हबीब तनवीर के नाटकों का समग्र मूल्यांकन होना चाहिए– देवेन्द्रराज अंकुर

प्रश्न. समकालीन रंगमंच के परिदृश्य पर हबीब तनवीर की लोक चेतना को एक रंगकर्मी के रूप में आप किस तरह से देखते हैं?

दे.अ. जाहिर है कि हबीब तनवीर का सबसे बड़ा समकालीन रंगमंच में यह महत्व है कि वे अकेले ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने सचमुच के लोक कलाकारों के साथ आधुनिक रंगमंच की पद्धति की शुरुआत की। हम सब लोग अलग-अलग लोक नाट्य शैलियों में नाटक करने का दावा करते हुए कुछ उसमें गीत जोड़ दिया, कुछ संगीत जोड़ दिया, कुछ कहानियां वहाँ  की ले आए, लेकिन हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ बरसों बरस लगातार काम किया। उनकी चीजों को आज के नाटकों के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने खुद लिखे या पश्चिमी नाटकों के अनुवाद किये जैसे ‘मिर्जा शोहरत राय’ मोलियर के ‘बुर्जुआ जेंटलमैन’ का रूपांतर और ‘गुड वुमेन आफ सेन्तजुआन’ का भारतीय रूपान्तर ‘शाजापुर की शांतिबाई’ नाम से या ‘मिड समर नाईट ड्रीम’ शेक्सपीयर के नाटक का ‘बसंत ऋतु का अपना कामदेव का सपना’ तो इस तरह से जो रूपांतरण थे वे पश्चिमी नाटकों से प्रेरित होकर अंततः पूरी तरह से भारतीय हो गए और उनको करने के लिए इन लोक कलाकारों के पास अपना जो कुछ था उसको उन्होंने इसका हिस्सा बना दिया। उदाहरण के लिए उनके बोलने का जो एक लहजा है, फिर उनकी अपनी भाषा,उनका अपना रंग संगीत, नृत्य आदि ये जो सारा कुछ है ये जब उन्हीं कलाकारों के माध्यम से उनके नाटकों में अभिव्यक्ति पाता है तो मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसा लोक रंगमंच है जो उनकी पीढ़ी में और उनकी  बाद की पीढ़ी में, जो हमारी पीढ़ी है उसमें किसी के यहाँ दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे निर्देशक और बहुत से हैं जैसे रतन थियम का काम है। कढाई लाल सिंह काम है। उन्होंने भी अपने यहाँ लोगों के साथ काम किया, लेकिन उन्होंने लोक रंगमंच नहीं किया। वह तो सीधे–सीधे एक आधुनिक रंगमंच है। उस तरह से लोक नाट्य तत्त्वों का जो रूप हबीब तनवीर के यहाँ दिखाई पड़ता है, वह उनके यहाँ नहीं है।

प्रश्न. हबीब तनवीर का रंग व्यक्तित्व एक नाटककार, निर्देशक, अभिनेता आदि विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है। आप उनके किस रूप से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं?

