकी भाषा पात्रानुकूल है और इसीलिए उसमें पात्रों की मनःस्थिति, सामाजिक स्तर, धार्मिक स्थिति आदि के अनुसार उतार-चढ़ाव तथा शब्द और वाक्यों का चयन दिखाई देता है। उनकी शैली पर उर्दू का प्रभाव दिखाई देता है जो कि उसके चुलबुला बनाता है। प्रचलित अलंकार जैसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा का प्रयोग शैली को लालित्यपूर्ण बनाने के लिए आवश्यकतानुसार, सहज और स्वाभाविक रूप में हुआ है। प्रेमचंद की भाषा को धारदार और स्वाभाविक रूप में हुआ है। प्रेमचंद की भाषा को धारदार और सशक्त बनाने में मुहावरे और सूक्तियों के प्रयोग का भी बड़ा योगदान है। इनके प्रयोग में प्रेमचंद अत्यंत कुशल थे। कहानी कला को प्रभावशाली बनाने में इस प्रकार की भाषा का बहुत बड़ा हाथ है, विषय वैविध्य और समस्या बहुत समाज को वाणी देने में प्रेमचंद की भाषा की सामथ्र्य देखने योग्य है।

प्रेमचंद का साहित्य सामान्य जनता का साहित्य है। उनकी कहानियों में उठाई गई मानवीय समस्याएँ, उनमें घटित होने वाली घटनाएँ, उनके द्वारा रचे गए पात्र सभी वास्तविक जीवन से उद्भूत और अवतरित हुए हैं। प्रेमचंद के बाद का हिंदी साहित्य उनका ऋणी है। प्रेमचंद की कहानी जिस प्रकार जीवन से जुड़ी है, वह आज भी प्रासंगिक है।

संदर्भ

  1. प्रेमचंद एक साहित्यिक विवेचनः नंद दुलारे बाजपेयी
  2. प्रेमचंद और उनका युगः डॉ.. रामविलास शर्मा
  3. प्रेमचंद की आत्मकथाः मदन गोपाल
  4. गवेषणा; नये दौर में पे्रमचंदः केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, अंक 100
  5. प्रेमचन्दः विविध आयामः डॉ.. दिनेश प्रसाद सिंह
डॉ.. साधना शर्मा
श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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