प्रदूषण हर तरह का हानिकारक होता ही है उसी के परिणामस्वरूप हमें और कई गम्भीर परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं । वर्तमान में तेजी से बदलते हमारे देश भारत में प्रदुषण के साथ-साथ तेजी से गिरता भू-जल स्तर और वैश्विक स्तर पर कहा जाए तो हो रहे मौसम परिवर्तन तथा उसका कारण ओजोन परत में छेद होना भी एक प्रमुख वजह है । इसी सबकी बानगी है हालिया प्रदर्शित फ़िल्म “कड़वी हवा” जिसके निर्देशक हैं “नीला माधव पांडा”  फ़िल्म एक सकारात्मक सोच का परिणाम है किन्तु यह उतने बड़े स्तर पर सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं की गई जिसका भी एक कारण है फ़िल्म का बजट 10 करोड़ होना जिस वजह से भी यह फ़िल्म दर्शकों को बटोरने के लिए जूझती नजर आई। यह देखा जाए तो हमारे भारतीय सिनेमा कि विडम्बना है कि एक ओर तो हम बड़े-बड़े आयोजन करते हैं, संगोष्ठियाँ करते हैं मौसमों के परिवर्तन पर वहीं दूसरी ओर जब आज के समय में जिस मनोरंजन के पीछे हम भाग रहे हैं तो उस समय के दौर में हमें यथार्थ को प्रस्तुत करती हुई फिल्मों से भागते नजर आना लाजमी हैं । वैसे भी हमारे भारतीय सिनेमा ने कई मोड़ और बदलाव देखे हैं, उसकी दशा और दिशा को इसके सभी तत्वों ने खूब मोड़ा और प्रयास किया अपने रंगों-आब के हिसाब से ढालने का जिसके लिए उन्होंने अपने तर्क लगाए और जिज्ञासाओं को भी आजमाया। इसी का परिणाम है यह फिल्म जो जलवायु परिवर्तन के खतरे पर आधारित है । इस फ़िल्म के प्रचार-प्रसार के समय रेत कलाकार सुदर्शन पटनायक ने फिल्म की रिलीज के अवसर पर ओडिशा के पुरी बीच में विशेष रेत कलाकृति का निर्माण कर इस फ़िल्म के प्रति लोगों में तथा सहृदयों में फ़िल्म के प्रति एक रोचकता पैदा करने का काम किया। फिल्म को शक्ति फाउंडेशन, गेल और पर्यावरण मंत्रालय, वन और जलवायु परिवर्तन का भी समर्थन मिला है। यह फ़िल्म बताती है कि किस तरह इंसानी फितरत के चलते हम जिस तरह प्रकृति का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं और उससे आजिज आ  हमारी पृथ्वी और हमारे चारों ओर के वातावरण पर कितना भयानक असर हो रहा है इसे महसूस करवाती है फ़िल्म ।  फ़िल्म की  कहानी सच्ची घटना है । इसीलिए यह झकझोर कर देने के लिए है ।

