किसी भी संरचनागत, सांस्थानिक, सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत उपयोगिता, नैतिकता और औचित्य सहगामी के रूप में कार्य करते दृष्टिगत होते हैं और इसी आधारशिला पर नैतिक रूप से इतरलिंगी यौन सम्बन्धों को उचित बतलाया गया, जहां इतरलिंगी यौन सम्बन्धों का अर्थ काफी हद तक उपयोगिता से रहा है। प्राकृतिक रूप से सेक्स की उत्पत्ति यौन प्रजनन की दृष्टि से उचित ठहरायी जा सकती है लेकिन यौन प्रजनन के अलावा साधा गया किसी भी अन्य प्रकार का संपर्क अनुचित ही होगा, प्रकृति ऐसे किसी अनर्गल सिद्धांत की घोषणा नहीं करती। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि निश्चित तौर पर या कह लीजिए घोषित एवम् स्वीकार्य रूप से दो भिन्न ध्रुववत स्थिर लिंग हैं – शुक्राणुधारी अथवा वीर्य उगलते पुरुष और डिम्बाणुधारी अथवा गर्भधारण करती स्त्री।

किन्तु अभी कुछ समय पूर्व यह अकाट्य सत्य, सत्य नहीं रहा क्योंकि लिंग परिवर्तनीय है और एक लिंग के दूसरे लिंग में तब्दील हो जाने की संभावना बनी रहती है। एक यही  वजह है कि एक पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष के मध्य कई सीढ़ियां मौजूद रहती हैं। जैविक रूप से लिंग स्पष्टता की वजह से हम यह कहने के अधिकारी नहीं हो जाते कि अमूक व्यक्ति स्त्री है या पुरुष। क्योंकि कुछ दशाओं में जैविक लिंग निर्धारण के बावजूद यह अस्पष्टता बनी रहती है,अस्पष्टता की इस दशा को मनोविज्ञान में रुचिक्षेत्रीय विपरीतता कहा जाता है। इस अवस्था को प्राप्त, स्त्री या पुरुष विपरीत लिंग के प्रति इस हद तक अनुरक्त होते हैं कि उनका मस्तिष्क अमूक के अनुरूप एकरूपता धारण करने की प्रबल इच्छा से आच्छादित रहता है। शेवेलियर द एओन एक ऐसे ही व्यक्ति थे, वे लुई पंद्रहवें के, अधीन फ्रांस के राजदूत थे, उनकी मृत्यु लंदन में हुई जहां साधारण जन उन्हें स्त्री मानते थे किंतु मृत्यु उपरांत की गई शव परीक्षा से यह सत्य उद्घाटित हुआ कि असल में वह एक पुरुष था।

बहरहाल सेक्स (लिंग) प्रकृति द्वारा इजाद की गई यौन प्रजनन को सुनिश्चित करने वाली युक्ति है और यौन प्रजनन ही प्रकृति का प्राथमिक लक्ष्य भी, परंतु मनुष्य होने के नाते प्रजनन के अलावा भी यौन व्यापारों पर उतना ही विचार करना अनिवार्य है क्योंकि सेक्स निर्धारण प्रजनन हेतु आवश्यक है जिसका माध्यम है संभोग; अर्थात प्रजनन की दृष्टि से संभोग महत्वपूर्ण है तो आनंद और मानसिक संतुष्टि के नजरिए से अनिवार्य।

