आधुनिक हिंदी के साहित्यकारों में प्रेमचंद एक वैश्विक साहित्यकार हैं। वे 1916 से 1936 तक अर्थात 20 वर्षों तक कथा साहित्य की संरचना में लगे रहे। साहित्य के माध्यम से युग के ढांचे को बदलने का उपकरण ही प्रेमचंद के साहित्य का प्राण है। वे साहित्य को परिवर्तन और जागरण का सशक्त माध्यम मानते थे। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष सीए भाषण में उन्होंने ‘साहित्य को समाज के आगे चलने वाली मशाल कहा है।’ वह हिंदी के युग प्रवर्तक कहानीकार हैं । वे पहले नवाबराय के नाम से उर्दू में लिखते थे, कालांतर में हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे ।उनकी पहली हिंदी कहानी ‘सौत’ सन 1915 में प्रकाशित हुई और अंतिम सन 1936 में, इस युग को प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है।उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग 300 कहानियों की रचना की जो ‘ मानसरोवर’ के 8 भागों में संकलित है। भाव और शिल्प की दृष्टि से अंतर पूर्व और बाद की कहानियों में स्पष्ट दिखाई देता है। इन कहानियों में वे स्वयं के अनुभव को दोहराते नहीं दिखते। उनके चरित्र और विषय जाने पहचाने हैं। उनकी कहानियों की लोककथा जैसी सीधी-सादी शुरुआत और लोक रस की गहरी अनुभूति का निर्वाह पाठकों को बांधे रखता है। उनकी कहानियों में तत्कालीन समाज का विशद चित्रण मिलता है। पुष्पाल सिंह के शब्दों में “ प्रेमचंद ने मनुष्य, समाज व्यक्ति और उसके परिवेश को कथा के केंद्र में ला खड़ा किया था। सामान्य व्यक्ति उनकी कहानियों का नायक बना।”1
प्रेमचंद ने कहानियों को जीवन का अंग माना है उनके अनुसार “ सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।”2 मनोविज्ञान पर आश्रित होने के कारण प्रेमचंद की कहानियों में आदर्श और यथार्थ को विशेष स्थान मिला है। उनका दृष्टिकोण चरित्र- चित्रण और कथावस्तु में यथार्थवादी है परंतु दृष्टिकोण में आदर्शवादी हैं।
यथार्थ और आदर्श के संबंध में प्रेमचंद ने विस्तार से विचार किया है,उन्होंने किसी बंधी बंधाई विचार प्रणाली के साथ अपने को बांध लेने की बजाय अपने लिए स्वतंत्र मार्ग का निर्माण किया । वे यथार्थ को साहित्य के लिए अनिवार्य मानते हैं, लेकिन यथार्थ के अतिवादी रूप को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। वे समाज में यथार्थ को ही देखना चाहते हैं और आदर्श को भी नहीं भूल पाते, दोनों के अतिरेक रूप के समर्थक नहीं है।“ यथार्थवाद यदि हमारी आंखें खोल देता है तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुंचा देता है। आदर्शवाद से सदैव यह भय बना रहता है कि साहित्यकार कहीं ऐसे चरित्रों का निर्माण न कर बैठे जो केवल सिद्धांतों की यथार्थ मूर्ति हो। किसी देवता की कामना करना मुश्किल नहीं, लेकिन उस देवता में प्राण प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।”