दे.अ. मैं समझता हूँ कि सबसे पहले तो उनके नाटककार का रूप, वे नाटकों के लिए एक ऐसे शिल्प की तलाश करके लाए जो बेशक पश्चिम में ब्रेख्त के यहाँ मिलती है, लेकिन उन्होंने यहाँ की जमीन में उस शिल्प को तलाश किया । आप देखिए कि जब वे ‘आगरा बाजार’ जैसे नाटक का लेखन और मंचन करते हैं तब ब्रेख्त के रंगमंच से उनका सीधा सामना नहीं हुआ था । उसको करने के बाद वे जर्मनी गए । हालाँकि उनकी बर्तोल्ट ब्रेख्त से मुलाकात नहीं हो सकी। जब तक वे वहाँ पहुँचे तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी। लेकिन उन्होंने वहाँ रह कर उनके रंगमंच को देखा। उनके नाटकों कोदेखा। तो एक ऐसी शैली जो लोक संगीत, कोरस, संगीत मंडली का मंच का बैठना बेशक हमारी लोक नाट्य कलाओं में पहले से मौजूद थी, लेकिन लोक नाट्य कलाओं के जो कथानक होते हैं  वो पूरी तरह से उसी परिवेश तक सीमित होकर रह जाते हैं। हबीब तनवीर उनके लिए नए कथानक ढूँढ कर लाते हैं। उनके माध्यम से पूरी तरह से आज की बात को प्रस्तुत करने की कोशिश की। अब जैसे ‘आगरा बाजार’ का उदाहरण ले लें। मैं समझता हूँ कि यह नाटक भारतीय नाट्य लेखन की क्या शक्ल होनी चाहिए?  इसका ये सबसे अच्छा उदाहरण है। इस मायने इतना बड़ा नाटक हो जाता है कि नाटक का जो नायक है जिसके बारे में पूरा नाटक लिखा गया है वो तो कभी मंच पर आता ही नहीं। नज़ीर का कोई प्रवेश मंच पर नहीं है। लेकिन उसके बारे में पतंग वाले, उसके बारे में लड्डू बेचने वाले, उसके बारे में ककड़ी बेचने वाले, उस के बारे में पंसारी की दुकान और यहाँ तक की कोठे वाले के यहाँ भी उसकी गज़लों का गाया जाना यानी एक ऐसा शायर जो जन मानस के इस हद तक रचा बसा हुआ था कि सब आदमी को उसके बारे में सब कुछ पता था जिसमें उसके समर्थक भी थे, उसके विरोधी भी। नाटक में एक लम्बा दृश्य है उसमें कोई विभाजन नहीं है। ना अंकों का विभाजन या छोटे-छोटे दृश्यों का विभाजन। एक लम्बा दृश्यपटल है उस पर एक के बाद एक, एक के बाद एक, ये सारे दृश्य हमारे सामने घटित होते जाते हैं। तो ये एक नई शैली थी उनकी1954 में। उसके बाद तो जब देखते हैं कि ‘घासीराम कोतवाल’ आ गया, ‘जो कुमारी स्वामी’ आ गया, ‘हयवदन’ आ गया, ‘बकरी’ आ गया। हम सबको हबीब तनवीर का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने हमें वो रास्ता दिखाया जो कि भारतीय रंगलेखक का एक आदर्श उदाहरण हो सकता है और यही बात उनके ‘चरनदास चोर’ में भी दिखाई पड़ती है क्योंकि एक बार उनको वो शैली मिल गई थी जो बाद के उनके नाटकों की है।हबीब तनवीर का पूरा काम अलग-अलग प्रयोगों से गुजरता था।

सन 1970 से लगातार मैंने उनके साथ काम किया, लेकिन उससे पहले भी उनका काम जिसमें मेरा दखल नहीं रहा, मुझे उसकी जानकारी है।सबसे पहले उन्होंने भी हर निर्देशक की तरह शहरी अभिनेताओं के साथ काम करना शुरू किया और अंग्रेजी में भी नाटक किया। ‘मुद्राराक्षस’ जैसा नाटक अंग्रेजी में मंचित किया। फिर उन्होंने शहरी और लोक कलाकारों का संगम किया जब हम उनके साथ काम कर रहे थे 1970 में तो  उन्होंने ‘आगरा बाजार’ को फिर से पुनर्जीवित किया। उसमें  कुछ हम लोग थे और कुछ उनके वही छत्तीसगढ़ के लोग तो मिलाकर काम  किया। लेकिन उससे भी उनको संतुष्टि नहीं हुई। अंततः फिर जिस मुकाम पर वे पहुँचे वहाँ पूरी तरह से लोक कलाकारों के साथ काम किया कि उनके पास जो चीज है उन्हीं को किस तरह से बेहतर उपयोग किया जा सकता है प्रस्तुतियों में और फिर वे लोग उनकी जिन्दगी का हिस्सा हो गए। उन्हीं के साथ रहते थे। साल में छह महीने अपने गाँव चले जाते थे खेती करने के लिए और लगभग छह महीने वे उनके पास आकर रहते थे। तो वहीं  पर रहना  है, वहीं  पर काम, अभ्यास होना है वहीं सारा कुछ होना है और लगातार पूरी तरह ये जो एक रिश्ता है मैं समझता हूँ कि निरंतर एक दिशा में काम करने के लिए ये बहुत जरुरी है।