परंतु सिर्फ स्त्री-पुरुष यौन संबंधों को जायज बताने वाले तत्वों पर ध्यान देने पर हम पाते हैं कि, इस उपयोगिता आधारित संरचनागत वैध बताए जा रहे प्राकृतिक संबंधों के पीछे पितृसत्ता से लैस ऐसे लोगों का मनोविज्ञान कार्य कर रहा होता है, जो किसी ना किसी रूप में सत्ता पर आधिपत्य की लालसा रखते हैं और प्रचलित प्राकृतिक सिद्धांतों के स्थान पर कोई नई चीज रखने की आवश्यकता महसूसते हैं फिर चाहे वह उपयोगिता हो, नैतिकता हो, या फिर वैज्ञानिकता। यह ठीक उसी तरह काम करता है जैसे जेंडर, जाति, धर्म, प्रेम, परिवार, विवाह, कुछ भी अथवा वह सब कुछ जो संस्थागत सामाजिक संरचना की परिधि में आता है। दरअसल इसके सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों परिणाम होते हैं ; उच्श्रृंखलता से बचाव के लिए व्यवस्था आवश्यक है परंतु व्यवस्था यदि दमनकारी हो तो इसके दुष्परिणामों के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए।

“स्त्री की यौन प्रवृत्ति पूरी तरह पुरुष की कामना के प्रति समर्पित है, परिणाम स्वरूप यौन जीवन में मिलने वाले अन्य सुखों से स्त्री वंचित ही रहती है। प्रश्न उठता है कि जब स्त्री के सुख का ख्याल ही नहीं तो इतरलिंगी (स्त्री पुरुष के बीच यौन संबंध) ही क्यों स्वाभाविक हैं???(१)

साफतौर से भाषिक संरचना एवं सांस्कृतिक बनावट पुरुष प्रधान होने के कारण पुरुष के यौन अनुभवों को ही वरीयता दी गई जहां स्त्री सदा दोयम दर्जे की बनी रही और पुरुष वीर्य को धारण कर उसे यौन आनंद के साथ मर्द होने का गौरव प्रदान करती रही।

नि:संदेह संसर्ग को स्वाभाविक मानने के स्थान पर स्त्री पुरुष संसर्ग को सहज मानते हुए सेक्स को एक आपराधिक मनोग्रंथि का रूप दे दिया गया जिसके मूल में यौन हिंसा, व्याभिचार और द्वेष पोषित होने लगा।

यौन आवेग

यौन आवेग से संबंधित कोई सर्वमान्य सिद्धांत नहीं है परंतु प्राचीनतम विश्वासों के अनुसार-यौन आवेग का संबंध निष्कासन की अभिव्यक्ति मात्र है जिसकी तुलना मलाशय तथा मूत्राशय में अनुभव किए जाने वाले यौन आवेग से की जाती है। लेकिन यौन आवेग का संबंध निष्कासन से नहीं, क्योंकि पुरुष वीर्य कोई मलवत पदार्थ नहीं और स्त्री में यौन आवेग का संबंध निष्कासन से जोड़ पाना तो बमुश्किल ही है। यौन आवेगों का संबंध प्रजनन से भी नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि द्विलिंगी प्राणियों में भी यौन आवेग सामान्य क्रिया के रूप में विद्यमान है।

करीब 1897 में मनोविश्लेषक मोल ने यौन आवेग की बनावट के संबंध में अपने सिद्धांत सामने रखें जो इस प्रकार हैं-

“एक वह जो जननेन्द्रियों में स्थानीय कार्य के लिए आवेग उत्पन्न करता है जैसे कि पुरुष में वीर्य स्खलन जिसकी तुलना मूत्राशय के खाली होने से की जा सकती है। दूसरा भाग वह है, जो प्रत्येक जोड़ीदार में एक दूसरे से निकट शारीरिक और मानसिक संपर्क जोड़ने के लिए आवेग उत्पन्न करता है।“

अर्थात् प्रथम भाग को मोल स्खलन और द्वितीय को पूर्व राग की संज्ञा देते हैं। एक भाग प्राथमिक है और दूसरा परवर्ती, किंतु दोनों स्पष्ट रूप से भिन्न है और पृथक रूप से विद्यमान रह सकते हैं। उनके सहयोग से ही पूर्ण तथा स्वाभाविक यौन आवेग की सृष्टि होती है परंतु मोल के सिद्धांत अन्य मनोविश्लेषकों की दृष्टि में स्त्रियों के लिए संतुष्टिपूर्ण होने की अपेक्षा संदेहजनक साबित होते हैं।

