मकान के चौहद्दी के ठीक सामने

गंभीर मुद्रा में बैठे

पुरखउत नीब दादा

साक्षी हैं

बसते- उजड़ते

गांव,पाही और

जीवन की सांस के ।

 

कभी पुरवट खींचकर

थके-हरे

पछाहीं बरदों की गोंई

इन्हीं की शीतल छांह में बनी

चरनी पर छंहाती थी

करेजा ठण्डा होने तक ।

बीच-बीच में

नीब दादा

दोनों से ठिठोली करते

मार देते थे निबकौड़ी

कबरा की ऊंची डील पर

तब वह हुरपेटता था

भोलेबाबा के दगुआ

अण्डू सांड़ की तरह ।

कबरा के कोंहाने पर

मुस्कुराते थे

नीब दादा

और पुरुआ पवन के साथ मिलकर

झरझरा देते थे निबौरी

कबरा की पूरी देह पर ।

ठीक जेठ की दुपहरिया में

दादा के बगल में

नधती थी दंवरी

चरर-मरर की आवाज से

खिल उठता था चेहरा

दादा का

खुशी में

कि भर जाएगे कोठिला

इस साल लबालब

धन-धान्य से

पीले होंगे हाथ छोटकी के

बन्ना-बन्नी और शहनाई से

गूंज उठेगा दुआर ।

पाही और गांव जवार की

मनोकामना पूरी होने पर

चढ़ती थी ताई

काशीदासबाबा को

कंडे की मद्धिम आंच पर

कोरी हंडिया में

दादा

आग में उफन कर गिरते दूध की

सोंधी खुशबू को

पूरी सांस भरकर

फेफड़े में समाकर

आह्लादित हो जाते थे ।

दादा

पहले ऐसे ऊंघते नहीं थे

लोग खींचकर मचिया

बैठते थे छांह में

रस – घुघुरी के दौर में

छिड़ती थी  चर्चा

देश-दुनिया की

तब दादा

साक्षी ही नहीं

प्रतिभागी भी हुआ करते थे

रुदन और हास में।

समय की  ठिठोली के बीच

पढ़-अपढ़ा गांव

दादा के पांव छू के

सामने वाली

पगडंडी से रेंगता हुआ

धीरे-धीरे

शहर चला गया

तब से

दादा टकटकी लगाए

निहार रहे हैं

उस हाईवे को

जो कभी उनकी पगडंडी थी।

अब नहीं सुनाई देती

पुरवट और कोल्हू की चर्रमर्र

बरदन की घण्टी

कलुआ की भूंक

चौपाल की जिरह

और ताई की सोन्हाई

सब पर

न जाने किसकी नजर लग़ ग़ई।

नीब दादा

तब से

गुमसुम बैठे हैं

इस आस में कि

यह हाईवे

एक दिन फिर से

बदल जाएगा पगडंडी में

और उनका

भुलाया-बिछुड़ा गांव

इसी राह से आकर

लग जाएगा

करेजा से उनके

और फिर

सारे गिले-शिकवे भूल

दोनों हरिया जाएंगे ।

 

डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय
स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी
केंद्रीय विद्यालय बीएमवाय चरोदा भिलाई (छत्तीसगढ)

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