3 प्रेमचंद इस खतरे से परिचित थे कि यथार्थ के भीतर से ही जन्मा आदर्श न होने पर थोपे गए सिद्धांत रचना को अविश्वसनीय बना देते हैं। इसलिए कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है। कला दिखती तो यथार्थ है पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि यथार्थ मालूम हो। उसका मापदंड जीवन के मापदंड से अलग है, इसलिए उच्च कोटि का साहित्य वही कहा जा सकता है जिसमें आदर्श और यथार्थ दोनों का समावेश हो जाए ,यही प्रेमचंद जी का आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद है उनके अनुसार यथार्थ को सजीव बनाने के लिए आदर्श का उपयोग होना ही चाहिए। इस दृष्टि से उनकी प्रतिनिधि कहानियों में ‘बड़े घर की बेटी’, ‘नमक का दरोगा’, ‘दुर्गा का मंदिर’, ‘सज्जनता का दंड’, ‘पंच परमेश्वर’ और ‘मृत्यु के पीछे’ आदि को लिया जा सकता है। मधुरेश के अनुसार “इन कहानियों के पात्र और उनका परिवेश तो यथार्थ दिखाई देता है। लेकिन इन पात्रों का आचरण और उसे प्रभावित करने वाली सोच अपने मूल रूप में यथार्थ विरोधी ही है, उसे आदर्शवाद ही कह सकते हैं।”4 इन कहानियों का मूल स्वर पश्चाताप है। प्रेमचंद के मन में मनुष्य की सदव्रतियों के प्रति गहरी आस्था है। उन्हें लगता है कि मनुष्य बुनियादी तौर पर बुरा नहीं होता एवं सुधार की संभावनाएं सदा बनी रहती हैं। गांधी जी का हृदय परिवर्तन वाला सिद्धांत भी उन्हें इस दिशा में गहराई से प्रभावित करता दिखाई देता है। ‘सज्जनता का दंड’ कहानी से उदाहरण दृष्टव्य है- “ अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लाल बिहारी को गले लगा लिया और दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोए लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा-, भैया अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुंह न देखूंगा, इसके सिवा आप जो भी दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।”5 इसी प्रकार ‘पंच परमेश्वर’ भी इस भावुक और भोले विश्वास को प्रकट करती है कि पंच की जुबान पर ईश्वर का वास होता है पंच न किसी का दुश्मन होता है और न दोस्त।प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में सेवाभाव की प्रशंसा में कहा था कि “ सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है वही हमारा पुरस्कार है।”6 उनकी अंतिम कहानी ‘क्रिकेट मैच’ का भी यही संदेश है कि सबके लिए जीना ही जीवन का सच्चा मंत्र है। ‘ईदगाह’ कहानी की श्रेष्ठता और लोकप्रियता में जीवन का उच्च आदर्श मूल कारण है। कहानी का हामिद बालक होकर भी अपने मनोरंजन की अपेक्षा करके दादी के कष्ट के निवारण के लिए मेले से चिमटा खरीदता है। यह उच्च कोटि की संवेदनशीलता तथा स्वच्छ मन का आदर्श है। हामिद अपने सुख का त्याग करके दूसरे के लिए सुख का साधन ढूंढता है और मानवीय रिश्तो को सर्वोच्च स्थान देता है। हामिद में आदर्श और व्यवहार का अनुपम समन्वय है प्रेमचंद इन कहानियों में जीवन का एक आदर्श चित्र अंकित करते हैं और अपने पात्रों का हृदय परिवर्तन तथा उनके मनोविकारो एवं कष्टदायक विचारों का परिष्कार करके उन्हें मानवीय गुणों और मूल्यों की प्रतिमूर्ति बनाते हैं। उनकी कहानी ‘कातिल’ और ‘कातिल की मां’ में तो गांधी की ‘अहिंसा’ पूरी शक्ति और तर्कों के साथ जीवित है ‘कातिल की मां’ कहानी की मां रामेश्वरी भी गांधी के समान धर्म, नीति, अहिंसा, त्याग, तप और आत्म शुद्धि से प्राप्त स्वराज्य चाहती है ,वह बेटे को समझाती हुई कहती है “ यह समझ लो, जो स्वराज कत्ल और खून से मिलेगा, वह कत्ल और खून ही कायम करेगा आवाम की कोशिश में जो स्वराज मिलेगा वह मुल्क की चीज होगी, जनता की चीज होगी और थोड़े से आदमियों का एक गिरोह तलवार के जोर से इंतजाम न करेगा, हम आवाम का स्वराज चाहते हैं कत्ल और खून की ताकत रखने वाले गिरोह का नहीं।”