हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में कहानी विधा का अपना विशिष्ट स्थान है । आधुनिक काल ही नहीं प्राचीन काल से हमें पुराणों तथा जातक कथाओं के माध्यम से कहानी के बारे में जानकारी मिलती है । प्राचीन कालीन कहानियाँ जहाँ हमें आदर्शों के पालन के लिए प्रेरित करती थी, वहीं वर्तमान कहानियाँ हमें यथार्थ से अवगत कराती है ।

हिन्दी साहित्य में अब तक जितने कहानीकार हुए हैं , उनमें प्रेमचंद का नाम अग्रगण्य है । उनके कहानी संसार 1911 से 1936 तक फैला हुआ है । प्रेमचंद जी ने पहले उर्दू में लिखना प्रारंभ किया किन्तु बाद में हिन्दी जगत की ओर उन्मुख हुए । उनकी प्रारम्भिक रचना आदर्शवादी विचारधारा को पोषित करने वाली होती थी ,लेकिन कालांतर में उनकी विचारधारा आदर्शवादी, आदर्शोन्मुख यथार्थवादी ,यथार्थोन्मुख आदर्शवादी से होते हुए पूरी तरह यथार्थवादी हो गयी । उनकी सभी कहानियाँ मानसरोवर नामक संग्रह में संकलित है । यद्यपि उन्होंने अनेक कालजयी रचनाएँ की हैं जिनमें गोदान एवं कफन का उल्लेख किया जा सकता है , तथापि ‘पूस की रात’ कहानी भी एक महत्वपूर्ण कहानी है ।

प्रेमचंद जी ने ‘पूस की रात’ कहानी में हल्कू के माध्यम से पूरे कृषक समाज की गरीबी , बेबसी एवं विडंबनापूर्ण  जीवन का मार्मिक एवं यथार्थ चित्रण किया है । हल्कू पूरे कृषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । वह अत्यंत गरीब एवं लाचार किसान है जो कर्ज की बोझ में दबा हुआ है । रात-दिन उसे सहना की घुड़कियाँ सताती रहती हैं । “ हल्कू ने आकार स्त्री से कहा –“ सहना आया है, लाओ जो रुपए रक्खे हैं , उसे दे दूँ : किसी तरह से गला तो छूटे ।“

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी । पीछे फिरकर बोली- “ तीन ही तो रुपए हैं , दे दोगे तो कम्बल कहाँ से आएगा ? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे  कह दो फसल पर रुपए दे देंगे । अभी नहीं है ।“

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया । बिना कम्बल के हार में रात को वह किसी तरह नहीं रह सकता । मगर सहना मानेगा नहीं , घुड़कियाँ जमाएगा , गालियाँ देगा । बला से जाड़ों मरेंगे , बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी भरकम डील लिए हुए ( जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था ) स्त्री के समीप गया और खुशामद करके बोला – “ ला दे , गला तो छूटे । कम्बल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा ।“

हल्कू का जीवन इतना त्रासदीपूर्ण है कि वह कड़ाके की ठंड में बिना कम्बल के हार में माघ-पूस की रात में बिताना तो मंजूर कर लेता है । लेकिन सहना से वह पीछा छुड़ाना चाहता है । ऐसी स्थिति में आप सोंच सकते हैं कि हल्कू को ठंड से ज्यादा सहना का डर है जिसे वह बर्दाश्त करने में अपने-आप को असमर्थ पाता है । पूस की रात में वह ठंड से ठिठुरना तो कबूल कर लेता है लेकिन सहना की घुड़की के सामने घुटने टेक देता है । हल्कू जैसे किसान के खून चूसकर अमीर बने सहना जैसे आज लाखों- करोड़ों लोग हैं जो वातानुकूलित महल में ऐश-ओ-आराम की जिन्दगी जिते हैं जिसे गर्मी एवं ठंड का एहसास भी नहीं होता । लेकिन हल्कू जैसे हाड-तोड़ मेहनत करने वाले किसान एक कम्बल के लिए तरसता है ।

