बौद्ध दर्शन में महायान सम्प्रदाय का हीनयान सम्प्रदाय की तुलना में अत्यधिक महत्व था। बौद्ध धर्म में महायान सम्प्रदाय के बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी थे। महायान धर्मावलम्बी देवी देवताओं की पूजा अर्चना पर जोर डालते थे और उनलोगों ने बुद्ध के असंख्य जीवन और बोधिसत्व के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया था तथा मंत्र के व्यवहार को भी ग्रहण किया। अशोक ने बौद्ध दर्शन से प्रभावित होकर इसके प्रचार-प्रसार के लिए महामात्रों की नियुक्ति की थी। गुप्तकाल में काफी संख्या में मंदिरों और बौद्ध की प्रतिमाओं का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। इस काल में बौद्ध विहारों को गुप्तवंशी राजाओं ने दान दिया। यद्यपि पाली इस समय लोगों की आम बोलचाल की भाषा थी किंतु अधिकांश बौद्ध ग्रंथों की रचनाएं संस्कृत में की गई। बौद्ध मूर्तियों की पूजा हिन्दू देवताओं के तर्ज पर किया गया। समुद्रगुप्त ने लंका के यात्रियों के रहने के लिए बौद्ध बिहार बनवाया था।  ह्वेनसांग ने वर्णित किया है कि गुप्तकाल के अन्तिम शासकों जैसे कुमारगुप्त द्वितीय बुद्धगुप्त और मानगुप्त संभवतः बौद्ध धर्म के अनुयायी थे किंतु साक्ष्यों के अभाव में इस तथ्य को पूर्णरूपेण सही नहीं माना जा सकता। सच्चाई यही मालूम पड़ता है कि ये राजा बौद्ध धर्मावलम्बी होंगे। ह्वेनसांग का विवरण बौद्ध धर्म को जानने में अत्यधिक सहायक होता है। ह्वेनसांग ने सम्पूर्ण भारत में बौद्ध विहारों और संघों की स्थापना का भी विवरण प्रस्तुत किया है। ह्वेनसांग ने यह भी वर्णित किया है कि उस समय तक महायान सम्प्रदाय अवनति की ओर अग्रसर था और बौद्ध धर्म 18 विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित हो चुका था। जबकि स्थावीर सम्प्रदाय मगध में प्रचलित था तो इत्सिंग के अनुसार सरवास्तीवादिन सम्प्रदाय मगध, मुंगेर और मध्यप्रदेश में प्रचलन में था। बोधगया में बौद्ध धर्म का अवसान शुरू हो गया था किंतु नालंदा में बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध रह रहे थे। वर्द्धन वंश के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि हर्षवर्द्धन शैव धर्म का उपासक था किंतु बाद में वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। बौद्ध विहारों ने शिक्षा का केन्द्र का स्वरूप ग्रहण कर लिया। बौद्ध विहार धीरे-धीरे शिक्षा मंदिर में बदल गये होंगे। नालंदा, जहां पर हजारों छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, शिक्षा-केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। ह्वेनसांग ने शिलभद्र का शिष्यवत को स्वीकार कर लिया जो कि उस समय नालंदा बौद्ध विहार का मठाधीश था। तक्षशिला विश्वविद्यालय भी इसी तरह विद्वानों के वहां आने से विश्वविद्यालय का स्वरूप ग्रहण किया गया होगा[1]

                     नालंदा में पवित्र धर्म ग्रंथों और धर्म निरपेक्ष ग्रंथों का अध्ययन हो रहा था। धर्म ग्रंथों में चार वेद, छ: वेदांग और इतिहास तथा पुराण की शिक्षाएं थी। पाठ्यक्रम में राजकुमारों की शिक्षाएं भी सम्मिलित थे जैसे अर्थशास्त्र (प्रशासन), गायन और युद्ध कला की शिक्षाएं प्रमुख थीं। बौद्ध धर्मावलम्बी चीनी यात्री ने बौद्ध ग्रंथों और ब्राह्मण ग्रंथों की प्रारम्भिक विषयों का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि व्याकरण के अलावे नये छात्रें को विद्या हेतु (तर्कशास्त्र) अभिधर्म (दर्शन और आध्यात्मिक शास्त्र) और विनय (धार्मिक अनुशासन) की शिक्षाएं दी जाती थी। बौद्ध अध्ययन के अन्तर्गत कुछ ब्राह्मण ग्रंथों को भी सम्मिलित किया गया था, जिसकी शिक्षाएं बौद्ध भिक्षुओं को दी जाती थी। पढ़ाई के विषय विस्तृत थे। नालंदा विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा दी जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में भी राजकुमारों को प्रशासन से संबंधित शिक्षा एवं युद्ध विद्या की शिक्षा की व्यवस्था थी।[2]