मनोविश्लेषक हैवलॉक, यौन आवेग को (जो कि चार चरणों में विभक्त हैं) स्फीति, यौन निर्वाचन, स्खलन, पूर्वराग या पूर्णमैथून के रूप में व्याख्यायित करते हैं, जिससे अधिकांश मनोविश्लेषक सहमत नज़र आते हैं।

यौन बर्बरता

निरंतर विकास की प्रक्रिया में गतिशील मानव प्रजाति के लिए संभोग अनुचित बतलाया जाता है किंतु प्रजनन की दृष्टि से नहीं अपितु ऑर्गेजम के नजरिए से। यही एक वजह है कि यौन आवेग  प्राकृतिक होने के बावजूद संरचना के बंधनों में जकड़े हुए हैं। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि सिर्फ प्रजनन के लिए ही संभोग करना चाहिए अर्थात्  संपूर्ण जीवन काल में मात्र दो या तीन दफा। ऐसा कहकर वे स्त्री-पुरुष संबंधों की पैरवी करते ही दृष्टिगत होते हैं। यौन स्फीति की प्रक्रिया के दौरान कर्ता यौन निर्वाचक के रूप में जिसका चयन करता है अमूक व्यक्ति तरजीहात्मक संभोग के रूप में चुना जाता है। विशेष रुप से ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस प्रकार का निर्वाचन सौंदर्य शास्त्र सम्मत ना होकर अधिक ओजस्विता एवं बढ़कर सामने आने के गुण पर काम करता है। यौन बर्बरता के अंतर्गत कामात्मक अतिवाद अर्थात फेटिशिज़्म शीर्षस्थ है। कामात्मक अतिवाद से तात्पर्य यौन प्रतीकों की अतिशयता से है, जिसके कारण कर्ता में स्वाभाविक यौन व्यवहार के प्रति क्षोभ के साथ घृणा भी पनपने लगती है। इसके अलावा कुछ दशाओं में जंतुओं के संपर्क से, उन्हें थपथपाने आदि से यौन उत्तेजना या परितृप्ति हो जाती है इसे भी मैथुनिक अतिवाद  के अंतर्गत ही शामिल किया जाएगा। परंतु मशहूर मनोविश्लेषक क्राफ्ट एबिंग इसे “मनुष्येतर प्राणी के प्रति यौन अनुराग”(3) की संज्ञा देते हैं। यौन विकृति के रूप में मनोविश्लेषकों ने स्त्रियों में कामचौर्य तथा पुरुषों में काम घर्षण का भी उल्लेख किया है। कामघर्षण रूपी विकृति ऐसे पुरुषों में पाई जाती है जो मानसिक रूप से बुद्धिमान और सामान्य जीवन यापन करने वाले ऐसे पुरुष होते हैं जो भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र में अनजान, अपरिचित स्त्रियों से (यौन अंगों के अतिरिक्त) शरीर भिड़ाने की चेष्टा करते पाए जाते हैं। वहीं कामचौर्य की अवस्था में स्त्री में काम के प्रति घृणा भाव इस सीमा तक विकसित हो चुकी होती है कि वह इस काम की दशा से पलायन के लिए चोरी करने को बाध्य हो जाती है।

यौन विकृति अथवा बर्बरता का सबसे अधिक जटिल रूप है- सहयौन सुख दु:खास्तित्व जिसके अंतर्गत सादवाद और मासोकवाद दो प्रचलित रूप है। सादवादी स्वभाव धारक व्यक्ति, स्त्री स्वभाव का कोमल, डरपोक और सुकुमार व्यक्तित्व का होने के बावजूद अपने साथी के प्रति कठोर अर्थात् शारीरिक एवं नैतिक पतन करने का इच्छाभिलाषी होता है। वहीं दूसरी ओर सादवाद का पूरक अर्थात मासोकवादी, पुरुष प्रकृति का कठोर व्यक्ति होता है। जो नैतिक एवं शारीरिक हिंसा सहने का पक्षधर रहता है।

