गजानन माधव मुक्तिबोध नयी कविता के शिखर कवियों में से हैं |आप केवल कवि-आलोचक ही नहीं बल्कि कथाकार और संस्कृति चेता भी हैं।   आप अपने प्रशस्त रूप में एक व्यक्तित्व हैं। निराला और पंत का बदलना तथा प्रसाद और मुक्तिबोध का न बदलना भी  चिंतनीय है। आप  बतौर लेखक सदैव उठते रहे। जयशंकर प्रसाद की तरह आप    भी  कम समय में उपलब्धियों के बड़े शिखर पार करते हैं। आपने प्रसाद के अलावा पंत,दिनकर की उर्वशी,सुभद्रा कुमारी चौहान तथा शमशेर पर लिखा। लेकिन निराला पर नहीं लिखा। आपकी मूल भूमि भले ही मार्क्सवादी है परन्तु आपके आभ्यंतर पर जयशंकर प्रसाद की आत्मा छायी हुई है। आपकी जटिल संवेदना और मानसिक संघटन को समझना जरूरी है जोकि प्रसाद जैसा ही है।जिस तरह प्रसाद को कोई विदेशी विचारधारा नियंत्रित नहीं कर सकी उसी तरह मुक्तिबोध भी प्रतिबद्ध न होकर स्वतंत्र व्यक्तित्व सम्पन्न लेखक हैं। आप रचनाधर्मिता को जीवन से जोड़ते हैं। इनके व्यक्तित्व की अनेक छवियां हैं जिनमें छायावाद,प्रगतिवाद,प्रयोगवाद,नयी कविता,मार्क्सवाद

इत्यादि का समाहार है। मुक्तिबोध के अनुसार कविता एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है।प्रसाद की भांति उनके लिए    वह आत्मिक प्रक्रिया है।वह संस्कार की प्रक्रिया है जिसमें हृदय-बुद्धि का साथ-साथ विकास होता है ।कविता कवि संस्कार से पैदा होकर पाठकीय रुचि का भी संस्कार करती है। आपने जीवनानुभूति और काव्यानुभूति को एक माना। इन्होने नयी कविता को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए आधारभूत सैद्धांतिकी उपलब्ध कराई | आपने कविता के माध्यम से यह प्रतिमान निर्मित किया है कि विश्व समस्या को व्यक्ति समस्या के रूप में चित्रित किया जाए | लेकिन इनका ध्यान विश्व समस्या के चित्रण पर ही रहा है | जिस तरह प्रसाद कामायनी में विश्व स्तरीय समस्याओं का चित्रांकन करते हैं उसी तरह मुक्तिबोध भी वैश्विक समस्याओं के प्रति अपनी सजगता का परिचय देते हैं। आपने नयी कविता के उस सौंदर्यशास्त्र के विरुद्ध संघर्ष किया जिसमे केवल संवेदात्मक प्रतिक्रियाओं की कविता लिखी जा रही थी | मुक्तिबोध ने व्यक्तिगत पीड़ाओं के बजाय सार्वजनिक पीड़ाओं के चित्रांकन का आदर्श उपलब्ध कराया | जीवन के साथ सौन्दर्य के संबंध पर आपका विशेष आग्रह था , लेकिन यथार्थ के नाम पर कविता को इतिवृत्त बनाने की जगह उन्होंने उसमे कल्पना और फंटैसी के यथोचित  महत्व का प्रतिपादन किया | मुक्तिबोध का चिंतन एक रचनाकार का चिंतन है जो जीवन प्रक्रिया से इस धरातल पर अनुस्यूत है कि उसको पृथक नही किया जा सकता | आप आत्मसंघर्ष के कवि माने जाते हैं |महाकाव्य की पीड़ा को लेकर विकल रचनाकार थे।