लेकिन ज्यादातर मंडलियो में हम क्या देखते हैं कि लोग किस तरह से घटते हैं और उसके बाद वे अलग हो जाते हैं। फिल्मों में चले जाते है या किसी दूसरे विकल्प में चले जाते हैं। विवाह हो जाता है तो रंगमंच को छोड़ देते हैं। लेकिन यह  संस्था और उनके कलाकार और उनका पूरा काम, काम करने का जो ढंग था उसका ही नतीजा रहा होगा कि वे सब  अंत तक उनके साथ रहे। फिर उनके सब अभिनेताओं की एक-एक कर के मृत्यु होती हो गई। मोनिका जी भी नहीं रही। बस यह भी जिन्दगी का एक हिस्सा है। कहने का अर्थ यह है कि जब तक वे सब रहे हबीब के साथ जमकर काम किया। तो कहना मुश्किल है कि हबीब ने उनको आगे बढ़ाया या उनकी वजह से  हबीब आगे बढ़े। इसे दोनों ही दृष्टियों से देखा जा सकता है।

प्रश्न. हबीब तनवीर के साथ काम करने के आपके कुछ खास अनुभव तथा  साथ ही एक रंग समीक्षक की दृष्टि से उनकी सर्जनात्मक रंग प्रक्रिया पर आपकी राय?

दे.अ. 1970 में उनको भारत सरकार की तरफ से ‘आगरा बाजार’ के बीस  प्रायोजक शो मिले थे। यह नाटक उन्होंने 1954 में किया था। तो जाहिर है कि 16 साल हो चुके थे और दोबारा से उनको तैयार करना था। चूँकि तब तक उस पर नहीं पहुँचे थे कि एक-एक गीत के साथ लगातार काम करते रहें तो उनको कुछ अभिनेताओं की जरूरत थी। हम लोग तब तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़ रहे थे और प्रथम वर्ष की छुट्टियाँ हो गई थीं। पता चला कि हबीब तनवीर कोई नाटक कर रहे हैं और उनको कुछ लोगों की जरूरत है तो हम लोग, कुछ जो प्रथम वर्ष कर चुके थे और कुछ दूसरे वर्ष वाले छुट्टियों में खाली थे। हम सब वहाँ पहुँच गए। जामिया मिलिया में रात में नाटक की तैयारी होती थी कि सब लोग काम वाम खत्म कर के अपनी व्यस्ताओं से मुक्त होकर आयें। खुद हबीब भी उन दिनों कहीं काम करते थे तो वह भी उस सब से मुक्त होकर आते। आप सोचिए कि हम लोग वहाँ सात आठ बजे पहुँचते थे और फिर वे नौ साढ़े नौ बजे आते थे। सारी रात रिहर्सल चलती थी। क्योंकि जाने की व्यवस्था उनकी तरफ से हो जाती थी कि एक जगह पर रहने वाले लोगों के लिए एक टैक्सी कर दी। सब लोग घर पहुँच जाते। तो इस तरह से उस तरफ से निश्चिन्त होकर बड़े आराम से काम होता था। एक तो ये उनके काम करने की खासियत थी। दूसरा चूँकि उन्होंने नाटक एक बार किया हुआ था और उनके कुछ पुराने अभिनेता उनके साथ ही थे  जो उसमें  काम करते थे और जो नये  वाले थे वे उन रोल में थे जो पहले लोगों ने किये थे और अब नहीं रहे मंच पर। तो लगभग प्रस्तुति में उस तरह का परिवर्तन उन्होंने नहीं किया था। जो पहली प्रस्तुति थी उसी को एक तरह से पुनर्जीवित करने का यह  प्रयास था उनकी तरफ से।