चंबल के सुदूर गांव में एक बूढ़ा नेत्रहीन हेदु (संजय मिश्रा) अपने बेटी मुकुंद (भूपेश सिंह) और बहू पार्वती (तिलोत्तमा शोम) और दो बच्चियों के साथ-साथ रहने वाला एक गरीब किसान है और जैसे-तैसे ज़िंदगी बसर करता है ।  हेदु अपने बेटे मुकुंद के बैंक से लिए हुए कर्ज के कारण परेशान है उसे यह तक नहीं पता कि आखिर उसके बेटे के ऊपर कितना कर्ज है? इस राशि का पता लगाने के लिए वह लंबी दूरी तक पैदल-पैदल जा कर बैंक पहुंचता है । मगर उसे असफलता ही हासिल होती है वहीं दूसरी ओर रिकवरी एजेंट है (रणवीर शौरी) जिसे गांव के लोग यमदूत कह कर पुकारते हैं, वह जिस गांव जाता है वहां पैसा वसूलने के चक्कर में कई सारे लोग आत्महत्या कर लेते हैं। रिकवरी एजेंट की एक अलग समस्या है उसे अपने परिवार को उड़ीसा से अपने पास बुलाना है। उसका परिवार ओडिशा के तूफान में बेघर हो गया है। जब हेदु और इस रिकवरी एजेंट का आमना-सामना होता है तो फ़िल्म में एक नया समीकरण सामने आता है। वह यह कि दोनों ही मौसम के मारे हैं। एक दूसरे दृश्य में स्कूल में टीचर अपने बच्चों से मौसम के बारे में पूछता है । तो एक बच्चा मासूमियत से जवाब देता है कि मौसम तो दो होते हैं-ठंड और गर्मी, बारिश तो उसने देखी नहीं। इस छोटे से दृश्य में आप सिहर जाएंगे! यह दृश्य इस फ़िल्म को और रोचक बनाता है। एक दूसरे दृश्य में जब मुकुंद रात को घर नहीं आता तो पार्वती अपने ससुर को उठाते हुए सिर्फ एक बात कहती है – ये घर नहीं आए! इस दृश्य में तिलोत्तमा शोम ने अपने एक ही संवाद से दर्शकों के आंसू निकलवा देने पर मजबूर कर देती है। फ़िल्म में संजय मिश्रा का एक डायलॉग है, हमारे यहां जब बच्चा जन्म लेता है तो हाथ में तकदीर की जगह कर्जे की रकम लिख के लाता है जो उसकी बेबसी देख आपकी आंखों में आंसू ला देता है । संजय मिश्रा के शानदार अभिनय के चलते फ़िल्म उस भयानकता का एहसास करवाती है जो बारिश के ना होने से हमारे किसान झेल रहे हैं । उस पर फिल्म का संगीत भी खास बात है, फ़िल्म में मात्र एक गीत है वह भी अंत में जिसमें  गुलजार साहब के दिल को छू लेने वाले शब्द हैं। इसके अलावा बैकग्राउंड स्कोर भी काबिले- तारीफ़ है, जो कहानी के साथ-साथ चलता है ।

कुल मिलाकर यह कहे तो गलत नहीं होगा नील माधव पांडा ने अपने समय की एक बेहतरीन फिल्म बनाई है  जिसमें भले ही चमक-दमक ना हो। इंसानी फितरत के चलते जिस तरह हम प्रकृति का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे आखिर हमारी पृथ्वी पर और वातावरण पर कितना भयानक असर हो रहा है इसे महसूस करना अत्यंत आवश्यक है। कड़वी हवा का असर या कहें हवा के धोखे का दर्द यह तो फिलहाल दिल्ली से बेहतर कौन बता सकता है। दिल्ली की रफ्तार को कोई कड़वी-तीखी हवा रोक ही नहीं सकती क्योंकि दिल्ली तो अपना मास्क पहन काम पर पहुंच जाएगी। इस बदलती आबोहवा की असली मार तो किसानों पर पड़ती है । सालों-साल ये किसान आसमान की तरफ टकटकी लगाए देखते रहते हैं कि इस बार हवा बदलेगी, बादल लाएगी, बारिश होगी। मगर ज्यादातर बगैर बारिश हुए ही उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है और हर साल इनकी जमीन में आई दरारें बीते साल के मुकाबले थोड़ी और चौड़ी हो जाती हैं, साथ ही कर्जे के ब्याज की रकम भी बढ़ती जाती है। इन सबके बीच जो चीज कम होती है, वो है किसानों की मौत से दूरी। कड़वी हवा इन्हीं घटती-बढ़ती दूरियों की कहानी दिखाती है ।