“सादवाद की परिभाषा सामान्यतः ऐसी यौन भावना के केंद्र में की जाती है जो भावना के केंद्र व्यक्ति को कष्ट; चाहे वह शारीरिक हो या नैतिक पहुंचाने की इच्छा संयुक्त होती है। मासोकवाद एक ऐसी यौनभावना है, जो भावना जागृत ,वारा शारीरिक रूप से दलित किए जाने और नैतिक रूप से अपमानित किए जाने की इच्छा से संबद्ध है।(4)

“फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे” ब्रिटिश उपन्यासकार ई. एल. जेम्स द्वारा रचित सादवाद एवम् मासोकवाद पर अवलंबित मनोविश्लेषणात्मक पहलुओं को प्रस्तुत करता इसी ढंग का उपन्यास है।

शवों अर्थात् मुर्दों के साथ किया गया यौनकर्म भी सहयौन सुख-दु:खास्तित्व के अंतर्गत शामिल किया जाता है। स्पष्टतः: इस प्रकार की दशाओं से ग्रस्त लोग बहुत बड़े अंश में मनोरोगग्रस्त पाए जाते हैं, उनमें किसी ना किसी प्रकार की मानसिक कमजोरी रहती ही है। कुछ एक पुरुष, विशेषतः: पुरुष ही पिगमेलियनवाद रूपी यौन विकृति से भी ग्रस्त पाए गए हैं। दरअसल पिगमैलियन एक मूर्तिकार था जो खुद ही बनाई किसी मूर्ति के इश्क में गिरफ़्तार हो गया था। मूर्तियों के प्रति कामात्मक आकर्षण दरअसल मनोवैज्ञानिक कारण से होता है, जिसे पोर्नोग्राफी कहते हैं। किंतु यह शब्द गलत है क्योंकि इसका प्रचलित अर्थ अश्लील साहित्य प्रेम से लिया जाता है मनोविश्लेषकों के पास इसके लिए कोई उपयुक्त शब्द ना होने के कारण इसी का अधिक चलन है। पिगमैलियनवाद को समझना तब अधिक आसान हो जाता है जब हमारे समक्ष ऐसे व्यक्तियों का जिक्र किया जाता है जो आलंबनत्व अंगों को त्याग किन्हीं अन्य विषयों जैसे स्त्री की छाती, लट अथवा उससे जुड़ी वस्तु; जूते, कपड़े इत्यादि के जरिए ही इच्छा पूर्ति कर लेते हैं। फ्रायड इन्हें “जड़ासक्त” की संज्ञा देते हैं।(5)

उपरोक्त सभी दशाओं में, यौन आवेग के परिणामस्वरूप स्थापित किया गया यौनसंपर्क प्राकृत होते हुए भी प्राकृतिक नहीं क्योंकि उपरोक्त सभी दशाएं स्नायविक गड़बड़ियों पर आधारित है। जिसके तहत कर्ता, यौन बर्बरता को परिणाम देते हुए विकृत यौन संबंध स्थापित करता है। समलिंगी यौन सम्बन्धों के  विषय में फ्रायड ने लिखा है कि-“इन विकृतों के एक समूह ने मानो अपने जीवन क्रम में से लिंगों के भेद को निकाल बाहर कर दिया है। इन लोगों में अपने समान लिंग के व्यक्ति से यौन इच्छा पैदा हो सकती है। उसके लिए दूसरे लिंग का(विशेष रूप से दूसरे लिंग वाले की जननेन्द्रियों का) ज़रा भी यौन आकर्षण नहीं है, और कुछ पराकाष्ठा वाले उदाहरणों में वह उनकी घृणा की वस्तु हो सकती है। इस प्रकार उन्होंने प्रजनन के प्रक्रम को बिल्कुल छोड़ दिया है, यह व्यक्ति समकामी या समलिंगी कामी कहलाते हैं।“(6)