                     बौद्ध शिक्षा-केन्द्र के रूप में नालंदा का नाम विश्वविख्यात हो चुका था। इस प्राचीन बौद्ध शिक्षा केन्द्र पर प्राचीन बिहार सदा गौरान्वित रहता है। नालंदा विश्वविद्यालय विदेशी छात्रें को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित करता था। फाहियान ने नालंदा (पटना से दक्षिण-पूर्व 55 मील की दूरी पर स्थित था) बिहार को 410 ई- में भ्रमण किया। वह नालंदा को एक शिक्षा केन्द्र के रूप में नहीं देखा बल्कि बौद्ध विहार के रूप में देखा था। वस्तुतः नालंदा में बौद्ध विहार की स्थापना गुप्त काल के अंतिम काल में हुआ होगा।[3]

                     बुद्ध के मुख्य शिष्य सारिपुत्र का जन्म स्थल होने के कारण नालंदा प्राचीन काल से ही बौद्ध धर्म का केन्द्र था किंतु विद्या के केन्द्र के रूप में इसका इतिहास 450 ई- से ही आरंभ होता है। तारानाथ के अनुसार नागार्जुन के शिष्य अर्थदेव नालंदा में आचार्य थे। यदि यह बात सिद्ध हो जाती है तो नालंदा का इतिहास कुछ और शताब्दी पूर्व से प्रारंभ होगा। नागार्जुन और अर्थदेव की पहचान तथा उसके समय का निर्णय नहीं हो सका है। अनेक गुप्त राजाओं के प्रोत्साहन से अल्पकाल में ही नालंदा के महत्व में तेजी से वृद्धि हो गई। बौद्ध विद्यापीठ को सर्वाधिक दान हिन्दू गुप्त राजाओं ने ही दिया था।[4] नरसिंह गुप्त, बालादित्य तथा बुद्धगुप्त ने मानव जीवन के प्रारम्भिक काव्य से ही हमारे मनस्वियों के शिक्षा के महत्व को समझा और शिक्षा पर बल डाला। प्राचीन समय में शिक्षा का स्वरूप गुरुकुल आश्रम में रहकर शिक्षार्थियों द्वारा प्राप्त किया जाता था। हमारे प्राचीन ग्रंथ जैसे वेद, वेदांग, स्मृति, श्रुति शिक्षा में बौद्ध काल के प्रारंभ की पहले की विधि थी जो किसी न किसी रूप में बौद्ध काल में भी जीवित रही। बौद्ध विद्वानों ने भी शिक्षा के महत्व और विकास पर उतना ही ध्यान केन्द्रित किया जितना हमारे प्राचीन मनस्वियों ने केन्द्रित किया था किंतु बौद्धों ने शिक्षा को गुरुकुल की चाहरदीवारी से निकालकर बौद्ध विहारों को प्रतिष्टत किया और बौद्ध शिक्षाएं नालंदा विश्वविद्यालय में दी जाने लगी।

                     खुदाइयों से प्राप्त हुआ है कि नालंदा विश्वविद्यालय कम-से-कम एक मील लम्बा और आधा मील चौड़ा था इसका सिर्फ एक द्वार दक्षिण दिशा में है, जिसमें व्यक्ति के लौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती थी। भौतिक और आध्यात्मिक जीवन के निर्माण तथा विभिन्न उत्तरदायित्वों को निष्पक्ष करने के लिए शिक्षा की नितान्त आवश्यकता थी। मनुष्य और समाज का आध्यात्मिक और बौद्धिक उत्कर्ष शिक्षा के ही माध्यम से सम्भव माना जाता रहा है। सही बात तो यह है कि शास्त्र और विवेक से शिक्षा सम्पन्न होती है और शिक्षा से मनुष्य में ज्ञान का उदय होता है[5]