भारतीय संस्कृति में आजकल पश्चिमी प्रभावों के चलते व्यापकता और जीवन में बहुत कुछ विविधता के साथ  सहेजना और परोसना आम हो चला है। इसी के चलते आर्थिक व्यावहारिकता के सभी आयाम सीधे सिनेमा के मूल रूप को प्रभावित करने लगे  हैं। ऐसे कई सारे प्रयोग भारतीय सिनेमा में चल रहें हैं, लेकिन इसके इतर एक विशेष पहचान को स्थापित करने में दृश्यम प्रोडक्शन ने अनोखा प्रदर्शन किया है। अब तक की इनकी फिल्मों के विषयों को देखने से ये लगता है कहीं न कहीं भारतीय समाज के मूल दर्द को यह छु रहा है। आज जब अनगिनत जिंदगियां बदहाल रूप लिए हुए सरपट दौड़ रही है तो उसमें मनुष्य के मानसिक  स्थिति  को जिन्दा बयां करना एक अनोखी कला है, जो इस फ़िल्म में देखी जा सकती है। इस  प्रोडक्शन की एक ख़ास बात यह भी है कि इसकी फिल्मों  में अधिकतम में संजय मिश्रा का धारदार अभिनय है। क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वार्मिंग मौजूदा समय में दुनिया की सबसे विकट समस्या बन चुकी है ।  इससे होने वाले बदलावों के बाद आने वाली तबाहियों से सारी दुनिया चिंतित है और इसी चिंता को बखूबी दर्शाती है नील माधव पांडा की यह फिल्म’कड़वी हवा । फिल्म कई फिल्म फेस्‍ट‍िवल्‍स में तारीफे बटोर चुकी है। अब जब सर्दी और गर्मी के बीच के मौसम गायब होते जा रहे हैं और  भारत के कई दूरदराज इलाकों में बरसात और बसंत-पतझड़ जैसे मौसम केवल किताबों में रह गए हैं। एक समय था जब बॉलीवुड में प्रयोगधर्मी फिल्में बना करती थीं। उनकी अपनी एक धारा थी पर अब लीक से हट कर फिल्में कभी-कभार ही बनती हैं। ऐसी फिल्में जब आती हैं तो उनकी विशेष चर्चा होना स्वाभाविक है। पिछले दिनों कुछ ऐसी फिल्में बनीं और बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रहीं। जिससे यह भी जाहिर होता  है कि , दर्शकों का नज़रिया अब बदल रहा है और यह मानने का कोई आधार नहीं है कि केवल मसाला फिल्में ही पसंद की जाती हैं ।

      नील माधब पांडा इससे पहले भी पानी की किल्लत को लेकर ‘कौन कितने पानी में’ डॉक्युमेंट्री फिल्म बना चुके हैं। वे उस इलाके से आते हैं जहां पानी की किल्लत की समस्या है। स्वाभाविक है कि पानी और पर्यावरण के मुद्दे उन्हें खींचते हैं। पांडा का कहना है कि यह फिल्म कोई कपोल कल्पना नहीं, बल्कि यथार्थ है और जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे लोगों की हालत को दिखाता है। यह एक चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने के लिए अभी ही तैयार हो जाएं, नहीं तो स्थितियां बद से बदतर होती चली जाएंगी। पांडा ने इससे पहले जो डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई  सन  2005 में वह ग्लोबल वॉर्मिंग पर ही आधारित थी। 2011 में उनकी पहली फीचर फिल्म ‘आई एम कलाम’ आई थी। एक दशक के दौरान ही नील माधब की पहचान एक गंभीर व बेहतरीन फिल्मकार के रूप में बनी है। उनके लिए कहा जा सकता है कि उन्होंने पर्यावरण पर लगातार बढ़ते संकट को लेकर बहुत ही प्रभावशाली फिल्म बनाई है और उन ख़तरों की तरफ भी ध्यान खींचा है, जिनका सामना लोगों को करना पड़ रहा है। यही वजह है कि 64वें नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में ‘कड़वी हवा’ का विशेष तौर पर (स्पेशल मेंशन) जिक्र किया गया। इसे एक उपलब्धि ही माना जाएगा, क्योंकि यह एक ऐसा दौर है, जिसमें मानव-सभ्यता के भविष्य को प्रभावित करने वाले विषयों पर फिल्मकारों का ध्यान नहीं के बराबर है। यही कारण है कि बॉलीवुड से सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे गायब होते देखे जा सकते हैं।

