नामवर सिंह हिंदी की लिखित-वाचिक परंपरा के बड़े आलोचक रचनाकार हैं। आलोचक और रचनाकार का काम निर्भयता के साथ प्रचलित, स्थापित मान्यताओं को चुनौती देना कहा जा सकता है। तमाम असहमति और आलोचनाओं के बावजूद अगर नामवर सिंह स्वीकार्य और अनिवार्य हैं तो इसी तेज के कारण। नामवर की आलोचना से असहमति तो हो सकती है पर अस्वीकायर्ता नहीं। हिंदी का विचारशील समाज नामवर की आलोचना के सहारे से वाद-विवाद-संवाद करते हुए प्रश्न-प्रतिप्रश्न करने की प्रक्रिया सीखता है, उनकी आलोचना सामाजिक की चेतना को बार-बार उद्वेलित करती रही है।
आलोचक के मुख से प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिए गए नामवरसिंह के व्याख्यानों का, उनके संपादित रूपों का पहला संकलन है। जिसमें मौखिक भाषा की ताज़गी में तर्क और विचार की निरंतर उपस्थिति है। आलोचना में दिलचस्पी रखने वालों को मालूम है कि अब तो उनके व्याख्यानों के संग्रह ही नहीं नोट्स भी, नामवर के नोट्स नाम से छप चुके हैं।
नामवर जी का आलोचनात्मक विवेक मुक्तिबोध के समान साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन अर्थात् दुनिया के निकट रहने की ज़रुरत पर निरंतर बल देता रहा है । उनके लिए साहित्य न इकाॅनाॅमिक मैन की ज़रुरतों को पूरा करने का साधन है और ना कलावादी और सौन्दर्यवादी शुद्ध कला। आलोचना उनके लिए आत्मालाप न होकर सांस्कृतिक उपक्रम रही है, जिसमें परम्परा का पुनर्मूल्यांकन है और समय के संकटों की पहचान भी । दुनिया और कला में भविष्य के रास्ता बनाने की बेचैनी का बुनियादी कारण भी यही है। ऐतिहासिक चेतना, नवजागरण और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन पर बातचीत के सहारे उनकी जनवादी चेतना को उद्घाटित करती यह किताब कई मायनों में ज़रुरी सी किताब हो जाती है। साहित्य, विचार, श्रम, विचारधारा, राजनीति, मुक्ति-संघर्ष, और आलोचना आदि से जुड़ी और उनके अंतःसंबंधों पर मुआसिर नज़र इन व्याख्यानों में मौजूद हैं। विचारशील हिंदी समाज में आलोचनात्मक चेतना के निर्माण की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण किताब मालूम होती है।
मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, शिवदानसिंह चैहान की परम्परा में नामवर जी की आलोचना के भीतर मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक विचारधारा निहित रही है। किताब का पहला लेख कार्ल मार्क्स और साहित्य पर केन्द्रित है। यह व्याख्यान प्रगतिशील आलोचनात्मक चेतना और विचार सोपानों की समझ की कुंजी मुहैया कराता है। मार्क्स और मार्क्सवादी दर्शन के निर्माण में दर्शन, अर्थशास्त्र और समाजवाद के साथ ही साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होने की बात कहता है। माक्र्स के लिए साहित्य साधन, हथियार न होकर साध्य रहा और वह अपनी स्वायत्त और स्वतंत्र सत्ता रखता है। साहित्य में सृजनशीलता लोक भाषा से कैसे आती है इसका कारण बताते हुए नामवर सिंह लिखते हैं-“जो लोक है, जो मेहनत करनेवाला है, वही सृजनशील होता है। उत्पादन और सृजन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए जो सामाजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों और आर्थिक मूल्यों का निर्माता है वही सौन्दर्य के मूल्यों का भी निर्माता है। मनुष्य और मनुष्य श्रम की क्षमता से पैदा होने वाला तेज मार्क्सवादी दृष्टि में सच्चा सौन्दर्य है। नामवर सिंह इस बात को मार्क्स में तथा प्रेमचंद, रामचंद्रशुक्ल के साहित्य की अंतर्वस्तु के सहारे स्थापित करते चलते हैं। रहस्यवाद, आध्यात्मिकता, अमूर्तता, शुद्ध कला के सौन्दर्य को मार्क्सवाद खारिज करता है। पूंजीवादी समाज में साहित्य बाजार की वस्तु बनता है दूसरी ओर पूजा की वस्तु, मार्क्सवादी चेतना इनसे समझौता नहीं करती है और पिछलग्गूपन को दमदारी के साथ अस्वीकार करती है। दुनिया में माक्र्स के व्यापक प्रभाव का कारण बतलाते हुए आलोचक का यह मानना है कि -“मार्क्सवाद वह विचारधारा है,जो पूॅजीवाद के खात्मे के साथ पूॅजीवाद की उस प्रवृत्ति का अंत करने का आह्वान करती है, जो साहित्य और कला की दुश्मन है।“