प्रयोगवाद के उपरान्त काव्यचिंतन के क्षेत्र में नई कविता का स्थान स्पष्ट और महत्वपूर्ण है | मुक्तिबोध नयी कविता का आत्मसंघर्ष लिखकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि उनका आत्मसंघर्ष पूरे मध्य वर्ग का संघर्ष है | इन्होने वर्ग संघर्ष की द्वंद्वात्मकता को यथार्थ बोध से जोड़ा है और युग बोध में निहित व्यापक सत्य को ग्रहण करने का का प्रयास किया है | नयी कविता के आत्मसंघर्ष में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष दुर्निवार रूप से जुड़ा है | इन्होने स्वयं यह स्पष्ट किया है कि नयी कविता को तीन क्षेत्रों में एक साथ संघर्ष करना पड़ रहा है | इनके अनुसार नये  कवि के संघर्ष में  स्वत्व  के लिए संघर्ष , अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए संघर्ष  तथा दृष्टि विकास के  लिए संघर्ष का समावेश है | मुक्तिबोध का मानना है कि जो अनुभव हम उठाते हैं वे हमारे संवेदन से टकराते हैं। संवेदन से भाव जाग्रत होते हैं तथा घुलते हुए ‘फैंटसी’ का  रूप धारण करते  हुए अभिव्यक्ति के क्षण में प्रकट होते हैं। इस तरह संवेदन बोधगम्यता से पुष्ट होकर एक विशिष्ट क्षण में अभिव्यक्त हो जाता है जो प्रकारांतर से हमारे संस्कारों की अभिव्यक्ति है।    मुक्तिबोध का कवि संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना से परिपुष्ट हो रहा है | इनका मानना था कि ज्ञान पक्ष  की संवेदना से हटकर उसकी उपयोगिता संभव नही है | मुक्तिबोध भारतीय समाज की जटिलता और संघर्षों से गहराईयों तक परिचित थे | फलतः इन्होने अपने समय के परिस्थितियों  और जीवन मूल्यों में आ रहे बदलावों का व्यापक अनुभव किया था |

मुक्तिबोध प्रसाद परम्परा के कवि आलोचक हैं | ऊपर से देखने पर मार्क्सवाद में आस्था रखने वाले मुक्तिबोध भले ही वैचारिक स्तर पर प्रसाद से विपरीत दिशा में जाते हुए दिखें , परन्तु उनके आभ्यंतर , उनके अंतर्जगत , उनकी संवेदनात्मक जटिलता , बौद्धिक प्रखरता एवं मानसिक बुनावट में घनीभूत एक- रूपता परिलक्षित होती है | इस सन्दर्भ में मुक्तिबोध के आत्मीय कवि त्रिलोचन शास्त्री की यह उद्घोषणा कि “‘मुक्तिबोध ने प्रसाद को बड़ी गहराई से पढ़ा था ; उनकी रचना पर भी प्रसाद चुनौती के रूप में स्थापित हैं | प्रसाद की रचना है ‘लहर’ जिसमे एक कविता है ‘प्रलय की छाया’ उसमे अनेक संध्याओं का वर्णन है | मुक्तिबोध  ने भी ‘अंधरे में’ की कविताओं में अनेक अंधेरों का वर्णन किया है लकिन सब सोंच न पाएंगे कि वह प्रसाद के ही स्कूल से निकला था …..(वर्तमान  जनगाथा (1994)। कवि त्रिलोचन की उक्त बात साहित्यिक परंपरा को समझने की दिशा में एक सार्थक पहल है | मुक्तिबोध की ऐसी अनेक कविताएँ है जिन पर प्रसाद का जादू सिर चढ़कर बोलता है | ऐसी ही एक कविता है ‘-ब्रह्मराक्षस’ जिसकी अनेक पंक्तियों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो मुक्तिबोध के शब्दों में स्वयं प्रसाद बोल रहे हों | इस दृष्टि से प्रस्तुत पंक्तियाँ विचारणीय बन पड़ी हैं—