                     बौद्ध दर्शन में ब्रह्मचर्य का अपना बहुत बड़ा महत्व है। ब्रह्मचर्य रहकर शिक्षा प्राप्त करना उत्तम विधि बताया गया है। ब्रह्मचारी के लिए आत्मसंयम की अपेक्षा की जाती थी। आत्मसंयम का अभिप्राय आत्मनियंत्रण से था। अपने कर्तव्यों का पालन करने की दृष्टि” से इंद्रियों और मन की उच्छृंखल प्रवृत्तियों को नियंत्रित और व्यवस्थित रखना आत्मसंयम था। इससे व्यक्तित्व का उत्कर्ष स्वाभाविक गति से होता था। गीता में कहा गया है कि संयुक्तमुक्त योग उस व्यक्ति के ही दुःखों को दूर करता है जो यथायोग्य आहार-विहार करनेवाला, कर्मों में यथायोग्य रत रहनेवाला तथा यथायोग्य सोनेवाला और जागनेवाला होता है।[6] इस तरह व्रती, नियमित और व्यवस्थित आचरण आत्मसंयम का महत्वपूर्ण आधार था। इससे विवेक-भावना और न्याय-प्रवृति का उदय होता था, जिससे धार्मिकता और आध्यात्मिकता की अभिवृद्धि होती थी। अतः व्यक्तित्व के उत्थान में इन सभी तत्वों का सक्रिय योग रहा है[7]

                     शिक्षित और ज्ञानवान होने के कारण व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता था। स्नातक के रूप में वह अपने ही हित का ध्यान नहीं रखता था बल्कि वह अन्यान्य जिज्ञासु विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा भी प्रदान करता था। वह अपना कर्म करते हुए अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दृढ़ रखता था। पुत्र, पति और पिता के रूप में वह अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों को सम्पन्न करता था। विद्यार्थी के समावर्तन समारोह के उपदेश में उसके लिए इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया था, ‘‘सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना, स्वाध्याय में प्रमाद न करना। आचार्य की दक्षिणा दे देने पर सन्तति-उत्पादन की परम्परा विच्छिन्न न करना। सत्य से न हटना। धर्म से न हटना। लाभ कार्य में प्रमाद न करना। महान् बनने के सुअवसर से न चूकना। पठन-पाठन के कर्तव्य में प्रमाद न करना। देवता और पितरों के कार्य (यज्ञ और श्राद्ध आदि) से प्रमाद न करना। माता को देवी समझना। आचार्य को देवता समझना। अतिथि को देवता समझना। अन्यान्य दोष-रहित कार्यों को करना।[8] इस कथन से स्पष्ट है कि मनुष्य के अनेकानेक उत्तरदायित्व थे, जिन्हें वह शिक्षा प्राप्ति के बाद सोत्साह मनोनिवेशपूर्वक संपादित करता था।

                     ऋषि-ऋण से छुटकारा ग्रन्थों का सांगोपांग अध्ययन करने से मिलता था। पितृ-ऋण सन्तान उत्पन्न करने और समुचित शिक्षा प्रदान करने से उतरता था। अतः सांस्कृतिक जीवन के उत्थान में परम्पराओं को प्रचारित करनेवाले नए साहित्य, पुराणों का निर्माण हुआ, जिसमें अतीत के जीवन के प्रति आकर्षण था।

                     अक्षर और वर्ण माला की शिक्षा का प्रारंभ विद्यारम्भ के अन्तर्गत आता है। यह संस्कार शिक्षा प्रारंभ करने के पहले ही सम्पन्न किया जाता था। प्रायः पांच वर्ष की अवस्था से विद्या का आरंभ माना जाता था। उपनयन संस्कार के पूर्व विद्यारम्भ संस्कार संपन्न कर लिया जाता था। विद्यारंभ के लिए कोई भी शुभ दिन स्थिर कर लिया जाता था, और उसी दिन बालक का विद्यारंभ करा दिया जाता था। अपरार्क और स्मृतिचन्द्रिका ने मार्कण्डेयपुराण को उद्धृत करते हुए सन्तान के विद्यारम्भ की अवस्था पांच वर्ष निर्देशित की है।[9] संस्कारप्रकाश ओर संस्कार रत्नमाला में भी विद्या का आरम्भ उपनयन के पहले, पांच वर्ष की अवस्था से माना गया है।[10] विद्यारंभ संस्कार के समय बालक गुरु की वन्दना करता और उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता था। संभवतः यह संस्कार प्रारंभ में चौलकर्म के साथ सम्बद्ध था_ जैसा कि कोटिल्य के उल्लेख से विदित होता है कि चौलकर्म के साथ लिपि का ज्ञान कराया जाता था।[11] कालिदास ने भी चौलक्रिया के साथ लिपि-ज्ञान का निर्देश किया है।[12] लव और कुश के चौलकर्म के साथ ही उनका विद्यारंभ हो गया था।[13]