मैंने बहुत छोटी-छोटी सी कई भूमिकाएँ एक साथ की थीं। उनकी प्रक्रिया यह थी कि ठीक एक दृश्य के बारे में बता दिया। फिर उनको खुला छोड़ देते थे कि आप इसमें जो भी कुछ जोड़ सकते हो, जिस तरह से भी आगे बढ़ा सकते हो करो। यह  आपको करना है। इस तरह वे एक बहुत ही सहज तरीके से प्रस्तुति को विकसित होने देते थे । उन्हें थोपते नहीं थे। उसमें संगीत पहले से तय है कि  ये संगीत है क्योंकि गाने पहली प्रस्तुति के ही थे। अब भी वही संगीत था और लगभग  संगीतकार भी वही थे। इसीलिए उस तरह की कोई समस्या नहीं थी। बहुत ही आराम से  बिना किसी दिक्कत के काम होता। आमतौर पर हम दूसरे निर्देशकों को देखते हैं कि परेशान हो जाते हैं, गुस्से में आ जाते हैं,  डांटने लगते हैं। ऐसा उनके यहाँ मुझे कभी दिखाई नहीं पड़ा।

वे खुद भी काम करते थे अपनी प्रस्तुतियों में। तो इतने बड़े निर्देशक को किसी भूमिका में देखने का जो अनुभव हम लोगों का रहा अद्भुत था। हम देखते थे कि ‘चरनदास चोर’ में वे हवलदार की भूमिका में होते। ‘आगरा बाजार’ में कभी किसी शायरा की भूमिका में होते थे या पतंग वाले कि भूमिका में हो जाते थे। इस तरफ से  उनके साथ मेरा ये एक महीने का अनुभव था। उसके बाद तो हबीब तनवीर के साथ लगातार मेरा मिलना जुलना होता रहता था। मैं समझता हूँ कि उन्होंने जो काम भारतीय रंगमंच पर किया वह  बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हबीब तनवीर ने अपना रास्ता कभी नहीं छोड़ा।

प्र. ‘आगरा बाजार’ जब पहली बार प्रस्तुत होता है तब उस समय भारतीय रंगमंच पर पश्चिम  के यथार्थ का प्रभाव था। इस सन्दर्भ में यह भारतीय रंगमंच का अपना निजी मुहावरा गढ़ता है। क्या आप मानते हैं कि यह नाटक पूर्व और पश्चिम का प्रभाव ग्रहण करने में सफल रहा?

दे.अ.‘आगरा बाजार’की यह जो पूरी संरचना है तो हम कह सकते हैं कि उसमें यथार्थ  भी है और उसमें लोक भी है। ये दोनों चीजें एक साथ चलती है। यथार्थ  इस अर्थ में कि पूरा बाजार लगा हुआ है जाहिर है वह  उसका पूरी तरह से यथार्थ रूप हमारे सामने रखता है कि जो कुछ किसी दुकान में होना चाहिए, जो कुछ एक पतंग की दुकान में होना चाहिए या जो कुछ एक कोठे पर होना चाहिए तो वह सब कुछ बकायदा बनाया जाता है। उसके विपरीत ये जो सारे लोग हैं, आगरा के लोग या जो ये परिवेश है उसमें नज़ीर की कविता उन लोक तत्त्वों को लेकर आती है।