व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद- सा

प्रसाद में जीना

व जीने की अकेली सीढ़ियाँ

चढ़ना बहुत मुश्किल रहा |

वे भाव -संगत तर्क-संगत

कार्य सामंजस्य-योजित

समीकरणों के गणित की सीढ़ियां

हम छोड़ दें उसके लिए |

उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन

शोध में

सब पंडितों , सब चिंतकों के पास

वह गुरु प्राप्त करने के लिए

भटका |”

क्या कामायनी जिस इच्छा क्रिया-ज्ञान के सामंजस्य को लेकर संकल्पित है, यहाँ मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस उसी भाव संगत , तर्क संगत कार्य सामंजस्य योजित  समीकरणों की तलाश में नही भटक रहा है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ब्रह्मराक्षस जयशंकर प्रसाद का प्रतीक रहा हो और स्वयं मुक्तिबोध उसके शिष्य बनने के आकांक्षी रहे हों , क्योंकि प्रसाद की बेचैन आत्मा के सम्बन्ध में मुक्तिबोध ने लगभग ऐसी बात’ कामायनी: एक पुनर्विचार’ पुस्तक में कही है | वे लिखते हैं कि , “प्रसाद जी में विश्व के महत्तम कलाकार के सभी गुण विद्यमान हैं |….. प्रसाद जी का मूल व्यक्तित्व और उसकी शक्तियां गत्यात्मक हैं , वे कुछ करना ,पाना , घटित करना , विकसित करना और प्रवर्धित करना चाहती हैं। वे कुछ खोज करना , सिद्ध करना और स्थापित करना चाहती हैं | प्रसाद जी आत्मा जीवन के विविध क्षेत्रों में जीवन की विवध स्थितियों में भटकती रहती है , प्यासी-प्यासी | इतनी भटकन , इतना व्यापक पर्यटन , इतनी विस्तृत , विविध और प्रदीर्घ यात्रा हिंदी में किसी और लेखक ने नहीं की | प्रसाद जी एक साथ कवि , दार्शनिक , जीवन-चिन्तक, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंध-लेखक, अनुसंधानकर्ता तथा विद्वान थे | अतीत और वर्तमान के ,उत्कर्ष और अधःपतन के ,अत्यंत आत्मीय क्षणों और ऐतिहासिक पलों की बाह्य जीवन स्थितियों तथा आतंरिक मनःस्थितियों के जो चित्र और चित्रों का वैविध्य उन्होंने उपस्थित किया है , वह अन्यत्र दुर्लभ है | यदि प्रसाद जी अनुभव-संपन्न अनुभूति-प्रवण व्यक्ति थे तो , दूसरी ओर वे बड़े तजुर्बेकार आदमी थे | उनकी चिंतन प्रधान बुद्धि वर्तमान सामजिक और ऐतिहासिक वास्तविकताओं में समान रूप से गतिमान थी | वे यदि एक और गहन रूप से आत्म चेतस थे तो तो निःसंदेह दूसरी ओर विश्व चेतस भी | आत्मचेतना के अतिरिक्त उनकी विश्व चेतना अत्यंत प्रबल थी | वे अपने काल के विश्व जीवन के प्रति जाग्रत थे- इतने कि उस विश्वजीवन के सम्बन्ध में उनका चिंतन निरंतर सक्रिय था |” मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस भी आत्मचेतस और विश्व चेतस है | यदि वह जयशंकर प्रसाद नही है तो उपर्युक्त बातें उस पर कैसे घटित हो सकती हैं ?-

“आत्मचेतस किन्तु इस

व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन …

विश्वचेतस बे-बनाव

महत्ता के चरण में था

विषादाकुल मन |

मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि

तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर

बताता मै उसे उसका स्वयं का मूल्य

उसकी महत्ता |”आखिर इससे बढ़कर दूसरी समानता और क्या हो सकती है?