                     चीनी यात्री श्वानच्यांग ने बच्चों की आरंभिक शिक्षा का ‘सिद्धमचंग’ से प्रारंभ होना बताया है। ‘सिद्ध’ सफलता का द्योतक है। ‘सिद्धम’ की समाप्ति के पश्चात् सातवें वर्ष पंच विद्याओं का अध्ययन कराया जाता था।[14] ईत्सिंग ने बालकों की प्रारंभिक शिक्षा ‘सिद्धिरस्तु’ नामक पुस्तक से मानी है, जिसमें वर्णमाला, स्वर और व्यंजन का विनियोग था।[15]

                     चौलकर्म में शिक्षा का रखा जाना वंशगत वैदिक ऋषियों से घनिष्ठता-स्थापन का परिचायक था।[16] वैसे, इतना अवश्य है कि सूत्रकाल में चौलकर्म के साथ ही विद्या का आरंभ कर दिया जाता था।

                     प्राचीन काल में सभ्यता के उत्कर्ष के साथ-साथ लेखन-उपकरण में भी परिवर्तन होते गये। वैदिक काल में मौखिक शिक्षा प्रदान की जाती रही। तदन्नतर लेखन-उपकरण का उपयोग किया जाने लगा, जिसमें भोजपत्र, कमल आदि प्रमुख थे जिसपर मयूर पंख से लिखा जाता रहा। लेखनी के रूप में पंखों का उपयोग पहले से किया जाता था। कालान्तर में आकर प्रारंभिक शिक्षा में छात्र को लिखने के लिए काली पटिया और खड़िया दी जाती थी। वह लम्बवत् पटिया (तख्ती) पर बाएं से दाएं खड़िया से लिखने का अभ्यास करता था। अलीबरूनी लिखता है कि वे बालकों के लिए विद्यालय में काली तख्ती प्रयोग में लाते थे और उस पर लम्बाई की ओर से, न कि चौड़ाई की, बाएं से दाएं सफेद वस्तु से लिखते थे।[17] आज भी भारतीय पाठशालाओं में, अनेकानेक नवीन लेखन-उपकरणों के बावजूद, कालिख पुती हुई काठ की पट्टी पर खड़िया दुधिया से लिखा जता है। अलवीरूनी ने जिस सफेद वस्तु का निर्देश किया है वह निश्चय ही दुधिया है। बच्चों को पटरी की लम्बाई की ओर से बाएं से दाएं लिखने के लिए आज भी पाठशालाओं में बताया जाता था।

                     बालक की सुव्यवस्थित और सुनियोजित शिक्षा का प्रारम्भ ब्रह्मचर्य आश्रम में उपनयन संस्कार के पश्चात् होता था।[18] जिसमें आचार्य ब्रह्मचारी को एक नये जीवन में दीक्षित करता था जिसे द्वितीय जन्म कहा गया और ब्रह्मचारी को ‘द्विज’। उपनयन संस्कार से ब्रह्मचारी को विद्यामय शरीर और ज्ञानयुक्त मस्तिष्क प्राप्त होता था, जो माता-पिता से प्राप्त स्थूल शरीर से भिन्न था। ब्रह्मचारी ज्ञान के तेज से आविल होता था तथा उससे क्रमशः परिपूर्ण होता था। यह संस्कार पूर्णरूपेण शिक्षा से सम्बद्ध था और बालक की शिक्षा इसके बाद से ही अविलम्ब गुरु के सान्निध्य में प्रारम्भ हो जाती थी। शूद्रों के अतिरिक्त अन्य तीन वर्णों के लिए उपनयन संस्कार अनिवार्य था। तीनों वर्णों के उपनयन संस्कार सम्पन्न करने की अवस्था भिन्न-भिन्न थी। ब्राह्मण-पुत्र के लिए 8 से लेकर 10 वर्ष तक के भीतर, क्षत्रिय-पुत्र के लिए 11 वर्ष और वैश्य-पुत्र के लिए 12 वर्ष की आयु शिक्षा-प्रारम्भ के लिए निर्धारित की गई थी।[19] प्रायः तीनों वर्णों के बालक अपने कुटुम्ब से दूर गुरु के यहां ब्रह्मचर्य आश्रम के अन्तर्गत शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाते थे। ब्राह्मण बालक श्वेतकेतु का उपनयन इसी अवस्था में सम्पन्न हुआ था।[20] अध्ययन-रत ब्राह्मण परिवारों में नैतिक शिक्षा का प्रारम्भ 7 वर्ष से ही प्रारम्भ कर दिया जाता था।[21]