स्पष्टतः समलिंगी अपने साथी का चुनाव सेक्स या प्रजनन के लिए नहीं अपितु सर्वाइवल के लिए करते हैं जिसके गुण दांते के गुरु लातिनी में भी मौजूद थे, जिस विषय में दांते का कहना था कि-“उस युग के प्रसिद्ध और बौद्धिक रूप से उन्नत लोगों में यह विपरीतता पाई जाती थी”(7) विख्यात मूर्तिकार माइकेल एंजेलो कवि मार्लो, बेकन तथा सुप्रसिद्ध मानवतावादी म्यूरे भी इसी भावना से अनुरक्त थे।

बहरहाल क्या स्वाभाविक है और क्या नहीं इस विषय में वैचारिक रूप से हम थोड़े तो समृद्ध हुए हैं, जिस कारण प्रकृति के अनगिनत प्रकारभेदों की स्वीकारोक्ति की दिशा में तादाद बढ़ी है। इसलिए हमें विवेकपूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हुए अमूक कार्य स्वाभाविक है अथवा नहीं के स्थान पर, क्या अमूक कार्य हानिकारक है, पर विचार करना चाहिए। इस क्षेत्र में सामाजिक संरचना का अंधानुकरण करने के बदले यौन शिक्षा पर कार्य किए जाने की अधिक आवश्यकता है, क्योंकि यौन शिक्षा ही एकमात्र साधन है जिसके जरिए समाज को अस्वाभाविक यौन विकृतियों से नहीं वरन् हानिकारक यौन विकृतियों से मुक्त कराया जा सकता है।

इतरलिंगी यौन व्यवस्था एक दमनकारी संरचना

जब बात स्त्री-पुरुष संबंधों की करते हैं तो यहां प्राकृतिक यौन आवेग उतनी मात्रा में कार्य नहीं करता जितना की संरचनागत प्राकृतिक यौन आवेग। संरचनागत यौन आवेग उन्हीं संस्थागत नियमों का प्रतिनिधित्व करता है जिसके जरिए स्त्री देह को यौन संतुष्टि के लिए उत्पादन एवं काम लायक बनाया जाता है। जहां पुरुष, स्त्री देह पर शासक रूप में शासन करता है और स्त्री आजीवन यौन हिंसा का शिकार होती रहती है। इतरलिंगी यौन सम्बन्ध नामक व्यवस्था सिर्फ महिलाओं के लिए निर्मित की गई है जिसका कारण है स्त्री पर पूर्ण नियंत्रण। यौन हिंसा का शिकार ना केवल स्त्रियां बल्कि वे पुरुष भी होते हैं जो मर्दानगी के ढांचे में ना आने के कारण यौनिक या लैंगिक उत्पीड़न से रोजाना दो-चार होते हैं। पुरुष लिंग केंद्रित यौनिकता, स्पष्टतः: ऐसी समाज व्यवस्था को निर्मित करती है जिसमें बलात्कार, यौन शोषण, बालयौन-उत्पीड़न, आक्रामकता इत्यादि कथित स्वाभाविक इतरलिंगी यौन संबंधों के जैसे ही स्वाभाविक रूप से ही घटित होने लगते हैं। इस विषय में प्रभा खेतान लिखती हैं-“यौन जीवन को सत्ता की आक्रामकता से मुक्त करना होगा। यौन जीवन में आनंद की प्रधानता होनी चाहिए सत्ता का खेल नहीं”।(8)