      ‘कड़वी हवा’ की कहानी दो ज्वलन्त मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या यानी बारिश का नहीं होना। फिल्म में सूखाग्रस्त बुन्देलखंड को दिखाया गया है। वहीं, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के बढ़ते जलस्तर की समस्या को दिखाने के लिए ओडिशा के तटीय क्षेत्र को चुना गया है। बुन्देलखंड एक ऐसा इलाका है जो अक्सर सूखे के लिए खास तौर पर चर्चित रहता है । सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज  में डूबे हैं और उनकी आत्महत्याओं की ख़बरें भी लगातार आती ही रहती हैं। यहां तक कि साधनहीन ग्रामीण पेड़ों के पत्ते उबाल कर खाने को मजबूर हो जाते हैं। इस इलाके से किसान बड़ी संख्या में रोजी-रोजगार के लिए बड़े शहरों का रुख करते हैं, दूसरी तरफ इसी कारण यह राष्ट्रीय राजनीति में भी चर्चा का विषय बना रहता है। किसानों की बेबसी और गांव में सूखे की जमीनी हकीकत दिखाती फिल्म ‘कड़वी हवा’ में बॉलीवुड अभिनेता संजय मिश्रा ने शानदार अभिनय किया है। निर्देशक नीला माधव पांडा ने फिल्म ‘कड़वी हवा’ का निर्देशन किया है। नीला माधव इससे पहले ‘आई एम कलाम’ और ‘जलपरी’ जैसी फिल्म भी बना चुके हैं। नीला माधाब को पद्मश्री से भी नवाजा जा चुका है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से हमने अपने पर्यावरण को खराब किया है जिसकी वजह से हवा का रुख बदल गया है। किसान इसकी चपेट में आ रहे हैं और सूखे की मार से फसलें बर्बाद हो रही हैं।

      फिल्म ‘कड़वी हवा’ एक गांव से शुरू होती है, जहां जबरदस्त सूखा पड़ा है। किसानों की खेती बर्बाद हो चुकी है । इस क्षेत्र में बैंक की तरफ से कर्ज वसूली के लिए एजेंट आता है, जिसे वहां के लोग यमदूत बोलते हैं, क्योंकि जब-जब वो गांव में आता है कोई न कोई अपनी जान दे देता है। किसान कर्ज तले दबे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं । ऐसे में एक दिव्यांग पिता अपने बेटे मुकुंद को बैंक के कर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए उस एजेंट से कुछ अनोखी डील कर लेता है, इस डर से कि कहीं ये ‘कड़वी हवा’ उसे भी न निगल ले। दिव्यांग पिता के रोल में संजय मिश्रा हैं और रणवीर शौरी ने वसूली एजेंट के रोल को निभाया है । इस फिल्म में जबरदस्ती का मनोरंजन या नाच गाना डालने की कोशिश नहीं है। शुरू से अंत तक विषय पर गंभीरता बनी हुई है । ये एक आर्टिस्टिक फिल्म है, जिसमें मनोरंजन के मसाले नहीं मिलेंगे फिर भी इसे आपको देखनी चाहिए। ये फिल्म आपको बताती है कि पर्यावरण को हमारी जरूरत है और इसे बचाने कि जिम्मेदारी हमारी है। इस फिल्म में कोई स्टार या मसाला नहीं है, मगर मौजूदा हालात में ऐसी फिल्म की बहुत सख्त जरूरत है ।

तेजस पूनिया
स्नातकोत्तर उत्तरार्द्ध
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय

 

 

 

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