                     प्रायः छात्र उपनयन संस्कार के पश्चात् गृह त्यागकर गुरु के सान्निध्य में जाता था तथा यहीं गुरुकुल में रहकर विभिन्न विषयों की शिक्षा ग्रहण करता था।[22] इस सम्बन्ध में छांदोग्य उपनिषद् से विदित होता है कि अरूण (उद्दालक आरूणि) ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से गुरुकुल में जाकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए कहा, ‘‘हे श्वेतकेतो, तू गुरुकुल में जाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या ग्रहण कर। हे सौम्य, हमारे कुल में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ जो अध्ययन न करे और वह भी स्वयं ब्राह्मण होकर, यही नहीं, इस सम्बन्ध में जो केवल ब्राह्मणों को अपना बन्धु बतलाता है।’’ यह बारह वर्ष की अवस्था में गुरु के पास गया। वहां गुरुकुल में उस वेदों को पढ़कर चौबीस वर्ष का होकर, अपने को विद्वान और अभिमानी समझते हुए उद्दण्ड भाव से घर वापस आया। उसके लौटने पर पिता ने उससे कहा – ‘‘हे सौम्य श्वेतकेतो, तू जो ऐसा अभिमानी, अपने को विद्वान समझनेवाला और उद्दण्ड हो रहा है, सो क्या तुने गुरु से उस आदेश-तत्व ज्ञानोपदेश को भी पूछा है जिससे अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात ज्ञात हो जाता है?’’ चूंकि श्वेतकेतु उस ज्ञानतत्व को नहीं जानता था, इसलिए उसने जिज्ञासा की, ‘‘भगवन्, वत तत्वज्ञानोपदेश कैसा है? उसे आप मुझे बताइए।’’[23] इस उद्धरण से स्पष्ट है कि गुरुकुल में निवास करके ज्ञान और विद्या प्राप्त की जाती थी। साथ ही सदाचरण और सद्वृत्ति की भी शिक्षाग्रहण की जाती थी।

                     गृह्यसूत्रें में ब्रह्मचारी के शिक्षा-ग्रहण करने पर विचार किया गया है। पारस्पर गृह्यसूत्र में यह उल्लिखित है कि आचार्य के सम्मुख जब विद्यार्थी शिक्षा-ग्रहण के निमित्त उपस्थित होता था तब आचार्य उससे पूछता था कि तुम किसके ब्रह्मचारी हो।[24] इस पर विद्यार्थी स्वभावतः उत्तर देता कि आपका ही ब्रह्मचारी हूँ। तत्पश्चात् आचार्य कहता था, ‘‘नहीं, तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो_ पहले अग्नि तुम्हारा आचार्य है, बाद में हम।’’ फिर, विद्यार्थी का दायां हाथ ग्रहण कर आचार्य उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करते हुए कहता था, मैं सविता की आज्ञा से तुम्हें शिष्य के रूप में स्वीकार कर रहा हूं।’’[25] तदनन्तर विद्यार्थी के हृदय पर अपना हाथ रखकर आचार्य यह कहता था, ‘‘तुम्हारे और हमारे बीच सर्वदा प्रेम और विश्वास रहे।’’[26]