सच कहें तो मातृत्व स्वयं में एक ऐसा धंधा है जिसे यदि सही तौर से पूर्ण निष्ठा के रूप में निभाया जाए तो जीवन के कई वर्षों तक इसमें रात दिन डूबे रहना पड़ता है, शायद इस प्रकार के धंधे में सभी एक समान रुचि ना भी रखते हो, लेकिन समाज द्वारा स्वीकृत इतरलिंगी यौनव्यवस्था के जरिए स्त्री तथा पुरुष दोनों पर ही इसे आरोपित किया जाता रहा है, विशेष रूप से स्त्रियों पर। क्योंकि सांस्कृतिक बोझ को स्त्री कंधों पर डाल, पुरुष सबसे पहले अपनी सहूलियत के अनुसार मुक्त हो जाता है। स्त्री मस्तिष्क पर इतरलिंगी यौन संबंधों की अनुकूलता के विषय में वर्जीनिया वुल्फ तो यहां तक कहती है कि-“स्त्री मानस पर इतरलिंगी यौनव्यवस्था आरोपित करने का परिणाम यह है कि बहुतेरी स्त्रियां ताउम्र ठंडी रहती हैं, जबकि समलिंगी स्त्रियां अपनी यौनिकता को चरम तक पहुंचाने में समर्थ है”(9)

मनोविश्लेषक पर सामाजिक प्रभाव

मनोवैज्ञानिक संस्थाएं भी समाज का ही हिस्सा है और मनोविश्लेषक स्वयं सामाजिक प्राणी। समाज की सुरक्षा व्यवस्था (विवाह), सफल संचालन एवं विकास के लिए व्यक्ति को इतरलिंगी यौन व्यवस्था का ही चुनाव करना होगा। क्योंकि मनोविश्लेषक आरंभ से ही यह स्वीकार करके चलता है कि परिपक्व एवं स्वस्थ मानसिकता की स्त्री स्वतः: इतरलिंगी यौन व्यवस्था की समर्थक होगी। यहां यह स्पष्ट हो जाता है कि मनोविश्लेषक का उद्देश्य ही स्त्री मानस का इस सीमा तक सामाजीकरण करना है कि पितृसत्ता का उद्देश्य पूरा हो सके। फ्रायड महोदय मनुष्य के द्विलिंगी स्वभाव से भलीभांति अवगत थे परंतु सामाजिक नियंत्रण के अत्यधिक दबाव के कारण व्यक्ति इतरलिंगी यौन चुनाव के लिए ही बाध्य होगा, इससे अनजान ना थे। परंतु इस क्षेत्र में हो रहे निरंतर विकास और सामाजिक जटिलताओं की ढीली पड़ती गांठों के कारण इतरलिंगी यौन सम्बन्धों के अतिरिक्त अन्य सम्बन्धों की स्वीकार्यता की संभावनाओं में भी इज़ाफा हुआ है।

स्पष्टतः: संतुलित जीवन की उत्पत्ति यौन आवेगों के,  ‘दमन और अभिव्यक्ति’ की पारस्परिकता से ही मुमकिन है। दमन से तात्पर्य उन असभ्य अथवा सभ्यता के नकारात्मक पक्षों से है जिनके दमनोपरांत सभ्यता के प्रौढ़ अथवा परिष्कृत मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है। हम एक ही समय में कुछ आवेगों का दमन तो कुछ अन्य आवेगों को व्यक्त करते हैं। दमन, प्राकृतिक आवेगों का हनन नहीं अपितु स्वाभाविक एवं अहानिकारक आवेगों की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है। स्त्री-पुरुष यौन संबंधों के पीछे निछान बुद्धि नहीं बल्कि बुद्धि जन्य भावना कार्य कर रही होती है। क्योंकि यौन स्फीति के दौरान, स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे को लुभाने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं अर्थात यौन स्फीति स्वाभाविक प्रतिक्रिया के साथ मस्तिष्क द्वारा संचालित क्रिया है या कहें कि ड्रामाजनित यौन क्रिया। असल में यह एक आरोपण के रूप में कार्य करता है जिसके तहत हम अपने स्वाभाविक गुणों से अधिक का व्याख्यान करते दृष्टिगत होते हैं। परंतु संबंध रूपी व्यवस्था इसी ढंग से कार्य करती पाई जाती है। इतरलिंगी यौन संबंधों के भीतर अनेकों जटिलताएं एवं वर्जनाएं निहित हैं, जिसमें विवाह पूर्व किया गया संभोग, सामाजिक संरचना के बाहर जाकर स्थापित किया जाने वाला अंतर्जातीय संबंध या फिर किसी अन्य धर्म, विपरीत नस्ल आदि के व्यक्ति के प्रति स्नेहासक्त होने को, समाज द्वारा मनोविज्ञान को आधार बनाकर “आनुवांशिक कमजोरियों” को आमंत्रण की संज्ञा देकर नकार दिया जाता है।