निश्चय ही ये बातें प्रसाद के सन्दर्भ में हैं | मुक्तिबोध प्रसाद से मिलकर उन्हें उनकी विलक्षण प्रतिभा से परिचित कराकर उनकी संभावनाओं का विशदन करना चाहते थे | उसे ठोस यथार्थ से जोड़ना चाहते थे।  इस सन्दर्भ में मुक्तिबोध लिखते हैं कि “प्रसाद की दार्शानिक ज्ञान-व्यवस्था ऐसी थी जो वर्तमान सभ्यता की विषमताएँ कम करने का उपाय तो बताती थी , किन्तु आमूल क्रांतिकारी परिवर्तन का ध्येय नहीं रख सकती थीं |” इस ध्येय को जोड़ने से उस ज्ञान व्यवस्था का विकास होगा | मुक्तिबोध यही करना चाहते थे , प्रसाद रुपी ब्रह्मराक्षस का शिष्य बनकर , परन्तु उसके पहले ही प्रसाद जी का देहावसान हो गया ।फलतः उनका स्वप्न भी टूट गया।

“वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई 

यह क्यों हुआ ?

क्यों यह हुआ ?

मै ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य 

होना चाहता 

जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य 

उसकी वेदना का स्त्रोत 

संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक पंहुचा सकूँ |”

निश्चय ही यह प्रसाद जी को मुक्तिबोध की हार्दिक श्रद्धांजलि है , तभी तो उनका ह्रदय इस कदर उमड़ पड़ा है | ब्रह्मराक्षस कविता का प्रतीकार्थ इस रूप में लेने से अर्थ की परतें स्वतः खुलने लगती हैं और उसे अभिनव अर्थदीप्ति तथा विलक्षण अर्थच्छ्टा प्राप्त हो जाती है | इसे   हिंदी आलोचना की बिडंबना ही कहा जाएगा कि वह मुक्तिबोध की कविताओं के सही प्रतीकार्थ नहीं निकाल सकी। दूसरी तरफ यदि मुक्तिबोध ‘कामायनी’ को विराट फंतासी और जयशंकर प्रसाद को महान फंतासिक कवि बतलाते हैं तो वे स्वयं भी फंतासी के अच्छे कवि हैं | इस दृष्टि से भी ब्रह्मराक्षस के उपर्युक्त प्रतीक पुष्ट होते हैं | प्रसाद , मुक्तिबोध के प्रिय कवि हैं तभी तो उन्होंने कामायनी पर संपूर्ण  पुस्तक लिखी और उससे सत्रह साल तक जूझते रहे | इस सन्दर्भ में डॉ राम विलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि, “प्रसाद के प्रति उनके प्रबल आकर्षण का कारण यह था कि उनकी समझ में प्रसाद का दार्शनिक चिंतन उनके जीवन के अनुभवों पर आधारित था और इस चिंतन को काव्यरूप देने में भारत के ही दो महाकवि सफल हुए थे , मराठी में संत ज्ञानेश्वर और हिंदी में जय शंकर प्रसाद |” यही कारण है कि मुक्तिबोध कामायनी के दर्शन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं और उसे निर्दोष तथा गतिशील ठहराते हैं | वे लिखते हैं

 कि “उनका दर्शन जीवन समस्याओं के अनवरत चिंतन के फलस्वरूप है | अतएव वह जीवन समस्याओं के निराकरण के रूप में प्रस्तुत हुआ है | उस दर्शन में ,उस दर्शन के चित्रण में कोई दोष नही है | उसमें आडम्बर नही है | उसमें दार्शनिक दंभ नहीं है | और बहुत से स्थानों पर आधुनिक सभ्यता की कुछ मूल विषमताओं पर कठोर और प्रखर काव्यात्मक आक्रमण है | संक्षेप में प्रसाद जी की दार्शनिक अनुभूति उनकी भावना के नेत्र हैं | “ मुक्तिबोध की दृष्टि में कामायनी अथवा श्रद्धा जीवन के वास्तविक निर्माणात्मक पक्ष का सन्देश लेकर आई है |इस तरह वे श्रद्धा की विधायक भूमिका को स्वीकार करते हैं।