   सरकार की ऐसी कितनी योजना है जो किसानों की आर्थिक मदद के लिए बनी है । जो भी योजना किसानों के लिए बनती है , उसका कार्यान्वयन ऐसे चापलूस और भ्रष्ट अधिकारी करते हैं ,जिसकी राशि किसानों तक आते-आते आधी से भी कम हो जाती है । बहुत सारी योजनाएँ तो कागजों और फ़ाइलों की शोभा बढाती हैं । उसे अमली –जामा पहनाने तक या तो सरकार बदल जाती है या उस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है ।कई बार सहकारी बैंकों के माध्यम से जो खाद- बीज का वितरण किया जाता है वह भी सही समय पर नहीं हो पाता । किसान हमेशा कर्ज के तले दबा रहता है , कभी खाद के लिए , कभी बीज के लिए तो कभी बैल के लिए । जब कभी खेतों में फसलें लहलहाने लगती है तो थोड़े समय के लिए किसानों की आँखों में चमक आ जाती है । लेकिन फसल खलिहान में आते ही सहना जैसे महाजनों की लार टपकने लग जाती है ।

सरकार बैंकों के माध्यम से फसल बीमा योजना लागू करती है । बैंक एवं बीमा कंपनियों को किसान के द्वारा जितना प्रीमियम दिया जाता है । फसलें नष्ट होने पर प्रीमियम जितनी राशि भी नहीं मिल पाती है । किसानों को ऋण वसूली के नाम से इतने प्रताड़ित कर दिए जाते हैं कि उनके घर-द्वार , जमीन-जायदाद तक कुर्की – डिगरी कर दी जाती है , लेकिन कर्ज माफ नहीं किया जाता । सिर्फ दिखावा या छलावा किया जाता है । जबकि बड़े-बड़े उद्योगपति अरबों-खरबों के बैंक से कर्ज लेकर या तो डिफ़ाल्टर घोषित करा लेते हैं या फिर माल्या , नीरव जैसे भगोड़े बनकर विदेशों में ऐश-ओ-आराम की जिन्दगी जिते हैं । सरकार इनके सामने घुटने टेक देती है । लेकिन किसानों से पाई-पाई हिसाब लेकर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर कर देते हैं ।

   किसानों को न केवल समाज एवं शासन-प्रशासन की मार झेलनी पड़ती है बल्कि कुदरत की भी मार झेलनी पड़ती है । कभी अनावृष्टि से फसल चौपट हो जाती है तो कभी अतिवृष्टि से फसल बह जाती है । यदि इन संकटों से फसल बच जाती है तो टिड्डा दल फसलों को चौपट कर जाता है । किसान एक ऐसे निरीह अनाज उत्पादक है जो स्वयं अपने अनाज की कीमत निर्धारित नहीं कर सकता । उनके अनाज का समर्थन मूल्य सरकार निर्धारित करती है , जिनके नुमाइंदे किसानों की मेहनत , लगन एवं कष्टों से अनभिज्ञ रहते हैं । कभी-कभी तो उन्हें उनकी पूरी मेहनताना भी नहीं मिल पाती है ।

किसान के पास खेती छोडकर कोई दूसरा व्यवसाय नहीं जिसे वह अपनाकर अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके । हल्कू जैसे किसान संकटों की मार से मजदूर बनने को मजबूर हो जाता है । ताकि दो वक्त की रोटी तो नसीब हो । ‘उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ में रख दिए । फिर बोली –“ तुम छोड़ दो अब की से खेती । मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी । किसी की धौंस तो न रहेगी । अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो उस पर से धौंस ।“ कहानी के अंत में लेखक द्वारा हल्कू के किसान से मजूर बनने की विवशता को उजागर किया गया है । दोनों खेत की दशा देख रहे थे ।

मुन्नी ने चिन्तित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी ।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात की ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा ।

बी.डी. मानिकपुरी
स्नातकोत्तर शिक्षक हिन्दी
केन्द्रीय विद्यालय
रायपुर

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