संस्कृति न तो राजनीतिक सत्ता और चेतना का गुलाम रही है और ना ही आम जन संस्कृति के आधुनिक पाठ से रिक्त हो सका है। प्रेमचंद और हिंदी नवजागरण परम्परा की मार्फत साहित्य की अग्रगामी शक्ति को रेखांकित कर नामवर सिंह कोरे आदर्शवादी, रोमानी पूर्वाग्रहों को तोड़ते हैं। बतलाते हैं कि उनके साहित्य की खूबी समय की राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाली सचाई के रूप में रही है। उस साहित्य की ताकत उसके आम जन का पक्ष लेने में है। प्रेमचंद, गांधी, नेहरु और कांग्रेस से बहुत पहले मानव से जुड़े सवालों पर व्यापक विचार करते हैं। समतावादी समाज की तीव्र इच्छा रखते हैं और उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिरोध और विद्रोह के महत्व को जानते हैं, कहते हैं, लिखते हैं। उनके लिए साम्राज्यवाद के विरोध का अर्थ है सामन्तवाद का विरोध। मार्क्सवादी चिंतक के रूप में प्रेमचंद की इस स्थापना का नामवर जी के लिए विशेष महत्व है। प्रेमचंद के महत्वपूर्ण अवदान के रूप में नामवर सिंह कहते हैं कि प्रेमचंद कहा करते थे कि शक्ति संघर्ष में है और साहित्य का लक्ष्य है उस संघर्ष को दुनिया के सामने उजागर करना । इसके अतिरिक्त उनके उपन्यासों की अन्तर्वस्तु के रूप में वर्ग-संघर्ष को, उनकी स्वराज्य की विस्तृत परिभाषा, महाजनी शोषण और किसान और आम जन की संघर्ष चेतना को विस्तार से उद्घाटित किया गया है। परम्परा के प्रगतिशील तत्वों की पहिचान कराने वाली यह किताब विचारशील समाज को बेचैन करती है प्रतिगामी और प्रगतिशील तत्वों की जाॅच परख के लिए।
नामवर सिंह वैज्ञानिक चेतना को नवजागरण की सबसे बड़ी विशेषता के रूप में सामने रखते हैं। कहते हैं इसके बिना किसी भी नये चिन्तन या नई जीवन-दृष्टि का विकास नहीं हो सकता। इसके सहारे नामवर जी रामचंद्र शुक्ल संबंधी खेमेवादी आलोचना ही नहीं मार्क्सवादी आलोचना के पूर्वाग्रहों को भी सामने रखते हैं । रामचंद्र शुक्ल की लड़ाई के हीरो के रूप में साधारण मनुष्य को स्थापित करते हैं। कलावाद के मजबूत संस्कारों पर इस तरह नामवर चोट के सिलसिले का आगाज़ करते हैं। उसे आगे बढ़ाते हैं। दुनिया में विस्तार पाते विचारहीन कलावाद के वर्चस्व से लड़ने के लिए इस बात को याद रखने, याद दिलाने की ज़रुरत से कोई कैसे इंकार कर सकता है।
आचार्य शुक्ल का साहित्येतिहास दर्शन नामक व्याख्यान इतिहास के अंत की घोषणा के समय में इतिहास की सामाजिक मानवीय भूमिका की ज़रुरत बतलाता है, नामवर जी की बात आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि को समझने में ही मददगार नहीं होती वरन् साहित्य और इतिहास के संश्लिष्ठ संबंधों को खोलती है, अन्यत्र भी इन संबंधों की खोज का आधार उपलब्ध कराती है। वे कहते हैं- परिवर्तनों के निरूपण के बिना इतिहास नहीं हो सकता है और परिवर्तनों में जब तक आप परम्परा का निरुपण नहीं करेंगे , नैंरतर्य नहीं दिखाएॅगे, तब तक इतिहास नहीं होगा। समकालीन साहित्य के संकटों कलावाद, रूपवाद, संरचनावाद की उपेक्षा नहीं की जा सकती । परम्परा के पुनर्मूल्यांकन से ही आलोचना के भटकावों को जाना परखा जा सकता है और प्रगतिशील तत्वों की रक्षा की जा सकती है।
परम्परा के पुनर्मूल्यांकन से रचना और आलोचना कैसे समकालीन, संवादी और समृद्ध हो सकती है यह किताब इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। आधुनिकताबोध के नाम पर परम्परा के तेज से घबराने वालों एवं प्राकृतिक समय से मिथकीकृत समय में चैन से रहने वालों को यह किताब झटका देकर ऐतिहासिक समय में लाने का उपक्रम करती है। निश्चय ही यह आलोचना की ऐसी कृति है जो आधुनिक चेतना का निर्माण कर मानवीय चेतना को आलोचनात्मक विवेक उपलब्ध कराती है । जिसके सहारे समकालीनता तात्कालिकता में सिमटी, परंपरा अतीत में कैद, इतिहास अतीत का ब्यौरा नहीं रह सकता।

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समीक्षित पुस्तक- आलोचक के मुख से (आलोचना)-नामवर सिंह (संपा0-खगेन्द्र ठाकुर) राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पटना, पहला संस्करण 2005, मूल्य-125 रुपए

डाॅ0 प्रकाशचंद्र भट्ट
असिस्टेंट प्रो0 हिंदी
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, द्वाराहाट
अल्मोड़ा, उत्तराखंड

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