                     उपनिषदों में ‘गुरुकुल’ के स्थान पर ‘आचार्य-कुल’ का प्रयोग किया गया है। ‘कुल’ शब्द अत्यन्त सार्थक और सारगर्भित था जिससे एक परम्परा का बोध होता था। गुरुकुल के दो प्रकार विकसित हो गए, एक गृहस्थ गुरु-आश्रम और दूसरा वनस्थ प्रव्रजित गुरु-आश्रम। शिष्य अपने माता-पिता के कुल से आचार्य-कुल में जाकर आचार्य में पितृ-बुद्धि और आचार्य-पत्नी में मातृ-बुद्धि की भावना करता तथा पारिवारिक वातावरण का अनुभव करता था। छादोग्य उपनिषद् में ‘आचार्य-कुलवासी’, ‘अन्तेवासी’ जैसे शब्दों के साथ-साथ ‘ब्रह्मचर्यवास’ (अर्थात् गुरुकुल में ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याग्रहण करना) का भी उल्लेख हुआ है।[27] कृष्ण और बलराम ने सन्दीपनि मुनि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण की थी।[28] कच ने शुक्राचार्य के कुल में विद्यार्जन किया था।[29]

                     महाकाव्यों से गुरुकुलों का सन्दर्भ मिलता है, जो शिक्षा और विद्या के विख्यात अधिष्ठान थे। भारद्वाज और वाल्मीकि के आश्रम उच्च कोटि के गुरुकुल थे।[30] महाभारत में उल्लिखित है कि मार्कण्डेय और कण्व ऋषि के आश्रम शिक्षा के प्रधान विद्या-स्थल थे।[31] जहां विभिनन विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इन आचार्यों के शिक्षा मंडलों में बहुसंख्यक छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। दुर्वासा ऋषि जब कुरु-नरेश से मिलने गए तब उनके साथ 10 हजार शिष्य थे। यह ऋषि की विद्वता और लोकप्रियता का परिचायक था। इसके अतिरिक्त इन उद्धरणों से यह भी स्पष्ट होता है कि गुरुकुल की महत्ता समाज में पूर्णतः स्थापित हो चुकी थी और द्विजों के अधिकांश बालक इन आश्रमों में शिक्षा प्राप्ति के लिए जाते थे। स्मृतियों के अनुसार भी छात्र गुरुकुल में रहकर विद्याग्रहण करता था।[32] विद्यार्थी का गुरुकुल में प्रवेश करना उसके नवीन जन्म के समान था[33] जो उसके जीवन की गौरवमयी घटना माना जाता था।

                     महान् विद्वान आचार्य सत्यकाम जाबाल के कुछ (शिक्षाश्रम) में उपकोसल कामलायन ने भिक्षार्थी के रूप में 12 वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक व्यतीत किया था एवं इस अवधि में उसने निरन्तर अपने आचार्य की अग्नियों की परिचर्चा सम्पन्न की थी।[34] तत्कालीन समाज में आचार्य-कुल की अग्निपरिचर्य धार्मिक कृत्य के रूप में स्वीकृत थी जिसे शिष्यगण परिपूर्ण किया करते थे।

                     सत्यकाम जाबाल स्वयं आचार्य हारिद्रुमत गौतम के कुल में अन्तेवासी बनकर ज्ञान-प्राप्ति के निमित्त गया था।[35] उपनिषद् में विवृत है उसका उपनयन संस्कार करके चार सौ कुश और दुर्बल गौओं को पृथक निकालकर आचार्य ने उससे कहा था कि इन गौओं का अनुसरण करे अर्थात् जहां-जहां ये गौएं चरती हुई जायं, वह उनके पीछे-पीछे रहकर उनकी रक्षा करें।

इस प्रकार प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था उत्कृष्ट  जीवन व्यवस्था और चिन्तन दृष्टि की उदात्तता का परिचायक है। नालन्दा शिक्षा केन्द्र के रूप में विख्यात रहा तो इसके  पीछे भारतीय ज्ञान परम्परा की तपःपूत साधना और व्यावहारिक जीवन मूल्यों की संतुलित सरणि महत्वपूर्ण रही।

संदर्भ –

[1] द कम्प्रेहन्सिव हिस्ट्री ऑफ बिहार, मो- 1, पार्ट – 1, के- पी- जायसवाल, पटना, पृ- 230