साफ तौर से कहा जाए तो शारीरिक बनावट के आधार पर स्त्री या पुरुष का यौन कर्म निर्धारित किया जाता है। असल में उनका मनोविज्ञान अनुभूति के चरम स्तर के आधार पर किसका चयन करता है, को महत्व न देकर सामाजिक संरचना को दिया जाने वाला महत्व कहां तक सही है, प्रश्न ही बना रहता है। स्पष्टतः: संभोग सिर्फ कामात्मक संगति नहीं वरन् निरंतर गहरे होने वाला अकामात्मक स्नेहों का मेल, रूचि, भावनाओं, दिलचस्पियों की एकता, एक मिलाजुला जीवन, आर्थिक मेल और आखिरकार मातृत्व- पितृत्व में हिस्सा लेने की संभावनाओं का परिचायक है। इसलिए संभोग को नैतिक संरचना की जटिलताओं में कसने के उलट, हमें थोड़ा-सा उदार होने की आवश्यकता है। इतरलिंगी यौन संबंधों को सिर्फ प्रजनन के कारण उचित बताना यदि स्वाभाविक है, तो वैज्ञानिक तकनीकों के ज़रिए आईवीएफ या मेडिकल भाषा में कहें तो टेस्ट ट्यूब बेबी जैसी तकनीकों के द्वारा आसानी से प्रजनन की प्रक्रिया को परिणाम दिया जा रहा है। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि हमारे द्वारा शिश्न प्रवेश रहित सम्भोग का प्रचार किया जाए ताकि एलजीबीटी समुदाय और सबसे ज़रूरी एक ऐसे समाज के लिए जो बहिष्कृत है अथवा किन्नर समाज को भी अपने साथी के साथ ज़िन्दगी गुजारने का अवसर मिले सवाल नहीं कि…….सेक्स कैसे करते हो।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  1. प्रभा खेतान, उपनिवेश में स्त्री, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2003, चौथी आवृत्ति:2014, पृष्ठ-141
  2. हैवलॉक एलिस, अनु. मन्मथनाथ गुप्त, यौन मनोविज्ञान, दिल्ली, राजपाल प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ-27
  3. वही पृष्ठ-145
  4. वही पृष्ठ-161
  5. फ्रायड, अनु. देवेन्द्र कुमार, मनोविश्लेषण, नई दिल्ली, राजपाल प्रकाशन, संस्करण-2018, पृष्ठ-255
  6. वही पृष्ठ-254
  7. हैवलॉक एलिस, अनु. मन्मथनाथ गुप्त, यौन मनोविज्ञान, दिल्ली, राजपाल प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ-178
  8. प्रभा खेतान, उपनिवेश में स्त्री, नई दिल्ली,राजपाल प्रकाशन, पहला संस्करण-2003, चौथी आवृत्ति:2014, पृष्ठ-149
  9. वही पृष्ठ-156

सहायक ग्रंथ सूची

  1. अनुराधा बेनीवाल, आजादी मेरा ब्रांड
  2. खुशवंत सिंह, औरतें
आरती
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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