नज़ीर की शायरी को उर्दू की दुनिया में उतना सम्मान कभी नहीं मिला। लोग उसको कवि मानते ही नहीं थे। लेकिन वह जनता में इतना प्रसिद्ध था कि कोई भी अपने सामान को बेचने के लिए जैसे ककड़ी वाला उनके यहाँ पहुँच गया और  उससे एक नज्म लिखवा कर ले आया। तो उस नज्म को गा-गा कर ककड़ी बेचता था। तो लोग टूट कर पड़ते थे। फिर लड्डू वाला चला गया। उसने देखा ये वहाँ से लेकर आया तो इस तरह से जो एक प्रतियोगिता चलती है बहुत ही मजेदार ढंग से। तो यहाँ लोक तत्त्व इस तरह से जुड़ते हैं कि सचमुच के वे लोग जो लोक से ही संबंध रखतें हैं, जो आम आदमी है। और इसके विरोध में जो वहाँ का एक तरह से बुर्जुआ वर्ग है, संभ्रांत वर्ग है, कोठा है वहाँ पर वही आदमी जायेगें जो थोड़े से उस तरह के हों। तो ये पूरा एक तरह से मिलता जुलता है और जाहिर है कि ब्रेख्त से मुलाकात होने से पहले ही वे उसके बारे में थोडा पढ़ चुके थे और उसके काम को जानते थे। तो उन्होंने वहाँ से भी थोड़ा प्रभाव ग्रहण किया। फिर उन्होंने अपनी लोक नाट्य परंपराओं से भी प्रभाव ग्रहण किया और इन दोनों को मिलाकर एक रूप नजर आया।।

मुझे जैसे भारतेंदु का ‘अंधेर नगरी’ और हबीब तनवीर का ‘आगरा बाजार’ एक जैसे नाटक लगते हैं। वहाँ पर भी बाजार है, वहाँ पर भी इसी तरह की हरकते होती रहती है। तो मैंने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है अपने लेखन में कि इन दोनों नाटक में कुछ सामान्य तत्त्व ढूँढने हों तो ये दोनों नाटक बहुत नजदीक आ जाते हैं और अगर कोई तीसरे नाटक का नाम लेना हो तो वह ‘मिट्टी की गाड़ी’ है जो कि ‘मृच्छकटीकम’ का रूपांतरण है। उसमें भी कभी जुआरी है, कभी शराबी, कभी गणिका है, कभी ये है कभी वो, तो ये जो चरित्र हैं कम से कम भारतीय नाटकों में कभी आते ही नहीं, तो उस तरह से हबीब तनवीर ने अपने नाटकों की शैली, परिवेश बनाने की कोशिश की और उसमें बहुत सफल भी रहे।

प्र. सर, आपने अपनी किताब में लिखा है कि ‘हबीब तनवीर की प्रस्तुतियों को हम किसी भी निश्चित शैली के चौखटे में नहीं बांध कर रख सकते हैं’- तो फिर हम उनकी शैली को क्या नाम दे सकते हैं?

दे.अ. ये कोई जरुरी नहीं है कि उसको कोई नाम दिया जाए। अब वे खुद कहते हैं कि मैं लोक रंगमंच करता हूँ लेकिन उस अर्थ में नहीं करता हूँ जिस तरफ दूसरे लोग करते हैं। जैसे की शहरी कलाकारों को लेकर लोक रंगमंच करना। मैं सचमुच के लोक कलाकारों के साथ उनकी चीजों को लेकर और आधुनिक रंगमंच में उनको किस तरह से आपस में गुँथा  जा सकता है- मैं इस तरह का रंगमंच करता हूँ। और यही उन्होंने अपने आखिरी सालों तक किया। । अब उसको पूरी तरह से लोक रंगमंच कहना चाहें तो भी उसमें कोई समस्या नहीं है। लोक नाट्य शैली के तत्त्वों को लेकर किया जाने वाला रंगमंच कहा जाए तो भी कोई समस्या नहीं है। बात अंततः वही है कि कितनी सारी दिशाओं में एक साथ उन्होंने कठिन काम किया  तो उनके नाटकों का एक समग्र मूल्यांकन होना चाहिए। जिस पर कोई अध्ययन नहीं है। कम से कम मेरे ध्यान में नहीं है। ज्यादातर उनकी प्रस्तुतियों पर ही बात की गई है। इस बारे में भी काम होना चाहिए ।

 

ऋतु रानी
शोधार्थी
महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा

 

 

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