मुक्तिबोध की व्यावहारिक समीक्षा उस समय अपने प्रकर्ष पर पहुच जाती है जब वे कामायनी और उर्वशी के दर्शन पर तुलनात्मक ढंग से टिप्पणी करते हैं | आपने लिखा है कि “कामायनी अपनी काव्यात्मकता के लिए जीवन समस्याओं के काव्यात्मक चित्रण के लिए हमेशा प्रसिद्ध रहेगी | उसमें उत्कृष्ट काव्यात्मकता है | उसका दर्शन जीवन समस्याओं पर अनवरत चिंतन के फलस्वरूप है | अतएव वह जीवन समस्याओं के निराकरण के रूप में प्रस्तुत हुआ है | उस दर्शन में उस दर्शन के चित्रण में कोई दोष नहीं है |उसमे दार्शनिक दंभ नहीं है | और बहुत से स्थानों पर आधुनिक सभ्यता के कुछ मूल विषमताओं पर कठोर और प्रखर काव्यात्मक आक्रमण है | संक्षेप में प्रसाद जी की दार्शनिक अनुभूति उनकी भावना के नेत्र हैं | उर्वशी का दर्शन वस्तुतः कामात्मक संवेदनाओं की आध्यात्मिक परिणति के द्योतन के लिए उपस्थित एक दार्शनिक आडम्बर है |”

इस तरह मुक्तिबोध की व्यावहारिक समीक्षाएं भी अतिशय महत्वपूर्ण हैं जो इनके आलोचना कर्म को तार्किक परिणति प्रदान करती है |उन्होंने कामायनी की समकक्षता से उर्वशी को बहुत दूर माना। यह उनके निडर समीक्षक होने का स्वयं सिद्ध प्रमाण है।

सारांश यह है कि गजानन माधव मुक्तिबोध केवल नयी कविता के शीर्षस्थ कवियों में से ही नही हैं अपितु एक प्रखर सिद्धान्तशास्त्री और गंभीर आलोचक भी हैं | आप एक विलक्षण आलोचना शक्ति के धनी कवि हैं | इन्होने ने भले ही अपने आलोचना कर्म का आरंभ व्यावहारिक समीक्षाओं के रूप में किया परन्तु उसे चरम परिणति तक पहुचाने के लिए सैद्धांतिक चिंतन का आश्रय लिया | आपके सिद्धांत निरूपण में आपकी विश्व दृष्टि , काव्य स्वरूप , सत ,चित वेदना का प्रादर्श, ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान, काव्य की रचना प्रक्रिया ,नए साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के प्रतिमान की  निर्मिति तथा सभ्यता समीक्षा का समावेश है | आपने रचना के निष्पत्ति के वास्तविक कारणों की समझ , उसका कलात्मक प्रभाव ,रचना की अंतः प्रकृति तथा ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में अपने आलोचनात्मक प्रतिमान निर्मित किए हैं | यही कारण है कि आप मूल कृति की उन संभावनाओं एवं अर्थ संदर्भों का उद्घाटन करते हैं जो रचना से जुड़कर भावी रचनात्मक क्षमता का उन्मेष करती है |  यह कृति के मर्म तक पहुंचने का वैज्ञानिक माध्यम है।  संक्षेप में मुक्तिबोध के काव्यचिंतन के सदुपयोग द्वारा हिंदी के स्वायत काव्यशास्त्र के  भव्य व्यक्तित्व का प्रासाद निर्मित किया जा सकता है |इन्हें प्रसाद परंपरा के कवि-आलोचक के रूप में विश्लेषित करने से अनेक कठिन संदर्भों को समझने में सहूलियत होती है।

डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय
हिंदी विभाग
मुंबई विश्व विद्यालय

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