7 प्रेमचंद की यह आदर्शवादी युग संदर्भ तथा युग चेतना से जन्मी है अतः इसकी वास्तविकता एवं प्राणवत्ता में संदेह करना युग की जागृति तथा संघर्ष पर संदेह करना है और 19वीं बीसवीं शताब्दी में पराधीन भारत के नवजागरण आत्मबोध तथा स्वाधीनताकामी भारतीय के रूप में जीने की राष्ट्रीय आकांक्षा के ऐतिहासिक सत्य की उपेक्षा एवं निरादर करके राष्ट्र के प्रति अपराध करना है। प्रेमचंद का यह आदर्शवाद युग का आदर्शवाद है।वह संपूर्ण राष्ट्र का आदर्शवाद है, अकेले प्रेमचंद का ही नहीं है। डॉ नामवर सिंह ने प्रेमचंद पर गांधी के इस प्रभाव के कारण ही “उन्हें स्वाधीनता आंदोलन के अनूठे महागाथाकार कहा है”।8
भारतीय ग्रामीण जीवन और दलित समाज का अंकन प्रेमचंद के लिए आंदोलन या नारा नहीं था। देहात उन्हें प्रिय था और वे देहाती जीवन के परंपरागत सौंदर्य और मानवीय स्वरूप को बनाए रखना चाहते थे। परंतु वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि अपनी सारी सादगी, सहजता और सुरक्षा के बावजूद ध्वंसप्रायः सामंती व्यवस्था और नवागत पूंजीवाद के दोहरे दबाव के फलस्वरुप भारतीय किसान की नियति को बदल पाने के लिए निर्णायक संघर्ष अपेक्षित है। तीसरे दशक का अंत होते-होते देश की राजनीतिक और अपनी समाज रचना की पहचान का प्रेमचंद एक बेहतर और वयस्क परिचय देने लगते हैं। पीड़ित और वंचित वर्ग के अभिशप्त जीवन, उन पर होने वाले अत्याचार, बेगार और उनके निर्मम शोषण के बड़े यथार्थ और आत्मीय प्रमाणिक चित्र इस दौर की कहानियों में सहज ही देखे जा सकते हैं। कठोर मेहनत के बावजूद किसान गरीब और फटे हाल है क्योंकि जमीदार कारिंदे पुलिस और धर्म के ठेकेदार सब के सब जोक की तरह चिपककर दृश्य और अदृश्य रूप में उसका खून चूस रहे हैं। अपने निबंध महाजनी सभ्यता में इसी स्थिति पर टिप्पणी करते हुए वह लिखते हैं- “ मनुष्य समाज दो भागों में बट गया है। बड़ा हिस्सा मरने और खपने वालों का है और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किए हुए हैं। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं जरा भी रू- रियायत नहीं उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।”9 अत्याचार पर आधारित इस व्यवस्था का भयावह रूप ‘सवा सेर गेहूं’, ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘दूध का दाम’ और ‘कफ़न’ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है।
‘सवा सेर गेहूं’ में शंकर विप्र से लिए गए सवा सेर गेहूं के बदले जो वह द्वार पर आए साधु के अतिथि सत्कार के लिए लेता है। जीवन भर गुलामी का पट्टा अपने गले में डाल लेता है। खलीहानी में डेढ़ पसेरी गेहूं देकर वह अपने को चुकता समझ चुका था कि 7 वर्ष बाद उससे उन सवा सेर गेहूं का तगादा किया जाता है। साल भर पेट काटकर ₹60 देने के बाद भी उसकी ओर ₹120 बाकी निकलते हैं यह निर्मम शोषण उसके मन में एक किसान से मजदूर बन गए आदमी के मन में श्रम के प्रति निराशा और घृणा का भाव पैदा करता है…. जब सिर पर ऋण का बोझ ही लद्गता है तो क्या मन भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह कम हो गया, मेहनत से घृणा हो गई। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वे जरूरतें जिनको उसने साल तक डाल रखा था अब द्वार पर खड़ी रहने वाली भिखारीन थी, 20 वर्ष तक गुलामी करने के बाद जब शंकर मरता है तो भी सवा सेर गेहूं के कर्ज में ₹100 उसके सिर पर सवार थे जिनके भुगतान के लिए उसके जवान बेटे की गर्दन पकड़ी जाती है। ‘सद्गति’ कहानी का दुखी चमार अपने नाम से भी दुखी ही है जो ईश्वर भक्त पंडित घासीराम से साइत पूछने जाता है तो उनकी गाय को घास डालने से लेकर भूसा ढोने और लकड़ी काटने तक सब कुछ भूखे ही मरते रहकर सद्गति को प्राप्त होता है। सारी सेवा के बावजूद यह लोग नीच, कमीन और अस्पृश्य है जो मजबूरी मे ठाकुर के कुए का एक लोटा पानी भी भर लेने के हकदार नहीं है। शेर से भी भयानक मुंह वाले ठाकुर को देखते ही गंगी के हाथ से रस्सी छूट जाती है और घड़ा धड़ाम से हिलकोरे की आवाजें छोड़ता हुआ पानी में सरक जाता है। बदहवासी में वह घर पहुंच कर देखती है कि जोखू लोटा मुंह से लगाए वहीं गंदा मेला और बदबूदार पानी पी रहा है।…..’पूस की रात’ में जब तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते हैं हल्कू अपने खेत के किनारे एक के पत्तों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े कांप रहा होता है। अपने कुत्ते जबरा को अपने शरीर से सटाकर वह उस सेक को एक नियामक की तरह भोगता है। सब कुछ करके भी कुछ न हो पाने की निरूपायता उसे अकर्मण्य बना देती है। वह नील गायों से खेत को बर्बाद होते देखता रहता है और कुछ नहीं कहता है। सुबह खेत की दशा देखकर हल्कू और उसकी पत्नी मुन्नी की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। मुन्नी इस बात को लेकर दुखी है कि अब मजदूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी। लेकिन हल्कू स्थिति को लेकर प्रसन्न भी है अब रात की ठंड में यहां सोना तो नहीं पड़ेगा। ‘कफन’ कहानी हृदय स्तब्धता की कहानी है। इस स्थापना के दो आधार हैं एक आलू खाने के लालच में घीसू माधव का बुधिया को मरने देना और दूसरा दोनों का कफन के पैसों से शराब पीना और मस्ती में झूमना नाचना यह दोनों ही मानवीय एवं संवेदन शून्यता की घटनाएं हैं, जब घीसू निसंग भाव से कहता है कि वह बचेगी नहीं तो माधव चिढ़कर उत्तर देता है कि मरना है तो जल्दी ही क्यों नहीं मर जाती, देख कर भी वह क्या कर लेगा। लगता है जैसे कहानी के शुरू में ही बड़े सांकेतिक ढंग से प्रेमचंद बुझ चुके अलाव के द्वारा पारिवारिक सद्भाव और ऊष्मा के चूक जाने की ओर इशारा कर रहे हैं और आंच का अंधकार में लय हो जाना मानो पूंजीवादी व्यवस्था का ही प्रगाढ़ होता हुआ अंधेरा है जो सारे मानवीय मूल्यों, सद्भाव और आत्मीयता को रोदता हुआ निर्णय भाव से बढ़ता जा रहा है। ‘कफन’ एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की कहानी है जो श्रम के प्रति आदमी में निराशा पैदा करती है, क्योंकि उस श्रम की सार्थकता उसे नहीं दिखाई देती है। 20 साल तक यह व्यवस्था आदमी को भरपेट भोजन के बिना रखती है इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपने परिवार के ही एक सदस्य के मरने जीने से ज्यादा चिंता उन्हें अपने पेट भरने की होती है। इन कहानियों में देश का लघुत्तम, निर्धनतम और दुर्बलतम माना जाने वाला मनुष्य समाज अपने दूसरे मनुष्य समाज के क्रूरतम भेदभाव, शोषण एवं अन्याय के कारण अपनी नैसर्गिक वस्तुओं और अपने मानव अधिकारों से वंचित है। यह पीड़ित शोषित और दलित समाज अपने परिश्रम से खेत में उपजाई फसल से वंचित है, वह जीवन चलाने के लिए आवश्यक मानव अधिकारों से वंचित है, भरपेट भोजन करने की सुविधा से भी वंचित है।
डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार “प्रेमचंद गरीबी और अंधविश्वासों को आदर्श कहकर चित्रित नहीं करते, वे दिखाते हैं कि इतने अंधेरे में भी मनुष्यता का दीपक कैसे चल रहा है।”10 इन कहानियों में कोई आदर्श नहीं है और ना ही कोई हृदय परिवर्तन है इसमें केवल जीवन यथार्थ है।
यथार्थ का आग्रह जड़ता और यथा स्थिति में बदलाव के पक्ष में होता है जिसे प्रेमचंद ने समझा है और अपनी कहानियों में उतारा है। प्रेमचंद ने अपने यथार्थ चित्रण के बल से मनुष्य की व्यक्तिगत रूचि, आदर्श भावना तथा उसके स्वभाव की विशेष प्रवृत्तियों के उनके बातचीत, रहन-सहन, रंग ढंग, चाल चलन और उनके विशेष लक्षणों के द्वारा उनका सच्चा चित्र पाठकों के समक्ष उपस्थित कर दिया है। पाठक इन सभी बातों को अपने आसपास घटित होता हुआ अनुभव करने लगता है।
प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से जीवन की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया है। मानवता के प्रचार-प्रसार और मूल्यों के निर्धारण में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। दो महायुद्ध के बीच प्रेमचंद द्वारा रचा गया साहित्य उनकी व्यापक उदारता और सहिष्णुता का परिचय देता है और सामाजिक विकास में मानवीय मूल्यों के महत्व को प्रतिपादित करता है किसी अन्य कथाकार ने जीवन के इतने व्यापक फलक को अपनी कहानियों में नहीं समेटा जितना प्रेमचंद ने। प्रेमचंद के अनुसार ‘साहित्य अपने समय का प्रतिबिंब होता है। जो भाव और विचार लोगों के हृदय को स्पंदित करते हैं वही साहित्य पर भी अपनी छाप डालते हैं।‘ प्रेमचंद ने इस यथार्थवादी चेतना के साथ देश प्रेम के युगीन आदर्श को जोड़कर आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद की नई कसौटी की स्थापना की और इस प्रकार हिंदी कहानी में यथार्थता के साथ आदर्शवाद को जोड़कर अपने युग की पूरी सच्चाई को उसकी श्रेष्ठता का आधार बना दिया। वे अपनी कहानियों में मानव जीवन और मानव समाज की व्याख्या आदर्श और यथार्थ दोनों रूपों में करते हैं और दोनों को ही संयमित रूप में पेश करते हैं वे दोनों का ऐसा सम्मेलन चाहते हैं जिसमें जीवन के यथार्थ से जीवन को बल स्वास्थ्य और प्रकाश मिले।
संदर्भ –
- पुष्पाल सिंह समकालीन कहानी सोच और समझ, 1986, पृष्ठ 19-20
- प्रेमचंद कुछ विचार ,पृष्ठ 53
- प्रेमचंद साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ 63
- मधुरेश हिंदी कहानी का विकास, पृष्ठ 27
- प्रेमचंद कहानी सज्जनता का दंड, पृष्ठ 13
- प्रेमचंद विविध प्रसंग , पृष्ठ 244
- प्रेमचंद कहानी कातिल की मां, पृष्ठ 57
- प्रेमचंद विगत महत्व और वर्तमान अर्थबता , पृष्ठ 42
- प्रेमचंद निबंध महाजनी सभ्यता, हंस( सितंबर 1936)
- डॉ रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग, पृष्ठ 68
डॉ. अरुणा चौधरी
अतिथि प्रवक्ता
विवेकानंद कॉलेज, दिल्ली