[2] वसुकृत इंडियन रिसर्च, पृ- 148-149

[3] द कम्प्रेहन्सिव हिस्ट्री ऑफ बिहार, पूर्वोक्त, पृ- 230

[4] वैटर्स ऑन युवाङच्वाङ, ट्रैवल्स  भाग – 2, पृ- 169 तथा लाइफ पृ- 10-11

[5] सर जॉन मार्शल, तक्षशिला मो- – 2, पृ- 515

[6] गीता, 6-17, युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगी भवति दुःखहा।।

[7] श- ब्रा-, 1-5-5

[8] श- ब्रा-, 1-5-8

[9] अपरार्क, पृ- 30-31_ स्मृतिचन्द्रिका, 1, पृ- 26

[10] संस्कारप्रकाश, पृ- 221-25_ संस्काररत्नमाला, पृ- 904-7

[11] अर्थशास्त्र, 1-2, वृत्तचौलकर्मा लिपि संख्यानं चोपयुक्जीत।

[12] रघुवंश, 3-7, स वृतश्चौलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः।

                     लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाघ्मय नदीमुखेनैव समुद्रमाविशत्।।

[13] उत्तररामचरित्, अंक-2, लवकुशयोनिवृत चौलकर्मणोश्च तयोस्त्रयीर्जमितरातिस्नो विद्याः सावधानेन मनसा परिनिष्ठापिताः।

[14] वाटर्स, 1, पृ- 155

[15] रेकर्ड्स अव द बुद्धिस्ट रिलीजन, पृ- 165

[16] आ- गृ- सू-, 16-6, यथर्षि शिखां विदधति।

[17] ग्यारहवीं सदी का भारत, पृ- 168

[18] देखिए, ‘संस्कार’ नामक अध्याय में उपनयन संस्कार और आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य-आश्रम।

[19] मनु-, 2-36

[20] छां- उ-, 6-2-1

[21] जै- गु- सू-, 1-12 सप्तये ब्राह्मणमुपनयीत पंचमे ब्रह्मवर्चसकामम्।

[22] विष्णु पुराण, 3-10-12, ततो{नन्तरसंस्कार संस्कृतो गुरुवेश्मनि—कुर्याद्विद्यापरिहग्रम।

[23] छां- उ-, 6-1-1-3, श्वेतकेतुर्हारूणेय अस। ते ह पितोवाच। श्वेतकेतो बस ब्रह्मचर्यम्, न वै सोम्यास्मत्कुलातो{ननूच्य ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति। स दृ द्वादशवर्ष उपेत्य चतुर्विंशतविर्षः सर्वान्वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय। तं ह पितोवाच। श्वेतकेतो यन्नु सोम्तेंद महामना अनूचानमानी स्तब्धो{सि, उत तमादेशमप्राक्ष्यः।। येनाश्रुतं श्रुतं भवति, अमतं मतम्, अविज्ञात विज्ञातमिसि। कथं नु भगवः म आदेशो भवतीति।

[24] पा- गृ- सू-, 2-3, कस्थ त्वं ब्रह्मचार्यसि। भवत इत्युच्यमाने इन्द्रस्थ ब्रह्मचार्यसि अग्नि राचार्यस्तव अहमाचार्यस्त।

[25] आश्व- गृृ- सू-, 1-20-4

[26] विष्णु पु-_ 3-10-12

[27] हिर- गृ- सू-, 1-5-11

[28] छां- उ-, 2-23-1, द्वितीयो ब्रह्मचर्याचार्यकुलवासी_ 4-9-1, प्राणहाचार्यकुलं तमाचायो{म्युवाद_ 4-10-1, सत्यकामे जाबाले ब्रह्मचर्यमुवास। तस्य ह द्वादशवर्षाण्यग्नीम् परिचचार।

[29] मत्स्य पु-, 26-1

[30] रामायण, 6-123-51, 2-55-9-11

[31] महाभारत, 3-271-48, 1-70-18

[32] मनु-, 2-69

[33] महाभारत, 5-44-6

[34] छां. उ., 4.10.15, उपकोसलो ह वै कामलायनः सत्यकामे जाबाले ब्रह्मचर्यमुवास तस्य ह द्वादश वर्षाण्यग्नीन् परिचचार…।

[35] वही, 4.479

 

                अंशु कुमारी

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